ज्ञान और भक्ति / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल

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यहाँ तक तो भक्ति और शील का समन्वय हुआ, अब ज्ञान और भक्ति का समन्वय देखिए। गरुड़ को समझाते हुए काकभुशुंडि कहते हैं-

'ज्ञानहिं भगितिहि नहिं कछु भेदा।'

साध्य् की एकता से भक्ति और ज्ञान दोनों एक ही हैं-

'उभय हरहि भव संभव खेदा।'

पहले कहा जा चुका है कि शक्ति, शील और सौन्दर्य की पराकाष्ठा भगवान् का व्यक्त या सगुण स्वरूप है। इनमें से सौन्दर्य और शील भगवान् के लोकपालन और लोकरंजन के लक्षण हैं और शक्ति उद्भव और लय का लक्षण् है। जिस शक्ति की अनन्तता पर भक्त केवल चकित होकर रह जायेगा, ज्ञानी उसके मूल तक जाने के लिए उत्सुक होगा। ईश्वर ज्ञानस्वरूप है, अत: ज्ञान के प्रति यह औत्सुक्य भी भक्ति के समान एक 'भाव' ही है, या यों कहिए कि भक्ति का ही एक रूप है-पर एक ऐसे कठिन क्षेत्रों की ओर ले जानेवाला जिसमें कोई बिरला ही ठहर सकता है-

ग्यानपंथ कृपान कै धारा। परत खगेस! होइ नहिं बारा।।

जो इस कठिन ज्ञानपथ पर निरन्तर चला जायेगा, उसी को अन्त में 'सोऽहमस्मि' का अनुभव प्राप्त होगा। पर इस 'सोऽहमस्मि' की अखंड वृत्ति तक प्राप्त होने की कठिनता गोस्वामीजी ने बड़ा ही लम्बा और पेचीला रूपक बाँधकर दिखाया है। इस तत्वव की सम्यक् प्राप्ति के पहले सेव्यसेवकभाव का त्याग अत्यन्त अनर्थकारी और दोषजनक है। इसी से गोस्वामीजी सिद्धान्त करते हैं कि-

सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय, उरगारि।

भक्ति और ज्ञान का तारतम्य अत्यन्त गूढ़ और रहस्यपूर्ण उक्ति द्वारा गोस्वामीजी ने प्रदर्शित किया है। वे कहते हैं-

ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना।।

माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारिवर्ग जानहिं, सब कोऊ।।

मोह न नारि नारि के रूपा। पन्नगारि! यह रीति अनूपा।।

ज्ञान पुरुष अर्थात् चैतन्य है और भक्ति सत्तवस्थ प्रकृतिस्वरूपा है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि 'ज्ञान' बोधवृत्ति और भक्ति रागात्मिका वृत्ति है। बोधवृत्ति राग के द्वारा आक्रान्त हो सकती है, पर एक राग दूसरे राग को दूर रखता है। सत्तवस्थ राग यदि दृढ़ हो जायेगा तो राजस और तामस दोनों रागों को दूर रखेगा। रागात्मिका वृत्ति को मार डालना तो बात ही बात है। अत: उसे एक अच्छी जगह टिका देना चाहिए-ऐसी जगह टिका देना चाहिए जहाँ से वह न लोकधर्म के पालन में, न शील की उच्च साधना में और न ज्ञान के मार्ग में बाधक हो सके। इसके लिए भगवान् के सगुण रूप से बढ़कर और क्या आलम्बन हो सकता है जिसमें शील, शक्ति और सौन्दर्य तीनों परमावस्था को प्राप्त होते हैं-

राम काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन।।

मरुत कोटि सत बिपुल बल, रबि सत कोटि प्रकास।

ससि सत कोटि सो सीतल समन सकल भव-त्रास।।

काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरन्त।

धूमकेतु सत कोटि सम, दुराधर्ष भगवन्त।।

यद्यपि कथा के प्रसंग में राम विष्णु के अवतार ही कहे गए हैं, पर भक्त की अनन्य भावना में वे देवकोटि से भी परे हैं-

विष्णु कोटि सम पालन करता। रुद्र कोटि सत सम संहरता।।

इस नामरूपात्मक जगत् के बीच परमार्थतत्वि का शुद्ध स्वरूप पूरा पूरा निरूपित नहीं हो सकता। ऐसे निरूपण में अज्ञान का लेश अवश्य रहेगा;या यों कहिए कि अज्ञान ही के सहारे यह बोधगम्य होगा। अज्ञान अर्थात् दृश्य जगत् के शब्दों में ही यह निरूपण होगा-चाहे निषेधात्मक ही हो। निषेध मात्र से स्वरूप तक पहुँच नहीं हो सकती। हम किसी का मकान ढूँढ़ने में हैरान हैं। कोई हमें मकान दिखाने के लिए ले चले और दुनिया भर के मकानों को दिखाता हुआ 'यह नहीं है', 'यह नहीं है' कहकर बैठ जाय तो हमारा क्या सन्तोष होगा? प्रकृति के विकार और अन्त:करण की क्रिया के स्वरूप को ही अधिकतर हम ज्ञान या शुद्ध चैतन्य का स्वरूप समझा समझाया करते हैं। अत: अज्ञानरहित ज्ञान बात ही बात है। इसी से गोस्वामीजी ललकार कर कहते हैं कि जो अज्ञान बिना ज्ञान या सगुण बिना निर्गुण कह दे, उसके चेले होने के लिए हम तैयार हैं-

