जगी धड़कन नई / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
सोनू निगम का बेहद मीठे तरन्नुम वाला गाना है :
अभी
मुझ में कहीं
बाक़ी थोड़ी सी है ज़िंदगी
किन्तु इसमें वास्तविक चमत्कार दूसरी पंक्ति में होता है :
जगी
धड़कन नई...
गीत के कशीदे में मोती की तरह टँका यह जो 'जगी' लफ़्ज़ है, वह पहली पंक्ति में आए 'अभी' लफ़्ज़ की और भी सुरीली पुनरावृत्ति की तरह प्रकट होता है। सोनू की आवाज़ के विशिष्ट स्थापत्य में श्रोता के लिए उस 'अभी' का लुत्फ़ ताज़ादम था, इसलिए इस 'जगी' से वह और सुख पाता है।
ध्यान रहे कि संगीत में सुख 'रिकलेक्शन' से आता है। छंद, तुक, काफिया, धुनें, साज़ आदि सभी किन्हीं आवृत्तियों और दोहरावों को एक सांगीतिक-संरचना में निबद्ध करने का भरसक जतन करते हैं। यह संरचना जितनी दिलक़श बनती है, गाना उतना ही कानों को सुमधुर लगता है।
'अभी' को 'जगी' जैसे रिकॉल करता है, उसी तरह 'मुझ में कहीं' को 'धड़कन नई'- और भी मुलायम सुर के साथ। 'कहीं' की तुलना में 'नई' और कोमल-ध्वनि है। इस तरह गीत का मुखड़ा दो ठीक बराबर के हिस्सों में ऐसे टूट जाता है :
अभी = जगी
मुझ में कहीं = धड़कन नई
बाक़ी थोड़ी सी है ज़िंदगी = जाना ज़िंदा हूँ मैं तो अभी
ये तीनों ही पद समान मात्राओं वाले, सूत-सूत बराबर हैं। तीनों में अर्थसाम्य और भावसाम्य भी है और कविता के स्तर पर दूसरा पद पहले में प्रस्तुत विचार को सुंदरता से आगे बढ़ाता है। ज़िंदगी का थोड़ा-सा बाक़ी रहना ज़िंदा होने के यक़ीन में तब्दील हो जाता है।
इसके बाद क्रेसेंडो है :
कुछ ऐसी लगन
इस लम्हे में है
ये लम्हा कहाँ था मेरा...
(तीनों पंक्तियों में 'ल' वर्ण की कमनीय अनुप्रासिकता!)
जिसके उपरान्त किंचित संकोच और आत्ममंथन से शुरू हुआ गीत आकाश छूने लगता है :
अब है सामने, इसे छू लूँ ज़रा
मर जाऊँ या जी लूँ ज़रा...
खु़शियाँ चूम लूँ या रो लूँ ज़रा
मर जाऊँ या जी लूँ ज़रा...
गीत का यह पुरोवाक् इतना सुन्दर और सुरीला है कि वो अपने में संरचनागत रूप से सम्पूर्ण है। इसके बाद आने वाले दोनों अंतरे केवल उसका राग-विस्तार ही करते हैं, वो फिल्म की कहानी के काम के हैं।
सोनू ने यह गाना तब गाया था, जब उनकी माँ मृत्युशैया पर थीं। वे रोज़ उन्हें थोड़ा-थोड़ा जाते हुए देखते थे। कभी-कभी उनमें जीवन की लौ जग उठती तो आशाओं के दीये जल जाते कि शायद अंत अभी निकट नहीं। उसी मनोदशा में- संयोग से- उन्हें यह गाना मिला : "अभी, मुझ में कहीं, बाक़ी थोड़ी सी है ज़िंदगी..." इसमें उनके जीवन का राग मिला हुआ था। और इसे उन्होंने कण्ठ से नहीं, अपने अंत:करण के निविड़ सूनेपन का मंथन करके गाया!