तीसरा दृश्य / अंक-5 / संग्राम / प्रेमचंद

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स्थान : राजेश्वरी का कमरा।

समय : तीन बजे रात। फानूस जल रही है, राजेश्वरी पानदान खोले फर्श पर बैठी है।

राजेश्वरी : (मन में) मेरे मन की सारी अभिलाषाएं पूरी हो गयीं। जो प्रण करके घर से निकली थी वह पूरा हो गया। जीवन सफल हो गया। अब जीवन में कौन-सा सुख रखा है। विधाता की लीला विचित्र है। संसार के और प्राणियों का जीवन धर्म से सफल होता है। अहिंसा ही सबकी मोक्षदाता है। मेरा जीवन अधर्म से सफल हुआ, हिंसा से ही मेरा मोक्ष हो रहा है। अब कौन मुंह लेकर मधुबन जाऊँ, मैं कितनी ही पतिव्रता बनूं, किसे विश्वास आएगा ? मैंने यहां कैसे अपना धर्म निबाहा, इसे कौन मानेगा ? हाय ! किसकी होकर रहूँगी ? हलधर का क्या ठिकाना ? न जाने कितनी जानें ली होंगी, कितनों का घर लूटा होगा, कितनों के खून से हाथ रंगे होंगे, क्या?क्या कुकर्म किये होंगे।वह अगर मुझे पतिता और कुलटा समझते हैं तो मैं भी उन्हें नीच और अधम समझती हूँ। वह मेरी सूरत न देखना चाहते हों तो मैं उनकी परछाई भी अपने उसपर नहीं पड़ने देना चाहती। अब उनसे मेरा कोई संबंध नहीं मैं अनाथा हूँ, अभागिनी हूँ, संसार में कोई मेरा नहीं है।

कोई किवाड़ खटखटाता है, लालटेन लेकर नीचे जाती है, और किवाड़ खोलती है, ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी : बहिन, क्षमा करना, तुम्हें असमय कष्ट दिया । मेरे स्वामीजी यहां हैं या नहीं ? मुझे एक बार उनके दर्शन कर लेने दो।

राजेश्वरी : रानीजी, सत्य कहती हूँ वह यहां नहीं आये।

ज्ञानी : यहां नहीं आये !

राजेश्वरी : न ! जब से गए हैं फिर नहीं आयेब

ज्ञानी : घर पर भी नहीं हैं। अब किधर जाऊँ ? भगवन्, उनकी रक्षा करना। बहिन, अब मुझे उनके दर्शन न होंगे।उन्होंने कोईभयंकर काम कर डाला। शंका से मेरा ह्रदय कांप रहा है। तुमसे उन्हें प्रेम था।शायद वह एक बार फिर आएं। उनसे कह देना, ज्ञानी तुम्हारे पदरज को शीश पर चढ़ाने के लिए आयी थी। निराश होकर चली गयी। उनसे कह देना वह अभागिनी, भ्रष्टा, तुम्हारे प्रेम के योग्य नहीं रही।

हीरे की कनी खा लेती है।

राजेश्वरी : रानीजी, आप देवी हैं¼ वह पतित हो गए हों, पर आपका चरित्र उज्ज्वल रत्न है। आप क्यों क्षोभ करती हैं !

ज्ञानी : बहिन, कभी यह घमंड था।, पर अब नहीं है।

उसका मुख पीला होने लगता है और पैर लड़खड़ाते

हैं।

राजेश्वरी : रानीजी, कैसा जी है ?

ज्ञानी : कलेजे में आग-सी लगी हुई है। थोड़ा-सा ठंडा पानी दो। मगर नहीं, रहने दो। जबान सूखी जाती है। कंठ में कांटे पड़ गए हैं। आत्मगौरव से बढ़कर कोई चीज नहीं उसे खोकर जिये तो क्या जिये !

राजेश्वरी : आपने कुछ खा तो नहीं लिया?

