दलित स्त्री आंदोलन तथा साहित्य- अस्मितावाद से आगे-2 / बजरंग बिहारी तिवारी

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दलित स्त्री आंदोलन तथा साहित्य-3
बजरंग बिहारी तिवारी

संक्रमण के दौर से गुजरती, क्रमश: आत्मविश्वास अर्जित करती दलित स्त्री तेलुगु दलित रचनाकार जलदि विजयकुमारी की एक कविता में इस तरह आकार पाती है:

  अनखिला फूल
  विफल ध्यान
  ... ... ...

  मैं एक शापित
  पुरूष जाति की दासी
  जिसने रूग्ण अक्षरों को बना डाला है सजावटी
  और
  हैवानियत से सत्ता का इस्तेमाल करते हुए
  अपनी लंपट वासनाओं का बंदी
  विवाह के नाम पर धोखा
  पुरूष-असुरों की मृत्यु धुन पर नाचती लाश
  दहेज के कब्रिस्तान में
  गूंज रही लय विरोधी विचारधारा की
  लेकिन, अगर तुम्हारे हाथ में शहनाई जरा भी अचेत हुई
  मैं व्यथित होने वाली नहीं
  भीषण बदला
  प्रतिरोधी बाना
  इसीलिए ओ मां
  हताशा और विफलता से पीड़ित
  यह हमारा युग है।
  आगे बढ़ो हिम्मती बहनों
  मैं दूंगी तुम्हारा साथ
  मैं अबला नहीं
  मैं हूँ, शक्ति
  जिसने रचे ढांचे
  लुढकाने को पंक
  “मैं एक मां”
  जिसने जिंदगी बख्शी स्वयं इस जन्म को। 36

पीड़ित से शक्तिसंपन्न व्यक्तित्व में अंतरण प्राय: सभी भाषाओं की दलित स्त्री रचनाकारों में देखा जा सकता है। नयी दलित स्त्री खुदमुख्तार है। अपनी जिम्मेदारियों से वाकिफ़ और अपने अधिकारों के प्रति सचेत है। उसका संघर्ष और संकल्प बेहतर वर्तमान के साथ काम्य भविष्य के निर्माण के लिए है। नयी दलित स्त्री की कुछ अभिव्यक्तियां देखिए:

1.‘एक दिन आऊंगी मै
दबावों के चलते नहीं
न किसी की दासी बनकर
तनी हुई रीढ़ के साथ
किसी के सामने झुकती हुई नहीं
बगैर किसी चूक के
किसी को बातचीत की अनुमति दिए बिना
सोचने का समय दिए बिना
आलोचना की परवाह न करके
प्रतिक्रियाओं के लिए अवकाश दिए बगैर
तब मेरा साथी होगा सत्य
कर्म मेरी ताकत.’
(के.के. निर्मला, मलयालम)37,

2. ‘बहुत दिनों से देख रही थी
कुछ झंडे पड़े हुए थे
धूप-छांह, वर्षा-पानी से भी
कुछ फ़र्क नहीं पड़ा था इन प
/पास से गुजर रही जनता की आँखें भी
नहीं पड़ रही थीं इन पे
अयोग्य है यह पकड़ने के लिए
कंधे पर उठाकर ज्यों चलना शुरू किया।
 जनता के ये सवाल तभी से
आप में से किसी ने उठाया नहीं इसे
इसलिए मैंने उठा लिया
इसके बाद देख रहीं हूँ
एक-एक करके सभी उस स्तूप से
झंड़ा उठाकर चलना शुरू कर दिए
कौन किस तरह जाएगा, यह समझे बिना
कुछ लोग तितर-बितर हुए
कुछ लोग इधर-उधर चल दिए
अंत में देखती हूँ
सभी का गंतव्य
उस एक ही दिशा की तरफ हैं’38,
(कल्याणी ठाकुर, बाग्ला)

3.‘मैं हूँ शक्ति
मैं हूँ आशा
मैं हूँ तो कैसी निराशा?
मैं तेरे खेतों में बहती।
शीत-जल प्रवाहिनी हूँ।
बांध जब मुझ पर बने
तो दामिनी हूँ
जो करोगे प्रेम
तो मैं रागिनी हूँ
झूठी मर्यादाओं में
न मैं बधूंगी
परम्परा और संस्कृति के नाम पर न
मैं दबूंगी‘ (39),
(पूनम तुषामड़, हिन्दी)

