शीलसाधना और भक्त / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल

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लोकमर्यादा पालन की ओर जनता का ध्या न दिलाने के साथ ही गोस्वामीजी ने अन्त:करण की सामान्य से अधिक उच्चता सम्पादन के लिए शीलोत्कर्ष की साधना का जो अभ्यासमार्ग मानव हृदय के बीच से निकाला, वह अत्यन्त आलोकपूर्ण और आकर्षक है। शील के असामान्य उत्कर्ष को प्रेम और भक्ति का आलम्बन स्थिर करके उन्होंने सदाचार और भक्ति को अन्योन्याश्रित करके दिखा दिया। उन्होंने राम के शील का ऐसा विशद और मर्मस्पर्शी चित्रण किया कि मनुष्य का हृदय उसकी ओर आप से आप आकर्षित हो। ऐसे शीलस्वरूप को देखकर भी जिसका हृदय द्रवीभूत न हो,उसे गोस्वामीजी जड़ समझते है। वे कहते हैं-

सुनि सीतापति सील सुभाउ।

मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ।।

सिसुपन तें पितु मातु बंधु गुरु सेवक सचिव सखाउ।

कहत राम बिधुवदन रिसौंहैं सपनेहु लखेउ न काउ।।

खेलत संग अनुज बालक नित जुगवत अनट अपाउ।

जीति हारि चुचुकारि दुलारत देत दिवावत दाउ।।

सिला साप संताप विगत भइ परसत पावन पाउ।

दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुए को पछिताउ।।

भवधनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गए ताउ।

छमि अपराध छमाइ पायँ परि इतो न अनत समाउ।।

कह्यौ राज बन दियो नारि बस गरि गलानि गयो राउ।

ता कुमातु को मन जोगवत ज्यों निज तनु मरम कुघाउ।।

कपि सेवा बस भए कनौड़े, कह्यौ पवन सुत साउ।

दैवै को न कछू ऋनिया हौं, धनिक तू पत्रा लिखाउ।।

अपनाए सुग्रीव विभीषन तिन न तज्यो छल छाउ।

भरत सभा सनमानि सराहत होत न हृदय अघाउ।।

निज करुना करतूति भगत पर चपत चलत चरचाउ।

सकृत प्रनाम सुनत जस बरनत सुनत कहत 'फिरि गाउ'।।

इस दया, इस क्षमा, इस संकोचभाव, इस कृतज्ञता, इस विनय, इस सरलता को राम ऐसे सर्वशक्तिसम्पन्न के आश्रय में जो लोकोत्तार चमत्कार प्राप्त हुआ है, वह अन्यत्रा दुर्लभ है। शील और शक्ति के इस संयोग में मनुष्य ईश्वर के लोकपालक रूप का दर्शन करके गद-गद हो जाता है। जो गद-गद न हो, उसे मनुष्यता से नीची कोटि में समझना चाहिए। असामर्थ्य के योग में इन उच्च वृत्तियों के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो सकता। राम में शील की यह अभिव्यक्ति आकस्मिक नहीं-अवसरविशेष की प्रवृत्ति नहीं-उनके स्वभाव के अन्तर्गत है, इसका निश्चय कराने के लिए बाबाजी उसे 'सिसुपन' से लेकर अन्त तक दिखाते हैं। यह सुशीलता राम के स्वरूप के अन्तर्गत है। जो उस शीलस्वरूप पर मोहित होगा, वही राम पर पूर्ण रूप से मुग्ध हो सकता है।