ज्ञानी : तुम आज ही यहां से चली जाओ। अपने पति के चरणों पर गिरकर अपना अपराध क्षमा करा लो।वह वीरात्मा हैं। एक बार मुझे डाकुओं से बचाया था।तुम्हारे उसपर दया करेंगी। ईश्वर इस समय उनसे मेरी भेंट करवा देते तो मैं उनसे शपथ खाकर कहती, इस देवी के साथ तुमने बड़ा अन्याय किया है। वह ऐसी पवित्र है जैसे फूल की पंखड़ियों पर पड़ी हुई ओस की बूंदें या प्रभात काल की निर्मल किरणें। मैं सिद्व करती कि इसकी आत्मा पवित्र है।

पीड़ा से विकल होकर बैठ जाती है।

राजेश्वरी : (मन में) इन्होंने अवश्य कुछ खा लिया । आंखें पथरायी जाती हैं, पसीना निकल रहा है। निराशा और लज्जा ने अंत में इनकी जान ही लेकर छोड़ी, मैं इनकी प्राणघातिका हूँ। मेरे ही कारण इस देवी की जान जा रही है। इसे मर्यादा?पालन कहते हैं। एक मैं हूँ कि कष्ट और अपमान भोगने के लिए बैठी हूँ। नहीं देवी, मुझे भी साथ लेती चलो।तुम्हारे साथ मेरी भी लाज रह जाएगी। तुम्हें ईश्वर ने क्या नहीं दिया । दूध-पूत, मान-महातम सभी कुछ तो है। पर केवल पति के पतित हो जाने के कारण तुम अपने प्राण त्याग रही हो, तो मैं, जिसका आंसू पोंछने वाला भी कोई नहीं, कौन-सा सुख भोगने के लिए बैठी रहूँ।

ज्ञानी : (सचेत होकर) पानीपानीA

राजेश्वरी : (कटोरे में पानी देती हुई) पी लीजिए।

ज्ञानी : (राजेश्वरी को ध्यान से देखकर) नहीं, रहने दो। पतिदेव के दर्शन कैसे पाऊँ। मेरे मरने का हाल सुनकर उन्हें बहुत दु: ख होगा राजेश्वरी, उन्हें मुझसे बहुत प्रेम है। इधर वह मुझसे इतने लज्जित थे कि मेरी तरफ सीधी आंख से ताक भी न सकते थे।(फिर अचेत हो जाती है।)

राजेश्वरी : (मन में) भगवन् अब यह शोक देखा नहीं जाता। कोई और स्त्री होती तो मेरे खून की प्यासी हो जाती। इस देवी के ह्रदय में कितनी दया है। मुझे इतनी नीची समझती हैं कि मेरे हाथ का पानी भी नहीं पीतीं, पर व्यवहार में कितनी भलमनसाहत है। मैं ऐसी दया की मूरत की घातिका हूँ। मेरा क्या अंत होगा!

ज्ञानी : हाय, पुत्र-लालसा ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया । राजेश्वरी, साधुओं का भेस देखकर धोखे में न आना। (आंखें बंद कर लेती है।)

राजेश्वरी : कभी किसी साधु ने इसे जट कर रास्ता लिया होगा। वही सुध आ रही है। तुम तो चली, मेरे लिए कौन रास्ता है ? वह डाकू ही हो गए हैं। अब तक सबलसिंह के भय से इधर न आते थे।अब वह मुझे कब जीता छोड़ेंगे ? न जाने क्या?क्या दुर्गति करें? मैं जीना भी तो नहीं चाहती। मन, अब संसार का मायामोह छोड़ो। संसार में तुम्हारे लिए अब जगह नहीं है। हा ! यही

करना था। तो पहले ही क्यों न किया ? तीन प्राणियों की जान लेकर तब यह सूझी। कदाचित् तब मुझे मौत से इतना डर न लगता। अब तो जमराज का ध्यान आते ही रोयें खड़े हो जाते हैं। पर यहां की दुर्दशा से वहां की दुर्दशा तो अच्छी। कोई हंसने वाला तो न होगा। (रस्सी का फंदा बना कर छत से लटका देती है।) बस, एक झटके में काम तमाम हो जाएगी। इतनी-सी जान के लिए आदमी कैसे-कैसे जतन करता है। (गले में फंदा डालती है।) दिल कांपता है। जरा-सा फंदा खींच लूं और बसब दम घुटने लगेगी। तड़प-तड़पकर जान निकलेगी। (भय से कांप उठती है) मुझे इतना डर क्यों लगता है ? मैं अपने को इतनी कायर न समझती थी। सास के एक ताने पर, पति की एक कड़ी बात पर स्त्रियां प्राण दे देती हैं। लड़कियां अपने विवाह की चिंता से माता-पिता को बचाने के लिए प्राण दे देती हैं। पहले स्त्रियां पति के साथ सती हो जाती थीं।डर क्या है ? जो भगवान् यहां हैं वही भगवान् वहां हैं। मैंने कोई पाप नहीं किया है। एक आदमी मेरा धर्म बिगाड़ना चाहता था।मैं और किसी तरह उससे न बच सकती थी। मैंने कौशल से अपने धर्म की रक्षा की। यह पाप नहीं किया। मैं भोग-विलास के लोभ से यहां नहीं आई ! संसार चाहे मेरी कितनी ही निन्दा करे, ईश्वर सब जानते हैं। उनसे डरने का कोई काम नहीं

