दशरूपक / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
एक थे "धनन्जय"।
एक थे "धनिक"।
"धनन्जय" बड़े भाई थे, "धनिक" छोटे।
भरतमुनि के "नाट्यशास्त्र" को "नाट्यवेद" कहकर भारतीय परम्परा में विशेष स्थान दिया गया है।
यह अवश्यम्भावी ही था कि "नाट्यशास्त्र" की अनेक व्याख्याएं होतीं, अतैव उसके अनेक काव्यशास्त्रीय प्रवर्तन हुए, रीतिवादी, पुष्टिवादी, मुक्तिवादी, अभिव्यक्तिवादी प्रभृति आचार्यों ने उस पर सुदीर्घ टीकाएं लिखीं।
हर बार व्याख्या का मनोरथ यही रहता कि "नाट्यशास्त्र" की स्थापनाओं का सरलीकरण किया जावै और हर बार नई व्याख्या अपने में एक नया गूढ़ पाठ बनकर रह जाती।
"नाट्यशास्त्र" के बीसवें अध्याय को "दशरूप-विधान" कहा गया है।
इसी से प्रेरणा लेकर मुंजराज के सभासद "धनन्जय" ने ग्यारहवीं सदी में "नाट्यशास्त्र" की एक नई व्याख्या रची और उसे "दशरूपक" कहकर पुकारा।
धनन्जय का हेतु भी वही था : नाट्यशास्त्रीय सिद्धांतों को संक्षिप्त करके उन्हें लोक के लिए अधिक उपयोगी बनाया जावै।
इसकी प्रस्तावना उन्होंने इस तरह रखी-
"व्यकीर्णे मंदबुद्धिनां जायते मतिविभ्रम:। तस्यार्थस्तत्पदैस्तेन संक्षिप्त क्रियतेऽजसा॥"
अर्थात, भरतमुनि द्वारा प्रणीत नाट्यशास्त्र विस्तार से लिखा गया है, जिसमें रूपक रचना संबंधी बातें यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं। अतः मतिभ्रम की संभावना बनी हुई है। इसलिए साधारण बुद्धि वालों के लिए उसी नाट्यवेद के शब्द और अर्थों को लेकर संक्षेप में सरल रीति से इस ग्रंथ की रचना कर रहा हूं।
किंतु "धनन्जय" ने कारिकाओं में यह ग्रंथ लिखा था और अधिकांश कारिकाएं "अनुष्टुप" छंद में रचीं, जिससे ये कारिकाएं भी दुरूह हो गईं।
तब "धनन्जय" के अनुज "धनिक" ने इन कारिकाओं पर एक वृत्ति लिखी, और उसे "अवलोक" कहकर पुकारा।
"नाट्यशास्त्र" का सरलीकरण "दशरूपक" था। "दशरूपक" का सरलीकरण "अवलोक"।
फिर ऐसा होने लगा कि "दशरूपक" जब भी प्रकाशित होता, साथ में धनिककृत उसकी वृत्ति "अवलोक" भी प्रकाशित होती। दोनों का साथ ही पाठ किया जाता।
एक थे "धनन्जय", एक थे "धनिक"।
कालान्तर में दो भाइयों की यह कथा और आगे बढ़ी।
अब यह हो गया-
एक थे "हजारीप्रसाद", एक थे "पृथ्वीनाथ"।
पृथ्वीनाथ द्विवेदी आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के छोटे भाई थे। अत्यंत मेधावी। संस्कृत ग्रंथों के अनुशीलन में अहर्निश आद्यन्त डूबे रहने वाले। अल्पायु में ही संस्कृत साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों को हिंदी में उन्होंने अनूदित कर दिया था। इनमें भासकृत नाटकों के अनुवाद विशेष उल्लेख्य हैं। किंतु अल्पायु में ही वे चल बसे। एक विलक्षण मेधा का दीपक असमय ही बुझ गया।
पृथ्वीनाथ द्विवेदी ने "धनन्जयकृत दशरूपक" का भी हिन्दी में अनुवाद किया था।
उनके देहान्त के उपरान्त उनके अग्रज आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने यह अनुवाद प्रकाशित करवाया और उसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण भूमिका लिखी।
क्या ही कौतूहल है कि "नाट्यशास्त्र" के प्रवर्तन से जुड़ी दो भाइयों के स्नेह, सहकार और परस्पर सम्मान की यह गाथा एक सहस्राब्दी के विस्तार में फैली हुई है।
यह सौभाग्य ही है कि "नाट्यशास्त्र की भारतीय परम्परा और दशरूपक" शीर्षक से वह पुस्तक आज हमें सहज उपलब्ध है, ये और बात है कि "नाट्यशास्त्र" के दुरूह-योग का सन्धान अब भी होने नहीं पाता है।
[ पुनश्च : "नाट्यशास्त्र" के "दशरूपक" हैं : नाटक, प्रकरण, अंक, व्यायोग, भाण, समवकार, वीथी, प्रहसन, डिम और ईहामृग। इसमें ग्यारहवां रूपक उसी प्रकार से "नाटिका" को माना जाता है, जैसे पांचवां वेद "नाट्यवेद" कहलाया है ]
एवमस्तु।