दौड़ / ममता कालिया / पृष्ठ 4

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(चौथा भाग)

इस बार पवन अपने घर गया तो उसने पाया वह अपने नए शहर और काम के बारे में घर वालों को बताते समय कई बार स्टैला का ज़िक्र कर गया। सघन बी.एससी. के बाद हार्डवेयर का कोर्स कर रहा था। पवन ने कहा, तुम इस बाल मेरे साथ राजकोट चलो, तुम्हें मैं ऐसे कंप्यूटर वर्ल्ड में प्रवेश दिलाऊँगा कि तुम्हारी आँखें खुली रह जाएँगी। सघन ने कहा, जाना होगा तो हैदराबाद जाऊँगा, वह तो साइबर सिटी है। एक बार तुम एंटरप्राइज़ ज्वाइन करोगे तो देखोगे वह साइबर सिटी से कम नहीं। माँ ने कहा, इसको भी ले जाओगे तो हम दोनों बिल्कुल अकेले रह जाएँगे। वैसे ही सीनियर सिटीजन कालोनी बनती जा रही है। सबके बच्चे पढ़ लिख कर बाहर चले जा रहे हैं। हर घर में, समझो, एक बूढ़ा, एक बूढ़ी, एक कुत्ता और एक कार बस यह रह गया है। इलाहाबाद में कुछ भी बदलता नहीं है माँ। दो साल पहले जैसा था वैसा ही अब भी है। तुम भी राजकोट चली आओ। और तेरे पापा? वे यह शहर छोड़ कर जाने को तैयार नहीं है। पापा से बात की गई। उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया। शहर छोड़ने की भी एक उम्र होती है बेटे। इससे अच्छा है तुम किसी ऐसी कंपनी में हो जाओ जो आस-पास कहीं हो। यहाँ मेरे लायक नौकरी कहाँ पापा। ज़्यादा से ज़्यादा नैनी में नूरामेंट की मार्केटिंग कर लूँगा। दिल्ली तक भी आ जाओ तो? सच दिल्ली आना-जाना बिल्कुल मुश्किल नहीं है। रात को प्रयागराज एक्सप्रेस से चलो, सबेरे दिल्ली। कम से कम हर महीने तुम्हें देख तो लेंगे। या कलकत्ते आ जाओ। वह तो महानगर है। पापा मेरे लिए शहर महत्वपूर्ण नहीं है, कैरियर है। अब कलकत्ते को ही लीजिए। कहने को महानगर है पर मार्केटिंग की दृष्टि से एकदम लद्धड़। कलकत्ते में प्रोड्यूसर्स का मार्केट है, कंज्यूमर्स का नहीं। मैं ऐसे शहर में रहना चाहता हूँ जहाँ कल्चर हो न हो, कंज्यूमर कल्चर ज़रूर हो। मुझे संस्कृति नहीं उपभोक्ता संस्कृति चाहिए, तभी मैं कामयाब रहूँगा। माता पिता को पवन की बातों ने स्तंभित कर दिया। बेटा उस उम्मीद को भी ख़त्म किए दे रहा था जिसकी डोर से बँधे-बँधे वे उसे टाइम्स ऑफ इंडिया की दिल्ली रिक्तियों के काग़ज़ डाक से भेजा करते थे।

रात जब पवन अपने कमरे में चला गया राकेश पांडे ने पत्नी से कहा, आज पवन की बातें सुन कर मुझे बड़ा धक्का लगा। इसने तो घर के संस्कारों को एकदम ही त्याग दिया। रेखा दिन भर के काम से पस्त थी, पहले तुम्हें भय था कि बच्चे कहीं तुम जैसे आदर्शवादी न बन जाएँ। इसीलिए उसे एम.बी.ए. कराया। अब वह यथार्थवादी बन गया है तो तुम्हें तकलीफ़ हो रही है। जहाँ जैसी नौकरी कर रहा है, वहीं के कायदे कानून तो ग्रहण करेगा। यानी तुम्हें उसके एटिट्यूड से कोई शिकायत नहीं है। राकेश हैरान हुए। देखो अभी उसकी नई नौकरी है। इसमें उसे पाँव जमाने दो। घर से दूर जाने का मतलब यह नहीं होता कि बच्चा घर भूल गया है। कैसे मेरी गोद में सिर रख कर दोपहर को लेटा हुआ था। एम.ए., बी.ए. करके यहीं चप्पल चटकाता रहता, तब भी तो हमें परेशानी होती।

