जब दरवाज़ा बनता था / अभिज्ञात / पृष्ठ 2

Gadya Kosh से
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बेचन ने सोचा क्यों न पहले दरवाज़े की क़ीमत का अन्दाज़ा लगा लिया जाये फिर देखा जायेगा कि उतनी रक़म कहां से आयेगी। वह पास के कस्बे में गया दरवाज़े की क़ीमत का अन्दाज़ा लगाने। लेकिन यह क्या क़ीमत तो छोड़ों उसे कोई दरवाज़ा पसंद ही नहीं आया। हालांकि उसकी ज़ेब खाली थी लेकिन उसे क़ीमती से क़ीमती लकड़ियों के नक्काशीदार दरवाज़े दिखाये गये। उसे कोई नहीं जंचा। एकदम नहीं जंचा। अन्ततः उसने तय किया कि वह साइकिल से दस कोस दूर बड़े कस्बे में जायेगा। शायद वहां उसकी पसंद का दरवाज़ा मिल जाये। वह पसंद के फेर में यह भूल बैठा था कि उसे उस रकम का भी इन्तज़ाम करना होगा। वह जितने दरवाज़े देखता गया अपनी पसंद के दरवाज़े की खोज के प्रति उसकी ललक उतनी ही बढ़ती गयी। उसने मन के किसी कोने में यहां तक सोच लिया कि यदि उसे उसकी पसंद का दरवाज़ा मिल गया तो वह अपनी जीवन भर की संचित राशि उस पर खर्च कर देगा जो उसने अपनी बेटी की शादी के लिए रख छोड़ी है। दरवाजे का उसके पिता का सपना कब उसका अपना सपना बन बैठा था पता नहीं चला।

शहरनुमा बड़े कस्बे में भी उसकी अभिलाषा पूरी नहीं हुई और उसकी पसंद का दरवाज़ा नहीं मिला तो नहीं मिला। दरअसल वह अपने सपने में जो दरवाज़ा देखता आया था उसके आगे यह दरवाज़े तुच्छ और हेय लगते थे और आकार-प्रकार में छोटे। उसमें अब जो बचैनी समायी उसका अन्त नहीं था। उसे वह दरवाज़ा चाहिए था जो कहीं मिल नहीं रहा था। वह लगातार सोचता रहा अपनी पसंद के दरवाज़े को पाने की जुगत के बारे में। वह अपने पुश्तैनी जीर्णशीर्ण घर के सामने के पेड़ के नीचे सोया था। झुर झुर हवा बह रही थी और रात चांदनी थी। एकाएक उसकी नींद खुली और उसे पेड़ में अपने स्वप्न में देखे गये दरवाज़े की झलक सहसा मिली। यह वही पेड़ था जिसकी पूजा उसके परिवार के लोग हमेशा से करते आये थे। उसके दादा जी ने घर के सामने यह बेशकीमती लकड़ी का पेड़ लगाया था। वह तो ठीक से उसका नाम तक नहीं जानता और ना ही यह जानता है कि उसका पौधा उसके दादा जी को कैसे प्राप्त हुआ। बस इतना जानता है कि उनका परिवार इस पेड़ के लगने के बाद से देवी-देवताओं की नहीं इसी पेड़ की पूजा करते हैं और जो कुछ मांगना होता है इसी पेड़ से मांगते हैं। उसने बस इतना सुना था कि वह ज़मीन जिस पर उसका घर और यह पेड़ खड़ा है उसकी कीमत कम है और अकेले इस पेड़ की कीमत उससे कहीं ज्यादा। कई लोगों ने उससे इस पेड़ को खरीदने का भी प्रस्ताव रखा था जिससे उसने इनकार कर दिया था।


