चौथा दृश्य / अंक-5 / संग्राम / प्रेमचंद

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स्थान : गुलाबी का मकान।

समय : दस बजे रातब

गुलाबी : अब किसके बल पर कूदूं। पास जो जमापूंजी थी वह

निकल गई। तीन-चार दिन के अन्दर क्या-से-क्या हो गया। बना-बनाया घर उजड़ गया। जो राजा थे वह रंक हो गए।

जिस देवी की बदौलत इतनी उम्र सुख से कटी वह संसार से उठ गयीं। अब वहां पेट की रोटियों के सिवा और क्या रखा

है। न उधर ही कुछ रहा, न इधर ही कुछ रहा। दोनों लोक से गई। उस कलमुंहे साधु का कहीं पता नहीं न जाने कहां लोप हो गया। रंगा हुआ सियार था।मैं भी उसके छल में आ गई। अब किसके बल पर कूदूं। बेटा-बहू यों ही बात न पूछते थे, अब तो एक बूंद पानी को तरसूंगी। अब किस दावे से कहूँगी, मेरे नहाने के लिए पानी रख दे, मेरी साड़ी छांट दे, मेरा बदन दाब दे। किस दावे पर धौंस जमाऊँगी। सब रूपये के मीत हैं। दोनों जानते थे, अम्मां के पास धन है। इसलिए डरते थे, मानते थे, जिस कल चाहती थी उठाती थी, जिस कल चाहती थी बैठाती थी। उस धूर्त साधु को पाऊँ तो सैकड़ों गालियां सुनाऊँ, मुंह नोच लूं। अब तो मेरी दशा उस बिल्ली की-सी है जिसके पंजे कट गए हों, उस बिच्छु की-सी जिसका डंक टूट गया हो, उस रानी की-सी जिसे राजा ने आखों से गिरा दिया हो,

चम्पा : अम्मां, चलो, रसोई तैयार है।

गुलाबी : चलो बेटी, चलती हूँ। आज मुझे ठाकुर साहब के घर से आने में देर हो गई। तुम्हें बैठने का कष्ट हुआ।

चम्पा : (मन में) अम्मां आज इतने प्यार से क्यों बातें कर रही हैं, सीधी बात मुंह से निकलती ही न थी। (प्रकट) कुछ कष्ट नहीं हुआ, अम्मां, कौन अभी तो नौ बजे हैं।

गुलाबी : भृगुनाथ ने भोजन कर लिया है न?

चम्पा : (मन में) कल तक को अम्मां पहले ही खा लेती थीं, बेटे

को पूछती तक न थीं, आज क्यों इतनी खातिर कर रही हैं?(प्रकट) तुम चलकर खा लो, हम लोगों को तो सारी रात पड़ी है।

गुलाबी रसोई में जाकर अपने हाथों से पानी निकालतीहै।

चम्पा : तुम बैठो अम्मां, मैं पानी रख देती हूँ।

गुलाबी : नहीं बेटी, मटका भरा हुआ है, तुम्हारी आस्तीन भीग जाएगी।

चम्पा : (पंखा झलने लगती है।) नमक तो ज्यादा नहीं हो गया?

गुलाबी : पंखा रख दो बेटी, आज गरमी नहीं है। दाल में जरा नमक ज्यादा हो गया है। लाओ, थोड़ा-सा पानी मिलाकर खा लूं।

चम्पा : मैं बहुत अंदाज से छोड़ती हूँ, मगर कभी-कभी कम-बेस हो ही जाता है।

गुलाबी : बेटी, नमक का अंदाज बुढ़ापे तक ठीक नहीं होता, कभी-कभी धोखा हो ही जाता है। (भृगु आता है।) आओ बेटा, खाना खा लो, देर हो रही है। क्या हुआ, कंचनसिंह के यहां जवाब मिल गया?