4.‘बेआवाज़ लहरों वाला सागर
किलकारियां भरता चंद्रमा
बेसुर रात में झींगुरों के प्रेम पर
सोचती-जागती
काली चमड़ी के भीतर सुनने की हामी
भरतीहुई
वार्तालाप
आक्रोश
अट्ठाहास
कराहें
लड़कियां
आदि मचल रहे हैं
एक सिनेमाघर!’ (40),
(धन्या ए.डी. मलयालम)

5. अनिता भारती, हिन्दी ‘आँखों में भर लूं
आसमान
दौड़ जाऊं इठलाकर
बादलों पर
सारी दुनिया मेरी है
मन की कलियां
सतरंगी सपने बुन रही हैं
सूरज की गमक आँखों में
भर रही हैं (41),
(अनिता भारती, हिन्दी)



जैसे पारम्पारिक वर्चस्ववादियों को शिकायतों का पिटारा लिए बैठा दलित सह्य लगता है वैसे ही अस्मितावादियों को व्यथा में डूबी दलित स्त्री की आवाज़ स्वीकार्य लगती है। लेकिन, यह स्त्री जब स्वयं कदम उठाती है, बाहरी और भीतरी हिंसा के खिलाफ संघर्ष में उतरती है, न्याय का माँग करती है,अपनी शर्तों पर जिन्दगी जीने के ख्वाब बुनती है तो अस्मितावादियों और पारम्परिक वर्चस्ववादियों-दोनों को खटकने लगती है। वर्चस्ववादियों का खटकना तो तुरन्त समझ में आ जाता है लेकिन अस्मितावादियों का बिडम्बनापूर्ण लगता है। इस असुविधाजनक स्थिति से निपटने के लिए आम तौर पर अस्मितावादियों के तीन खेमे बनते देखे जा सकते हैं। पहले वर्ग में वे लोग होते हैं जो स्त्री मात्र के प्रति घृणा से भरे रहते हैं। दलित स्त्रियां भी उनकी कोप दृष्टि से बाहर नहीं रहतीं। दूसरी श्रेणी सांस्कृतिक अस्मितावादियों की होती है। भीतर की कमजोरी बाहर न प्रकट हो इस तर्क से,

तथाकथित दलित संस्कृति मूलनिवासी संस्कृति नाग संस्कृति...

की पुनर्रचना,पुनर्प्राप्ति के तर्क से, यह लड़ाई हम लड़ ही रहे हैं, के तर्क से दलित स्त्रियों को चुप कराने या अपने अजेंडे की अनुगामिनी बनाने पर उनका ज़ोर रहता है। तीसरे वर्ग में ऐसे विचारक होते हैं जो दलित स्त्रियों का विरोध नहीं करते। यही नहीं,वे दलित स्त्रियों की बदनामी करने वाले पहले वर्गकी खुलकर आलोचना भी करते हैं। लेकिन, इस वर्ग के लिए जाति का प्रश्न सर्वोपरि होता है। पितृसत्ता को जाति जैसी प्राथमिकता देना उन्हें विचलन लगता है। वे इसीलिए ऐसी लेखिकाओं और जाति तथा पितृसत्ता को समान महत्व देने वाली रचनाओं की चर्चा करने से यथासंभव बचते हैं। दलित स्त्री जीवन को सामान्य दलित जीवन में अन्तर्भुक्त मानकर वे दलित स्त्रीवाद की अलग से चर्चा करना जरूरी नहीं समझते। (42),