रेखा का चचेरा भाई भी नागपुर में मार्केटिंग मैनेजर था। उसे थोड़ा अंदाज़ था कि इस क्षेत्र में कितनी स्पर्धा होती है। वह एक फटीचर पाठशाला में अध्यापिका थी। उसके लिए बेटे की कामयाबी गर्व का विषय थी। उसकी सहयोगी अध्यापिकाओं के बच्चे पढ़ाई के बाद तरह-तरह के संघर्षों में लगे थे।

कोई आई.ए.एस, पी.सी.एस. परीक्षाओं को पार नहीं कर पा रहा था तो किसी को बैंक प्रतियोगी परीक्षा सता रही थी। किसी का बेटा कई इंटरव्यू में असफल होने के बाद नशे की लत में पड़ गया था तो किसी की बेटी हर साल पी.एम.टी. में अटक जाती। जीवन के पचपनवें साल में रेखा को यह सोचकर बहुत अच्छा लगता कि उसके दोनों बच्चे पढ़ाई में अव्वल रहे और उन्होंने खुद ही अपने कैरियर की दिशा तय कर ली। सघन अभी छोटा था पर वह भी जब अपने कैरियर पर विचार करता, उसे शहरों में ही संभावनाएँ नज़र आतीं। वह दोस्ती से माँग कर देश विदेश के कंप्यूटर जर्नल पढ़ता। उसका ज़्यादा समय ऐसे दोस्तों के घरों में बीतता जहाँ कंप्यूटर होता।

राकेश बोले, तुम समझ नहीं रही हो। पवन के बहाने एक पूरी की पूरी युवा पीढ़ी को पहचानो। ये अपनी जड़ों से कट कर जीने वाले लड़के समाज की कैसी तस्वीर तैयार करेंगे। और जो जड़ों से जुड़े रहे हैं उन्होंने इन निन्यानवें वर्षों में कौन-सा परिवर्तन किया है। तुम्हें इतना ही कष्ट है तो क्यों करवाया था पवन को एम.बी.ए.। घर के बरामदे में दुकान खुलवा देते, माचिस और साबुन बेचता रहता। तुम मूर्ख हो, ऐसा भी नहीं लगता मुझे, बस मेरी बात काटना तुम्हें अच्छा लगता है। अच्छा अब सो जाओ। और देखो, सुबह पवन के सामने फिर यही बहस मत छेड़ देना। चार रोज़ को बच्चा घर आया है, राजी खुशी रहे, राजी खुशी जाए।

रेखा ने रात को तो पुत्र की पक्षधरता की पर अगले दिन स्कूल से घर लौटी तो पवन से उसकी खटपट हो गई। दोपहर में धोबी कपड़े इस्त्री कर के लाया था। आठ कपड़ों के बाहर रुपए होते थे पर धोबी ने सोलह माँगे। पवन ने सोलह रुपए दे दिए। पता चलने पर रेखा उखड़ गई। उसने कहा, बेटे कपड़े ले कर रख लेने थे, हिसाब मैं अपने आप करती। पवन बोला, माँ क्या फ़र्क पड़ा, मैंने दे दिया। रेखा ने कहा, टूरिस्ट की तरह तुमने उसे मनमाने पैसे दे दिए, वह अपना रेट बढ़ा देगा तो रोज़ भुगतना तो मुझे पड़ेगा। पवन को टूरिस्ट शब्द पत्थर की तरह चुभ गया। उसका गोरा चेहरा क्रोध से लाल हो गया, माँ आपने मुझे टूरिस्ट कह दिया। मैं अपने घर आया हूँ, टूर पर नहीं निकला हूँ।

