ग्रैविटी / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित

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ग्रैविटी
सुशोभित


स्पेस-फ़िल्में घर लौट आने की व्याकुलता से भरी होती हैं। उनमें व्यक्त होमसिकनेस ही ठीक तरह से उन्हें परिभाषित करती है। यह ह्यूमन-कंडीशन पर एक टिप्पणी भी है कि हज़ार जतन करके स्पेस में जाने के बाद मनुष्य पृथ्वी पर लौट आने के सिवा कुछ और नहीं चाहता। इस चलने और लौटने से उसके भीतर जो काउंटर-पर्सपेक्टिव बनता है, वही उसके अस्तित्व की निशानदेही है। किंतु है वह वैसा यायावर, जिसे विश्रांति नहीं। उसकी बेचैनी अंतरिक्ष में जाकर मुखर हो जाती है।

अल्फ़ॉन्सो कुआरोन की फ़िल्म ग्रैविटी में इसे एक दूसरे परिप्रेक्ष्य से दोहराया जाता है, किंतु स्पेस-फ़िल्मों की नाभिनाल होमकमिंग से ही जुड़ी होती है। इंटरस्टेलर समूची ही इस विकलता से भरी थी, अलबत्ता वो फ़िल्म कभी धरती पर लौटकर नहीं आ पाती है। द मार्शियन में तो ख़ैर यह है ही। अपोलो-13 में वापसी का वही सौंदर्यशास्त्र है। एड-एस्ट्रा का क्लिफ़र्ड मैकब्राइड ही एक ऐसा साइंस-फ़िक्शन किरदार मुझको याद आता है, जो धरती पर लौटकर नहीं आना चाहता, उलटे उसके प्रति वितृष्णा से भरा है। अलबत्ता यह इसलिए है ताकि उसके बेटे रॉय में इसकी नाटकीय-परिपूरकता व्यक्त हो सके- वह पूरी फ़िल्म में धरती से दूर होने के अवसाद से भरा रहता है। यह भूमिका ब्रैड पिट ने निभाई थी। एड एस्ट्रा के एक रिव्यू का शीर्षक मुझको याद आता है- ब्रैड पिट सल्किंग इन आउटर स्पेस!

क्या मनुष्य सच में ही कभी स्वयं को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त कर सकेंगे? यहाँ गुरुत्वाकर्षण शब्द अपने भौतिक आयामों में नहीं है। फ़िल्म ग्रैविटी को उसका यह शीर्षक कैसे मिला- अगर पूछें तो अचरज से भर जाएंगे- क्योंकि पूरी फ़िल्म में एक बार भी ग्रैविटी शब्द का उपयोग नहीं किया जाता है और इस पर गार्डियन के पीटर ब्रैडशॉ की टिप्पणी है कि वास्तव में यह फ़िल्म लगभग समूची ही ज़ीरो ग्रैविटी में फ़िल्माई गई है- यह ग्रैविटी के अभाव को चित्रित करती है। इसके बावजूद पृथ्वी का गुरुत्व एस्ट्रोनॉट्स को अपनी ओर खींचता रहता है। ये भौतिक के बजाय मनोगत रूढ़ि है। पृथ्वी के पाँच तत्व, तीन आयाम, वायुमंडल, देशकाल, जलवायु से चेतनागत-रूप से जुड़ चुका मनुष्य क्या स्वयं को उसके खिंचाव से कभी अलगा सकता है? यह तो अपनी जैविक-संरचना को ख़ुद बदल देने जितना दुष्कर है।

ग्रैविटी 2013 में आई थी। इंटरस्टेलर 2014 में आई। दो साल के अंतराल में इन दो फ़िल्मों ने साइंस-फ़िक्शन को एक दूसरा आयाम दिया था, उसके मेयार को ऊँचा कर दिया था। साइंस-फ़िक्शन के मुरीदों में ग्रैविटी बनाम इंटरस्टेलर की बहस चलती रहती है, अलबत्ता वो एक निरर्थक जिरह है। किंतु इनकी विशिष्टता यह है कि अपने स्वरूप में साइंस-फ़िक्शन होने के बावजूद इनके माध्यम से जो रूपायित होता है, वह मनुष्य का अंतर्तम है- उसका इनर-लैंडस्केप।

