निरामय / खंड 6 / भाग-17 / कमलेश पुण्यार्क

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‘....सुहाग सेज पर मैं तड़प रही थी...और उधर तुम्हारी कल्पना की बाहों का तकिया बनाये सोयी थी मीना। अरे, खुटका तो उसी दिन हुआ था, पर यहाँ तक सोच न सकी थी...अनुमान की दूरबीन इतनी कारगर न थी कि देख सके इतनी दूर तक की चीजों को...अनुवीक्षण भी कमजोर ही था- इतनी सूक्ष्म तक पहुँच न थी। नतीजन, अपने आप में ही कमियाँ तलाशने लगी- बेवकूफ ‘हन्टर’ की तरह, जो अपनी ही बन्दूक के धक्के खाकर पीछे गिर जाता है। किन्तु अभी हाल में ही अचानक उस बक्से की चाभी ने मेरी सभी आशंकाओं का तिलिस्मी ताला सहज ही खोल डाला...

‘.....पुरुष तभी तक छल सकता है, नारी को, जब तक वह सोयी रहती है- उसके झूठे प्यार की थपकी से संतुष्ट होकर;किन्तु सच्चाई का सूरज, जब ‘छल-छद्म’ के कोहरे को चीर कर चमकने लगता है- वास्तविकता के आकाश में, तब उस छली-बेवफा पुरुष की छाती पर ताण्डव मच जाता है...बहुत छले...बहुत...अब और छलने की कोशिश न करो। शक्ति सोयी थी- किसी दिन, हवामहल के गुदगुदे रंगीन गलीचे पर, किन्तु अब वह जाग चुकी है....जगी नहीं है...जगा दी गयी है...उसके विश्वास के विस्तर में सौत के खटमल घुस आये हैं..और इनका चुभन...इनका दंश..क्षण...क्षण...अब शान्ति से सोये रहने का सवाल ही कहाँ उठता है...ओफ...!’ - शक्ति बकती जा रही थी। उसका सीना लोहार की द्दौंकनी सा संकुचित-विस्फारित हो रहा था। क्रोद्द में अपने बालों को नोचने लगी थी। दीवार पर सिर पटकने लगी थी...लागातार...अनवरत- मानो गरम लोहे पर लोहार हथौड़ा मार रहा हो।

मेरा दम घुट सा रहा था। अभी इस अवस्था में मुझे क्या करना चाहिए- शक्ति को सम्हालूँ या कि दिल का तूफान थोड़ा निकल ही जाने दूँ- कुछ समझ नहीं पा रहा था। जबान तो लगता था- मुंह में है ही नहीं, खो गयी

है कहीं। क्या करुँ....आखिर क्या तर्क...क्या उत्तर...क्या सफाई दिया जा सकता है- रंगे हाथ पकड़े गए कातिल के द्वारा, प्रमाणित साक्ष्य समक्ष उपस्थित हों जिसके? शक्ति जो भी कह रही है- क्रोधावेश में आज- दुनियाँ की कोई भी नारी, शायद ऐसा ही कहेगी, इस अवस्था में। आज इस स्थान पर यदि मीना होती तो क्या वह भी ऐसा नहीं कहती?

स्वयं को सम्हालते हुए, शक्ति को सम्हालना चाहा- उसके दोनों हाथ एक साथ पकड़ कर- ‘शक्ति! क्या चाहती हो आखिर? जो बीत गयी सो बात गयी, अब आगे की सोचो। अपने ही हाथों अपने सुनहरे दाम्पत्य को क्यों ध्वस्त करने पर तुली हो शक्ति?’

‘सुनहरा-सुखद दाम्पत्य यह तुम्हारे लिए हो सकता है, क्यों कि मुझे अपनी बाहों में भर कर मृत मीना का ख्वाब देखने में सुविधा होती है। मेरा दाम्पत्य तो विकल है। तड़प रहा है- पक्ष-हीन पक्षी की तरह, जिस तरह तुम तड़पते हो मीना की याद में......किन्तु कर क्या सकती हूँ , नारी हूँ न! विधाता की बौद्धिक विसंगति का नमूना...स्वार्थी ब्रह्मा की करतूत, जिसने निज स्वार्थ में ही तो रच दिया निरीह नारी को- ‘मानसी’ असफल हुयी तो ‘मैथुनी’ संरचना के लिए! तुम पुरुष एक साथ हजारों नारियों से रमण कर सकते हो- देवकी पुत्र कृष्ण की तरह; तुम्हारे लिए कई दरवाजे हैं;पर हम नारियाँ तड़पती रह जायेंगी- सिर्फ एक को लेकर- उसके जीवन भर, और जीवन के बाद भी- कौमार्य से....सौभाग्य से वैधव्य पर्यन्त!.....

