देवताओं ने छंद का दुकूल पहना / सुनो बकुल / सुशोभित

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देवताओं ने छंद का दुकूल पहना
सुशोभित


गद्य का नियामक "व्याकरण" है, पद्य का नियामक "छंद"!

भारतीय मनीषा सकल सृष्ट‍ि को ही "छंदयुक्त" देखती है।

यह पश्च‍िमी मनीषा के उस आग्रह के उलट है, जो अनुक्रम में भी अराजकता देखती है।

भारतीय मनीषा सभी गति, लय, क्रम, विन्यास को "छंदबद्ध" देखती है। और यही कारण है कि ईश्वर की भी जो कल्पना सनातन परंपरा के मूल में है, वह काव्य के "छंद" जैसी है।

अगर संसार संगीत है तो ईश्वर "लय" है।

अगर संसार समय है तो ईश्वर "ऋतु" है!

अगर संसार सौरमंडल है तो ईश्वर "अनुक्रम" है।

अगर संसार काव्य है तो ईश्वर "छंद" है।

चाहें तो कह लीजिए 32 वर्ण वाला "अनुष्टुप" छंद।

और ईश्वर के जितने भी "विग्रह" हैं और उन विग्रहों की वंदना के जितने भी उपाय हैं, वे अंतत: "मनोविनोद" का साधन हैं।

भारतीय मनीषा में "विनोद" शब्द का बहुत महत्व है। इसका सही सही अनुवाद अगर अंग्रेज़ी में करें तो वह "एस्थेटिक" शब्द के निकट जाएगा।

काव्यचर्या को "काव्यविनोद" कहा जाता था और जो "वैद्य" होता था वही "कविराज" भी होता था, वह काव्य के व्यवहार का एक उपाय था। इधर विनोद शब्द परिहास का पर्याय बन गया है, जो एक भूल है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि "छंदशास्त्र" पिङ्गल ने रचा था, जो कि वस्तुत: गणितज्ञ थे।

छंदशास्त्र पर जो सबसे लब्धप्रतिष्ठ टीका है, वह भट्ट हलायुध की "मृतसंजीवनी" है, और वे भी प्रकांड गणितज्ञ थे।

यानी जो मनीषी "प्रमेयों" और "प्रस्तारों" के भेद जान सकता है, वही सृष्ट‍ि के रहस्य की भी व्याख्या कर सकता है, ऐसा एक पूर्वग्रह भारतीय मनीषा का रहा है।

और यह भी कि अगर भाषा, व्याकरण और छंद के भेदों को बूझ लिया तो "शब्दब्रह्म" से "परब्रह्म" तक की गति भी संभव है।

"छंद" शब्द का जो मूल अर्थ है, वह तो बहुत स्पष्ट है। यह 'चद्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना'। यह आह्लाद वर्ण या मात्रा की नियमित संख्या के विन्यास से उत्पन्न होता है।

लेकिन जो चीज़ों को उनके "अभिधा" के अर्थों में ग्रहण कर ले, वह भारतीय मनीषा ही क्या। अस्तु, "छंद" के अन्य तात्पर्यों की ओर भी उन्होंने यात्राएं की हैं।

इनमें सबसे सुंदर है महामहोपाध्याय पं. विवुशेखर भट्टाचार्य की व्याख्या।

हालांकि ये कहा गया है कि महामहोपाध्याय का जो मत है, वह उनसे पूर्व "निरुक्तकार" यास्क प्रतिपादित कर चुके थे। "दैवत ब्राह्मण" का भाष्य करते समय सायण ने भी वह बात कही थी। और पं. विवुशेखर भट्टाचार्य की स्थापना के मूल में "छांदोग्योपनिषद्" तो ख़ैर था ही।

"निरुक्तकार" ने छंद शब्द की उत्पत्त‍ि के मूल में "छादन" को बताया था।

"छादन" यानी "आच्छादन" की क्रिया। "आवरण" और "अवगुंठन" की विद्या।

"छांदोग्य उपनिषद" के मंत्र 1.4.2. में बहुत ही सुंदर बात कही गई है :

"मृत्यु से भयभीत देवगण "त्रयी विद्या" (ऋग यर्जु साम) में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने स्वयं को छंदों से आच्छादित कर लिया।"

यह परिभाषा किसी काव्य की तरह सुंदर है!

देवताओं ने "छंद" का दुकूल पहना!

गंधर्वों ने देववस्त्रों की तरह "छंद" को धारण किया।

और इस प्रकार मृत्यु से उन्होंने स्वयं की रक्षा की।

तो मृत्यु क्या हुई?

मृत्यु यानी वह, जो "छंद" से विरत हो!

और जीवन यानी वह, जो "छंद" से समृद्ध संकुल हो।

और काव्य यानी वह, जो कि जीवन की गति का सहोदर हो!

यह जो "सम्पृक्त‍ि" है, वह सनातन परंपरा के पूर्वग्रहों में इतने गहरे पैठी हुई है कि "बिंदु" से लेकर "ब्रह्मांड" तक सभी उसके नैरंतर्य में पंक्त‍िबद्ध और एकमेक हो जाते हैं।

और इनको जो जोड़ने वाला तत्व है वह :

"व्याकरण" है,

"छंद" है,

"प्राण" है,

"ऋत" है,

"नित्य" है,

"शब्द" है,

यानी सम्पृक्त‍ि के जितने भी आशय संभव हों, उसमें समाविष्ट हैं!

"छंद" को "आह्लादकारी" मानना व्याकरण की दृष्ट‍ि से भले ठीक हो, लेकिन "छंद" को "आच्छादित" करने वाली भावचेतना मानना काव्य की दृष्ट‍ि से अधिक सुंदर व्याख्या है।

मैं तो "छंद" के अभिप्रायों का अन्वेषण करने "छांदोग्योपनिषद्" के उस मंत्र में ही जाऊंगा।

और काव्य की झोंक में सकल विश्व को 19 वर्ण का वह "शार्दूलविक्रीड़ित" छंद कहकर पुकारूंगा, जिसमें सूर्य और अश्व पर यति!