शाम तक पवन किचकिचाता रहा। उसने पिता से शिकायत की। पिता ने कहा, यह निहायत टुच्ची-सी बात है। तुम क्यों परेशान हो रहे हो। तुम्हें पता है तुम्हारी माँ की जुबान बेलगाम है। छोटी-सी बात पर कड़ी-सी बात जड़ देती है। नौकरी लग जाने के साथ पवन बहुत नाज़ुकमिज़ाज हो गया था। उसे ऑफ़िस में अपना वर्चस्व और शक्ति याद हो आई, दफ्तर में सब मुझे पवन सर या फिर मिस्टर पांडे कहते हैं। किसी की हिम्मत नहीं कि मेरे आदेश की अवहेलना करे। घर में किसी को अपनी मर्जी से मैं चार रुपए नहीं दे सकता। रेखा सहम गई, बेटे मेरा मतलब यह नहीं था मैं तो सिर्फ़ यह कर रही थी कि कपड़े रोज़ इस्तिरी होते हैं, एक बार इन लोगों को ज़्यादा पैसे दे दो तो ये एकदम सिर चढ़ जाते हैं। और भी छोटी-छोटी कितनी ही बातें थीं जिनमें माँ बेटे का दृष्टिकोण एकदम अलग था। पवन ने कहा, माँ मेरा जन्मदिन इस बार यों ही निकल गया। आपने फ़ोन किया पर ग्रीटिंग कार्ड नहीं भेजा।


रेखा हैरान रह गई, बेटे ग्रीटिंग कार्ड तो बाहरी लोगों को भेजा जाता है। तुम्हें पता है तुम्हारा जन्मदिन हम कैसे मनाते हैं। हमेशा की तरह मैं मंदिर गई, स्कूल में सबको मिठाई खिलाई, रात को तुम्हें फ़ोन किया। मेरे सब कलीग्ज हँसी उड़ा रहे थे कि तुम्हारे घर से कोई ग्रीटिंग कार्ड नहीं आया। माँ को लगा उन्हें अपने बेटे को प्यार करने का नया तरीका सीखना पड़ेगा। मुश्किल से पाँच दिन ठहरा पवन। रेखा ने सोचा था उसकी पसंद की कोई न कोई डिश रोज़ बना कर उसे खिलाएगी पर पहले ही दिन उसका पेट खराब हो गया। पवन ने कहा, माँ मैं नींबू पानी के सिवा कुछ नहीं लूँगा। दोपहर को थोड़ी-सी खिचड़ी बना देना। और पानी कौन-सा इस्तेमाल करते हैं आप लोग? वही जो तुम जन्म से पीते आए हो, गंगा जल आता है हमारे नल में। रेखा ने कहा। तब से अब तक गंगा जी में न जाने कितना मल-मूत्र विसर्जित हो चुका है। मैं तो कहूँगा यह पानी आपके लिए भी घातक है। एक्वागार्ड क्यों नहीं लगाते? याद करो, तुम्हीं कहा करते थे फ़िल्टर से अच्छा है हम अपने सिस्टम में प्रतिरोधक शक्ति का विकास करें। वह सब फ़िज़ूल की भावुकता थी माँ। तुम इस पानी की एक बूँद अगर माइक्रोस्कोप के नीचे देख लो तो कभी न पियो।