दलित स्त्रीवाद में सौंदर्यशास्त्र को लेकर उत्सुकता का प्राय: अभाव दिखता है। दलित अस्मितावाद में ‘अपना’ सौन्दर्यशास्त्र गढ़ने की जैसी व्यग्रता पनपी औऱ बनी हुई है वैसी मांग दलित स्त्रीवादियों की तरफ से नहीं की गई है। इसके कारणों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पहली वजह यह लगती है कि जो समुदाय मानवधिकारों की लड़ाई लड़ रहा हो उसके लिए राजनीतिक चेतना का महत्व हैं, सौन्दर्यशास्त्र का नहीं। दूसरी यह कि सौंदर्यशास्त्र की प्रकृति में स्त्री के वस्तूकरण की आशंका अंतर्ग्रथित है। तीसरी, विश्व बाजार की घुसपैठ ने वस्तूकरण की आशंका को मजबूती दी है। विचारणीय है कि दलित सौंदर्यशास्त्र के दोनों अधिकारी विद्वान वैश्वीकरण तथा बाजारवाद के समर्थक भी हैं।(43) चौथी वजह यह है कि यह दौर नयी दलित स्त्री के निर्माण का है। इस दौर की प्राथमिक चिंता सशक्तीकरण के संसाधन जुटाने और अनुकूल माहौल बनाने की है। सौन्दर्यशास्त्र इस संदर्भ में दलित स्त्रीवादियों को शायद कोई सहायता नहीं देता। पांचवी और फिलहाल आखिरी वजह दलित सौन्दर्यशास्त्र के ऊपर छपे ग्रंथों की विषयवस्तु है। शरण कुमार लिंबाले द्वारा लिखित ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ देशी-विदेशी साहित्य की चर्चा करने वे बावजूद दलित स्त्री लेखन की नोटिस तक नहीं लेता। ‘दलित वीमेंस राइटिंग, की संपादक के. सुनीता रानी ने प्रस्तुत पुस्तक के बारे में यह कहते हुए अपनी आपत्ति दर्ज कि पश्चिमी साहित्य, भारतीय साहित्य और दलित साहित्य की चर्चा करने वाले लेखक ने दलित स्त्री साहित्य का उल्लेख तक क्यों नहीं किया। यह तब जबकि मराठी दलित साहित्य में दलित स्त्रियों की सशक्त आवाज़ मौजूद थी। (44), अपनी इस पुस्तक के नए (दूसरे) संस्करण में लिंबाले ने इन पंक्तियों के लेखकों द्वारा लिया गया इंटरव्यू शामिल किया है। दलित स्त्री पर केन्द्रित मेरे प्रश्न के जवाब में उन्होंने यह अवश्य माना कि ‘उसका दोहरा शोषण होता है’, लेकिन, दलित स्त्रियों की आलोचना के केन्द्र डॉ. धर्मवीर का संदर्भ आने पर उन्होंने धर्मवीर का पक्ष लिया। (45),दलित सौन्दर्यशास्त्र के विशेषज्ञ से यह उम्मीद ग़ैरवाजिब नहीं कि वह दूसरों के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील होगा। लिंबाले की संवेदनशीलता का पता चला दलित स्त्रीवादी उर्मिला पवार की आत्मकथा ‘आयदान’ के प्रकाशन पर। उर्मिला पवार पर हमला करने वालों में शरणकुमार लिंबाले दूसरों से आगे रहे। उर्मिला पवार की आलोचना के मुख्य बिन्दु ये थे-

• उनकी (उर्मिला की ) सोच फेमिनिस्ट है। (फेमिनिज़्म- आरोप, विपथन के रूप में)

• अंतरंग बातों को सार्वजनिक करना अम्बेडकरवाद के दायरे में नहीं आता। पति से उनके संबंध कैसे थे- यह बताने में अम्बेडकरवादी दर्शन कहाँ है?

• क्योंकि उर्मिला नारीवादियों के सम्पर्क में हैं इसलिए ऐसा (ग़ैर अम्बेडकरवादी लेखन) कर रही हैं।

• जब वे अपने पति हरिश्चन्द्र का शराब पीना नहीं छुड़वा सकीं तो सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में विफल रहेंगी ही।

• मरणासन्न पति की किडनी एक ज़रूरतमंद युवती को दान करने के उर्मिला के विचार पर स्तब्ध लिंबाले ने कहा कि यह सोच नारीवादी विचारधारा की देन है। ‘एक विवाहिता भला अपने पति के बारे में ऐसा सोच भी कैसे सकती है?’(46),

दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र पर दूसरी किताब ओम प्रकाश वाल्मीकि की है। किताब में एक दर्जन से अधिक अध्याय हैं लेकिन दलित स्त्री की पीड़ा या उसका साहित्य किसी भी अध्याय का विषय नहीं बन सके हैं। (47), वाल्मीकि (सौन्दर्यशास्त्री होने के साथ) कवि, कथाकार, आलोचक भी हैं। नहीं याद पड़ता कि किसी कविता या कहानी में उन्होंने नयी दलित स्त्री की शिनाख्त़ की हो, उसका चरित्र रचा हो। उसे समर्थन देने की बात तो इसके बाद हीआती है। उन्होंने किसी आलोचना ग्रंथ में दलित स्त्री आन्दोलन की चर्चा तक नहीं की है। हाँ, उनकी कई कहानियों में ‘पारम्परिक’ दलित स्त्रियों के चरित्र हैं। इनमें कुछ-एक की संघर्ष-क्षमता प्रेरणास्पद लग सकती है। लेकिन नैतिकता/यौन मर्यादा के प्रश्न पर लेखक ने परम्परा का ही समर्थन किया है।(48),

