चारुलता का गीत / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
"आमि चिनी गो चिनी तोमारे/ओ गो बिदेशिनी।"
(मैंने तुम्हें पहचान लिया, चीन्ह लिया, ओ दूर-देश की वासिनी)
'चारुलता' (1964) का गीत है यह। गीतकार, रबीन्द्रनाथ ठाकुर (यह फ़िल्म भी रबीन्द्रनाथ के उपन्यास 'नष्ट नीड़' पर आधारित है), संगीतकार, स्वयं सत्यजित राय, और गायक, हमारे अपने किशोर कुमार। परदे पर है बांग्ला सिनेमा की रुपहली जोड़ी सौमित्र चटर्जी और माधबी मुखर्जी।
कथा का प्रसंग यह कि चारुलता (माधबी) के मन में अमल (सौमित्र) के प्रति अनुराग की कोंपल फूटी है, प्रीति का पलाश उसके भीतर अनुरक्त हुआ है। किंतु बाधा यह, कि वह विवाहिता है, परिणीता है। पति उसका- किंचित निरुद्वेग, अधेड़ सही- किंतु भलामानुष है और चारु को उससे कोई प्रत्यक्ष शिक़ायत नहीं। किंतु अमल उसके जीवन में प्रवेश कर चुका है। युवोचित उल्लास, कोमल भावना और कल्पनाशीलता से भरपूर, सुदर्शन, काव्यानुरागी, खिलंदड़। युवा होकर भी किशोरों-सी उत्फुल्लता, जो परिपक्व चारुलता के हृदय में हठात घर कर जाती है।
चारुलता की उसी दुविधा की मनोदशा के बीच फ़िल्म में यह गीत आता है। अमल को दूर-दूर तक अनुमान नहीं कि चारु के मन में क्या है। आखर ख़ूब बाँच लेता है वह, किंतु चारु की आँखों की भाषा पढ़ना उसे अभी नहीं आती। चारु की आँखों में एक उत्कट आमंत्रण है, तो दोष की अपराध-चेतना भी है। हृदय में उसके एक गीत फूटा है, किंतु उसे व्यक्त वह कर नहीं सकती, और अपने भीतर इतना विराट जलप्रपात कैसे सम्भाले, यह भी बड़ी कठिनाई। यही दुविधा उसे आपादमस्तक मथती रहती है। कभी लगता है, जैसे अभी उसके रुलाई फूट पड़ेगी, कभी यह कि जैसे उल्लास के तमाम सोते उसके भीतर ही से फूटते हैं। गीत के भीतर यह सब अंतर्कथा की तरह चलता रहता है।
किंतु अंतत: यह किशोर कुमार का गीत है। किशोर के स्वर में ऐसा पौरुष है, जो अन्यत्र दुर्लभ। एक ऐसी मनुहार, रति-चेष्टा, आमंत्रण, जिसकी उपेक्षा असम्भव। किशोर का स्वर हतवीर्य नहीं है, हाँ ख़ूब पका फल गाछ पर ही गल जाए, रागात्मकता की वह अतिशय परिपूर्णता अवश्य उनमें है, जो अकसर निर्वेद के स्तरों को छू आती है। यही कारण है कि किशोर के स्वर में हमें उत्फुल्लता और उत्कटता दोनों एक साथ- साइमलटेनियसली- मिलेंगे। आप इन दोनों स्वरों-अंतरों को चाहें तो एक साथ चीन्ह भी सकते हैं (ग़ौर करें, जब इसी गीत में किशोर गाते हैं : 'देखेची हिृदीमाझारे')।
किशोर का स्वर किसी बेपरवाह आखेटक की भांति सृष्टि की समस्त रति-व्याकुल नवयौवनाओं का आवाहन करता है, किंतु जब वे बरबस उसकी ओर खिंची चली आती हैं तो पाती हैं कि प्रथम पुरुष तो अन्य पुरुष में बदल गया है, कि वह तो वस्तुत: विदेह है, अनंग है, कि दिशाएँ ही उसकी देह है, कि बस हवा में उसका स्वर टंगा रह गया है : गाढ़ा और गझिन, और अब वही उनका अभीष्ट होगा, वही उनके अभिसार का आलम्बन भी।
किशोर के स्वर से अगर गहन प्रीति आपके मन में होगी तो चाहे जितने सुखों की कल्पना कर लें, अंतत: मन में उत्तर-राग की अवसन्नता ही लेकर लौटेंगे- फ़िल्म 'चारुलता' का यह गीत भी हमारे मन में यही अहसास जगाता है।