दौड़ / ममता कालिया / पृष्ठ 5

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5 (पाँचवाँ भाग)

स्टैला रात के खाने का प्रबंध करने रसोई में चली गई। फिर पवन उसे छोड़ने मिसेज़ छजनानी के घर चला गया। पवन को कुछ-कुछ अंदाज़ा था कि मां से एकल वार्तालाप कोई आसान काम नहीं होगा। उसने अनुपम को मध्यस्थ की तरह साथ बिठाए रखा।

बारह बजे अनुपम का धैर्य समाप्त हो गया। उसने कहा, भाई मैं सोने जा रहा हूँ। सुबह ऑफ़िस भी जाना है। कमरे में अकेले होते ही रेखा ने कहा, पुन्नू यह सिलबिल-सी लड़की तुझे कहाँ मिल गई? पवन ने कहा, तुम्हें तो हर लड़की सिलबिल नज़र आती है। इसका लाखों का कारोबार है। पर लगती तो दो कौड़ी की है। यह तो बिलकुल तुम्हारे लायक नहीं। यही बात तुम्हारे बारे में दादी माँ ने पापा से कही थी। क्या उन्होंने दादी माँ की बात मानी थी, बताइए। रेखा का सर्वांग संताप से जल उठा। उसका अपना बेटा, अभी कल की इस छोकरी की तुलना अपनी माँ से कर रहा है और उन सब जानकारियों का दुरुपयोग कर रहा है जो घर का लड़का होने के नाते उसके पास हैं। मैंने तो ऐसी कोई लड़की नहीं देखी जो शादी के पहले ही पति के घर में रहने लगे। तुमने देखा क्या है माँ? कभी इलाहाबाद से निकलो तो देखोगी न। यहाँ गुजरात, सौराष्ट्र में शादी तय होने के पहले लड़की महीने भर ससुराल में रहती है। लड़का लड़की एक दूसरे के तौर तरीके समझने के बाद ही शादी करते हैं। पर यह ससुराल कहाँ है? माँ, स्टैला अपना कारोबार छोड़ कर तुम्हारे क़स्बे में तो जाने से रही। उसका एक-एक दिन कीमती है। रेखा भड़क गई, अभी तो यह भी तय नहीं है कि हम इस रिश्ते के पक्ष में हैं या नहीं। हमारी राय का तुम्हारे लिए कोई अर्थ है या नहीं। बिलकुल है तभी तो तुम्हें खबर की, नहीं तो अब तक हमने स्वामी जी के आश्रम में जा कर शादी कर ली होती। बिलकुल गलत बात कर रहे हो पुन्नू, यही सब सुनाने के लिए बुलाया है मुझे। अपने आप आई हो। बिना खबर दिए। तुम्हारे इरादे भी संदिग्ध थे। तुम्हें मेरा टाइम टेबल पूछ लेना चाहिए था। मान लो मैं बाहर होता।

रेखा को रोना आ गया। पवन पर अप्रिय यथार्थ का दौरा पड़ा ता जिसके अंतर्गत उसने अपनी शिकायतों के शर शूल से उसे लथपथ कर दिया। मैं सुबह वापस चली जाऊँगी, कोई ढंग की गाड़ी नहीं होगी तो मालगाड़ी में चली जाऊँगी पर अब एक मिनट तेरे पास नहीं रहूँगी। पवन की सख्ती का संदूक टूट गया। उसने माँ को अंकवार में भरा, माँ कैसी बातें करती हो। तुम पहली बार मेरे पास आई हो, मैं तुम्हें जाने दूँगा भला। गाड़ी के आगे लेट जाऊँगा। दोनों रोते रहे। पवन के आँसू रेखा कभी झेल नहीं पाई। चौबीस साल को होने पर भी उसके चेहरे पर इतनी मासूमियत थी कि हँसते और रोते समय शिशु लगता था। संप्रेषण के इन क्षणों में माँ बेटा बन गई और बेटा माँ। पवन ने माँ के आँसू पोंछे, पानी पिलाया और थपक-थपक कर शांत किया उसे।