भगवान् का जो प्रतीक तुलसीदासजी ने लोक के सम्मुख रखा है, भक्ति का जो प्रकृत आलम्बन उन्होंने खड़ा किया है, उसमें सौन्दर्य, शक्ति और शील, तीनों विभूतियों की पराकाष्ठा है। सगुणोपासना के ये तीन सोपान हैं जिनपर हृदय क्रमश: टिकता हुआ उच्चता की ओर बढ़ता है। इनमें से प्रथम सोपान ऐसा सरल है कि स्त्री पुरुष, मूर्ख पंडित, राजा रंक सब उसपर अपने हृदय को बिना प्रयास अड़ा देते हैं। इसकी स्थापना गोस्वामीजी ने राम के रूपमाधुर्य का अत्यन्त मनोहर चित्रण करके की है। शील और शक्ति से अलग अकेले सौन्दर्य का प्रभाव देखना हो तो वन जाते हुए राम जानकी को देखने पर ग्रामवधुओं की दशा देखिए-

(क) तुलसी रही हैं ठाढ़ी, पाहन गढ़ी सी काढ़ी,

कौन जानै कहाँ तें आई, कौन की, को ही।

(ख) बनिता बनी स्यामल गौर के बीच बिलोकहु री सखि! मोहिं सी ह्वै।

मग जोग न, कोमल क्यों चलिहैं? सकुचाति मही बद पंकज छ्वै।

तुलसी सुनि ग्राम बधू बिथकीं, पुलकीं तन औ चले लोचन च्वै।

सब भाँति मनोहर मोहन रूप अनूप हैं भूप के बालक द्वै।।

यह सौन्दर्य उन भोली स्त्रियों की दया को कैसा आकर्षित करता है। वे खड़ी खड़ी पछताती हैं कि-

पायँन तौ पनहीं न, पयादेहि क्यों चलिहैं? सकुचात हियो है।

ऐसी अनन्त रूपराशि के सामीप्यलाभ के लिए, उसके प्रति सुहृद्भाव प्रदर्शित करने के लिए जी ललचाता है। ग्रामीण स्त्रियों ने जिनके अलौकिक रूप को देखा, अब उनके वचन सुनने को वे उत्कंठित हो रही हैं-

धरि धीर कहैं 'चलु देखिय जाइ जहाँ सजनी! रजनी रहिहैं।

सुख पाइहैं कान सुने बतियाँ, कल आपुस में कछु पै कहिहैं।।'

परिचय बढ़ाने की उत्कंठा के साथ 'आत्मत्याग' की भी प्रेरणा आप से आप हो रही है; और वे कहती हैं-

'कहिहै जग पोच, न सोच कछू, फल लोचन आपन तौ लहिहैं।'

कैसे पवित्र प्रेम का उद्वार है। इस प्रेम में कामवासना का कुछ भी लेश नहीं है। रामजानकी के दाम्पत्य भाव को देख वे गद-गद हो रही हैं-

'सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौंहैं।

तून, सरासन, बान धरे, तुलसी बन मारग में सुठि सोहैं।।

सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम त्यौं हमरो मन मोहैं।'

पूछति ग्राम बधू सिय सों 'कहौ साँवरे से, सखि, रावरे को हैं?'

'चितै तुम त्यौं हमरो मन मोहैं' कैसा भावगर्भित वाक्य है। इसमें एक तो राम के आचरण की पवित्रता और दूसरी ओर ग्राम वनिताओं के प्रेम भाव की पवित्रता दोनों एक साथ झलकती हैं। राम सीता की ओर ही देखते हैं, उन स्त्रियों की ओर नहीं। उन स्त्रियों की ओर ताकते तो वे कहतीं कि'चितै हम त्यौं हमरो मन मोहै'। उनके मोहित होने को हम कुछ कुछ कृष्ण की चितवन पर गोपियों के मोहित होने के समान ही समझते। अत: 'हम'के स्थान पर इस 'तुम' शब्द में कोई स्थूल दृष्टि से चाहे 'असंगति' का ही चमत्कार देख सन्तोष कर ले, पर इसके भीतर जो पवित्र भावव्यंजना है,वही सारे वाक्य का सर्वस्व है।

इस सौन्दर्य राशि के बीच में शील की थोड़ी सी मृदुल आभा भी गोस्वामीजी दिखा देते हैं-