‘.......सवित्री ने सत्यवान को...सिर्फ सत्यवान को स्वीकारा था- अनजान में भी, और जानने के बाद भी। वह जान गयी कि इसके पैर मृत्यु द्वार के चौखट पर है, फिर भी प्रथम स्नेह और समर्पण की ‘छोटी सी कोठरी’ में दूसरे को कैसे आने देती! नारी का ‘अथ’ और ‘इति’ एक ही विन्दु पर, एक ही जगह होता है...

‘....जानती हूँ- तुम मीना को प्यार करते हो, किए हो, परन्तु मुझे सिर्फ तुम्हें ही प्यार करना पड़ेगा, दूसरा रास्ता नहीं है। नारी-उर की तंग कोठरी में सिर्फ एक ही दरवाजा है, और वह भी एक ही बार खुल कर सदा-सदा के लिए बन्द हो जाने वाला है......’- शक्ति कहती जा रही थी, कहती ही जा रही थी।

मेरी इच्छा हुयी थी कहने को- ‘इसीलिए तो तंग कोठरी में सौत की सड़ांध जल्दी ही पैदा हो जाती है। ’- पर कहना उचित न लगा। मेरी प्रतिक्रिया से उसकी क्रोधाग्नि कहीं और भड़क सकती थी, अतः चुप रहना ही उचित जान पड़ा।

‘.......याद होगा तुम्हें- तुमने ही कहा था मेरा हाथ देखकर- शक्ति का दाम्पत्य तो बड़ा ही सुखमय होना चाहिए....किसी बड़े खानदान की बहू बनेगी यह। बन तो गयी बहू- भट्ट खानदान की....पर सुखमय दाम्पत्य....हा...ऽ...ऽ...हा...क्या ही ख्वाब दिखलाया था तूने...।

शक्ति पागलों की तरह हँसने लगी थी। अजीब स्थिति हो आयी थी। कभी रोना, कभी हँसना। धीरे-धीरे उसकी आँखें पथराने लगी थी। मैंने गौर किया- उसकी पलकें झपकना भूल गयी थी। आँखों से बहती आसू की धारा

सूखने लगी थी।

मैं उसे सम्हालने ही वाला था कि कटे रूख की तरह, धड़ाम से गिर पड़ी थी फर्श पर, जहाँ कांच के टुकड़े बिखरे पड़े थे, और खून का फौब्बारा फूट पड़ा था।

मैंने हड़बड़ा कर उसे उठाया। देखा- कांच के कई टुकड़े जहाँ-तहाँ बदन में घुस गए थे, उन्हें यथासम्भव निकालने का प्रयास करने लगा। सिर भी पीछे से काफी फट चुका था....

और फिर इसी तरह की उलझनों में अटक कर रह गया था। तड़पता अतीत, सिसकता वर्तमान और उसके आगे सिर्फ गहन कालिमा....अन्धकार....कोहरा...धुन्ध....!

दशहरा कब आया...कब गया, पता नहीं। सप्ताह भर बीता अस्पताल में और फिर एक सप्ताह घर के घेरे में कैद होकर।

शारीरिक रूप से शक्ति स्वस्थ हो चुकी थी- मानसिक तो मानसिक ही होता है, टांके कट चुके थे। घ्यान आया ड्यूटी का। माँ से कहा- ‘माँ, अब तो शक्ति बिलकुल ठीक हो चुकी है। ’

‘हाँ, ठीक तो हो ही गयी है। माँ ने कहा।

‘आए पन्द्रह दिन हो गए। सोचता हूँ , अब जाना चाहिए। ’

‘एक दो दिन और रूक जाओ, फिर चले जाना। ’-कहती हुयी माँ आंचल से आँखें पोंछने लगी थी।

एक दिन कमरे में यूही पड़ा था, शक्ति भी थी। वही बेतुका सवाल फिर कर गयी- ‘क्या सोच रहे हो? सोचना नहीं छोड़ सकते न?’

‘सोच कुछ नहीं रहा हूँ , क्या सोचूँगा?’

‘तुम्हारे पास सोचने को और है ही क्या...बस एक....। ’

‘सच कहता हूँ शक्ति! तुम्हारी कसम, उसके बारे में कुछ नहीं सोच रहा हूँ। सोच है यदि तो सिर्फ तुम्हारी, तुम्हारी आदतों के बारे में, तुम्हारे व्यवहार के बारे में, तुम्हारे सेहत के बारे में। ’

‘छोड़ो भी झूठी बातें। मेरे बारे में सोचते ही यदि तो आज ये गति क्यों होती मेरी?’