फदा खींच लेती है। तलवार लिए हुए हलधर का प्रवेश।

हलधर : (आश्चर्य से) अरे ! यहां तो इसने फांसी लगा रखी है।

तलवार से तुरत रस्सी काट देता है और राजेश्वरी को संभालकर फर्श पर लिट देता है।

राजेश्वरी : (सचेत होकर) वही तलवार मेरी गर्दन पर क्यों नहीं चला देते ?

हलधर : जो आप ही मर रही है उसे क्या मारूं ?

राजेश्वरी : अभी इतनी दया है ?

हलधर : वह तुम्हारी लाज की तरह बाजार में बेचने की चीज नहीं है।

ज्ञानी : (होश में आकर) कौन कहता है कि इसने अपनी लाज बेच दी? यह आज भी उतनी ही पवित्र है जितनी अपने घर थी। इसने अपनी लाज बेचने के लिए इस मार्ग पर पग नहीं रखा, बल्कि अपनी लाज की रक्षा करने के लिए अपनी, लाज की रक्षा के लिए इसने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया । इसीलिए इसने यह कपटभेष धारण किया। एक सम्पन्न पुरूष से बचने का इसके सिवा और कौन-सा उपाय था।तुम उस पर लांछन लगाकर बड़ा अन्याय कर रहे हो, उसने तुम्हारे कुल को कलंकित नहीं किया, बल्कि उसे उज्ज्वल कर दिया । ऐसी बिरली ही कोई स्त्री ऐसी अवस्था में अपने व्रत पर अटल रह सकती थी। यह चाहती तो आजीवन सुख भोग करती, पर इसने धर्म को स्वाद-लिप्सा की भेंट नहीं चढ़ाया। आह ! अब नहीं बोला जाता। बहुत-सी बातें मन में थीं, सिर में चक्कर आ रहा है, स्वामी के दर्शन न कर सकी(बेहोश हो जाती है।)

हलधर : ज्ञानी हैं क्या ?

राजेश्वरी : सबल का दर्शन पाने की आशा से यहां आयी थीं, किंतु बेचारी की लालसा मन में रही जाती है। न जाने उनकी क्या गत हुई ?

हलधर : मैं अभी उन्हें लाता हूँ।

राजेश्वरी : क्या अभी वह...

हलधर : हां, उन्होंने प्राण देना चाहा था।, पिस्तौल का निशाना छाती पर लगा लिया था।, पर मैं पहुंच गया और उनके हाथ से पिस्तौल छीन ली। दोनों भाई वहीं हैं। तुम इनके मुंह पर पानी के छींटे देती रहना। गुलाबजल तो रखा ही होगा, उसे इनके मुंह में टपकाना, मैं अभी आता हूँ।

जल्दी से चला जाता है।

राजेश्वरी : (मन में) मैं समझती थी इनका स्वरूप बदल गया होगा। दया नाम को भी न रही होगी। नित्य डाका मारते होंगे, आचरण भ्रष्ट हो गया होगा। पर इनकी आंखों में तो दया की जोत झलकती हुई दिखाई देती है। न जाने कैसे दोनों भाइयों की जान बचा ली। कोई दूसरा होता तो उनकी घात में लगा रहता और अवसर पाते ही प्राण ले लेता। पर इन्होंने उन्हें मौत के मुंह से निकाल दिया । क्या र्इश्वर की लीला है कि एक हाथ से विष पिलाते हैं और दूसरे हाथ से अमृत मुझी को कौन बचाता। सोचता कि मर रही है, मरने दो। शायद यह मुझे मारने के ही लिए यहां तलवार लेकर आए होंगे।मुझे इस दशा में देखकर दया आ गई। पर इनकी दया पर मेरा जी झुंझला रहा है। मेरी यह बदनामी यह जगहंसाई बिल्कुल निष्फल हो गई। इसमें जरूर ईश्वर का हाथ है। सबलसिंह के परोपकार ने उन्हें बचाया। कंचनसिंह की भक्ति ने उनकी रक्षा की। पर इस देवी की जान व्यर्थ जा रही है। इसका दोष मेरी गरदन पर है। इस एक देवी पर कई सबलसिंह भेंट किए जा सकते हैं ! (ज्ञानी को ध्यान से देखकर) आंखें पथरा गई, सांस उखड़ गई, पति के दर्शन न कर सकेंगी, मन की कामना मन में ही रह गयी। (गुलाबजल के छीटें देकर) छनभर और