ग्रैविटी की कहानी यह है कि एक्सप्लोरर नामक एक स्पेस-शटल हबल स्पेस टेलीस्कोप को असिस्ट कर रहा है, उसके दो एस्ट्रोनॉट स्पेसवॉक के ज़रिये उस पर हार्डवेयर-अपग्रेड कर रहे हैं, तभी स्पेस-जन्क के एक रेले के कारण उनको मिशन-अबॉर्ट करना पड़ता है। डिब्री-क्लाउड से उनका स्पेस-शटल तहस-नहस हो जाता है। वे मैन्ड-मनुवरिंग-यूनिट का इस्तेमाल करके अंतरिक्ष में तैरते हुए इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन तक की यात्रा करते हैं। लम्बा सफ़र है और वो आपस में बातें करने लगते हैं। पुरुष का नाम मैट कोवल्स्की है और स्त्री का नाम रायन स्टोन। सूर्योदय हो रहा है। धरती पर इस समय आठ बजे होंगे। तुम इस वक़्त धरती पर क्या किया करती थीं?- मैट रायन से पूछता है। कुछ नहीं- वो जवाब देती है- मैं निरुद्देश्य ही ड्राइव करती रहती थी और संगीत सुनती थी। क्यों? क्योंकि मेरी चार साल की बिटिया की एक हादसे में जब मौत हुई, तब मैं ड्राइव ही कर रही थी। स्पेस में तुम क्यों आई हो? क्योंकि यहाँ ख़ामोशी है।

धरती पर सुबह की जो सैर निरुद्देश्य हुआ करती थी- ख़ुद से दूर भागने की ग़रज़ से भरी- अंतरिक्ष में वह धरती पर लौट आने की विकलता में मंज गई है। धरती पर रहते-रहते जब आपका दिल कचोटने लगता है तो आप अंतरिक्ष में चले जाते हैं- धरती पर लौट आने की बेचैनी को फिर से पा लेने के लिए। क्यों? धरती पर जीवन तो वैसा ही है, जैसे पहले था। लेकिन धरती के सिवा कोई और घर भी कहाँ? जाने क्यों हम हमेशा घर लौट जाना चाहते हैं।

ग्रैविटी के अंतिम दृश्य- जिसमें मैट कोवल्स्की को खोने के बाद रायन स्टोन का स्पेस-कैप्सूल धरती पर एक झील में आ गिरता है- की तुलना एवॅल्यूशन की प्रक्रिया से की गई है। रायन किसी जलचर की तरह तैरकर सतह पर आती है, उभयचर की तरह कीचड़ में रेंगती है, चौपाये की तरह घुटने मोड़ती है, मनुष्य की तरह सीधे खड़े होकर रंगों और जीवन से भरे इस आश्चर्यलोक को निहारती है- जिसका नाम पृथ्वी है। अंतरिक्ष में धरती से मिले एक आवारा रेडियो सिगनल पर कुत्तों के भूँकने और बच्चों के रोने की आवाज़ सुनकर वह रो पड़ी थी- अब वह उस धरती पर लौट आई है, जहाँ पर सुबह को चिड़ियाएँ चहचहाती हैं।

फ्रांसीसी दार्शनिक रोलाँ बार्थ अकसर चीज़ों में छुपे दूसरे मायनों को उद्घाटित करते थे। जैसे कि कुश्ती के मुक़ाबले का मक़सद जीतना नहीं चीज़ों को समझना होता है, गैंग्स्टर कहानियाँ आपको उत्तेजित नहीं करतीं सोचने पर मजबूर करती हैं, क्रांति मिथकों को जन्म नहीं देती, उनकी हत्या करती है, समुद्रयात्री स्वतंत्र नहीं बंधक होता है- आदि इत्यादि। इसी तर्ज़ पर कह सकता हूँ कि साइंस-फ़िक्शन फ़िल्में एडवेंचरस नहीं होतीं, फ़िलॉस्फ़िकल होती हैं, उनमें एक्सपेडिशन नहीं होता, यात्राएँ नहीं होतीं, वापसियाँ होती हैं। और स्लो होमकमिंग का एक संगीत निरंतर उनके भीतर मद्धम आवाज़ में गूँजता रहता है।