देवताओं का पलायन / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
भारत के इतिहास में एक काल वैसा भी था, जब संगीत की रागिनियां, नृत्य के नूपुर और देवताओं के विग्रह, सभी पलायन के शोक से ग्रस्त होकर पूर्व से पश्चिम दिशा में विस्थापित हो रहे थे!
वैष्णवों की पुण्यभूमि ब्रज थी। आक्रांताओं की कुदृष्टि जब उस पर पड़ी तो विस्थापन के वे अभिप्राय रूपायित हो उठे।
पश्चिम में किस दिशा? वहीं, जहां मेरे पुरखों का देश राजपूताना है!
मैं क्षत्रिय कुल में जन्मा, किंतु बहुधा अपने भीतर एक वैष्णवी आत्मा के उद्भव को अनुभव करता हूं। यह अकारण नहीं है, यह मेरे साथ ही नहीं है। क्षत्रियों का हमेशा ही वैष्णवों से एक नेह-नाता रहा है।
जब म्लेच्छ आक्रांता अपनी पैशाचिक वृत्तियों के साथ ब्रजभूमि चले आए तो भक्तिवत्सल वैष्णवों को केवल एक भूमि पर विश्वास था, जो उनके ठाकुर जी की रक्षा कर सकती थी, और वो भूमि थी क्षत्रियों के राजपूताने की।
श्रीनाथजी ऐसे ही नाथद्वारा पहुंच गए।
श्रीद्वारिकाधीशजी ऐसे ही कांकरोली में विराजित हो रहे।
और वृंदावन के सप्तविग्रहों में से एक श्रीगोविंदजी को इसी प्रकार जयपुर जाकर बसना पड़ा।
खानवा, मेवाड़, हल्दी घाटी में जो म्लेच्छों से लोहा ले सकते थे, वे ठाकुर जाति के योद्धा ही वैष्णवों के ईष्ट ठाकुर जी की अब सेवा करेंगे, इसी मनोरथ से रूंधे कंठ से ब्रजभूमि ने अपने बांके बिहारी की विभिन्न प्रतिमाओं को विदा किया था।
क्या ही मार्मिक दृश्य रहा होगा वह! और हमारा इतिहास ऐसे प्रसंगों पर कैसा कुटिल मौन साधे हुए है!
विस्थापन देवताओं का ही नहीं हुआ, ध्रुवपद की रागिनियां भी देवालयों से राजस्थान के भव्य भवनों में जा बसीं और "हवेली संगीत" कहलाईं। पुष्टिमार्गियों का व्याकुल चित्त तब राजसमन्द के नाथद्वारा में ही स्थिर हो सका था।
विस्थापन नूपुरों का भी हुआ, जो रुनझुन करते ब्रज से चले।
कथक के दो घरानें यों ही तो रचे गए- जयपुर और लखनऊ।
वृंदावन के रासलीला मण्डल में "गणेश परन" की प्रस्तुति देने वाले नृत्याचार्य वल्लभदास जिस प्राचीन हिंदू शैली का कथक करते थे, वो अब लखनऊ घराने के पास कहां है, प्रेक्षकों को आज चाहे जितना लुभाए बिरजू महाराज का पद-लालित्य?
जयपुर घराने का कथक वैष्णवी है, लखनऊ घराने का फ़ारसी, जिसे अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने प्रश्रय दिया था।
वो नृत्य भी सुंदर है। वो भी अंततः ठाकुर जी की ही वंदना करता है। किंतु वह जितना सुंदर है, उतना ही शुभ भी है? क्योंकि सत्य तो यही कि कथक के नूपुर-कंकन ने शोक के तत्कार से पश्चिम में किया था पलायन!
जयपुर घराने के जो गुरु होते थे, वे सही के रूप में अंगूठे की छाप नहीं लगाते थे, सातिया बना देते थे, वैसा मुझको इंदौर में जयपुर शैली के सिद्धांतकार डॉ. पुरु दाधीच ने एक आत्मीय वार्तालाप में बतलाया था।
हस्ताक्षर के रूप में अपना नाम नहीं लिखना, "स्वस्तिक" बना देना!
यही वो सत्व है, जो वध, विध्वंस और विस्थापनों के बावजूद हिंदू मन में शेष रह गया है। उसी की वंदना समय-देवता आज भी अपना रथ रोककर करता है।
कितने घाव भारतवर्ष की अंतश्चेतना पर हैं, कोई हिसाब है?
विडम्बना तो यही कि त्रिनिदाद से आया अंग्रेज़ी साहब विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल भारतवर्ष को एक रक्तरंजित सभ्यता कहकर पुकारता है, स्वयं भारतवर्ष के बुद्धिमान तो अब यह सब स्मरण भी नहीं करते।
मैं क्षत्रियकुल में जन्मा वैष्णवी नास्तिक हूं!
फिर क्यूं, आज जब श्रीकृष्णजन्माष्टमी का उत्सव निकट आ रहा है तो वृंदावन से राजपूताने तक तानपूरों, कंकन-नुपूरों और विग्रहों के विस्थापन के दृश्य की वह कल्पना ही आज मेरे चित्त को भावविह्वल कर देती है?
भला क्यूँ?