‘झूठ नहीं शक्ति! यह बिलकुल सच है। इतना ही सच जितना कि अभी तुम मेरे सामने खड़ी हो। ’-फिर

उसकी आँखों मे झांकते हुए पूछा था मैंने- ‘एक बात पूछूँ?’

‘पूछो। क्या पूछना है?’

‘तुमने प्रेम किया है, कभी किसी से?’

‘की हूँ । सिर्फ एक से...तुमसे। ’

‘किन्तु शादी के बाद न? वह भी पति रूप में प्राप्त करने के कारण लाचारी ब्रह्मचारी?’

‘और क्या चाहते हो, तुम्हारी तरह भौंरा बन जाऊँ?’

‘सो नहीं कहता। कहने का मतलब है कि कभी किसी से प्रेम करके देखो, ताकि पता चले इसका रस... इसका कसक। वैसे सच पूछो तो तैयारी कर के प्रेम किया नहीं जा सकता, होने का सवाल ही नहीं है। प्रेम हठात्....अचानक...अनजाने में घट जाने वाली ‘घटना’ है- जैसे संतो को ‘समाधि घटती है, जीवन में हठात् सन्यास उतर आता है। तैयारी करके सन्यास नहीं लिया जा सकता। प्रेम भी वैसी हीं एक घटना है- घट जाती है, तब पता चलता है। कभी-कभी तो किसी-किसी को पता भी नहीं चलता। वैसे ‘है’ यह विरल। लेकिन लोग प्रयास करते हैं। तुम भी करके देखो। ’

‘मैं किसी और से प्रेम करूँ और तुम वरदास्त कर लोगे? पुरुष का स्त्री पर एकाधिपत्य ‘वाद’ का हनन सहन हो पायेगा?’

‘बिलकुल करूँगा, तूने मुझे ठीक से पहचाना नहीं, शक्ति। पहचानना है भी कठिन। ’

‘यूँही हवा में बातें न बनाओ। जिस दिन जानकारी होगी- मेरी बेवफाई की, आँखें निकाल मुट्ठी में मींच लोगे। मर्दों ने औरत को इतनी स्वतन्त्रता ही कहाँ दी है। ’- कहती हुयी शक्ति के चेहरे पर घृणा की बदली घिर आयी थी।

इसी प्रकार दो रातें और गुजरी थी, शिकवे-शिकायतों में ही, पलंग के दो किनारों पर।

मिलन का पहल न मैंने किया, औार न शक्ति ने ही। इसे दोनों का मिथ्या स्वाभिमान कहूँ या अहंकार? आत्म गौरव की गरिमा तो जरा भी नहीं लगता। वैसे इन तीनों का स्थान होना नहीं चाहिए- पति पत्नी के बीच।

पुनः कलकत्ता आये लगभग दो सप्ताह हो गये थे। उस दिन यहाँ की हर गलियाँ-सड़कें रंगीन हो रही थी। जैसा कि यहाँ का प्रचलन है- प्रायः हर दुर्गा मंडप में, जहाँ दशहरे में दुर्गा की प्रतिमा रखी जाती है,

दीपावली में ‘लोक्खी’ पूजा, उसी धूम-धाम से मनायी जाती है। कुछ मायने में तो कहीं उससे भी बढ़-चढ़ कर। लगता है साक्षात् लक्ष्मी घुटना टेक दी हों कलकत्ता वासियों के द्वार पर। तभी तो उस ‘श्रीदेवी’ के

स्वागत में सिर्फ पंडाल ही नहीं, बल्कि कोना-कोना जगमगाता रहता है उस दिन।

एक ओर पंक्तिवद्ध दीपमालिका- कुछ मिट्टी के कुछ मोम के, तो दूसरी ओर आधुनिकता की छाप तरह-तरह के विद्युत-बल्ब -टिमटिम करते, आसमान के तारों को चिढ़ाते, जुगनुओं को लजाते- किसी नीरस हृदय को भी सरस बनाते, सरस को रंजित-पल्लवित करते, और विरहियों की विरहाग्नि को भड़काते से लग रह थे।

ऐसे श्रृंगारिक अवसर पर याद आ जाना स्वाभाविक है- अतीत की झांकियों की। आखिर क्यों न याद आए! ऐसी ही दीपावली तो विगत बर्ष भी आयी थी। फुलझड़ी से मेरी अंगुली जल गयी थी। मीना अपने मुंह में डाल कर चूस ली थी, फिर मरहम भी लगायी थी- अपने नाजुक अंगुलियों से...

आज अंगुली की कौन कहे, दिल जल रहा है, तन-बदन बेसुध है- ज्वाला से, पर किसे है इसकी परवाह? कौन लगायेगा इस पर मरहम? थी- सो चली गयी, है- उसे परवाह नहीं।

यँही उदास पड़ा था, कमरे में। विजय ने कहा- ‘सोये ही रहोगे क्या? कहीं घूमने नहीं चलोगे?’

