दीर्घतमा और प्रद्वेषी / रांगेय राघव

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प्राचीन काल में उतथ्य नाम के एक ऋषि थे। उनकी स्त्री का नाम ममता था। ममता अत्यन्त रूपवती थी। जब वह चलती तो आश्रम में एक बार तो उस रूप की गन्ध चारों ओर बिखर जाती। ममता के इस अनुपम रूप को देखकर उतथ्य के कनिष्ठ भ्राता महातेजस्वी बृहस्पति मोहित हो गये। वे देवताओं के पुरोहित थे। उन्होंने आकर ममता के रूप की प्रशंसा करते हुए उससे रति की इच्छा की।

इस पर ममता ने अति कोमल स्वर से कहा, “हे देवर! इस समय मैं तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता के सहवास के कारण गर्भवती हो गयी हूँ। जो सन्तान मेरे गर्भ में पल रही है वह महातेजस्वी है। उसने गर्भ में ही षडंग वेद पढ़ लिये हैं। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि पहले उसे पैदा हो जाने दो। क्योंकि मैं यह निश्चयपूर्वक जानती हूँ कि तुम्हारा भी वीर्य कभी निष्फल नहीं जा सकता और उससे भी मुझे गर्भवती होने का भय है। अब तुम्हीं बताओ, मेरे गर्भाशय में दो बालकों के लिए स्थान कहाँ है? अतः कुछ समय के लिए तुम अपनी इच्छा स्थगित कर दो।”

लेकिन बृहस्पति तो काम-पीड़ा से विह्वल हो रहे थे। वे किसी भी हालत में प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं थे। ममता का रूप बार-बार उनके हृदय में कसक उठता था। उन्होंने ममता की बात न मानकर उसके साथ रमण करना चाहा। तब गर्भ में स्थित उतथ्य के पुत्र ने कहा, “हे पूज्यवर! काम के अधीन होकर यह अन्याय आप न करें। यहाँ गर्भ में इतना स्थान नहीं है कि दूसरा बालक पल सके, इसलिए आप अभी रमण करने की इच्छा छोड़ दीजिए। आपका वीर्य अमोघ है। इस कारण वीर्य-पात करके मुझे पीड़ा न पहुँचाइए।” बालक की आवाज बृहस्पति को सुनाई दी लेकिन वे तो कामोन्माद के कारण अन्धे हो रहे थे। उन्होंने किसी की बात पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और ममता के साथ आनन्दपूर्वक रमण किया। जब वीर्यपात का समय आया तो अन्दर पलते बालक ने अपने दोनों पैरों से गर्भाशय का द्वार बन्द कर दिया और इसी कारण बृहस्पति का वीर्य गर्भाशय में न जाकर बाहर गिर पड़ा। इस पर देव पुरोहित बृहस्पति ने क्रुद्ध होकर उतथ्य के पुत्र को शाप दिया, “हे मूढ़ बालक! अपने इस व्यवहार के कारण तुम दीर्घतमा को प्राप्त होकर जन्म लोगे।”

जब ममता के गर्भ से बालक पैदा हुआ तो वह अन्धा था। उसका नाम दीर्घतमा ही पड़ा। दीर्घतमा प्रकाण्ड विद्वान था। अपनी विद्या के बल से उसने प्रद्वेषी नाम की एक सुन्दर ब्राह्मण-कन्या के साथ विवाह किया। प्रद्वेषी के गर्भ से गौतम आदि कई पुत्र पैदा हुए। अन्त में दीर्घतमा ने सुरभि के पुत्र से गोधर्म अर्थात प्रकाश मैथुन सीखकर कुल वृद्धि के लिए उसी का आचरण किया। जब अन्य ऋषियों ने दीर्घतमा को इस तरह समाज की मर्यादा का उल्लंघन करते देखा तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए। उन्होंने विचार किया कि इस अधर्मी दीर्घतमा को छोड़ देना चाहिए। यह निर्लज्ज हमारे बीच रहने योग्य नहीं है और ऐसा विचार करके उन्होंने दीर्घतमा को छोड़ दिया।