भृगु : (मन में) आज अम्मां की बातों में कुछ प्यार भरा हुआ जान पड़ता है। (प्रकट) नहीं अम्मां, सच पूछो तो आज ही मेरी नौकरी लगी है। ठाकुरद्वारा बनवाने के लिए मसाला जुटाना मेरा काम तय हुआ है।

गुलाबी : बेटा, यह धरम का काम है, हाथ?पांव संभालकर रहना।

भृगु : दस्तूरी तो छोड़ता नहीं, और कहीं हाथ मारने की गुंजाइश नहीं ठाकुर जी सीधे से दे दें तो उंगली क्यों टेढ़ी करनी पड़े।

भोजन करने बैठता है।

चम्पा : (भृगु से) कुछ और लेना हो तो ले लो, मैं जाती हूँ अम्मां का बिछावन बिछाने।

गुलाबी : रहने दो बेटी, मैं आप बिछा लूंगी।

भृगु : (चम्पा से) यह आज दाल में नमक क्यों झोंक दिया? नित्य यही काम करती हो, फिर भी तमीज नहीं आती?

चम्पा : ज्यादा हो गया, हाथ ही तो है।

भृगु : शर्म नहीं आती, उसपर से हेकड़ी करती हो,

गुलाबी : जाने दो बेटा, अंदाज न मिला होगी। मैं तो रसोई बनाते?

बनाते बुङ्ढी हो गई, लेकिन कभी-कभी नमक घट-बढ़ जाता ही है।

भृगु : (मन में) अम्मां आज क्यों इतनी मुलायम हो गई हैं। शायद ठाकुरों का पतन देख के इनकी आंखें खुल गई हैं। यह अगर इसी तरह प्यार से बातें करें तो हम लोग तो इनके चरण धो-धोकर पियें।(प्रकट) मैं तो किसी तरह खा लूंगा, पर तुम तो न खा सकोगी।

गुलाबी : खा लिया बेटा, एक दिन जरा नमक ज्यादा ही सही। देखो बेटी, खा-पीकर आराम से सो रहना, मेरा बदन दाबने मत आना। रात अधिक हो गई है।

चम्पा : (मन में) आज तो ऐसा जी चाहता है कि इनके चरण धोकर पीऊँ इसी तरह रोज रहें तो फिर यह घर स्वर्ग हो जाये। (प्रकट) जरा बदन दबा देने से कौन बड़ी रात निकल

जाएगी

गुलाबी : (मन में) आज कितने प्रेम से बहू मेरी सेवा कर रही है, नहीं तो जरा-जरा-सी बात पर नाकभौं सिकोड़ा करती थी (प्रकट) जी चाहे तो थोड़ी देर के लिए आ जाना, तुम्हें प्रेमसाफर सुनाऊँगी

चेतनदास का प्रवेश

गुलाबी : (आश्चर्य से) महाराज, आप कहां चले गए थे? मैं दिन में कई बार आपकी कुटी पर गई

चेतनदास : आज मैं एक कार्यवश बाहर चला गया था।अब एक महातीर्थ पर जाने का विचार है। अपना धन ले लो, गिन लेना, कुछ-न-कुछ अधिक ही होगी। मैं वह मन्त्र भूल गया जिससे धन दूना हो जाता था।।

गुलाबी : (चेतनदास के पैरों पर गिरकर) महाराज, बैठ जाइए, आपने यहां तक आने का कष्ट किया है, कुछ भोजन कर लीजिए। कृतार्थ हो जाऊँगी।

चेतनदास : नहीं माताजी, मुझे विलम्ब होगी। मुझे आज्ञा दो और मेरी यह बात ध्यान से सुनो। आगे किसी साधु-महात्मा को अपना धन दूना करने के लिए मत देना नहीं तो धोखा खाओगी। (चम्पा और भृगु आकर चेतनदास के चरण छूते हैं।) माता, तेरे पुत्र और वधू बहुत सुशील दीखते हैं। परमात्मा इनकी रक्षा करें। तू भूल जा कि मेरे पास धन है। धन के बल से नहीं, प्रेम के बल से अपने घर में शासन कर।

चेतनदास का प्रस्थान