‘क्या कहीं घूमने जाना है यार! दिये जलते नहीं देखे हो क्या? खुद को जला कर दूसरों को प्रकाश देने वाला दीपक जल रहा होगा और उस पर मड़रा कर- सिर धुनता होगा- साथ में जलता होगा अभागा परवाना- बेचारा पतंगा। ’

‘देखा है, बहुत देखा है। दीपक ही नहीं दिल जलते हुए भी। ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं पर कहीं दीपक जल रहे हैं, तो बन्द कमरे में कहीं किसी का दिल। प्यार की आंच पत्थर को भी पिघलाने की ताकत रखती है। फिर बेचारे पतंगे की क्या बिसात, कि वह जले बिना रह जाये? अगनित दीपक नित्य जला करते हैं, और उनके साथ जलता है, उनकी झिलमिलाती लौ पर कुर्बान होकर- असंख्य पतंगा। फिर भी उसे देख कर भी अगले को समझ नहीं आता- ज्ञान नहीं होता...

.......महाभारत के यक्ष ने धर्मराज से कुछ ऐसे ही मामलों पर सवाल उठाया था-

" अह्नि-अह्नि भूतानि, गच्छन्ति यम मन्दिरम् । अपरे स्थातुमिच्छन्ति, किमार्श्यं अतः परम् । । " नित्य प्रति लोग मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं, इस पर भी हम बने रहेंगे- ऐसी भावना होती है, इससे महद् आचर्श्य और क्या हो सकता है?’

.....वही सवाल आज मैं अपने मित्र से करना चाहता हूँ -क्यों? क्यों सोचता है इनसान कि मुझे पूरी सफलता हासिल हो ही जायेगी प्यार में ? युग-युगान्तर से देखते आ रहे हैं कि प्यार का खेल बहुत

खतरनाक है, फिर भी खेले जा रहा है....

‘अरे यार! इस तरह से मायूस होकर पड़े रहने से क्या होना है? क्या मिलना है?चलो उठो...। ’- विजय का

आह्नान था।

विजय कह रहा था। मैं सुन रहा था। सोच भी रहा था। वह कहता जा रहा था- ‘...मेरे जीवन में इस तरह की कई दीवालियाँ आयीं, और चली भी गयीं। पर जब मैं स्वयं ही दिवालिया हो गया; फिर फिकर किस बात की? गम में पड़े रह कर, उसके कसक को नहीं मिटाया जा सकता। ’- विजय मेरा हाथ पकड़ कर खींचते हुए फिर बोला- ‘चलो उठो, कपड़े बदलो तुम भी, मैं तो प्रवचन करते-करते कपड़े भी बदल लिया।

विजय के ‘प्रवचन’ शब्द पर मैं मुस्कुरा दिया था, और अनिच्छा से ही उठ कर कपड़े बदल उसके साथ निकल गया।

‘किधर चलना है?’- बाहर आने पर मैंने उससे पूछा।

‘बस, यहीं आस-पास दो-चार पंडाल, और क्या पूरा कलकत्ता?’ -विजय ने सिगरेट-केस जेब में डालते हुए कहा।

काफी देर तक हमलोग एक पंडाल से दूसरे पंडाल घूमते रहे थे। और इस प्रकार पहुँच गए मालती बागान। यहाँ की सजावट और मूर्ति हर बर्ष कलकत्ते में अब्बल जगह लेती है। दूर-दूर से, लोकल ट्रेनों से भी लोग यहाँ जरूर आते हैं। भीड़ काफी होती है।

एक दूसरे का हाथ पकड़े हमदोनों भी भीड़ का हिस्सा हो गए। धक्का-धुक्की में किसी प्रकार प्रतिमा तक पहुँचे। दर्शन कर वापस मुड़े रहे थे, उसी समय हाथ छूट गया। भीड़ में हाथ छूट गया, मतलब साथ छूट गया- ढूढते रहे घंटे भर से ज्यादा, उस अपरम्पार जन सैलाब में- एक छोटी सी बूँद को - अपने मित्र विजय को। और अन्त में लाचार हो, थकहार कर चल दिया पंडाल से बाहर।

पंडाल के बीच में बल्लियों से विभाजन किया हुआ था, जिसके एक ओर पुरुष और दूसरी ओर महिलाऐं, देवी-दर्शन के लिए आ-जा रही थी।

अभी कुछ ही आगे बढ़ा था कि थोड़ी दूर पर महिलाओं की भीड़ में एक परिचित शक्ल दीख पड़ी- भोला मुखड़ा, गुलाबी होठ, लम्बे बाल, कद भी वैसा ही, धवल वस्त्र- कुल मिला कर सौन्दर्य की जीवन्त प्रतिमा...देख कर, देखता ही रह गया, और बरबस निकल पड़ा मुंह से- ‘मीनाऽऽऽ...’