सुबह तेज़ संगीत की ध्वनि से रेखा की नींद टूटी। एक क्षण को वह भूल गई कि वह कहाँ है। 'हो रामजी मेरा पिया घर आया' सी.डी. सिस्टम पर पूरे वाल्यूम पर चल रहा था और अनुपम रसोई में चाय बना रहा था। उसने एक कप चाय रेखा को दी, गुडमार्निंग। फिर उसने संगीत का वाल्यूम थोड़ा कम किया, सॉरी, सुबह मुझे खूब ज़ोर-ज़ोर से गाना सुनना अच्छा लगता है। और फिर पवन भैया को उठाने का और कोई तरीका भी तो नहीं। आँटी से सवेरे पौने नौ तक सोते रहते हैं और नौ बजे अपने ऑफिस में होते हैं। सुबह चाय नाश्ता कुछ नहीं लेता? किसी दिन स्टैला भाभी हमारे लिए टोस्ट और कांप्लान तैयार कर देती हैं। पर ज़्यादातर तो ऐसे ही भागते हैं हम लोग। लंच टाइम तक पेट में नगाड़े बजने लगते हैं।

चावल में कंकड़ की तरह रड़क गया फिर स्टैला का नाम। कहाँ से लग गई यह बला मेरे भोले भाले बेटे के पीछे, रेखा ने उदासी से सोचा। हटो आज मैं बनाती हूँ नाश्ता। रसोई की पड़ताल करने पर पाया गया कि टोस्ट और मिल्क शेक के सिवा कुछ भी बनना मुमकिन नहीं है। थोड़े से बर्तन थे, जो जूठे पड़े थे। अभी भरत आ कर करेगा। आंटी आप परेशान मत होइएगा। भरत खाना बना लेता है। पवन तो बाहर खाता था। आँटी, हम लोग का टाइम गड़बड़ हो जाता था। मौसी लोग के यहाँ टाइम की पाबंदी बहुत थी। हफ्ते में दो एक दिन भूखा रहना पड़ता था। कई बार हम लोग टूर पर रहते हैं। तब भी पूरे पैसे देने पड़ते थे मौसी को। अब तीनों का लंच बॉक्स भरत पैक कर देता है।

तभी भरत आ गया। पवन की पुरानी जीन्स और टी शर्ट पहने हुए यह बीस-बाईस साल का लड़का था जिसने सिर पर पटका बाँध रखा था। अनुपम के बताने पर उसने नमस्ते करते हुए कहा, पौन भाई नी वा आवी। (पवन भाई की माँ आई है।) ग़ज़ब की फुर्ती थी उसमें। कुल पौन घंटे में उसने काम सँभाल लिया। रोटी बनाने के पहले वह रेखा के पास आ कर बोला, वा तमे केटला रोटली खातो? (माँ तुम कितनी रोटी खाती हो?) यह सीधा-सा वाक्य था पर रेखा के मन पर ढेले की तरह पड़ा। अब बेटे के घर में उसकी रोटियों की गिनती होगी। उसने जलभुन कर कहा, डेढ़। वे (दो) चलेगा। कह कर भरत फिर रसोई में चला गया। इस बीच पवन नहा कर बाहर निकला। रेखा से रहा नहीं गया। उसने पवन को बताया। पवन हँसने लगा, अरे माँ तुम तो पागल हो। भरत को हमीं लोगों ने कह रखा है कि खाना बिलकुल बरबाद न जाए। नाप तोल कर बनाए। उसे हरेक का अंदाज़ा है कौन कितना खाता है। घर खुला पड़ा है, तुम जो चाहो बना लेना।


रेखा को लगा इस नाप तोल के पीछे ज़रूर स्टैला का हाथ होगा। उसका बेटा तो ऐसा हिसाबी कभी नहीं था। खुद यह जम कर बरबाद करने में यकीन करता था। एक बार नाश्ता बनता, दो बार बनता। पवन को पसंद न आता। शहजादे की तरह फरमा देता, आलू का टोस्ट नहीं खाएँगे, आमलेट बनाओ। अब आमलेट तैयार होता वह दाँत साफ़ करने बाथरूम में घुस जाता। देर लगा कर बाहर निकलता। फिर नाश्ता देखते ही भड़क जाता, यह अंडे की ठंडी लाश कोई खा सकता है? मालती पराठा बनाओ नहीं तो हम अभी जा रहे हैं बाहर। घर की पुरानी सेविका मालती में ही इतना धीरज था कि रेखा की गैरमौजूदगी में पवन के नखरे पूरे करे। कभी बिना किसी सूचना के तीन-तीन दोस्त साथ ले आता। सारा घर उनके आतिथ्य में जुट जाता।