सुनि सुचि सरल सनेह सुहावने ग्राम बधुन्ह कै बैन।

तुलसी प्रभु तरु तर विलंब, किए प्रेम कनौड़े कै न।।

यह 'सुचि सरल सनेह' तुरन्त समाप्त नहीं हो गया, बहुत दिनों तक बना रहा-कौन जाने जीवन भर बना रहा हो। राम के चले जाने पर बहुत दिनों पीछे तक, जान पहचान न होते हुए भी, उनकी चर्चा चलती रही-

बहुत दिन बीते सुधि कछु न लही।

गए जे पथिक गोरे साँवरे सलोने,

सखि! संग नारि सुकुमारि रही।।

जानि पहिचानि बिनु आपु तें,

आपुनेहु तें, प्रानहूँ ते प्यारे प्रियतम उपही।

बहुरि बिलोकिबे कबहुँक कहत,

तनु पुलक नयन जलधार बही।।

जिसके सौन्दर्य पर ध्याबन टिक गया, जिसके प्रति प्रेम का प्रादुर्भाव हो गया, उसकी और बातों में भी जी लगने लगता है। उसमें यदि बल,पराक्रम आदि भी दिखाई दे तो उस बल, पराक्रम के महत्तव का अनुभव हृदय बड़े आनन्द से करता है। गोस्वामीजी ने राम के अलौकिक सौन्दर्य का दर्शन कराने के साथ ही उनकी अलौकिक शक्ति का भी साक्षात्कार कराया है। ईश्वरावतार उस राम से बढ़कर शक्तिमान् विश्व में कौन हो सकता है'लव निमेष परमान जुग...काल जासु कोदंड।' इस अनन्त सौन्दर्य और अनन्त शक्ति में अनन्त शील की योजना हो जाने से भगवान् का सगुण रूप पूर्ण हो जाता है। 'शील' तक आने का कैसा सुगम और मनोहर मार्ग बाबाजी ने तैयार किया है! सौन्दर्य के प्रभाव से हृदय को वशीभूत करके शक्ति के अलौकिक प्रदर्शन से उसे चकित कराते हुए अन्त में वे उसे 'शील' या 'धर्म' के रमणीय रूप की ओर आप से आप आकर्षित होने के लिए छोड़ देते हैं। जब इस शील के मनोहर रूप की ओर मनुष्य आकर्षित हो जाता है और अपनी वृत्तियों को उसके मेल में देखना चाहता है, तब आकर वह भक्ति का अधिकारी होता है। जो केवल बाह्य सौन्दर्य पर मुग्ध होकर और अपूर्व शक्ति पर चकित होकर ही रह गया, 'शील' की ओर आकर्षित होकर उसकी साधना में तत्पर न हुआ, वह भक्ति का अधिकारी न हुआ। इस अधिकार प्राप्ति की उत्कंठा गोस्वामीजी ने कैसे स्पष्ट शब्दों में प्रकट की है, देखिए-

कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो?