सुनसान जंगल और पहाड़ों के बीच, घाटियों में अपनी ही आवाज बार-बार टकराती है कानों से, वैसा ही परावर्तन महसूस किया- अपने दिल के चट्टान से टकराकर लौटती आवाजों को पुनः-पुनः कानों में घुसते हुए।

‘दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा?’- -पीछे से आकर किसी ने हाथ रख दिया कंधे पर। चौंक कर देखा, विजय पीछे खड़ा मुस्कुरा रहा था- ‘होश में आओ कमल! मीना की याद में इतना मदहोश मत हो जाओ। इस तरह भीड़ में चिल्ला रहे हो, कहाँ है यहाँ तुम्हारी मीना?’

‘अभी-अभी तो मैंने उसे देखा है, बस करीब ही-उस खम्भे के पास, पूरब तरफ। ’

‘इसी लिए तो कहता हूँ कि दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा। औरत की हर शक्ल तुम्हें मीना ही नजर आती है। ’- कहता हुआ विजय, मेरा हाथ खींचता हुआ पंडाल से बाहर ले आया था। मैं चुपचाप उसके साथ चलता रहा, इधर-उधर देखते हुए- हो सकता है, फिर कहीं दीख जाए वह दिव्य मूर्ति...।

‘जिस शरीर को तुमने स्वयं ही आग की लपटों से भस्म कर दिया है, चिता की सेज पर सुला कर, उसे फिर कैसे देख सकते हो तुम जीवन में....। ?’- विजय कर रहा था.और मैं सोच रहा था-

‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारूतः। ।

....फिर कैसे जल सकती है वह? आत्मा अमर है। शस्त्र जिसे छिन्न नहीं कर सकते। अग्नि जिसे जला नहीं सकता। जल जिसे भिंगा नहीं सकता। वायु जिसे सुखा नहीं सकता...मतलब? मतलब कि वह भटक रही है...तड़प रही है...प्रेम की तृषा से...विरहाग्नि की दाह से...।

विजय कहता जा रहा था- ‘भूल जाओ कमल! भुला दो उस अतीत को, जिसकी ज्वाला में निरंतर दग्ध हो रहे हो। शक्ति के प्यार की फुहार से बुझा दो उस आग को...।

और मैं सोच रहा था- किसके प्यार की फुहार से बुझाने कहता है विजय? ‘पुरुष तब तक ही छल सकता है नारी को, जब तक वह सोयी होती है- उसके झूठे प्यार की थपथपाहट से’- - यही तो कहा था शक्ति ने, जो वास्तव में अब जाग चुकी है। काला कोबरा अपना फन फैला कर फुफकार रहा है- डसने को मेरे दाम्पत्य सुख को। परन्तु दोष किसे दूँ- खुद को या शक्ति को या कि भाग्य को?

इसी तरह सोचता हुआ, न जाने कब डेरा पहुँचा, कपड़े उतारा, और विस्तर पर पड़ गया- कुछ कह नहीं सकता। जेहन में सिर्फ एक ही बात घूमती रही- मीना...उसकी भटकती आत्मा...प्यासी आत्मा....तड़पती रूह.....।

धोखा !....एक...दो...तीन...और फिर यह चौथी बार....

क्या यह सब धोखा ही है? विजय कहता है- वहम है मेरे मन का। भ्रम है आँखों का...प्यासे को...रेगिस्तान में जल ही जल दीखता है...मृगमरीचिका।

कालेज से आ रहा था। सब्जी मंडी के नुक्कड़ पर फिर नजर आयी वही शक्ल- वही रूप...वही यौवन...वही चाल...अभी तो रात नहीं है...अन्धकार भी नहीं है...विजली भी नहीं कड़क रही है...पंडाल की भीड़ भी नहीं है....

...तो फिर क्या दिन दहाड़े इस तरह भटकने लगी उसकी आत्मा? या यह भी धोखा है...भ्रम है?