पवन ने कहा, भारत मेरा लंच पैक मत करना, दुपहर में मैं घर आ जाऊँगा। फिर रेखा से कहा, माँ क्या करूँ, ऑफ़िस जाना ज़रूरी है, देखो कल की छुट्टी का जुगाड़ करता हूँ कुछ। तुम पीछे से टी.वी. देखना, सी.डी. सुन लेना। कोई दिक्कत हो तो मुझे फ़ोन कर लेना। सामने पटेल आँटी रहती है, कोई ज़रूरत हो तो उनसे बात कर लेना। तभी स्टैला फूलों का गुलदस्ता लिए आई। गुड मॉर्निंग मैम। उसने गुलदस्ता रेखा को दिया। उसमें छोटा-सा गिफ्ट कार्ड लगा था, स्टैला पवन की ओर से।

फूलों की बजाय रेखा ध्यान से उस चिट को देखती रही। पवन ताड़ गया। उसने कहा, माँ यह हम दोनों की तरफ़ से है। उसने गिफ्ट कार्ड में पेन से स्टैला और पवन के बीच कॉमा लगा दिया। रेखा को थोड़ी आश्वस्ति हुई। उसने देखा स्टैला की मुख मुद्रा थोड़ी बदली। स्टैला ने अपना लंच बाक्स और ऑफ़िस बैग उठाया, बाय, सी यू इन द ईवनिंग मैम, टेक केयर। उसी के पीछे-पीछे पवन, अनुपम भी गाड़ी की चाभी लेकर निकल गए। अकेले घर में बिस्तर पर पड़ी-पड़ी रेखा देर तक विचारमग्न रही। बीच में इच्छा हुई कि राकेश से बात करे पर एस.टी.डी. कोड डायल करने पर उधर से आवाज़ आई, यह सुविधा तमारे फ़ोन पर नथी छे। फ़ोन की एस.टी.डी. सुविधा पर इलेक्ट्रानिक ताला था। एक बार फिर रेखा को लगा इस घर पर स्टैला का नियंत्रण बहुत गहरा है।

रेखा के तीन दिन के प्रवास में स्टैला सुबह शाम कोई न कोई उपहार उसके लिए लेकर आती। एक शाम वह उसके लिए आभला(शीशे) की कढ़ाई की भव्य चादर लेकर आई। पवन ने कहा, जैसे पीर शाह पर चादर चढ़ाते हैं वैसे हम तुम्हें मनाने को चादर चढ़ा रहे हैं माँ। पीर औलिया की मज़ार पर चादर चढ़ाते है, मुझे क्या मुर्दा मान रहे हो? नहीं माँ मुर्दा तो उन्हें भी नहीं माना जाता। तुम हर अच्छी बात का बुरा अर्थ कहाँ से ढूँढ़ लाती हो। पर तुम खुद सोचो। कहीं काँच की चादर बिस्तर पर बिछाई जाती है। काँच पीठ में नहीं चुभ जाएँगे।