श्री रघुनाथ कृपालु कृपा तें सन्त सुभाव गहौंगो।।

यथा लाभ सन्तोष सदा, काहू सौं कछु न चहौंगो।

परहित निरत निरन्तर मन क्रम वचन नेम निबहौंगो।।

परुष बचन अति दुसह श्रवण सुनि तेहि पावक न दहौंगो।

बिगत मान, सम सीतल मन, पर गुन, नहिं दोख, कहौंगो।।

परिहरि देह जनित चिन्ता, दुख सुख समबुद्धि सहौंगो।

तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरिभक्ति लहौंगो।।

शीलसाधना की इस उच्च भूमि में पाठक देख सकते हैं कि विरति या वैराग्य आप से आप मिला हुआ है। पर लोर्ककत्ताव्यों से विमुख करनेवाला वैराग्य नहीं-परहित चिन्तन से अलग करनेवाला वैराग्य नहीं-अपनी पृथक् प्रतीत होती हुई सत्ता को लोकसत्ता के भीतर लय कर देनेवाला वैराग्य, अपनी 'देहजनित चिन्ता' से अलग करनेवाला वैराग्य। भगवान ने उत्तरकांड में सन्तों के सम्बन्ध में जो 'त्यागहिं करम सुभासुभदायक' कहा है, वह 'परहित' का विरोध नहीं है। वह गीता में उपदिष्ट निर्लिप्त कर्म का बोधक है। जब साधक भक्ति द्वारा अपनी व्यक्त सत्ता का लोक में लय कर चुका, जब फलासक्ति रह ही न गई, तब उसे कर्म स्पर्श कहाँ से करेंगे? उसने अपनी पृथक प्रतीत होती हुई सत्ता को लोकसत्ता में-भगवान की व्यक्त सत्ता में-मिला दिया। भक्ति द्वारा अपनी व्यक्त सत्ता को भगवान की व्यक्त सत्ता में मिलाना मनुष्य के लिए जितना सुगम है उतना ज्ञान द्वारा ब्रह्म की अव्यक्त सत्ता में अपनी व्यक्त सत्ता को मिलाना नहीं। संसार में रहकर इन्द्रियार्थों का निषेध असम्भव है; अत: मनुष्य को वह मार्ग ढूँढ़ना चाहिए जिसमें इन्द्रियार्थ अनर्थकारी न हो। यह भक्ति मार्ग है, जिसमें इन्द्रियार्थ भी मंगलप्रद हो जाते हैं-

विषयिन्ह कहँ पुनि हरिगुनग्रामा। स्तवनसुखद अरु मन अभिरामा।।

इस प्रकार अपनी व्यक्त सत्ता को लोक में लय करना राम में अपने को लयकरना है क्योंकि यह जगत् 'सियाराममय' है। जब हम संसार के लिए वही करते हुए पाए जाते हैं जो वह अपने लिए कर रहा है-वह करते हुए नहीं जिसका लक्ष्य उसके लक्ष्य से अलग या विरुद्ध है-तब मानो हमने अपने अस्तित्व को जगत् को अर्पित कर दिया। ऐसे लोगों को ही जीवन्मुक्त कहना चाहिए।

'शील' और 'भक्ति' का नित्य सम्बन्ध गोस्वामीजी ने बड़ी भावुकता से प्रकट किया है। वे राम से कहते हैं कि यदि मेरे ऐसे पतित से सम्भाषण करने में आपको संकोच हो, तो मन ही मन अपना लीजिए-

प्रन करि हौं हठि आजु तें रामद्वार परयो हौं।

'तू मेरो' यह बिनु कहे उठिहौं न जनम भरि,

प्रभु की सौ करि निबरयो हौं।।

प्रगट कहत जौं सकुचिए अपराध भरयो हौं।

तौ मन में अपनाइए तुलसिहि कृपा करि,

कलि बिलोकि हहरयो हौं।।

फिर यह मालूम कैसे होगा कि आपने मुझे अपना लिया? गोस्वामीजी कहते हैं-

'तुम अपनायो, तब जानिहौ जब मन फिरि परिहै।

सुत की प्रीति, प्रतीति मीत की, नृप ज्यों डर डरिहै।।

हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै।

हानि लाभ दुख सुख सबै सम चित हित अनहित।।

कलि कुचाल परिहरिहै।।'

जब कलि की सब कुचालें छूट जाएँ, बुरे कर्मों से मुँह मुड़ जाय, तब समझूँ कि मुझे भक्ति प्राप्त हुई। जिस भक्ति से यह स्थिति प्राप्त न हो वह भगवद्भक्ति नहीं; और किसी की भक्ति हो तो हो। गोस्वामीजी की 'श्रुति सम्मत' हरिभक्ति वही है जिसका लक्षण शील है-