ग्यान कहै अग्यान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास।

निरगुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास।।

हमारा ज्ञान भी अज्ञानसापेक्ष है। हमारी निर्गुण भावना भी सगुण भावना की अपेक्षा रखती है; ठीक उसी प्रकार जैसे प्रकाश की भावना अन्धकार की भावना की अपेक्षा रखती है। मानव ज्ञान के इस सापेक्ष स्वरूप को देखकर आजकल के बड़े बड़े विज्ञानविशारद इतनी दूर पहुँचकर ठिठक गए हैं। आगे का मार्ग उन्हें दिखाई ही नहीं पड़ता।

तर्क और विवाद को भी गोस्वामीजी एक व्यसन समझते हैं। उसमें भी एक प्रकार का स्वाद या रस होता है। इस प्रकार के अनेक रस इस संसार में हैं। कोई किसी रस में मग्न है तो कोई किसी में-

जो जो जेहि जेहि रस मगन तहँ सो मुदित मन मानि।

रस गुन दोष बिचारिबो रसिक रीति पहिचानि।।

तुलसीदासजी तो सब रसों को छोड़ भक्तिरस की ओर झुकते हैं और अपनी जीभ से वादविवाद का स्वाद छोड़ने को कहते हैं-

बाद बिबाद स्वाद तजि भजि हरि सरस चरित चित लावहिं।

इस रामभक्ति के द्वारा ज्ञानियों का साध्य मोक्ष आप से आप, बिना इच्छा और प्रयत्न के, प्राप्त हो सकता है-

राम भजत सोइ मुक्ति गुसाईं। अनइच्छत आवइ बरिआई।।

ज्ञानपक्ष में जाकर गोसाईंजी का सिद्धान्त क्या है, इसका पता लगाने के पहले यह समझ लेना चाहिए कि यद्यपि स्थान स्थान पर उन्होंने तत्वसज्ञान का भी सन्निवेश किया है; पर अपने लिए उन्होंने कोई एक सिद्धान्त मार्ग स्थिर करने का प्रयत्न नहीं किया है। पहली बात तो यह है कि जब वे भक्तिमार्ग के अनुगामी हो चुके, तब ज्ञानमार्ग ढूँढ़ने के लिए तर्कवितर्क का प्रयत्न क्यों करने जाते? दूसरा कारण उनकी सामंजस्य बुद्धि है। साम्प्रदायिक दृष्टि से तो वे रामानुजाचार्य के अनुयायी थे जिनका निरूपित सिद्धान्त भक्तों की उपासना के बहुत अनुकूल दिखाई पड़ा। उपनिषद् प्रतिपादित 'सोऽहमस्मि' और 'तत्व मसि' आदि अद्वैत वाक्यों की पारमार्थिकता में विश्वास रखते हुए भी-

गो गोचर जहँ लगि मन जाई। तहँ लगि माया जानेहु भाई।।

कहकर मायावाद को स्वीकार करते हुए भी, कहीं कहीं विशिष्टाद्वैत मत का आभास उन्होंने दिया है, जैसे-

ईश्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन, अमल, सहज, सुखरासी।।

सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँधोउ कीर मरकट की नाईं।।

शुद्ध ब्रह्म स्वगत, सजातीय और विजातीय तीनों भेदों से रहित है। किसी वस्तु का अंश उसका 'स्वगत' भेद है, अत: जीव को ब्रह्म का अंश कहना (ब्रह्म ही न कहना) अद्वैत मत के अनुकूल न होकर रामानुज के विशिष्टाद्वैत के अनुकूल है जिसके अनुसार चिदचिद्विशिष्ट ईश्वर एक ही है। चित् (जीव) और अचित् (जगत) दोनों ईश्वर के अंग या शरीर हैं। ईश्वरशरीर के इस सूक्ष्म चित् और सूक्ष्म अचित् से ही स्थूल चित् और स्थूल अचित् अर्थात् अनेक जीवों और जगत की उत्पत्ति हुई है। इससे यह लक्षित होता है कि परमार्थ दृष्टि से-शुद्ध ज्ञान की दृष्टि से-तो अद्वैत मत गोस्वामीजी को मान्य है, पर भक्ति के व्यावहारिक सिद्धान्त के अनुसार भेद करके चलना वे अच्छा समझते हैं। गरुड़ के ईश्वर और जीव में भेद पूछने पर काकभुशुंडि कहते हैं-

माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी।।

परबस जीव, स्वबस भगवंता। जीव अनेक, एक श्रीकंता।।

इतना भेद करके वे परमार्थ दृष्टि से अद्वैत पक्ष पर आते हुए कहते हैं कि ये भेद यद्यपि मायाकृत हैं-परमार्थत: सत्य नहीं हैं। पर इन्हें मिटाने के लिए ईश्वर को स्वामी मानकर भक्ति करनी पड़ेगी-

मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।

व्याप्य-व्यापक की यह एकत्व भावना भी विशिष्टाद्वैत के अधिक अनुकूल जान पड़ती है-

जो कुछ बात बनाई कहौं, तुलसी तुममें, तुमहूँ उर माँहीं।

जानकी जीवन जानत हौ हम हैं तुम्हरे, तुममें सक नाहीं।।

इसी प्रकार इस नीचे के वाक्य से भी 'अद्वैत' से असन्तोष व्यंजित होता है-

जे मुनि ते पुनि आपुहि आपु को ईस कहावत सिद्ध सयाने।

अन्त में इस सम्बन्ध में इतना कह देना आवश्यक है कि तुलसीदासजी भक्तिमार्गी थे; अत: उनकी वाणी में भक्ति के गूढ़ रहस्यों को ढूँढ़ना ही अधिक फलदायक होगा, ज्ञानमार्ग के सिद्धान्तों का ढूँढ़ना नहीं।