मीठे लगे दो नैना / माया का मालकौंस / सुशोभित

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मीठे लगे दो नैना
सुशोभित


सुरेश वाडकर की आवाज़ में भी अपने तरह की चाशनी है । गाढ़ी, मीठी, दो तार वाली। पुराने समय में वो घर पर मुरब्बे वग़ैरा बनाते तो दो तार देखकर ही चाशनी की तैयारी का फ़ैसला करते थे । उस कवायद में शहद होता, इत्मीनान का तरन्नुम भी होता। इत्मीनान से ही लोरियां भी सुनाई जातीं। सुरेश वाडकर ने भी फ़िल्म ओमकारा में एक लोरी गाई थी, जागे को सुलाने नहीं सोए को जगाने, इस एहतियात के साथ कि जिसे जगाना है उसे ख़लल ना हो।

“किरनों का सोना

ओस के मोती

मोतियों का मोगरा

तेरा बिछौना

भर भर के डालूं

गुलमोहर का टोकरा !”

इसे वाडकर ने यूं गाया है कि वो गुनगुनाती सी धुन नींद में पैठ जाए, नींद ही बन जाए कि जागना तो है मगर नींद नहीं टूटना चाहिए । फिर दुखान्त बतलाता है कि वो तो अब जाग ही नहीं सकती, हमेशा सोती ही रहेगी । तब ये लगता है कि वो अपने भीतर किसी को जगाने को ये लोरी गा रहा था। कोई अपराधी दुखियारा । शेक्सपीयर का संशयी !

जब वो फ़िल्म आई, मैं तेईस का रहा होऊंगा । सपने देखने की वय । एक सपना तब यह भी था कि ये लोरी गाकर किसी सोयी को जगाना है ऐसे कि कहीं जाग ही ना जाये। गाना तो मुझे आता नहीं । किंतु वाडकर, पालेकर इन दाक्षिणात्यों के कंठ में जो कोटर है कोमल फुसफुसाहटों से भरा, वो मेरे पास भी । तो अगर निचले सुर पर गुनगुनाऊं तो गा ही सकूं ।

फिर कल गाकर देखा । अपने लिए ही गाया था पर अपने तक रखा नहीं ।

जिसकी नींद उचटी थी, उसको भेज दिया। क्या वह उसे रुचा होगा ? वो तो कोयल से बतकही करती, पूरी पूरी रात गाकर थकती नहीं, उसकी आवाज़ में भी, चाशनी का दो तार !

“जो चाहे ले लो

दशरथ का वादा

नैनों से खोलो जी रैना !”

गा तो दिया पर कुछ जगा क्या? ऐसे कि वह इतना सुंदर हो इतना विकल कि जागे ही ना । या जागे भी तो जागे किसी नींद में |