बार-बार आँखें मलकर देखा। सिर झटका कर देखा। कहीं कुछ गड़बड़ नहीं है। सच्चाई है यह। उतनी ही सच्चाई, जितना कि अभी यह कहना कि दिन है- आकाश में, मध्य आकाश में पूरी चढा़ई पर सूरज चमक रहा है।

तो फिर ढूढ़ना होगा, इसका हल। इसका प्रमाण और चल पड़ता हूँ , उसका पीछा करते, धीरे-धीरे। देखते हैं, कहाँ जाती है, कोई तो होगा इसका ठौर-ठिकाना। आज पता लगा कर ही रहना है। बहुत दिनों से पहेली बनी हुयी है, यह मेरे लिए; समस्या बनी हुयी है।

वह चली जा रही थी, लपकते हुए। लगता है, कुछ जल्दी में हो। मैं भी पीछा करता रहा एक दूरी बना कर, क्यों कि इतना तो तय है कि यह कोई प्रेतात्मा नहीं हो सकती। यह कोई लड़की ही है, जो इतने दिनों से मुझे भ्रमित किए हुए है। पर इसकी क्या गारन्टी कि पिछले हर बार भी यही रही है! उधेड़ बुन जारी रहा। पीछा करना भी जारी रहा।

चलती हुयी वह हरिशन रोड पार की...चाइना बाजार जाने वाली मुख्य गली की ओर, और फिर आ गया बागड़ी मार्केट वाली गली। अरे! यह तो वही रास्ता है, जिससे मेरा बहुत वास्ता रहा है- मेरा चिर परिचित रास्ता। तो बढ़ ही चलना चाहिए, इस रास्ते पर- उस छलना के साथ, जो बराबर मेरे भ्रम और चिन्ता का विषय बनी रही है; मेरी मीना......मीना का रूह।

वह अभी भी बढ़ती जा रही थी, कदम कुछ और तेज हो गए थे;और मेरा अनु्शरण भी जारी था- नन्दिनी का अनुगमन करते राजा दिलीप की तरह।

अन्ततः वह पहुँच गयी ठीक मीना निवास के पास, और मेरा दिल धड़क उठा...इतने जोर से कि लगता था- निकल कर बाहर आ जायेगा। मैं थोड़ा समीप हो लिया, हालांकि बाजार की भीड़ प्रायः छंट चुकी थी। डर और झिझक भी था ही।

वह लपक कर आगे बढ़ी, और दांयें मुड़कर मीना निवास के गेट में घुसने ही वाली थी;मैं झपट कर बिलकुल पास पहुँच गया, और लपक कर उसका हाथ पकड़ लिया।

‘कौन हो तुम?’- कड़कती हुयी आवाज में मैंने पूछा।

लड़की पलट कर भौचंका, मेरा मुंह ताकने लगी। उसे जरा भी उम्मीद न होगी कि सरेआम राह चलते कोई अनजान लड़का इस तरह उसकी कलाई पकड़ लेगा।

‘बोलती क्यों नहीं, कौन हो तुम?’- उसकी चुप्पी मुझे क्रोधित कर गया। उसके चेहरे पर भय और क्रोध दोनों झलक रहे थे। मात्रा अधिक किसकी है- निर्णय करने में मुझे कठिनाई महसूस हुयी।

‘यहीं रहती हूँ । इसी मकान में। ’- अपने को थोड़ा नियंत्रित कर उसने कहा था। इशारा मकान की ओर ही था।

मैं थोड़ा चकराते हुए सवाल किया- ‘कब से?’

‘बहुत दिनों से, लगभग......। ’- कह ही रही थी कि मेरा कड़क और बढ़ गया - ‘क्या बकती हो?तुझे पता है- यह मीना निवास है...मेरी मीना का घर है यह। फिर बहुत दिनों से तुम कैसे रह सकती हो इस घर में तुम झूठी हो! मक्कार हो! नाम क्या है तुम्हारा?’

वह कुछ कहने को मुंह खोली ही थी कि आवाज आयी- ‘क्या बात है बेटी? कौन चिल्ला रहा है?’

आवाज सुन, लड़की में नयी चेतना का संचार हो आया। ऊपर देखती हुयी बोली- ‘देखिये न यह लड़का....। ’

मेरी निगाहें आवाज की दिशा का अनुगमन की- ऊपर देखा, जहाँ वॉलकनी में वैशाखी टेके एक जर्जर शरीर खड़ा था।

मेरे अंग अचानक शिथिल होने लगे- ‘पार्थ’ की तरह। उसके हाथों पर मेरी पकड़ ढीली पड़ गयी। पर वह भागी नहीं, वहीं खड़ी मेरा मुंह ताकती रही। शायद उसे मेरे मुंह से निकला ‘मेरी मीना’ की डोर ने बाँध दिया हो कस कर, और अचकचा कर उसके मुंह से साहस भरा सवाल उभरा- ‘आपका नाम क्या है?’-स्वर में अजीब सी मिठास थी- ‘आप मीना को कैसे जानते हैं?’