प्रीति राम सों, नीति पथ चलिय, राग रिसि जीति।।

तुलसी सन्तन के मते इहै भगति की रीति।।

शील हृदय की वह स्थायी स्थिति है जो सदाचार की प्रेरणा आप से आप करती है? सदाचार ज्ञान द्वारा परवर्तित हुआ है या भक्ति द्वारा,इसका पता यों लग सकता है कि ज्ञान द्वारा परवर्तित जो सदाचार होगा, उसका साधन बड़े कष्ट से-हृदय को पत्थर के नीचे दबाकर-किया जायेगा;पर भक्ति द्वारा परवर्तित जो सदाचार होगा, उसका अनुष्ठान बड़े आनन्द से, बड़ी उमंग के साथ, हृदय से होता हुआ दिखाई देगा। उसमें मन को मारना न होगा, उसे और सजीव करना होगा। कर्तव्य और शील का वही आचरण सच्चा है जो आनन्दपूर्वक हर्षपुलक के साथ हो-

रामहिं सुमिरत, रन भिरत, देत, परत गुरु पाय।

तुलसी जिनहिं न पुलक तनु ते जग जीवन जाय।।

शील द्वारा परवर्तित सदाचार सुगम भी होता है और स्थायी भी, क्योंकि इसका सम्बन्ध हृदय से होता है। इस शीलदशा की प्राप्ति भक्ति द्वारा होती है। विवेकाश्रित सदाचार और भक्ति इन दोनों में किसका साधन सुगम है, इस प्रश्न को और साफ करके बाबाजी कहते हैं-

कै तोहि लागहिं राम प्रिय, कै तू प्रभुप्रिय होहि।

दुइ महँ रुचै जो सुगम सो कीबे तुलसी तोहि।।

या तो तुझे राम प्रिय लगें या राम को तू प्रिय लग, इन दोनों में जो सीधा समझ पड़े सो कर। तुझे राम प्रिय लगें, इसके लिए तो इतना ही करना होगा कि तू राम के मनोहर रूप, गुण, शक्ति और शील को बार बार अपने अन्त:करण के सामने रखा कर; बस राम तुझे अच्छे लगने लगेंगे। शील को शक्ति और सौन्दर्य के योग में यदि तू बार बार देखेगा तो शील की ओर भी क्रमश: आप से आप आकर्षित होगा। तू राम को प्रिय लगे,इसके लिए तुझे स्वयं उत्तम गुणों को धारण करना पड़ेगा और उत्तम कर्मों का सम्पादन करना पड़ेगा। पहला मार्ग कैसा सुगम है, जो दूर जाकर दूसरे मार्ग से मिल जाता है और दोनों मार्ग एक हो जाते हैं। ज्ञान या विवेक द्वारा सदाचार की प्राप्ति वे स्पष्ट शब्दों में कठिन बतलाते हैं-

कहत कठिन, समुझत कठिन, साधतकठिन बिबेक।

होइ घुनाच्छर न्याय जो पुनि प्रत्यूह अनेक।।

कोई आदमी कुटिल है, सरल कैसे हो? गोस्वामीजी कहते हैं कि राम की सरलता के अनुभव से। राम के अभिषेक की तैयारी हो रही है। इसपर राम सोचते हैं-

जनमे एक संग सब भाई। भोजन, सयन, केलि, लरिकाई।।

बिमल बंस यह अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।

भक्तशिरोमणि तुलसीदासजी याचना करते हैं कि राम का यह प्रेमपूर्वक पछताना भक्तों के मन की कुटिलता दूर करे-

प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई।।

राम की ओर प्रेमदृष्टि पड़ते ही मनुष्य पापों से विमुख होने लगता है। जो धर्म के स्वरूप पर मुग्ध हो जायेगा, वह अधर्म की ओर फिर भरसक नहीं ताकने जायेगा। भगवान् कहते हैं-