उस रात के बाद बेचन की ज़िन्दगी बदल गयी। अब वह ठेले वाले से एक प्रशिक्षु बढ़ई बन गया था। उसे समझाया गया भला यह कोई उम्र है नया काम सीखने की। यह तो बचपन से सीखा जाता है और स्वतंत्र रूप से लकड़ी की कारीगरी का कोई काम करने में पांच से दस साल लग जाते हैं फिर भी कई लोगों को तरीके से काम करना नहीं आता। यह चालीस होती उम्र में बढ़ई का काम सीखने की क्या तुक है। लेकिन बेचन था कि उसने कुछ और ही ठान रखा था। ठेला खींचने से होने वाली कमाई बंद हो गयी। बढ़ई के यहां बतौर सहयोगी काम करके उसे जो मिलता वह पिछली आय की तिहाई भी नहीं थी। फिर भी यह हुआ कि वह जिस कारीगर से काम सीख रहा था वह प्रसन्न था। ऐसी लगन से काम सीखने वाला उसे क्या किसी को नसीब नहीं होगा। वह जल्द से जल्द सब कुछ सीखने में जुटा हुआ था। वह हर काम इतनी लगन से करता जैसे वह अपना ही काम कर रहा हो। खाली समय में भी वह लकड़ी की नक्काशी के सम्बंध में तमाम सवाल पूछता रहता था। काम पर वह समय से पहले पहुंचता था और जब तक न कहा जाये, घर नहीं लौटता था। काम के बोझ की शिकायत की तो खैर कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

दरवाज़े-खिड़की का काम करने वाले बढ़ई का काम सीखने से ही उसे संतोष नहीं हुआ। उसने एक बुजुर्ग काष्ट-शिल्पी से काम सीखना शुरू किया जो खिलौने बनाता था। वह बनारस का कलाकार था। उसे इस बात का गर्व था कि उसकी कला भी वाराणसी के रेशमी वस्त्रों के निर्माण की कला के समान ही वंदनीय है। इस धंधे को उसके पूर्वज बहुत ही प्राचीन काल से करते आ रहे थे। उसका कहना था कि बनारस की काष्ठ-कला दो-चार सौ वर्ष पुरानी परम्परा नहीं है बल्कि यह तो 'राम राज्य' से भी पहले से चली आ रही है। जब राम और उनके भाई बच्चे थे तो भी वे लकड़ी के बने खिलौने से खेलते थे।

बिजली के मोटर से चलने वाली खराद मशीन तो वह खरीद नहीं पाया लेकिन छोटे-मोटे तमाम उपकरण उसने खरीदे और उनका प्रयोग भी सीखा। उसने जाना कि काष्ठ कला में प्रयोग होने वाले उपकरण हैं-रुखाना, चौधरा, प्रकाल, गौन्टा गबरना, छेदा, छेदी, फरुई, तरघन, बघेली, खरैया, चौसा बोरिया, बाटी, पटाली, चौसी, बर्मा, बर्मी, बसुला आदि। रुखाना से लकड़ी को पतला किया जाता है। चौधरा से चिकना किया जाता है। पटाली से बने हुए वस्तु को काटकर अलग किया जाता है। बरमा और बरमी से छेद किया जाता है। बाटी से (बरमा से छेद करने के बाद) अन्दर की खुदाई की जाती है। वसुला का प्रयोग लकड़ी को छीलने के लिए किया जाता है। आकृति तथा डिजाइन बनाने के लिए प्रकाल की सहायता ली जाती है। गौन्टा से खराद मशीन में लगे बचे हुए लकड़ी को हटाने का काम किया जाता है। फरुई लोहे का सपाट सा होता। इसका प्रयोग औजार को रखकर 'काष्ठ-कला' को बनाने के लिए होता है। तरघन फरुई के लकड़ी के नीचे का बेस होता है। बघेली मोटी लकड़ी से बना होता है जो कुनिया मशीन तथा फरुई के लिए सहारे का काम करता है। बघेली दो होता है: अगला बघेली, पिछला बघेली। खरैया पत्थर का बना होता है। इसका प्रयोग औजार को पीजाने के लिए किया जाता है। अगर औजार की धार को और अधिक बारीक करना हो तो बोरिया का प्रयोग किया जाता है।

बेचन के गुरु ने काशी की काष्ठ-कला से जुड़े परम्परागत रंगों का इस्तेमाल सीखा, जिसमें लाल, हरा, काला तथा नीला एवं मिले-जुले रंगों का प्रयोग होता है।

पत्नी कुछ दिनों तक नाराज़ रही। ताने- उलाहने देती रही। फिर उसने अपने दिलो दिमाग को समझा लिया। पति का दिमाग अपनी ज़गह से कुछ फिर गया है। छिप-छिपाकर वह उसकी झाड़-फूंक करवाती। प्रत्यक्ष कहने का साहस नहीं हुआ पता नहीं इसकी क्या प्रतिक्रिया पति पर हो। पत्नी ने दूसरों के घर में बर्तन मांजने का काम शुरू कर दिया ताकि घर की आर्थिक स्थिति पहले जैसी बरकरार रहे। ---