पवन को अपनी जन्मभूमि का पानी रास नहीं आ रहा था। शाम को पवन ने सघन से बारह बोतलें मिनरल वाटर मँगाया। रसोई के लिए रेखा ने पानी उबालना शुरू किया। नल का जल विषतुल्य हो गया। देश में परदेसी हो गया पवन। तबियत कुछ सँभलने पर अपने पुराने दोस्तों की तलाश की। पता चला अधिकांश शहर छोड़ चुके हैं या इतने ठंडे और अजनबी हो गए हैं कि उनके साथ दस मिनट बिताना भी सज़ा है। पवन ने दुखी हो कर पापा से कहा, मैं नाहक इतनी दूर आया। सघन सारा दिन कंप्यूटर सेंटरों की खाक छानता है। आप अख़बारों में लगे रहते हैं। माँ सुबह की गई शाम को लौटती हैं। क्या मिला मुझे यहाँ आ कर? तुमने हमें देख लिया, क्या यह काफ़ी नहीं? यह काम तो मैं एंटरप्राइज के सैटलाइट फ़ोन से भी कर सकता था। मुझे लगता है यह शहर नहीं जिसे मैं छोड़ कर गया था। शहर और घर रहने से ही बसते हैं बेटा। अब इतनी दूर एक अनजान जगह को तुमने अपना ठिकाना बनाया है। परायी भाषा, पहनावा और भोजन के बावजूद वह तुम्हें अपना लगने लगा होगा। सच तो यह है पापा जहाँ हर महीने वेतन मिले, वही जगह अपनी होती है और कोई नहीं। केवल अर्थशास्त्र से जीवन नहीं कटता पवन, उसमें थोड़ा दर्शन, थोड़ा अध्यात्म और ढेर-सी संवेदना भी पनपनी चाहिए। आपको पता नहीं दुनिया कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रही। अब धर्म, दर्शन, और अध्यात्म जीवन में हर समय रिसने वाले फोड़े नहीं हैं। आप सरल मार्ग के शिविर में कभी जा कर देखिए। चार-पाँच दिन का कोर्स होता है, वहाँ जा कर आप मेडिटेट कीजिए और छठे दिन वापस अपने काम से लग जाइए। यह नहीं कि डी.सी. बिजली की तरह हमेशा के लिए उससे चिपक जाइए। तुमने तो हर चीज़ की पैकेजिंग ऐसी कर ली है कि जेब में समा जाए। भक्ति की कपस्यूल बना कर बेचते हैं आजकल के धर्मगुरु। सुबह-सुबह टी.वी. के सभी चैनलों पर एक न एक गुरु प्रवचन देता रहता है। पर उनमें वह बात कहाँ जो शंकराचार्य में थी या स्वामी विवेकानंद में। हर पुरानी चीज़ आपको श्रेष्ठ लगती है, यह आपकी दृष्टि का दोष है पापा। अगर ऐसा ही है तो आधुनिक चीज़ों का आप इस्तेमाल भी क्यों करते हैं, फेंक दीजिए अपना टी.वी. सेट, टेलीफ़ोन और कुकिंग गैस। आप नई चीज़ों का फ़ायदा भी लूटते हैं और उनकी आलोचना भी करते हैं। पवन मेरी बात सिर्फ़ चीज़ों तक नहीं है। मुझे पता है। आप अध्यात्म और धर्म पर बोल रहे थे। आप कभी मेरे स्वामी जी को सुनिए। सबसे पहले तो उन्होंने यही समझाया है कि धर्म जहाँ ख़त्म होता है, अध्यात्म वहीं शुरू होता है। आप बचपन में मुझे शंकर का अद्वैतवास समझाते थे। मेरे कुछ पल्ले नहीं पड़ता था। आपने जीवन में मुझे बहुत कन्फूज किया है पर सरल मार्ग में एकदम सीधी सच्ची यथार्थवादी बाते हैं।