स्टैला ने उन दोनों का संवाद सुना। उसने पवन के जानू पर हाथ मारा, आइ गॉट इट। मैम इसे वॉल हैगिंग की तरह दीवार पर लटका लें। पूरी दीवार कवर हो जाएगी। पवन ने सराहना से उसे देखा, तुम जीनियस हो सिली। चादर प्लास्टिक बैग में डाल कर रेखा के सूटकेस के ऊपर रख दी गई। रेखा को रात में यही सपना बार-बार आता रहा कि उसके बिस्तर पर शीशे वाली चादर बिछी है। जिस करवट वह लेटती है उसके बदन में शीशे चट-चट कर टूट कर चुभ रहे हैं। उसने सुबह पवन से बताया कि वह चादर नहीं ले जाएगी। पवन उखड़ गया, आपको पता है हमारे तीन हज़ार गिफ्ट पर खर्च हुए हैं। इतनी कीमती चीज़ की कोई कद्र नहीं आपको? रेखा को लगा अगर इस वक़्त वह तीन हज़ार साथ लाई होती तो मुँह पर मारती स्टैला के। प्रकट उसने कहा, पुन्नू उस लड़की से कहना विल बना कर रख ले हर चीज़ का, मैं वहाँ जा कर पैसे भिजवा दूँगी। आप कभी समझने की कोशिश नहीं करोगी। वह जो भी कर रही है, मेरी मर्ज़ी से, मेरी माँ के लिए कर रही है। अब देखो वह आपके लिए राजधानी एक्सप्रेस का टिकट लाई है, यहाँ से अमदाबाद वह अपनी एस्टीम में खुद आपके ले जाएगी। और क्या करे वह, सती हो जाए। सती और सावित्री के गुण तो उसमें दिख नहीं रहे, अच्छी कैरियरिस्ट भले ही हो। वह भी ज़रूरी है, बल्कि माँ वह ज़्यादा ज़रूरी है। तुम तो अपने आपको थोड़ा बहुत लेखक भी समझती हो, इतनी दकियानूस कब से हो गई कि मेरे लिए चिराग ले कर सती सावित्री ढूँढ़ने निकल पड़ो। वी आर मेड फॉर इच अदर। हम अगले महीने शादी कर लेंगे। इतनी जल्दी। हमारे एजेंडा पर बहुत सारे काम हैं। शादी के लिए हम ज़्यादा से ज़्यादा चार दिन खाली रख सकते हैं। क्या सिविल मैरेज करोगे? रेखा ने हथियार डाल दिए। स्वामी जी से पूछना होगा। उनका शिबिर इस बार उनके मुख्य आश्रम, मनपक्कम में लगेगा। कहाँ? मद्रास से तीस पैंतीस मील दूर एक जगह है माँ। मैं तो कहता हूँ आप वहाँ जा कर दस दिन रहो। आपकी बेचैनी, परेशानी, बेवजह चिढ़ने की आदत सब ठीक हो जाएगी। मैं जैसी भी हूँ ठीक हूँ। कोई ठाली बैठी नहीं हूँ जो आश्रमों में जा कर रहूँ। नौकरी भी करनी है। छोटी-सी नौकरी है तुम्हारी छोड़ दो, चैन से जियो माँ। इसी छोटी-सी नौकरी से मैंने बड़े-बड़े काम कर डाले पुन्नू, तू क्या जानता नहीं है? पर आप में जीवन दर्शन की कमी है। स्टैला के माँ बाप को देखो। अपनी लड़की पर विश्वास करते हैं। उन्हें पता है वह जो भी करेगी, सोच समझ कर करेगी।

डील का क्या मतलब है। तुम अभी शादी जैसे रिश्ते की गंभीरता नहीं जानते। शादी और व्यापार अलग-अलग चीज़ें है। कोई भी नाम दो, इससे फ़र्क नहीं पड़ता। अगले महीने आप चौबीस को मद्रास पहुँचो। स्वामी जी की सालगिरह पर चौबीस जुलाई को बड़ा भारी जलसा होता है, कम से कम पचास शादियाँ कराते हैं स्वामी जी। सामूहिक विवाह? हाँ। एक घंटे में सब काम पूरा हो जाता है। शल्य क्रिया की तरह बेटे ने सब कुछ निर्धारित कर रखा था। पहले पुत्र को लेकर परिवार के अरमानों के लिए इसमें कोई गुंजाइश नहीं थीं। माँ ने अंतिम दलील दी, तू खरमास में शादी करेगा। इसमें शादियाँ निषिद्ध होती हैं। पवन ने पास आकर माँ को कंधों से पकड़ा, माँ मेरी प्यारी माँ, यह मैं भी जानता हूँ और तुम भी कि हम लोग इन बातों में यकीन नहीं करते। सिली के साथ जब बंधन में बँध जाऊँ वही मेरे लिए मुबारक महीना है।

आहत मन और सुन्न मस्तिष्क लिए रेखा लौट आई। पति और छोटे बेटे ने जो भी सवाल किए, उनका वह कोई सिलसिलेवार उत्तर नहीं दे पाई। मेरा पुन्नू इतना कैसे बदल गया। वह क्रंदन करती रही।