ज्ञानी : (आंखें खोलकर) क्या वह आ गए ? कहां हैं, जरा मुझे उनके पैर दिखा दो।

राजेश्वरी : (सजल नयन होकर) आते ही होंगे, अब देर नहीं है। गुलाबजल पिलाऊँ?

ज्ञानी : (निराशा से) न आएंगे, कह देना तुम्हारे चरणों की याद में(मूच्र्छित हो जाती है।)

चेतनदास का प्रवेश।

राजेश्वरी : यह समय भिक्षा मांगने का नहीं है। आप यहां कैसे चले आए ?

चेतनदास : इस समय न आता तो जीवनपर्यन्त पछताता। क्षमा-दान मांगने आया हूँ।

राजेश्वरी : किससे?

चेतनदास : जो इस समय प्राण त्याग रही है।

ज्ञानी : (आंखें खोलकर) क्या वह आ गए? कोई अचल को मेरी गोद में क्यों नहीं रख देता?

चेतनदास : देवी, सब-के-सब आ रहे हैं। तुम जरा यह जड़ी मुंह में रख लो।भगवान् चाहेंगे तो सब कल्याण होगा।

ज्ञानी : कल्याण अब मेरे मरने में ही है।

चेतनदास : मेरे अपराध क्षमा करो।

ज्ञानी के पैरों पर फिर पड़ता है।

ज्ञानी : यह भेष त्याग दो। भगवान् तुम पर दया करें।

उसके मुंह से खून निकलता है और प्राण निकल जाते हैं, अन्तिम शब्द उसके मुंह से यही निकलता है, अचल तू अमर हो...

राजेश्वरी : अन्त हो गया। (रोती है) मन की अभिलाषा मन में ले गई। पति और पुत्र से भेंट न हो सकी।

चेतनदास : देवी थी।

सबलसिंह, कंचनसिंह, अचल, हलधर सब आते हैं।

राजेश्वरी : स्वामीजी, कुछ अपनी सिद्वि दिखाइए। एक पल-भर के लिए सचेत हो जाती तो उनकी आत्मा शांत हो जाती।

चेतनदास : अब ब्रह्मा भी आएं तो कुछ नहीं कर सकते।

अचल रोता हुआ मां के शव से लिपट जाता है,

सबल को ज्ञानी की तरफ देखने की भी हिम्मत नहीं पड़ती।

राजेश्वरी : आप लोग एक पल-भर पहले आ जाते तो इनकी मनो- कामना पूरी हो जाती। आपकी ही रट लगाए हुए थीं। अन्तिम शब्द जो उनके मुंह से निकला वह अचलसिंह का नाम था।

सबल : यह मेरी दुष्टता का दंड है। हलधर, अगर तुमने मेरी प्राण रक्षा न की होती तो मुझे यह शोक न सहना पड़ता। ईश्वर बड़े न्यायी हैं। मेरे कमोऊ का इससे उचित दंड हो ही नहीं सकता था।मैं तुम्हारे घर का सर्वनाश करना चाहता था।विधाता ने मेरे घर का सर्वनाश कर दिया । आज मेरी आंखें खुल गयीं। मुझे विदित हो रहा है कि ऐश्वर्य और सम्पत्ति जिस पर मानव-समाज मिटा हुआ है, जिसकी आराधना और भक्ति में हम अपनी आत्माओं को भी भेंट कर देते हैं, वास्तव में एक प्रचंड ज्वाला है, जो मनुष्य के ह्रदय को जलाकर भस्म कर देती है। यह समस्त पृथ्वी किन प्राणियों के पाप-भार से दबी हुई है? वह कौन से लोग हैं जो दुर्व्यसनों के पीछे नाना प्रकार