दीर्घतमा के कई पुत्र थे लेकिन परिवार इतना निर्धन था कि खाने का कहीं ठिकाना नहीं था। इससे दीर्घतमा नित्य ही चिन्तित रहता और उसकी स्त्री प्रद्वेषी कभी उससे सन्तुष्ट नहीं रहती थी। जब कभी भी दीर्घतमा कोई बात कहता तो वह रोष भरे स्वर में उसका उत्तर देती।

एक दिन खीझकर दीर्घतमा ने पूछा, “प्रिये! तुम इतनी अधीर क्यों हो? क्या कारण है कि तुम अपने मन में द्वेष रखती हो?”

झल्लाहट-भरे स्वर में प्रद्वेषी ने कहा, “हे स्वामी! मेरा इस तरह रहना कोई अनुचित बात नहीं है। स्वामी स्त्री का भरण-पोषण करता है, इसलिए भर्ता कहलाता है। पति का यही धर्म है कि कुछ भी करके अपनी स्त्री, पुत्र-पुत्रियों का भरण-पोषण करे। आप तो जन्म से ही अन्धे हैं, इसलिए मेरा भरण-पोषण तो आप क्या करेंगे बल्कि मैं ही आपका भरण-पोषण करती हूँ। आपके पुत्रों को पालती हूँ और आप निश्चेष्ट होकर पड़े रहते हैं। लेकिन अब मैं साफ कहे देती हूँ कि यह मैं अब सहन न कर सकूँगी।”

प्रद्वेषी की यह बात सुनकर महात्मा दीर्घतमा को क्रोध चढ़ आया। उन्होंने उफनते स्वर में उससे कहा, “रे मूढ़ स्त्री! तुझे कितने धन की आवश्यकता है, चल मुझे किसी क्षत्रिय राजा के पास ले चल। मैं तेरी धन की इच्छा को भी पूर्ण कर दूँ। मैं नहीं जानता था कि तू इतनी संकुचित मनोवृत्ति रखने वाली स्त्री है।”

दीर्घतमा की क्रोधभरी वाणी सुनकर प्रद्वेषी ने भी रोष में भरकर कहा, “हे विप्र! तुमसे मिला हुआ धन कष्टकारक ही होगा, इसलिए मुझे आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा जो जी चाहे वह करो, कहीं भी जाओ लेकिन साफ सुन लो, मैं अब तुम्हारा भरण-पोषण नहीं करूँगी। मैं तो अपने और पुत्रों के सुख के लिए दूसरा भर्ता कर लूँगी।”

दूसरे पति की बात सुनकर तो दीर्घतमा को और भी अधिक क्रोध आया। उनके जीवन के सारे अभाव उनके अन्दर घुसने लगे और बार-बार पुकारने लगे, “दीर्घतमा! तू असमर्थ है, इसीलिए तो तेरी स्त्री तुझे छोड़कर चली जा रही है। तू उसे जीवन का सुख नहीं दे सकता तो फिर उस पर तेरा अधिकार ही क्या है।”

दीर्घतमा एक साथ व्याकुल होकर पुकार उठा, “ठहर प्रद्वेषी! दूसरे पति की बात अब मुँह से न निकालना। मैं आज से संसार में यह सदाचार स्थापित करता हूँ कि स्त्री मरते दम तक एक ही पति के अधीन रहेगी। पति के मरने पर या उसके जीते-जी स्त्री अन्य पुरुष को कभी स्वीकार न कर सकेगी। जो स्त्री इस मर्यादा का उल्लंघन करेगी वह पतिता समझी जाएगी। पतिहीन स्त्री का जीवन पग-पग पर पाप से भरा होगा। पतिहीन स्त्रियाँ सब प्रकार के भोग उपस्थित रहने पर भी उन्हें भोग न सकेंगी। वे सदा अपयश और निन्दा की भागी होंगी।”