पिता आहत हो देखते रह गए। उनके बेटे के व्यक्तित्व में भौतिकतावाद, अध्यात्म और यथार्थवाद की कैसी त्रिपथगा बह रही है। राजकोट ऑफ़िस से पवन के लिए ट्रंककॉल आया कि सोमवार को वह सीधे अहमदाबाद ऑफ़िस पहुँचे। सभी मार्केटिंग मैनेजरों की उच्च स्तरीय बैठक थी। पवन का मन एकाएक उत्साह से भर गया। पिछले पाँच दिन पाँच युग की तरह बीते थे। जाते-जाते वह परिवार के प्रति बहुत भावुक हो आया। माँ तुम राजकोट आना। पापा आप भी। मेरे पास बड़ा-सा फ़्लैट है। आपको ज़रा भी दिक्कत नहीं होगी। अब तो कुक भी मिल गया है। अब तेरी शादी भी कर दें क्यों। रेखा ने पवन का मन टटोला। माँ शादी ऐसे थोड़े ही होगी। पहले तुम मेरे साथ सारा गुजरात घूमो। अरे वहाँ मेरे जैसे लड़कों की बड़ी पूछ है। वहाँ के गुज्जू लड़के बड़े पिचके-दुचके-से होते हैं। मेरा तो पापा जैसा कद देख कर ही लट्टू हो जाते हैं सब। कोई लड़की देख रखी है क्या? रेखा ने कहा। एक हो तो नाम बताऊँ। तुम आना तुम्हें सबसे मिलवा दूँगा। पर शादी तो एक से ही करनी होती है। पवन हँसा। भाई को लिपटाता हुआ बोला, जान टमाटर तुम कब आओगे। पहले अपना कंप्यूटर बना लूँ। इसमें तो बहुत दिन लगेंगे। नहीं भैय्या, ममी एक बार दिल्ली जाने दें तो भगीरथ पैलेस से बाकी का सामान ले आऊँ। ले ये हज़ार रुपए तू रख ले काम आएँगे।

मीटिंग में भाग लेने वाले सभी सदस्यों को प्रसिडेंसी में ठहराया गया था। दो दिन के चार सत्रों में विपणन के सभी पहलुओं पर खुल कर बहस हुई। हैरानी की बात यह थी कि ईंधन जैसी आवश्यक वस्तु को भी ऐच्छिक उपभोक्ता सामग्री के वर्ग में रख कर इसके प्रसार और विकास का कार्यक्रम तैयार किया जा रहा था। बहुत-सी ईंधन कंपनियाँ मैदान में आ गईं थीं। कुछ बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियाँ एल.पी.जी. इकाई खोल चुकी थीं, कुछ खोलने वाली थीं। दूसरी तरफ़ कुछ उद्योगपतियों ने भी एल.पी.जी बनाने के अधिकार हासिल कर लिए थे। इससे स्पर्धा तो बढ़ ही रही थी। व्यावसायिक उपभोक्ता भी कम हो रहे थे। निजी उद्योगपति मोठाबाई नानूभाई अपनी सभी फर्मों में अपनी बनाई एल.पी.जी. इस्तेमाल कर रहे थे जबकि पहले वहाँ जी.जी.सी.एल. की सिलेंडर जाती थीं। बहुराष्ट्रीय कंपनी की फ़ितरत थी कि शुरू में वह अपने उत्पाद का दाम बहुत कम रखती। जब उसका नाम और वस्तु लोगों की निगाह में चढ़ जाते वह धीरे से अपना दाम बढ़ा देती।

जी.जी.सी.एल. के मालिकों के लिए ये सब परिवर्तन सिरदर्द पैदा कर रहै थे। उन्होंने साफ़ तौर पर कहा, पिछले पाँच वर्ष में कंपनी को साठ करोड़ का घाटा हुआ है। हम आप सबको बस दो वर्ष देते हैं। या घाटा कम कीजिए या इस इकाई को बंद कीजिए। हमारा क्या है, हम डेनिम बेचते थे, डेनिम बेचते रहेंगे। पर यह आप लोगों का फेलियर होगा कि इतनी बड़ी-बड़ी डिग्री और तनख़्वाह लेकर भी आपने क्या किया। आप स्टडी कीजिए ऐसा क्या है जो एस्सो और शेल में हैं और जी.जी.सी.एल. में नहीं। वे भी हिंदुस्तानी कर्मचारियों से काम लेते हैं, हम भी। वे भी वही लाल सिलिंडर बनाते हैं। हम भी।


युवा मैनेजरों में एम.डी. की इस स्पीच से खलबली मच गई। एल.पी.जी. विभाग के अधिकारियों के चेहरे उतर गए। समापन सत्र शाम सात बजे संपन्न हुआ तब बहुतों को लगा जैसे यह उनका विदाई समारोह भी है। पवन भी थोड़ा उखड़ गया। वह अपनी रिपोर्ट भी प्रस्तुत नहीं कर पाया कि सौराष्ट्र के कितने गाँवों में उसकी इकाई ने नए आर्डर लिए और कहाँ-कहाँ से अन्य कंपनियों को अपदस्थ किया। रिपोर्ट की एक कॉपी उसने एम.डी. के सेक्रेटरी गायकवाड़ को दे दी।