पवन ने फ़ोन पर माँ की सकुशल वापसी की ख़बर ली। सघन से ई-मेल पता लिया और दिया और अपने पापा से बात करता रहा, पापा आप अपनी शादी याद करो और माँ को समझाने का प्रयत्न करो। मैं लड़की को डिच(धोखा) नहीं कर सकता।

राकेश व्यथा के ऊपर विवेक का आवरण चढ़ाए बेटे की आवाज़ सुनते रहे। 'ठीक है', 'अच्छा हूँ' के अलावा उनके मुँह से कुछ नहीं निकला। उस दिन किसी से खाना नहीं खाया गया। राकेश ने कहा, हमें यह भी सोचना चाहिए कि उस लड़की में ज़रूर ऐसी कोई ख़ासियत होगी कि हमारा बेटा उसे चाहता है। तुमने देखा होगा। मुझे लगा स्टैला बड़ी अच्छी व्यवस्थापक है। मुझे तो वह लड़की की बजाय मैनेजर ज़्यादा लगा। रेखा ने कहा। तो इसमें बुराई क्या है। पवन दफ्तर भले ही मैनेज कर ले घर में तो उसे हर वक़्त एक मैनेजर चाहिए जो उसका ध्यान रखे। यहाँ यह काम तुम और सुग्गू करते थे। पर शादी एकदम अलग बात होती है। कोई अलग बात नहीं होती। लड़की काम से लगी है। तुम्हारे जाने पर लगातार तुमसे मिलती रही। अपनी गरिमा इसी में होती है कि बच्चों से टकराव की स्थिति न आने दें। पर सब कुछ वही तय कर रही है, हमें सिर्फ़ सिर हिलाना है। तो क्या बुराई है। तुम अपने को नारीवादी कहती हो। जब लड़की सारे इंतज़ाम में पहल करे तो तुम्हें बुरा लग रहा है। हम इस सारे प्लान में कहीं नहीं है। हमें तो पुन्नू ने उठा कर ताक पर रख दिया है, पिछले साल के गणेश लक्ष्मी की तरह। सब यही करते हैं क्या हमने ऐसा नहीं किया। मेरी माँ को भी ऐसा ही दुख हुआ था।

रेखा भड़क उठी, तुम स्टैला की मुझसे तुलना कर रहे हो। मैंने तुम्हारे घर परिवार की धूप छाया जैसे काटी है, वह काटेगी वैसे। बस बैठे-बैठे कंप्यूटर जोड़ने के सिवा और क्या आता है उसे। एक टाइम खाना नौकर बनाता है। दूसरे टाइम बाहर से आता है। दूध तक गरम करने में दिलचस्पी नहीं है उसे। मुझे लगता है तुम पूर्वाग्रह से ग्रसित हो। मेरा लड़का ग़लत चयन नहीं कर सकता। अब तुम उसकी लय में बोल रहे हो।

कई दिनों तक रेखा की उद्विग्नता बनी रही। उसने अपनी अध्यापक सखियों से सलाह की। जो भी घर आता, उसकी बेचैनी भाँप जाता। उसने पाया हर परिवार में एक न एक अनचाहा, मनचाहा विवाह हुआ है। उसे अपने दिन याद आए। बिल्कुल ऐसी तड़प उठी होगी राकेश के माता पिता के कलेजे में जब उनकी देखी सर्वांग सुंदरियों को ठुकरा कर उसने रेखा से विवाह को मन बनाया। उसके दोस्तों तक ने उसने कहा, तुम क्या एकदम पागल हो गए हो? दरअसल वे दोनों एक दूसरे के विलोम थे। राकेश थे लंबे, तगड़े, सुंदर और हँसमुख, रेखा थी छोटी, दुबली, कमसूरत और कटखनी। बोलते वक़्त वह भाषा को चाकू की तरह इस्तेमाल करती थी। उसके इसी तेवर ने राकेश को खींचा था। वह उसकी दो चार कविताओं पर दिल दे बैठा। राकेश के हितैषियों का ख़याल कि अव्वल तो यह शादी नहीं होगी। और हो भी गई तो छह महीने में टूट जाएगी।