दीर्घतमा कहता ही चला जा रहा था और प्रद्वेषी का रक्त ऊपर चढ़ता आता था। जब और कुछ सुनना प्रद्वेषी के लिए असह्य हो उठा तो उसने पुकारकर कहा, “बस हे विप्र! अब आगे कुछ न बोलना” और उसी समय उसने क्रोध में आकर अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि वे उस अन्धे को गंगा की धारा में बहा दें। गौतम आदि पुत्रों ने अन्धे दीर्घतमा को गंगा की धारा में बहा दिया।

दीर्घतमा बहता-बहता काफी दूर पहुँच गया। जब वह बहता हुआ चला जा रहा था तो बलि नाम के धार्मिक राजा नदी में स्नान कर रहे थे। उन्होंने उसे बहता देखकर नदी से बाहर निकाल लिया और उसे अपने घर ले गये। राजा ने दीर्घतमा का पूरा परिचय प्राप्त किया और फिर प्रार्थना की, “हे महात्मा! आप धर्म को जानने वाले मेधावी पण्डित हैं। मेरी इच्छा है कि आप मेरी रानियों के गर्भ से कुछ धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न करें। इससे बढ़कर मेरा और अधिक कल्याण आप नहीं कर सकते।”

दीर्घतमा ने बलि की बात मान ली। तब राजा ने अपनी स्त्री सुदेष्णा के पास जाकर अपना सारा तात्पर्य कहा। रानी ने राजा की बात को अस्वीकार नहीं किया लेकिन बूढ़े और अन्धे दीर्घतमा को देखकर उसके हृदय में उस महर्षि के प्रति घृणा जाग उठी। वह स्वयं सहवास के लिए नहीं गयी और उसने अपनी दासी को उसके पास भेज दिया। दीर्घतमा के वीर्य से दासी के गर्भ से कक्षीवान आदि ग्यारह वेदपाठी पुत्र उत्पन्न हुए।

जब सभी पुत्र कुछ बड़े हो गये तो एक दिन राजा बलि ने कौतूहलवश दीर्घतमा से पूछा, “हे महात्मा! क्या ये ग्यारह बालक मेरे ही पुत्र हैं?”

दीर्घतमा ने कहा, “नहीं राजन्! ये मेरे वीर्य से शूद्र योनि में उत्पन्न बालक हैं। तुम्हारी रानी सुदेष्णा मुझे अन्धा और बूढ़ा समझकर मेरे साथ सहवास करने नहीं आयी थी। उसने अपनी दासी को भेज दिया था। उसी के गर्भ से मैंने इन बालकों की उत्पत्ति की है, अतः ये तुम्हारे पुत्र न होकर मेरे ही पुत्र हैं।”

यह सुनकर राजा बलि को बहुत दुःख हुआ। वे सुदेष्णा के पास गये और उन्होंने फिर उसे दीर्घतमा के द्वारा गर्भ धारण करने के लिए राजी कर लिया। जब सुदेष्णा सहवास के लिए दीर्घतमा के पास पहुँची तो उस अन्धे ऋषि ने उसके अंगों को छूकर कहा, “हे सुन्दरी! तुम्हारे गर्भ से अंग, वंग, कलिंग, पौण्ड्र और सुह्य नाम के सूर्य के समान पाँच तेजस्वी पुत्र पैदा होंगे और वे अपने नाम से एक-एक देश में एक-एक राज्य स्थापित करेंगे।”

उन्हीं राजकुमारों के नाम पर अंग, वंग, कलिंग, पौण्ड्र और सुह्य नाम के देश प्रसिद्ध हुए।

दीर्घतमा की कहानी अतीत का जैसा यथार्थ चित्रण हमारे सामने उपस्थित करती है वैसा हमें कम स्थानों पर मिलता है। सहस्रों वर्ष पुराने इस भारत में कितनी विचित्र परम्पराएँ पलती थीं।