तपाक से जवाब दिया मैंने, मानों परिचय देने को व्याकुल हूँ- ‘मेरा नाम कमल है। मीना मेरी पत्नी है। ’

तब तक वैशाखी टेकते वह जीर्ण काय पुरुष नीचे उतर आया था सीढि़यों से। ‘कौन....कमल? कमल है...मेरा कमल...?यह कैसे हो सकता है....! ’-कहता हुआ, गर्दन ऊपर उठा कर गौर किया मेरे चेहरे पर।

मैं स्वयं को सम्हाल न सका, और आगे बढ़ कर गिर पड़ा उनके

श्री चरणों में- ‘चाचाजी!’

कांपते हाथों से, झुक कर उठाने का प्रयास किया था, उन्होंने, और वैशाखी हाथ से छूट कर एक ओर गिर पड़ी थी। कस कर लगा लिया था अपने सीने से।

लड़की वहीं खड़ी मुंह ताक रही थी- कभी मेरा, कभी चाचाजी का। उसे समझ न आ रहा था- यह रूपक- कुआंरी मीना का दावेदार पति...क्या माजरा है!

नीचे गिर पड़ी वैशाखी को उठाकर, मैंने उनके हाथ में थमाया, और दूसरा हाथ पकड़ते हुए बोला- ‘यह

कैसी हालत हो गयी है, आपकी चाचाजी?’

‘अब आ ही गये हो, तो सब जान जाओगे। ’- कहते हुए आगे की ओर बढ़ने लगे थे। हाथ का सहारा दिये, मैं भी चलता रहा। पीछे-पीछे वह लड़की भी चली आ रही थी, जिसकी निगाहों का चुभन मैं अपनी पीठ पर महसूस कर रहा था।

सीढि़याँ चढ़ कर हम सभी ऊपर आ गए थे। वॉलकनी पार कर अन्दर बैठकखाने में प्रवेश करते हुए, एक बार गौर से निरीक्षण किया मैंने अपने चिरपरिचित आशियाने का, जो अब बिलकुल अपरिचित सा लग रहा था-

डिस्टेम्पर दीवारों का दामन छोड़ चुका था, जहाँ-तहाँ से; जिसके कारण सुन्दर शरीर पर ‘स्वित्र’ का भ्रम हो रहा था, उसके भीतरी कोटिंग की सफेदी नजर आकर। मकडि़यों ने ‘ईस्ट इन्डिया कम्पनी’ की तरह अपना साम्राज्य विस्तार कर लिया था। सोफा मरी हुयी गाय की तरह मुंह बाये हुए था, जिसकी दरारों में खटमलों ने ‘बांगलादेशी शरणार्थियों सा साधिकार अड्डा जमा लिया था। विशाल क्षेत्रीय पलंग खोल कर एक ओर कोने में रखा हुआ था, जहाँ मच्छरों का एकछत्र तानाशाही हुकूमत लागू था। आलमीरे में रखी किताबों पर धूल की मोटी परतें- उन्हें विलख कर अपनी दुख भरी गाथा सुनाने में भी बाधा दे रही थी। ए.सी.- एकाक्षी बन, सुख भंजक हो रहा था। कूलर को शायद कफाधिक्य हो गया था, जो टी.बी. की आशंका जता रहा था। कमरे के बीचोबीच बिछी थी एक चौकी, जिस पर बिछा था- एक साधारण सा बिस्तर, जो फटी चादर के झरोखे से झांक कर अपने अस्तित्त्व पर अभिमान व्यक्त कर रहा था, जिसे धोबी के ‘आंछू-आंछू’ की समवेत ध्वनि बर्षों से शायद सुनने को न मिली थी। ताड़ की पत्तियों का बना पंखा- सुदूर पहाड़ी कला के साथ भारतीय संस्कृति की गाथा सुना रहा था। चौकी के ठीक बगल में हाथ के पहुँच के अन्दर, एक तिपाई पर दवा की कई शीशियाँ पड़ी थी- कुछ भरी, कुछ खाली....।

यह वही ड्राईंग हॅाल है, जो किसी दिन नवोढा दुल्हन के पास बैठे नौशे सा सजा होता था- ड्रेसिंग टेबल के दोनों ओर कांसे के गुलदानों में गुलदावदी, रजनीगंधा और डहेलिया विहंसता रहता था। दोनों वक्त उन फूलों को बदला जाता था। वसन्ती के चार बार झाड़ू लगाने के बावजूद, सन्तोष न होता था सफाई पर, और उसके हाथ से झाडू़ लेकर स्वयं झाड़-पोंछ करने लग जाती थी मीना -‘छोड़ो वसन्ती, ड्राईंग हॉल की अच्छी सफाई तुम्हारे बस की बात नहीं। जाओ उधर कीचेन में मम्मी का हाथ बटाओ...। ’

तब और अब के उहापोह में पड़ा था कि उस लड़की ने कहा-‘अंकल! दवा खा लीजिये न। आज बहुत देर हो गयी है। ’- और हाथ में पकड़े पानी का गिलास और दवा की शीशी तिपाई पर रख दी।