दलित सौन्दर्यशास्त्र और उसके प्रस्तावकों की इन भूमिकाओं से दलित स्त्रीवादियों का शंकित होना स्वाभविक ही है। सौन्दर्यशास्त्र से उनके विकर्षण में इस परिस्थितिजन्य अनुभव की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

दलित स्त्रीवादी आन्दोलन ने अपने विकास का दूसरा पड़ाव कठिनाइयों से गुजरते हुए सफलतापूर्वक पार कर लिया है। अब उसकी सामर्थ्य और स्वतंत्र-स्वायत्त स्थिति पर बहस करने की जरूरत नहीं रह गयी। अस्मितावाद अपनी ऐतिहासिक भूमिका लगभग निभा चुका है। जैसे अर्सा पहले जातिवादी संस्कृति का मानव विरोधी रूप पहचाना जा चुका है वैसे दलित धर्म और संस्कृति के किसिम-किसिम के संस्करण भी मानवाधिकारों की राह में अवरोधक के रूप में चिन्हित होने लगे हैं। दलितवाद को छोड़कर अम्बेडकरवाद की तरफ जाना इसीलिए श्रेयस्कर माना जा रहा है। अम्बेडकरी आन्दोलन की विरासत से निकला स्त्रीवाद अपने दम पर अग्रसर है। अम्बेडकरी आन्दोलनों से निकली, जन अभियानों के बीच निर्मित हो रही युवाओं की नयी पीढ़ी इन स्त्रीवादियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती देखी जा सकती है। यह पारस्परिक सहयोग भरोसा पैदा करता है। रूप के स्तर पर ‘जेंडर से ‘सेंसिटिव’ नयी पीढ़ी को अंतर्वस्तु के स्तर पर भी समृद्ध करना इस आन्दोलन की बड़ी जिम्मेदारी है।(49),

अपने संघर्षों, सरोकारों को यह आन्दोलन जितना भविष्योन्मुखी, जनोन्मुखी तथा संवेदनक्षम बनाता जाएगा उतना ही पीड़ित मानवता के काम का साबित होगा। इस क्षेत्र के अध्येताओं तथा सिद्धांतकारों को अस्मितावाद से बाहर आकर उत्तर अस्मितावाद की चर्चा की शुरूआत करनी है। उत्तर अस्मितावाद का स्वरूप अभी बन ही रहा है। स्वरूप निर्माण की दिशा दलित स्त्री आन्दोलन को तय करना है। दलित स्त्री विमर्श रूप के स्तर पर नयी दलित स्त्री को गढ़ सकता है, लेकिन आवश्यकता अन्तर्वस्तु से संपन्न नयी दलित स्त्री के निर्माण की है। यह तभी संभव हो सकता है जब दलित स्त्री आन्दोलन जीवन के आधारभूत मुद्दों पर संघर्ष छेड़े। इन मुद्दों पर संघर्षशील संगठनों, समूहों के साथ सहयोग करे तथा ईमानदार प्रयासों को साझे मंच पर लाने में अपनी भूमिका निभाए। अभी भी सबसे कम साक्षरता दलित स्त्रियों में है। पारिवारिक सम्पत्ति में उनका हिस्सा प्राय: नहीं होता। उन पर हुए जुल्म को प्रशासन हर संभव नज़रअंदाज करने की कोशिश करता है। पुरूषों के मुकाबले उनकी मजदूरी अक्सर कम होती है। काम के घण्टे, अवकाश, उचित परिवेश और हिंसामुक्त परिवार चिंता का विषय बने हुए हैं। इन सबसे टकराए बिना न मानवाधिकारों की रक्षा की बात सोची जा सकती है और न नयी दलित स्त्री के निर्माण को पूरी तरह साकार किया जा सकता है।

दलित स्त्री की सक्रियता, संघर्ष क्षमता और समानधर्माओं के प्रति संवादोन्मुख रवैये से उनके पक्ष को मजबूती मिल रही है।



संदर्भ



1. ‘Dalit Feminism: Where Life- Worlds and Histories Meet’,



v.Geetha in ‘Women Contesting Culture: Changing



Frames of Gender Politics in India’ (2012), Edited by Kavita Panjabi and ParomitaChakravarti, STREE, Kolkata, P.244.