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जनम कोटि अघ नासहिं तबहीं।।

पापवन्त कर सहज सुभाऊ। भजन मोर तेहि भाव न काऊ।।

राम के शील के अन्तर्गत 'शरणागत की रक्षा' को गोस्वामीजी ने बहुत प्रधानता दी है। यह वह गुण है जिसे देख पापी से पापी भी अपने उद्धार की आशा कर सकता है। ईसा ने भी पापियों को निराश होने से बचाया था। भक्ति मार्ग के लिए यह आशा परम आवश्यक है। इसी 'शरणप्राप्ति' की आशा बँधाने के लिए बाबाजी ने कुछ ऐसे पद कहे हैं जिनसे लोग सदाचार की उपेक्षा समझते हैं; जैसे-

बंधु बधू रत कहि कियो बचन निरुत्तार बालि।

तुलसी प्रभु सुग्रीव की चितइ न कछू कुचालि।।

इसी प्रकार गणिका, अजामिल आदि का भी नाम वे बार बार लाए हैं। पर उन्होंने भगवान् की भक्तवत्सलता दिखाने के लिए ऐसा किया है; यह दिखाने के लिए नहीं कि भक्ति और सदाचार से कोई सम्बन्ध ही नहीं है और पाप करता हुआ भी मनुष्य भक्त कहला सकता है। पापियों के उद्धार का मतलब पापियों का सुधार है-ऐसा सुधार जिससे लोक और परलोक दोनों बन सकते हैं। गोस्वामीजी द्वारा प्रतिपादित रामभक्ति का वह भाव है जिसका संचार होते ही अन्त:करण बिना कष्ट के शुद्ध हो जाता है-सारा कल्मष, सारी मलीनता आप से आप छूटने लगती है। अन्त:करण की पूर्ण शुध्दि भक्ति के बिना नहीं हो सकती, अपना यह सिद्धान्त उन्होंने कई जगह प्रकट किया है-

नयन मलिन परनारि निरखि, मन मलिन विषय सँग लागे।

हृदय मलिन बासना मान मद, जीव सहज सुख त्यागे।।

पर निन्दा सुनि स्तवन मलिन भए बदन दोष पर गाए।

सब प्रकार मल भार लाग निज नाथ चरन बिसराए।।

तुलसिदास व्रत दान ग्यान तप सुध्दि हेतु स्तुति गावै।

रामचरन अनुराग नीर बिनु मल अति नास न पावै।।

जबतक भक्ति न हो तबतक सदाचार को गोसाईंजी स्थायी नहीं समझते। मनुष्य के आचरण में शुद्ध ज्ञान द्वारा वह दृढ़ता नहीं आ सकती जो भक्ति द्वारा प्राप्त होती है-

कबहुँ जोग रत भोग निरत सठ हठ बियोग बस होई।

कबहुँ मोह बस द्रोह करत बहु कबहुँ दया अति सोई।।

कबहुँ दीन मतिहीन रंकतर, कबहुँ भूप अभिमानी।

कबहुँ मूढ़, पंडित बिडंबरत कबहुँ धरमरत ग्यानी।।

संजम जप तप नेम धरम व्रत बहु भेषज समुदाई।

तुलसिदास भवरोग रामपद प्रेम हीन नहिं जाई।।

इसी से उन्होंने भक्ति के बिना शील आदि सब गुणों को निराधार और नीरस कहा है-

सूर सुजान सपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई।

बिनु हरिभजन इँदारुन के फल तजत नहीं करुआई।।

कीरति कुल करतूति भूति भलि, सील सरूप सलोने।

तुलसी प्रभु अनुराग रहित जस सालन साग अलोने।।

भक्ति की आनन्दमयी प्रेरणा से शील की ऊँची से ऊँची अवस्था की प्राप्ति आप से आप हो जाती है और मनुष्य 'सन्त' पद को पहुँच जाता है। इस प्रेरणा में रूप, गुण, शील, बल, सबके प्रभाव का योग रहता है। इसी प्रकार के प्रभाव से-

भए सब साधु किरात किरातिनि, रामदरस मिटि गई कलुषाई।