वेदविद्या / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
क्या ही अचरज की बात है कि आधुनिक काल के दो सबसे बड़े वेद विशारद काशी में नहीं जयपुर नगरी में हुए हैं!
एक गुरु, दूसरे उनके पटुशिष्य।
गुरु का नाम है- पं. मधुसूदन ओझा। शिष्य का नाम है- पं. मोतीलाल शास्त्री।
गुरु ने वेदविद्या के सांगोपांग अनुशीलन में जीवन खपा दिया और कोई 280 ग्रंथों की रचना की। इसमें अकेले नासदीय सूक्त पर दस ग्रंथ हैं।
शिष्य ने गुरु-परम्परा को आगे बढ़ाया और उनका समग्र कार्य कोई 80 हज़ार पृष्ठों में संकलित है। इनमें शतपथब्राह्मण पर उनका विशद भाष्य है।
गुरु और शिष्य दोनों का ही समग्र साहित्य प्रकाशित होना अभी तक शेष है।
जब डॉ. राजेंद्र प्रसाद भारत के महामहिम राष्ट्रपति थे, तब भारतीय परम्परा और संस्कृति के प्रणम्य विद्वान डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का राष्ट्रपति भवन में साधिकारपूर्वक आना-जाना लगा रहता था।
डॉ. अग्रवाल के मन में पं. मोतीलाल शास्त्री की विद्वत्ता के प्रति अत्यंत सम्मान था। उन्होंने महामहिम से अनुरोध किया कि वे शास्त्री जी के व्याख्यान राष्ट्रपति भवन में कराएं और अन्य विद्वानों को भी उनके श्रवण-लाभ के लिए आमंत्रित करें।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का आग्रह महामहिम टाल नहीं सकते थे, और महामहिम का मनोरथ भला भारतवर्ष में कैसे सिद्ध ना होता?
इस प्रकार 14 से 18 दिसम्बर 1955 को राष्ट्रपति भवन में पं. मोतीलाल शास्त्री के पांच व्याख्यान हुए।
इन व्याख्यानों ने तत्कालीन विद्वानों को चकित कर दिया था। स्वयं महामहिम, जो अपने आप में भारतीय परम्परा के महनीय विद्वान थे, भी वेदों के प्रति पं. शास्त्री की सर्वथा मौलिक और अभिनव दृष्टि से प्रभावित हुए और उन्होंने आग्रह किया कि इस मेधा को संरक्षित किया जाए।
महामहिम के आग्रह पर फिर "व्याख्यान-पंचक" शीर्षक से वे पांच व्याख्यान पुस्तकाकार प्रकाशित किए गए, जिनकी अत्यंत विद्वत्तापूर्ण भूमिका डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखी। महामहिम की प्रशस्ति तो ख़ैर उसमें है ही।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल को इससे अरुचि होती थी, और उनका वह विषाद उचित ही था, कि आधुनिक विद्वानों में उत्तर-मीमान्सा कहलाने वाले वेदान्त यानी औपनिषदिक दर्शन के प्रति जैसी रुचि थी, वैसी वेदों के प्रति नहीं थी, जबकि उनके मतानुसार औपनिषदिक मनीषा का मूल वेदों में ही था।
पं. मोतीलाल शास्त्री के व्याख्यान राष्ट्रपति भवन में करवाने के पीछे भी उनका वही मनोरथ था कि आधुनिक दर्शन की धारा वेदों में संचित ज्ञाननिधि की ओर मुड़े।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल की मूल आपत्ति यह थी कि जब तक वैदिक शब्दावली को ही ठीक से नहीं समझा जाएगा, उसमें निहित अर्थों तक पहुंचना तो सम्भव ही नहीं हो सकता।
उनका मत था कि शब्दार्थ-चेतना की हानि से इस दिशा में भ्रम का वातावरण निर्मित हुआ है। उदाहरण के तौर पर इंद्र को मेघ मानकर उसके स्वरूप की व्याख्या करना और अग्नितत्व की व्याख्या भौतिक अग्नि के रूप में करना, ये अनेक भ्रमों को जन्म देता है।
1950 के ही दशक में डॉ. आनंदकुमार स्वामी ने वैदिक प्रतीकों की व्याख्या की थी, जिसे उन्होंने लातीन भाषा में "फ़िलोसॉफ़िया पेरेनिस" कहकर पुकारा।
डॉ. आनंदकुमार स्वामी का मत था कि वेदों को भारतीय विद्या के बजाय वैश्विक विद्या के रूप में देखा जाना ही उचित है। साथ ही वे यह भी कहते थे कि सनातनधर्म या सनातनी आत्मविद्या किसी एक काल, देश या जनविशेष की नहीं, समस्त मानवजाति की जन्मसिद्ध सम्पत्ति है!
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के मतानुसार पं. मोतीलाल शास्त्री की वेदों के सम्बंध में सर्वथा मौलिक स्थापनाएं ये थीं कि--
प्रजापति का जो स्वरूप ब्रह्मांड में है, वही पिंड के प्रत्येक पर्व में है।
मधुविद्या और उद्गीथविद्या को जाने बिना छांदोग्योपनिषद् का अर्थ स्पष्ट नहीं हो सकता।
सूर्यविद्या ही सामविद्या है और इसी का उपनिषद छांदोग्य है।
प्राण ही सृष्टि का महान देवता है और प्राण से ही समस्त देवों का स्वरूप बनता है।
और अग्नि, वायु, आदित्य के रहस्य का परिचय प्राणविद्या का ही परिचय है।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इन सभी बातों को "व्याख्यान-पंचक" की अपनी सुदीर्घ भूमिका में उद्धृत किया है।
आप कह सकते हैं कि जयपुर के इन दोनों वेद-विशारदों का तत्व-चिंतन मूलत: इसी प्राणविद्या के स्वरूप पर केंद्रित है।
दिल्ली के रज़ा फ़ाउंडेशन द्वारा प्रकाशित किए जाने वाले त्रैमासिक जर्नल "समास" के नवीनतम अंक में पं. मोतीलाल शास्त्री का एक निबंध "सम्वत्सरमूला-अग्नीषोमविद्या" शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इस निबंध में भी उसी प्राणन-स्वरूप पर चिंतन है।
पत्रिका के सम्पादक श्री उदयन वाजपेयी द्वारा हाल ही में भोपाल में मुझे "समास" के चार अंक भेंट किए गए, जिसमें पं. मोतीलाल शास्त्री का वह निबंध देखकर यह सब बातें स्मरण हो आईं।
तब सोचा कि इसे स्वयम् तक सीमित क्यूँ रखूं, सुधी पाठकों को इससे अवगत करा दूं। सम्भवतया किसी के लिए यह सूचना उपयोगी सिद्ध हो। अस्तु, यही विचार कर यह आयोजन सम्पन्न हुआ।
इति शुभम्।