ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-9

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ज्ञानरंजन के बहाने - ९

अधूरी लड़ाइयों के पार-२

‘साहित्य और राज्याश्रय’ का प्रश्न कोई नया प्रश्न नहीं था। शायद हर युग में लेखकों को अपने साहित्यिक कर्म के लिए इस प्रश्न को और इसके उत्तर को परिभाषित करना पड़ता रहा है। ‘सन्तन कौ कहा सीकरी सों काम’ की रट लेखक हर युग में लगाते आये हैं। इसलिए ‘साहित्य और राज्याश्रय’ के विषय पर एक परिगोष्ठी आयोजित करना बहुत उपयुक्त हो सकता था। लेकिन जब यह पता चले कि लेखकीय स्वाधीनता का बिगुल फूंकने वालों के पीछे एक ऐसी सत्ता का हाथ है, जो लगातार लेखकीय स्वाधीनता का हनन करती रही है, तब ज़रूर इस तरह के उपक्रम एक ‘सिनिस्टर’ शक्ल अख़्तियार कर लेते हैं।

यहाँ अमरीका में मैकार्थी युग की पाबन्दियों और ख़ुफ़ियागीरी की याद दिलाने की ज़रूरत नहीं, न इस बात की कि दूसरे महायुद्ध के ख़त्म होने के बाद अमरीका में लेखकों और विचारकों के सिलसिले में सन्देह और दबाव का जो वातावरण था, उसी के चलते पॉल रोबसन जैसे नीग्रो गायक को प्रतिबन्धों का सामना करना पड़ा था और हावर्ड फ़ास्ट के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘स्पार्टाकस’ को कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं हुआ था। नतीजतन फ़ास्ट को यह उपन्यास अपने संसाधनों से प्रकाशित और वितरित करना पड़ा था। अमरीकी सेनेट की ‘हाउस अन-अमेरिकन ऐक्टिविटीज़ कमेटी’ अपने ‘डायन खोजू अभियान’ मे जिस-तिस लेखक या संस्कृतिकर्मी को दाग़ी घोषित करके, उसे मध्ययुगीन धार्मिक न्यायाधिकरणों जैसी पूछ-ताछ का सामना करने पर विवश कर रही थी।

बहरहाल, किस्से को आगे बढ़ायें तो ‘परिमल’ की इस राष्ट्रीय परिगोष्ठी के बाद उसी वर्ष इलाहाबाद में 15-17 दिसम्बर 1957 को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की ओर से एक साहित्यकार सम्मेलन आहूत हुआ। विषय रखा गया ‘स्वाधीन भारत और लेखक।’ चूँकि उन दिनों धड़ेबन्दी ज़ोरों पर थी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘परिमल’ के बीच एक रस्साकशी बराबर चल रही थी, इसलिए ज़ाहिरा तौर पर इस दूसरे साहित्यकार सम्मेलन को ले कर आरोपों-प्रत्यारोपों, अफ़वाहों, अनुमानों और अटकलों का बाज़ार गर्म हो गया।

कुछ पुराने प्रगतिशील जो धीरे-धीरे इतने पुराने पड़ चुके थे कि ‘परिमल’ के नज़दीक जा पहुँचे थे, इस सम्मेलन को ले कर तरह-तरह की शंकाएँ प्रकट करने लगे। नेमिचन्द्र जैन ने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में नसीहत-भरा एक लेख भी लिखा और अमृत राय ने ‘कहानी’ के नवम्बर 1957 के अंक में उसका एक लम्बा जवाब भी दिया। ‘परिमल’ की परिगोष्ठी की मुख्य चिन्ता अगर लेखक और राज्य का आपसी सम्बन्ध और उसका स्वरूप थी तो ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ वाले सम्मेलन का केन्द्र बिन्दु खुद अमृत राय के शब्दों में कुछ इस तरह का था :

"यह सम्मेलन ‘साहित्यकार को अपनी राजनीतिक विचारधारा निश्चित करने के लिए एकत्र होने का आमन्त्रण’ नहीं, युग और समाज और देश और समाज और देश और स्वयं अपने प्रति, अपनी कला के सबल-सुन्दर विकास के प्रति, अपने साहित्यिक, सांस्कृतिक दायित्व की निश्चित करने के लिए एकत्र होने का आमन्त्रण है, जो कि थ¨ड़ा-बहुत हमारे कार्यक्रम से भी परिलक्षित होता है, जिसकी रूपरेखा नीचे दी जाती है:

उद्घाटन और समापन अधिवेशनों के अलावा सम्मेलन में तीन गोष्ठियाँ होंगी, (1) सह-चिन्तन (2) रचना की प्रक्रिया और (3) आलोचना के मान।

‘सह-चिन्तन’ गोष्ठी में चार प्रश्नों पर विचार होगा, स्वाधीनता का अर्थ, राष्ट्र-निर्माण और लेखक, प्रगति और परम्परा (जिसके अन्तर्गत हम मुख्यतः नयी और पुरानी पीढ़ी के लेखकों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के प्रश्न पर विचार करना चाहते हैं) तथा यथार्थवाद की समस्याएँ।

