भारत की कालचेतना / सुनो बकुल / सुशोभित

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भारत की कालचेतना
सुशोभित


विलियम जोन्स ने 1784 में "एशियाटिक सोसायटी" की स्थापना की, जिससे आधुनिक "इंडोलॉजी" की शुरुआत मानी जाती है। औपनिवेशिकता की अनेक देन में से एक यह "भारत-जिज्ञासा" भी है, जिसने ज्ञान-सम्पदा के नए स्रोतों का उद्घाटन किया था।

प्रारंभिक महत्वपूर्ण इंडोलॉजिस्टों में रेवरेंड मैथ्यू एटमोर शेरिंग (1826–1880) भी शुमार थे, जिन्होंने बनारस में रहकर हिंदू तीर्थों पर एक किताब लिखी थी। उनकी एक अन्य किताब तत्कालीन हिंदू जातियों और जनजातियों का एक सर्वेक्षण भी है। भारत में प्रोटेस्टेंट मिशन के इतिहास पर भी उनका शोध है। बनारस के इतिहास पर एक अन्य किताब "द सेक्रेड सिटी ऑफ़ हिंदूज़" लब्धप्रतिष्ठ है।

पश्चि‍म का इतिहास बोध प्रखर है, भारत की कालचेतना उससे बहुत भिन्न है। वस्तुत: वह एकरैखिक ना होकर वर्तुल है। जो भी कारण रहा हो, भारत में इतिहास के दस्तावेज़ीकरण के प्रति वैसी चेतना रही नहीं है, जैसी पश्च‍िम में रही है। काल ही क्या देश भी ले लीजिए, भारत कभी भी नक़्शानवीसों का स्वर्ग नहीं था। फ़ादर शेरिंग इससे बहुत चकित रहते थे। बनारस के इतिहास पर जब वे शोध कर रहे थे तो उन्होंने पाया कि भारत के इतिहास का एक ठीक-ठीक अभिलेख बुद्धकाल से प्राप्त होता है, लेकिन उससे पहले का लगभग सबकुछ धुंध में है।

"द सेक्रेड सिटी ऑफ़ हिंदूज़" की भूमिका इस क्रम में पठनीय है। इसमें वे लिखते हैं कि समझ नहीं आता जिस भारत ने पाणिनि जैसा वैयाकरणिक दिया, जो अध्यवसाय के अनुशासनों से इतना सुपरिचित था, वह इतिहास-लेखन के प्रति इतना निरपेक्ष क्यों बना रहा। महाभारत जैसे अद्भुत आख्यान का कोई ऐतिहासिक अभिलेख नहीं है। छठी सदी ईस्वी पूर्व में बुद्ध ने सारनाथ के ऋषि‍पत्तन मृगदाव में धर्मचक्रप्रवर्तन किया, यह तो सुविज्ञात है, लेकिन काशी इससे कहीं प्राचीन नगरी है जबकि उस पर इतिहास मौन बना रहता है। अपनी उस भूमिका में शेरिंग की रोचक टिप्पणी है कि "भारतीय आख्यानों में क्या तथ्य है और क्या कल्पना, इन दोनों को अलग करना उतना ही मुश्क‍िल है, जितना कि गंगा और यमुना के पानी को अलग करना।"

जिस परम्परा ने अपने अमूल्य धर्मग्रंथों को भी लिपिबद्ध करने में रुचि ना दिखाई हो और श्रुति-स्मृति परंपरा से उसे याद रखा हो, वह इतिहास लेखन के प्रति अगर निरपेक्ष रही आई हो तो क्या आश्चर्य। इतिहास के दस्तावेज़ीकरण के प्रति हम उन्मुख क्यों नहीं हैं, इस पर एक रोचक विमर्श हो सकता है। इस पर कि समय की परिघटना को हम किस रूप में देखते हैं। औपनिवेशिक प्रक्रिया के तहत पश्च‍िम ने अपनी सुपरिचित शोध-वृत्त‍ि के चलते भारत का अनुसंधान किया था, लेकिन किस भारत को उन्होंने खोजा? कहीं ऐसा तो नहीं उन्होंने एक नए भारत का "पुनराविष्कार" कर लिया हो, और इतिहास के अनुक्रमों से दूर बना रहने वाला भारत अब भी उनके अभिलेखों के दायरों से बाहर छूट गया हो।