रेखा को याद आता गया। शादी के बाद के महीनों में वह लाख घर का काम, स्कूल की नौकरी, खर्च को बोझ सँभालती, माँ जी उसके प्रति अपनी तलखी नहीं त्यागती। अगर कभी पिता जी या राकेश उसकी किसी बात की तारीफ़ कर देते तो उस दिन उसकी शामत ही आ जाती। माँ जी की नज़रों में रेखा चलती-फिरती चुनौती थी।

जी.जी.सी.एल. लगातार घाटे में चलते-चलते अब डूबने के कगार पर थी। कर्मचारियों की छटनी शुरू हो गई थी। एम.बी.ए. पास लड़कों में इतना धैर्य नहीं था कि वे डूबते जहाज़ का मस्तूल सँभालते। सभी किसी न किसी विकल्प की खोज में थे।

था पवन ने घर पर फ़ोन कर सूचना दी कि उसका चयन बहुराष्ट्रीय कंपनी मैल में हो गया है। नयी नौकरी में ज्वाइन करने से पूर्व उसके पास तीन सप्ताह का समय होगा। इसी समय वह घर आएगा और जी भर कर रहेगा। अगले हफ्ते पवन ने कंप्यूटर पर निर्मित साफ़सुथरा सुरुचिपूर्ण पत्र भेजा जिसमें उसकी शादी का निमंत्रण था। स्वामी जी के कार्यक्रम के अनुसार शादी दिल्ली में होनी थी। शहरों की दूरियाँ और अपरिचय उसके जीवन में महत्व नहीं रखती थीं। बेटे की योजनाओं पर स्तंभित होना जैसे जीवन का अंग बन गया था। अपने नाम के अनुरूप ही वह पवन वेग से सारी व्यवस्था कर रहा था।

इस बीच इतना समय अवश्य मिल गया था कि रेखा और राकेश अपने क्षोभ और असंतोष को संतुलन का रूप दे सके। जब दिल्ली में रामकृष्णपुरम में सरल मार्ग के शिबिर में उन्होंने दस हज़ार दर्शकों की भीड़ में सामूहिक विवाह का दृश्य देखा तो उन्हें महसूस हुआ कि इस आयोजन में पारंपारिक विवाह संस्कार से कहीं ज़्यादा गरिमा और विश्वस्वीयता है। न कहीं माता पिता की महाजनी भूमिका थी न नाटकीयता। स्वामी जी की उपस्थिति में वधु को एक सादा मंगलसूत्र पहनाया गया, फिर विवाह को नोटरी द्वारा रचिस्टर किया गया। अंत में सभी दर्शकों के बीच लड्डू बाँट दिए गए। कन्याओं के अभिभावकों के चेहरे पर कृतज्ञता का आलोक था। लड़कों के अभिभावकों के चेहरे कुछ बुझे हुए थे।

अब तक अपने आक्रोश पर रेखा और राकेश नियंत्रण कर चुके थे। नये अनुभव से गुज़रने की उत्तेजना में उन्हें स्टैला से कोई शिकायत नहीं हुई। वे पवन और बहू को लेकर घर आए। दो दिन सलवार सूट पहनने के बाद स्टैला ने कह दिया, मैं दुपट्टा नहीं सँभाल सकती। वह वापस अपनी प्रिय पोशाक जीन्स और टॉप में नज़र आई। उसकी व्यस्तता भी इस तरह की थी कि लिबास को ले कर विवाद नहीं किया जा सकता था। उसने यहाँ अपनी सहयोगी फर्म से संपर्क कर सघन को कंप्यूटर के पार्टस दिला दिए। फिर वे दोनों कंप्यूटर रूस बन गया। उसने सगर्व घोषणा की, मेरी जैसी भाभी कभी किसी को न मिली है न मिलेगी। स्टैला कंप्यूटर मैन्यू पर जितनी पारंगत थी, रसोईघर की मैन्यू पर उतनी ही अनाड़ी। लगातार घर से बाहर होस्टलों में रहने की वजह से उसके जेहन में खाने का कोई ख़ास तसव्वुर नहीं था। वह अंडा आलू, चावल उबालना जानती थी या फिर मैगी। माँ ने कहा, इतनी बेस्वाद चीज़ें तुम खा सकती हो? स्टैला ने कहा, मैं तो बस कैलोरी गिन लेती हूँ और आँख मूँद कर खाना निगल लेती हूँ।