‘रचना की प्रक्रिया’ गोष्ठी में हम रचनाकार की ॰ष्टि से साहित्य की मुख्य विधाओं, कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक की रचना से सम्बद्ध सभी प्रश्नों पर विचार करेंगे।

‘आलोचना के मान’ शीर्षक गोष्ठी में विचारणीय विषय होंगे, आलोचना के मान, नये साहित्य के मूल्यांकन की समस्या, सामान्य पाठक व आलोचक तथा कलात्मक अभिरुचि।"

चूँकि इस सम्मेलन पर सवाल खड़े करने वालों में कुछ तत्कालीन और पूर्व प्रगतिशील भी थे, इसलिए अमृत राय को इतना ज़रूर स्वीकार करना पड़ा कि प्रगतिशील लेखकों के ‘आन्दोलन ने एक समय बड़ी संकीर्णतावादी भूलें कीं। उन्हीं भूलों का एक प्रतिफलन था साहित्य में राजनीति का अपच, और सो भी जीवन से निःसृत, जीवन से निसर्गतः सम्पृक्त राजनीति नहीं, ऊपर से थोपी हुई निष्प्राण राजनीति अर्थात विशुद्ध राजनीतिक वाग्जाल।’

किसी बड़ी कथा में पिरोयी गयी उपकथा की तरह इस लम्बे विषयान्तर में एक छोटा विषयान्तर और करते हुए एक और बात की याद दिलाना ज़रूरी है। उन दिनों ज़्यादातर साहित्यकार जब प्रगतिशील साहित्य और वामपन्थी सांस्कृतिक आन्दोलन की चर्चा करते थे तो उनकी मुराद ऐसे साहित्य और ऐसी संस्कृति से होती थी, जिसे कम्यूनिस्ट पार्टी का और यों सोवियत संघ का समर्थन हासिल हो या जो इनसे सम्बद्ध हो, हालाँकि 1949 में चीनी क्रान्ति हो चुकी थी और 1955 में बाण्डुंग सम्मेलन के मंच पर चीन अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा चुका था। मार्क्सवाद और कम्यूनिज़्म पर सिर्फ़ सोवियत संघ का ही एकाधिकार नहीं रह गया था, बल्कि एशिया और अफ़्रीका के अनेक देश मुक्तिकामी विचारों के लिए चीन की ओर भी देखने लगे थे। कहीं-न-कहीं इसका असर भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी पर भी पड़ रहा था और यह अकारण नहीं है कि वह पार्टी जो 1925 में अपनी स्थापना के समय से चार दशकों तक तमाम तरह के दमन, प्रतिबन्ध, अफ़वाहों और आपसी मतभेदों के बावजूद बिखरी नहीं थी, वह अपनी चालीसवीं सालगिरह के आस-पास एक नहीं, दो-दो बार विभाजित हुई और आगे विभाजित होती ही चली गयी।

ज़ाहिर है, इन विभाजनों के बीज इससे पहले के दौर में ही छिपे हुए थे और इनका असर साहित्य पर भी पड़ रहा था। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की आपसी खींचा-तानी का नतीजा यह हुआ कि पहले से चली आ रही प्रगतिवादी धारा धीरे-धीरे मन्द होने लगी। ग़ैर-वामपन्थी साहित्यकारों ने तो ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और कम्यूनिस्ट पार्टी तथा सोवियत संघ के गठजोड़ को स्थायी सम्बन्ध मान ही रखा था, स्वयं प्रगतिशील लेखक भी इस भ्रम के शिकार थे। नतीजे के तौर पर ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ने चीन, क्यूबा, पूर्वी यूरोप और वियतनाम, आदि से नयी प्रेरणा और नया उत्साह ग्रहण करने की बजाय, स्तालिन युग के बाद की वैचारिक दलदल में फंस कर, ग़ैर-प्रगतिशील सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के आगे घुटने टेक दिये। पहले दौर में अगर नयी कहानी और नयी कविता ने प्रगतिवादी धारा को अपदस्थ किया तो दूसरे दौर में अराजकता और मोहभंग एक विचार-शून्य भगदड़ की शक्ल में सामने आयी। अकविता, अकहानी, भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी और इसी तरह के आन्दोलन कुकुरमुत्तों की तरह उगे और फ़िज़ा को धुँधलाते चले गये। नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, रांगेय राघव, शिवदान सिंह चौहान, राहुल सांकृत्यायन जैसे साहित्यकार इस दौर में विस्मृत या अर्ध-विस्मृत कर दिये गये। साहित्य और संस्कृति के केन्द्रीय सवालों में जहाँ ‘राज्य और लेखक’ और ‘लेखक और स्वाधीनता’ जैसे विषय शामिल रहते थे, वहीं अपने अन्तिम दौर में सवाल ‘साहित्य क्यों’ की बुनियादी चिन्ता पर केन्द्रित हो गया, जैसा कि ‘परिमल’ के रजत पर्व (1970) में देखने को आया। इस समय तक प्रगतिशील आन्दोलन का बण्टाढार तो हो ही चुका था, ‘परिमल’ ने भी अपना रजत पर्व मनाने के बाद दुकान बढ़ा दी।