राजकोट जाने से पहले अभिषेक से भी मिलना था। अनुपम उसके साथ था। उन्होंने घर पर फ़ोन किया। पता चला अभी दफ़्तर से नहीं आया। वे दोनों आश्रम रोड उसके दफ़्तर की तरफ़ चल दिए। अनुपम ने कहा, मैं तो घर जाकर सबसे पहले अपना बायोडाटा अप टु डेट करता हूँ। लगता है यहाँ छँटनी होने वाली है। पवन हँसा, बहुराष्ट्रीय कंपनियों से संघर्ष करने का सबसे अच्छा तरीका है कि उनमें खुद घुस जाओ। अनुपम ने खुशी जताई, वाह भाई, यह तो मैंने सोचा भी नहीं था। अभिषेक अपना काम समेट रहा था। दोस्तों को देख चेहरा खिल उठा। पिछले बारह घंटे से मैं इस प्रेत के आगे बैठा हूँ। उसने अपने कंप्यूटर की तरफ़ इशारा किया, अब में और नहीं झेल सकता। चलो कहीं बैठ कर कॉफी पीते हैं, फिर घर चलेंगे।

वे कॉफी हाउस में अपने भविष्य से अधिक अपनी कंपनियों के भविष्य की चिंता करते रहे। अभिषेक ने कहा, निजी सेक्टर में सबसे ख़राब बात वही है, नथिंग इज ऑन पेपर। एम.डी. ने कहा घाटा है तो मानना पड़ेगा कि घाटा है। पब्लिक सेक्टर मैं कर्मचारी सिर पर चढ़ जाते हैं, पाई-पाई का हिसाब दिखाना पड़ता है। फिर भी पब्लिक सेक्टर में बीमार इकाइयों की बेशुमार संख्या है। प्राइवेट सेक्टर में ऐसा नहीं है। अभिषेक हँसा, मुझसे ज़्यादा कौन जानेगा। मेरे पापा और चाचा दोनों पब्लिक सेक्टर में है। आजकल दोनों की कंपनी बंद चल रही हैं। पर पापा और चाचा दोनों बेफिक्र हैं। कहते हैं लेबर कोर्ट से जीत कर एक-एक पैसा वसूल कर लेंगे।

अभिषेक की कंपनी की साख ऊँची थी और अभिषेक वहाँ पाँच साल से था पर नौकरी को लेकर असुरक्षा बोध उसे भी था। यहाँ हर दिन अपनी कामयाबी का सबूत देना पड़ता। कई बार क्लायंट को पसंद न आने पर अच्छी भली कॉपी में तब्दीलियाँ करनी पड़ती तो कभी पूरा प्रोजेक्ट ही कैंसल हो जाता। तब उसे लगता वह नाहक विज्ञापन प्रबंधन में फँस गया, कोई सरकारी नौकरी की होती, चैन की नींद सोता। पर पटरी बदलना रेलों के लिए सुगम होता है, ज़िंदगी के लिए दुर्गम। अब यह उसका परिचित संसार था, इसी में संघर्ष और सफलता निहित थी।

अभिषेक ने डिलाइट से चिली पनीर पैक करवाया कि घर चल कर खाना खाएँगे। जैसे ही वे घर में दाखिल हुए देखा राजुल और अंकुर बाहर जाने के लिए बने ठने बैठे हैं।

उन्हें देखते ही वे चहककर बोले, अहा, तुम आ गए। चलो आज बाहर खाना खाएँगे। अंकुर शाम से ज़िद कर रहा है। अभिषेक ने कहा, आज घर में ही खाते हैं, मैं सब्ज़ी ले आया हूँ। राजुल बोली, तुमने सुबह वादा किया था शाम को बाहर ले चलोगे। सब्ज़ी फ्रिज में रख देते हैं, कल खाएँगे। राजुल ताले लगाने में व्यस्त हो गई। अभिषेक ने पवन और अनुपम से कहा, सॉरी यार, कभी-कभी घर में भी कॉपी गलत हो जाती है।