2. वहीं. पृ. 245



3. ‘Untouchabity and Dalit Women’s Oppression’, Bela Malik in ‘Gender and Caste’ (2003 Reprint 2006) Edited by AnupamaRao. Kali for Women, New Delhi,Pp.102-107



4. वहीं. पृ.103.



5. वहीं पृ.103



6. ‘A Dalit Feminist Standpoint’, SharmilaRege in ‘Gender and Caste’, Pp.90-101. This paper was originally pubslished in Seminar 471, Nov.1998, pp.47-52.



7. वहीं पृ.93.



8. वहीं पृ.93.



9. वहीं पृ.95.



10. ‘Dalit Women Talk Differently’, Gopal Guru, Economic and Political Weekly, Oct.14-21,1995, pp. 2548-50. This essay is reprodueed in ‘Gender and Caste’, pp. 80-85.



11. शार्मिला रेगे, पूर्वोक्त, पृ.99.



12. अनुपमा राव द्वारा ‘जेंडर एंड कास्ट’ की भूमिका में उद्धृत, पृ.4.



13. ‘The Prisons We Broke’ (2008), Baby Kamble, Trans. MayaPandit, Orient Longman, Afterword-Gopel Guru, p.160



14. वहीं पृ.161.



15. वहीं पृ.154-55



16. वहीं पृ.155.



17. वहीं पृ.156-57.



18. ‘Dalit Movements and Women’s Movements’, Gabriele Dietrich in ‘Gender and Caste’, pp.65-66.



19. वहीं पृ.66.



20. वहीं पृ.66.



21. ‘Power That Transcends’, S, Thenmozhi in ‘The Oxford India Anthology of Tamil Dalit Writing’ (2012) edited by Ravikumar and R.Azhagarasan, Oxford Univorsity Press P.305



22. वहीं पृ.305



23. वहीं पृ.305.



24. ‘दलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर’(2008), विमल थोरात, अनामिका पब्लिशर्स, नई दिल्ली, पृ10.



25. ‘समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन’(2011), सम्पादक रजनी तिलक, रजनी अनुरागी, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.12.



26. ‘Flowering from the soil: Dalit Women’s Writing form Telugu’(2012) Translated and Compiled by K.SuneethaRani,Prestige Books International New Delhi.pp. 38-44



27. ‘The Cracked Mirror: An Indian Debate on Experience and Theory’(2012) Gopal Guru, Sunder Sarukkai, Oxford University Press.



28. कुल नौ अध्यायों की उक्त पुस्तक गोपाल गुरू और सुन्दर सरूक्काइ के बीच संवाद के रूप में है।



29. ‘Humiliation: Claims and Context’(2009) edited by Gopel Guru, Oxford University press.



30. ‘आयदान’(2010) उर्मिला पवार, अनु.माधवी प्र.देशपाण्डे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, ‘आत्मभान’(भूमिका) से उद्धृत।



31. ‘बीजबैंक’ अनिता भारती, ‘कथादेश’ नवम्बर 2011 अंक में प्रकाशित। यह कहानी लेखिका के संग्रह ‘एक थी कोटेवाली’ में भी संग्रहीत है।लोकमित्र प्रकाशन 2012



32. ‘समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध’ (2013) अनिता भारती, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.295.



33. Gabriele Dietrich in ‘Gender and Caste’, pp.74-75.



34. ‘अक्करमाशी’- (दोगला)- मराठी-शरण कुमार लिंबाले, ‘जूठन’,-हिन्दी- ओमप्रकाश वाल्मीकि, ‘तिरस्कृत’- हिन्दी- सूरजपाल चौहान ‘घाव’- तमिल- के.ए. गुणशेखरम, ‘छांग्या रूक्ख’-(कटा छंटा पेड़)- पंजाबी- बलबीर माधोपुरी।



