भारतीय इतिहास के दो श्रीहर्ष / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
भारतीय इतिहास में दो "श्रीहर्ष" हुए हैं।
दोनों कवि। दोनों का संबंध कन्नौज से। लेकिन दोनों के बीच बहुत अंतर भी।
पहले वाले श्रीहर्ष हैं सम्राट हर्षवर्धन, जिनके दरबार में महाकवि बाण हुए। बाण के "हर्षचरितम्" ने उन्हें संस्कृत साहित्य में अमर कर दिया है। कन्नौज उनकी राजधानी थी : कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की नगरी।
हर्ष का एक अन्य नाम "शिलादित्य" है और उन्होंने स्वयं "नागानन्द", "रत्नावली" एवं "प्रियदर्शिका" नामक नाटकों की रचना की है। उनका काल था कोई सातवीं शताब्दी।
दूसरे हुए, माघ और भारवि की परंपरा के कवि "श्रीहर्ष"। वे "नैषधकार" भी कहलाते हैं। "नैषिधीयचरितम" महाकाव्य उनकी ख्याति का आधार है : नल-दमयन्ती के प्रणय का काव्य-आख्यान। बनारस एवं कन्नौज के गहड़वाल शासकों विजयचन्द्र एवं जयचन्द्र की राजसभा को वे सुशोभित करते थे।
एक अन्य दार्शनिक ग्रंथ उनका लब्धप्रतिष्ठ है "खण्डनखण्डखाद्य", जिसमें उन्होंने अद्वैत मत का प्रतिपादन किया। उनका काल था कोई बारहवीं शताब्दी।
राजा हर्षवर्धन अमूमन हर्षवर्धन नाम से ही पुकारे जाते थे किंतु बाणभट्ट ने "हर्षचरितम्" में कुछेक जगह उन्हें "श्रीहर्षवर्धनम्" कहा है। संस्कृतविद् श्री एम.आर. काले ने उनकी "रत्नावली" का अंग्रेज़ी अनुवाद किया तो उसमें भी कृतिकार का नाम "श्रीहर्षदेव" दिया। यह उपाधिसूचक "श्री" था, नामांश का "श्री" नहीं, फिर भी भ्रम में डाल देने का पर्याप्त कारण।
एक अन्य पुख़्ता कारण है इतिहासज्ञ केएम पणिक्कर की पुस्तक। कन्नौज और हर्षवर्धन के शासनकाल का ऐतिहासिक ब्योरा देने वाली यह पुस्तक वर्ष 1922 में बंबई के डीबी तारापुरवाला संस एंड कंपनी ने छापी थी। पुस्तक का शीर्षक है : "श्रीहर्ष ऑफ़ कन्नौजा।"
मेरे एक विद्वत मित्र कवि श्रीहर्ष के प्रेमी थे। यह पुस्तक "नैषधकार" पर एकाग्र है, यह समझकर उन्हें मैंने भूलवश इसे भेंट कर दिया। उन्होंने तुरंत मेरे भ्रम का संधान किया कि "नैषधकार" नहीं, ये तो सम्राट हर्षवर्धन हैं।
भ्रम का उन्मूलन हुआ और फिर यह लज्जास्पद भी लगा कि एक नृपेन्द्र, दूजा कवीन्द्र, दोनों के काल में कोई छह सदियों का अंतर, फिर भी भ्रम हो गया। वह अक्षम्य था।
विद्वत मित्र के समक्ष मन ही मन प्रतिज्ञा की कि आगे ऐसी भूल ना होगी। ईश्वर मेरी इस प्रतिज्ञा की रक्षा करेंगे और मुझे कभी "श्रीहीन" ना होने देंगे, यह आशा है।