तीनों थके हुए थे। पवन ने तो अठारह सौ किलोमीटर की यात्रा की थी। पर राजुल और अंकुर का जोश ठंडा करना उन्हें क्रूरता लगी। स्टैला और पवन ने अपनी जन्मपत्रियाँ कंप्यूटर से मैच कीं तो पाया छत्तीस में से छब्बीस गुण मिलते हैं। पवन ने कहा, लगता है तुमने कंप्यूटर को भी घूस दे रखी है। स्टैला बोली, यह पंडित तो बिना घूस के काम कर देता है। आकर्षण, दोस्ती और दिलजोई के बीच कुछ देर को उन्होंने यह भुला ही दिया कि इस रिश्ते के दूरगामी समीकरण किस प्रकार बैठेंगे। स्टैला के माता पिता आजकल शिकागो गए हुए थे। स्टैला के ई-मेल पत्र के जवाब में उन्होंने ई-मेल से बधाई भेजी। पवन ने माता पिता को फ़ोन पर बताया कि उसने लड़की पसंद कर ली है और वे अगले महीने यानी जुलाई में ही शादी कर लेंगे।

पांडे परिवार पवन की ख़बर पर हतबुद्ध रह गया। न उन्होंने लड़की देखी थी न उसका घर-बार। आकस्मिकता के प्रति उनके मन में सबसे पहले शंका पैदा हुई। राकेश ने पत्नी से कहा, पुन्नू के दिमाग में हर बात फितूर की तरह उठती है। ऐसा करो, तुम एक हफ़्ते की छुट्टी लेकर राजकोट हो आओ। लड़की भी देख लेना और पुन्नू को भी टटोल लेना। शादी कोई चार दिनों का खेल नहीं, हमेशा का रिश्ता है। इंटर से लेकर अब तक दर्जनों दोस्त रही हैं पुन्नू की, ऐसा चटपट फ़ैसला तो उसने कभी नहीं किया। तुम भी चलो, मैं अकेली क्या कर लूँगी। मैं कैसे जा सकता हूँ। फिर पुन्नू सबसे ज़्यादा तुम्हें मानता है, तुम हो आओ।

रास्ते भर रेखा को लगता रहा कि जब वह राजकोट पहुँचेगी पवन ताली बजाते हुए कहेगा,माँ मैंने यह मज़ाक इसीलिए किया था कि तुम दौड़ी आओ। वैसे तो तुम आती नहीं। उसने अपने आने की ख़बर बेटे को नहीं की थी। मन में उसे विस्मित करने का उत्साह था। साथ ही यह भी कि उसे परेशान न होना पड़े। अहमदाबाद से राजकोट की बस यात्रा उसे भारी पड़ी। तेज़ रफ़्तार के बावजूद तीन घंटे सहज ही लग गए। डायरी में लिखे पते पर जब वह स्कूटर से पहुँची छह बज चुके थे। पवन तभी ऑफ़िस से लौटा था। अनुपम भी उसके साथ था। उसे देख पवन खुशी से बावला हो उठा. बाहों में उठा कर उसने माँ को पूरे घर में नचा दिया। अनुपम ने जल्दी से खूब मीठी चाय बनाई। थोड़ी देर में स्टैला वहाँ आ पहुँची।

पवन ने उनका परिचय कराया। स्टैला ने हैलो किया। पवन ने कहा, माँ स्टैला मेरी बिजनेस पार्टनर, लाइफ़ पार्टनर, रूम पार्टनर तीनों है। अनुपम बोला, हाँ अब जी.जी.जी.एल. चूल्हे चाहे भाड़ में जाए। तुम तो इंटरप्राइज के स्लीपिंग पार्टनर बन गए। स्टैला ने कहा, पवन डार्लिंग, जितने दिन मैम यहाँ पर हैं मैं मिसेज छजनानी के यहाँ सोऊंगी।