एक पेड़ था / सुनो बकुल / सुशोभित

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एक पेड़ था
सुशोभित


एक पेड़ था।

था क्या अब भी है। किंतु उसका होना मुझसे जाने कहां गुम हो गया था।

वह मुझे अभी फिर मिला।

वह यानी वह पेड़ भी और उसका होना भी!

आठ साल पहले जब मैं भोपाल में रहता था तो रोज़ उसे देखता।

भोपाल में पिपलानी चौराहे पर रायसेन रास्ते से एक मोड़ आपको भेल कम्पाउंड में ले जाता है। यही सड़क फिर आगे चेतक पुल से मिल जाती है।

मेरा दफ़्तर चेतक पुल को लांघने के बाद आता था। था क्या आज भी आता है!

भेल कम्पाउंड की उसी सड़क पर वह पेड़ था।

एक अजब तरह का झुकाव उसकी काठ की देह में था। शाखाओं में एक अनूठी त्वरा का ऐंठन। ऐसा मालूम होता, जैसे वह झुककर धरती को छू लेना चाहता हो और उसकी प्रशाखाएं यों लगतीं, जैसे उसने किरणों का मुकुट पहन रखा हो।

एक पेड़ एक शिल्प भी हो सकता है, वास्तव में हर पेड़ एक शिल्पकृति की तरह है, एक क़िस्म का वुडन क्राफ़्ट, यह उसी को देखकर मुझे समझ आया था।

रोज़ मैं उसे देखता, कभी रुककर उसे निहारता, कभी उसकी तस्वीरें उतार लेता, और फिर चल देता।

फिर एक दिन मैं भोपाल से इंदौर चला गया।

भोपाल शहर की जो हज़ारों-हज़ार चीज़ें मेरे रोज़मर्रा का हिस्सा थीं, वे सब किसी संदूक़ची की तरह खो गईं!

आठ बरस बीते, फिर लौटना हुआ। फिर वही रायसेन रास्ता, वही पिपलानी चौक, वही भेल कम्पाउंड, वही चेतक पुल।

और तब मुझको फिर दीखा वह पेड़!

वैसा ही पीठ के बल झुका हुआ, जैसे एक दुनिया से दूसरी दुनिया में जाने के लिए व्यग्र और आकुल।

ठिठककर ठहर गया।

मैं तो भूल ही गया था कि यह पेड़ यहां था! जबकि रोज़ इसे देखता था, रुककर निहारता था।

अब लौटकर आया हूं तो फिर दीखा है, फिर दीखा है तो फिर याद हो आया है।

किंतु अगर मैं यहां लौटकर नहीं आता तो? तब क्या मुझे कभी जीवन में इस पेड़ की याद आती?

तब ऐसी जाने कितनी जगहें हैं, जहां मैं अब लौटकर कभी नहीं जाऊंगा। ऐसी जाने कितनी चीज़ें हैं, जिन्हें अब देखना नहीं होगा! जिनको पहले ही भुला चुका हूं।

क्या वे कभी मुझे इसके लिए क्षमा करेंगी?

मैंने उस पेड़ को देखा। अब वह बहुत घना हो गया है, उसके आसपास का भूदृश्य भी परिवर्तित हो गया है, किंतु वह था वही।

मैं उसके पास गया और उससे कहा-

"भाई, कैसे हो? इतने दिनों बाद मिले। माफ़ करना मैं तुम्हें भूल गया था।

"तुम आठ सालों से यहीं खड़े हो? ऐसा तो नहीं कि मैं ही इन आठ सालों में दुनिया घूम आया हूं, लेकिन कई जगहों पर मेरे क़दमों के निशान ज़रूर छूटे!

"जाने कितनी बार धूप खिली और मैं रोया, तब भी तुम यहीं खड़े रहे थे?

"जाने कितनी बार बरखा हुई और मेरा मन विषाद से भरा रहा, तुम अपनी जगह से टस से मस नहीं हुए?

"जाने कितने स्वप्न देखे, मनोरथ बांधे, अरमान संजोए, जाने कितनी चाहनाओं में खटा। तुम इतने दिनों में किन संवेगों से गुज़रे, बतलाओगे?

"धूप, हवा, पानी तो तुमने आठ साल से सहे ही होंगे, लेकिन उनसे मैं ही कहां बच सका। मेरे पास भाषा है, मैं बोल पा रहा हूं, तुम्हारी बोली कैसे सुनूं?

"मेरे भाई, मेरे पास स्मृति का यह जो संचय है, आज तुम्हें फिर से देखकर वह और उसके परिप्रेक्ष्य उजले हो गए हैं, लेकिन तुमने अपने अहसासों का अलबम कहां छुपा रखा होगा? बोलो? बताओ मुझको।"

वह कुछ बोला नहीं, किंतु मैंने अनुभव किया कि शायद वह कहना चाहता था कि जिस दिन मेरी तरह सड़क किनारे खड़े होकर निर्लिप्त भाव से लोगों को आते-जाते, जीते-मरते, बढ़ते-खटते, याद रखते-भूल जाते देखोगे तब समय का यह जो अंतराल है और दुनिया की यह जो स्फीति है, उसकी समझ तुम्हारे भीतर एक दूसरा ही क्षेत्रफल रच देगी, मेरे बंधु। जब परिंदे तुम्हारे भीतर नीड़ बनाएंगे तो अंधड़ में दोलते हुए भी ग्लानि से भर जाओगे, कहीं चलकर जाना तो दूर!

उसने कहा ना कहा, मैंने सुना ज़रूर, सुनकर सिर ज़रूर हिलाया। तब विदा लेकर आगे बढ़ गया।

रास्ते में ही तो वह पेड़ खड़ा है, अब फिर रोज़ की उससे दुआ-सलाम है।

कौन जाने कितने दिन इस शहर में रहूंगा। लेकिन अगर यह शहर छोड़कर गया, तब भी उसे भूलूंगा नहीं, जैसे पहले भूल गया था, इतना ज़रूर अब तय कर लिया है।

मरने के बाद अगर भूल गया, तो उसका दोष अवश्य आज ही से मेरी अस्थियों पर एक ऋण की तरह स्वीकार किया जाए।