के पापाचार कर रहे हैं? वेश्याओं की अक्रालिकाएं किन लोगों के दम से रौनक पर हैं? किनके घरों की महिलाएं रो-रोकर अपना जीवनक्षेप कर रही हैं? किनकी बंदूकों से जंगल के जानवरों की जान संकट में पड़ी रहती है? किन लोगों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आए दिन समर भूमि रक्तमयी होती रहती है। किनके सुख भोग करने के लिए गरीबों को आए दिन बेगारें भरनी पड़ती हैं? यह वही लोग हैं जिनकेके पास ऐश्वर्य है, सम्पत्ति है, प्रभुत्व है, बल है। उन्हीं के भार से पृथ्वी दबी हुई है, उन्हीं के नखों से संसार पीड़ित हो रहा है। सम्पत्ति ही पाप का मूल है, इसी से कुवासनाएं जागृत होती हैं, इसी से दुर्व्यसनों की सृष्टि होती है। गरी। आदमी अगर पाप करता है तो क्षुधा की तृप्ति के लिए। धनी पुरूष पाप करता है अपनी कुवृत्तियों, और कुवासनाओं की पूर्ति के लिए। मैं इसी व्याधि का मारा हुआ हूँ। विधाता ने मुझे निर्धन बनाया होता, मैं भी अपनी जीविका के लिए पसीना बहाता होता, अपने बाल-बच्चों के उदर-पालन के लिए मजूरी करता होता तो मुझे यह दिन न देखना पड़ता, यों रक्त के आंसू न रोने पड़ते। धनीजन पुण्य भी करते हैं, दान भी करते हैं, दु: खी आदमियों पर दया भी करते हैं। देश में बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं, सैकड़ों पाठशालाएं, चिकित्सालय, तालाब, कुएं उनकी कीर्ति के स्तम्भ रूप खड़े हैं, उनके दान से सदाव्रत चलते हैं, अनाथों और विधवाओं का पालन होता है, साधुओं और अतिथियों का सत्कार होता है, कितने ही विशाल मन्दिर सजे हुए हैं, विद्या की उन्नति हो रही है, लेकिन उनकी अपकीर्तियों के सामने उनकी सुकीर्तियां अंधेरी रात में जुगुनू की चमक के समान हैं, जो अंधकार को और भी गहन बना देती हैं। पाप की कालिमा दान और दया से नहीं धुलती। नहीं, मेरा तो यह अनुभव है कि धनी जन कभी पवित्र भावों से प्रेरित हो ही नहीं सकते। उनकी दानशीलता, उनकी भक्ति, उनकी उदारता, उनकी दीन-वत्सलता वास्तव में उनके स्वार्थ को सिद्व करने का साधन-मात्र है। इसी टट्टी की आड़ में वह शिकार खेलते हैं। हाय क्क तुम लोग मन में सोचते होगे, यह रोने और विलाप करने का समय है, धन और सम्पदा की निंदा करने का नहीं मगर मैं क्या करूं? आंसुओं की अपेक्षा इन जले हुए शब्दों से, इन फफोलों के फोड़ने से, मेरे चित्त को अधिक शांति मिल रही है। मेरे शोक ह्दय-दाह, और आत्मग्लानि का प्रवाह केवल लोचनों द्वारा नहीं हो सकता, उसके लिए ज्यादा चौड़े, ज्यादा स्थूल मार्ग की जरूरत है। हाय क्क इस देवी में अनेक गुण थे।मुझे याद नहीं आता कि इसने कभी एक अप्रिय शब्द भी मुझसे कहा हो, वह मेरे प्रेम में मग्न थी। आमोद और विलास से उसे लेश-मात्र

भी प्रेम न था।वह संन्यासियों का जीवन व्यतीत करती थी। मेरे प्रति उनके ह्रदय में कितनी श्रद्वा थी, कितनी शुभकामना। जब तक जी मेरे लिए जी और जब मुझे सत्पथ से हटते देखा तो यह शोक उसके लिए असह्य हो गया। हाय , मैं जानता कि वह ऐसा घातक संकल्प कर लेगी तो अपने आत्मपतन का वृत्तांत उससे न कहता ! पर उसकी सह्दयता और सहानुभूति के रसास्वादन से मैं अपने को रोक न सका। उसकी यह क्षमा, आत्मकृपा कभी न भूलेगी जो इस वृत्तांत को सुनकर उसके उदास मुख पर झलकने लगी। रोष या क्रोध का लेश-मात्र भी चिन्ह न था। वह दयामूर्ति सदा के लिए मेरे ह्दयगृह को उजाड़ कर अदृश्य हो गई। नहीं, मैंने उसे पटककर चूर-चूर कर दिया । (रोता है।) हाय, उसकी याद अब मेरे दिल से कभी न निकलेगी।