ऐ रंगरेज़ मेरे / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
उसने उस दिन सफ़ेद लिबास पहना था ! अपने रंगरेज़ के लिए ही तो !
झक - सफ़ेद, हंस के पाँख जैसा धवल, के जिस पर दाग़ लगाने के लिए रंग का एक छींटा भी काफ़ी था, पर उसे क्या पता था कि उस दिन बारिश होगी !
एक दिन पहले ही तो उसकी सगाई हुई थी। बारिश उस दिन भी हुई थी, लेकिन एक दूसरे तरह की । यों तो होली भी जली थी कहीं मन के भीतर, गुलाल भी गालों पर बेसाख़्ता बिखर गई थी उसकी हया की ।
उसने उससे ऐवैं ही पूछ लिया था : 'आपने कोई तोहफ़ा दिया भी या नहीं, ऐसे तो बड़े दानवीर बने फिरते हैं ।'
जिस पर उसने कहा था, 'दिया है । जाकर देख लीजिए अपने कमरे में ।' कमरे में जाकर देखा उसने और देखती ही रह गई, वहाँ तो उसकी तस्वीरों की एक तरतीब थी !
यही वह लम्हा था, जब वो सोच में डूब गई ।
कौन थी वो लड़की, जो उन तस्वीरों में जी रही थी?
वो ख़ुद तो शोख़ थी, चंचल और बेपरवा । वह कौन था उसकी परवाह करने वाला? उसके दुपट्टे को सम्हालने वाला । उसके बीते बिखरे लमहों को चिमटी की मदद से चुन-चुनकर कहीं टाँकने वाला, जैसे वो लम्हे नहीं तितलियाँ हों ।
जैसे उन तस्वीरों के भीतर कोई और 'तनु ' हो, उससे बिलकुल अलग, बिलकुल जुदा, और उसे पता ही नहीं था कि वो वहाँ पर एक अरसे से जी रही थी, जैसे आईने के भीतर अक़्स होता है, आपसे मुख्तलिफ़, मगर आपका ही ।
उस दिन वो सोच में डूब गई थी कि वो क्या है और उसका आईना कौन है।
शाम हुई !
एक चिराग़ बुझा, दूसरा जला !
वो सोचती ही रही। सोच की एक लौ उसके भीतर थिर हो गई । फिर जैसे रोशनी का एक बगूला उट्ठा ! मोहब्बत का मंसूबा उसके मन में जम गया ।
उसे लहंगा दिलाने के लिए भी उसके रंगरेज़ को ही उसके साथ जाना था। वो जो उसकी ‘ना’ में भी अपनी ख़ुशी ढूँढ़ चुका था । उसका मन बेचैन था, लेकिन अभी, ऐन इसी वक़्त, वह केवल यही सोच रही थी कि वे दोनों फिर साथ होंगे। शायद आख़िरी बार। शायद आख़िरी दिन । लेकिन, इससे क्या फ़र्क पड़ता है ?
कोई फ़र्क नहीं पड़ता !
उसने उस दिन सफ़ेद लिबास पहना, शायद अपने रंगरेज़ के लिए ही ।
झक-सफ़ेद, शफ़्फ़ाक लिबास, के जिस पर दाग़ लगाने के लिए रंग का एक छींटा भी काफ़ी था, पर उसे क्या पता था उस दिन बारिश होगी !
बारिश हुई। भरपूर हुई!
और तब उसने बेसाख़्ता तड़पकर उससे पूछा :
'ऐ रंगरेज़ मेरे,
ऐ रंगरेज़ मेरे
ये कौन-से पानी में तूने
कौन-सा रंग घोला,
के दिल बन गया
सौदाई ?”