 ‘जीवन हमारा’-मराठी- बेबी कांबले, ‘करक्कु’-(एक विशेष पेड़ की धारदार पत्ती) –तमिल- बामा, ‘आयदान’(डलिए की बुनाई)- मराठी- उर्मिला पवार। हिन्दी में सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ प्रकाशित है। यह कृति दलित स्त्री लेखन को समझने में सहायता कर सकती है परन्तु लेखिका को दलित स्त्रीवादी कहने में संकोच है।



35. गैब्रिएल डीट्रिख द्वारा उद्धृत ‘जेंडर एंड कास्ट’, पृ.70. इस भावधारा की दलित स्त्री कविताओं का एक अध्ययन मैंने ‘हमारे हिस्से का सच: तेलुगु दलित स्त्री लेखन’ ‘कथादेश’ मार्च 2006 में प्रकाशित करवाया था।



36.’Flowring from the soil’, pp.300-301.



37. ‘कथादेश’ फरवरी 2010, दिल्ली, पृ.66.



38.‘कथादेश’ सितम्बर 2009, पृ.72-73. अनुवाद-निशांत। जिन कविताओं के अनुवादक/अनुवादिका का नाम नहीं दिया गया है उनका अनुवाद इन पंक्तियों के लेखक ने किया है।



39. ‘मां मुझे मत दो’ (2010), पूनम तुषामड़, सफाई कर्मचारी आन्दोलन, नई दिल्ली, पृ. 51.



40. कथादेश, जून 2012, मलायलम दलित स्त्री कविता पर विशेष आयोजन, अनुवाद- प्रमीला के.पी., पृ.80.



41.‘एक कदम मेरा भी’ (2013), अनिता भारती, बुक्स इंडिया, दिल्ली, पृ.152.



42. ‘हिन्दी दलित साहित्य’ (2011) मोहनदास नैमिशराय, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली। कुल चौदह अध्यायों वाले इन ग्रंथ में एक भी अध्याय दलित स्त्री लेखन पर नहीं है।



 ‘दलित अस्मिता’ जनवरी-मार्च 2011 अंक में डॉ.रामचंद्र का लेख ‘दलित काव्य में दलित चेतना’ प्रकाशित है। इसमें लेखक ने दलित काव्य/साहित्य की प्राथमिकताएं गिनाई हैं। अपेक्षित विस्तार के साथ परिगणित पंद्रह प्रवृतियों में एक का भी संबंध दलित स्त्री जीवन/संघर्ष/साहित्य तथा पितृसत्ता से नहीं है। नयी पीढ़ी के एक अस्मितावादी द्वारा दलित स्त्री लेखन तथा आन्दोलन का पूर्ण नकार मानीखेज है। पृ.21-24.



43. दलित सौन्दर्यशास्त्र के अधिकारी विद्वान हैं शरणकुमार लिबांले तथा ओमप्रकाश वाल्मीकि। वैश्वीकरण और बाजारवाद पर इनकी मान्यताओं की कुछ चर्चा मैंने अपने एक लेख ‘दलित कविता और समकालीन चुनौतियाँ: जय प्रकाश लीलवान की कविताएं’ में की है। देखिए, ‘दलित अस्मिता’ जुलाई-दिसम्बर 2012, पृ.37-46.



44. ‘Flowering from the Soil’, p.16.ss



45.‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ (2005), शरण कुमार लिबांले, अनु. रमणिका गुप्ता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.169. प्रासंगिक अंश इस प्रकार है: “उन्होंने (धर्मवीर ने) इस (मातृसत्ता) पर रिसर्च किया है। मैंने उनकी थ्योरी पढ़ी नहीं इसलिए इस पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा।...धर्मवीर ब्राह्मणवाद का विरोध करते हैं। वे हमेशा अपनी बात रेडिकल स्टाइल से रखते हैं। इसलिए उनको समझने में दिक्कतें आती हैं।”



46. ‘The Weave of My Life: A Dalit Women’s Memoirs’(2008) UrmilaPawar, Translated by Maya Pandit, Stree, Kolkata, Quoted from Introduction by Maya Pandit, pp.xx viii- xxix.



47.‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ (2001), ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली.



48. ‘दलित कहानियों का परिदृश्य’, बजरंग बिहारी तिवारी, ‘हंस’ दिसम्बर 2001. पृ.25-29.



49. द्रष्टव्य- ‘Post Feminism: Cultural Text and Theories’ (2009) Stephanie Genz and Benjamin A Brabon, Edinburgh University Press.