‘अब मुझे इसकी जरा भी चिन्ता नहीं रही बेटी! आधी बीमारी तो दूर हो गयी कमल को पाकर। ’-कहते हुए झुर्रियों भरे कपोलों पर पल भर के लिए लाली दौड़ गयी थी। बंकिम चाचा ने उठाया- गिलास के पानी को और एक ही सांस में खाली कर दिये भरे गिलास को। मैंने पूछना चाहा था कुछ, कि वे स्वयं ही बोल उठे-

‘आज फिर मुझे नयी जिन्दगी मिल गयी है कमल! जिजीविषा पुनः जागृत हो गयी है आज। मैं समझ रखा था कि इस जीवन में अब तुमसे मुलाकात न हो सकेगी। पहले पत्र का जवाब नहीं दिया था तुमने तो सोचा- डाक में गुम हो गयी होगी;और फिर महीने भर के अन्दर ही चार चिट्ठियाँ डलवायी तुम्हारे नाम। पर एक का भी जब जवाब नहीं मिला तो बड़ी चिन्ता होने लगी। आखिर क्या बात है, पत्र क्यों नहीं आ रहा है......!’

चाचाजी कहे जा रहे थे, पर मेरी निगाहें बड़ी व्यग्रता पूर्वक कुछ तलाश रही थी। अपनी सफाई की दलील कुछ सूझ न रहा था, अतः मौन साधे उनकी बातें सुनता जा रहा था। आखिर क्या जवाब देता मैं उनकी बातों का? सच्चाई कैसे जाहिर करूँ?

‘.....उस दिन स्कूल से पता लगा कर लौट रहा था। तुम्हारे मामा से भी भेंट न हो सकी थी। हताश, मन मारे अतीत और भवितव्य के झूले में कठोर-मृदु पेंगे लेता चला जा रहा था। आँखें तर थी स्नेह सलिल से... अतीत मुंह चिढ़ा रहा था, भावी पूर्णतः अगोचर...। चितरंजन एभेन्यू के चौराहे पर गाड़ी टकरा गयी एक ‘डबलडेकर’ से। बगल में बैठी थी तुम्हारी चाची। बहुत जिद्द करके उस दिन साथ गयी थी, पता लगाने तुम्हारे बारे में। पर कौन जानता था, तुम्हें नहीं, बल्कि अपने मौत को ढूढ़ने निकली थी वे। गाड़ी चूर-चूर हो गयी थी। तीसरे दिन होश आया अस्पताल में मुझे, तब पता चला- वह तो वहीं साथ छोड़ दी थी मेरा। हफ्ते भर बाद घर आया अकेला ही अस्पताल से रूकसत हो कर, टूटी टांग घसीटते। गया था पैर के सहारे, आया वैसाखी पकड़ कर....दैव ने बहुत कुछ दिखला दिया....। ’

‘हाय मेरी चाची!’- चीख निकल पड़ी थी मेरे मुंह से, और सिर पकड़ कर बैठ गया था, झुक कर। इस बुढ़ापे में दैव ने कितना दुःख दिया बेचारे चाचाजी को- वह भी मेरे कारण....ओफ!

चाचाजी अभी कहे जा रहे थे- ‘....जैसा कि तुम जानते ही हो, मीना के मौसा बीमार रहा करते थे हमेशा। उस समय भी हमसब वहीं जा रहे थे, जब कि दुर्घटना घटी थी...

‘.....कार एक्सीडेन्ट के कोई महीने भर बाद वहाँ से सूचना मिली कि वे भी गुजर गये बेचारे। मातृहीन बालिका अब पितृहीन भी हो गयी। फलतः अनाथ, निराधार बालिका का आधार बना मैं जो स्वयं ही आधार हीन हूँ। यह मीरा है, मीना की मौसेरी बहन। ’- उनका इशारा बगल में खड़ी लड़की की ओर था।

उनका वक्तव्य अभी जारी था- ‘भगवान ने चेहरा हू-ब-हू मीना-सा ही दिया है, फर्क है तो सिर्फ रंगों का-यह उससे बहुत साफ है। इसे देख कर पल भर के लिए भूल जाता हूँ- दुःख-दर्द। लगता है, मीरा के रूप में मुझे फिर एक बार मीना का सानिध्य मिल गया। बस अब यही तो रह गयी है- मुझ अन्धे की लाठी.....। ’-कहते हुए चाचाजी की आँखों की पपनियों पर आशा के मोती तैर आये थे, मानों छोटी-छोटी दुर्वा पर शारदीय ओस की बूंदें छलक आयी हों।

‘......पर इस परायी सम्पति को कब तक अपना सहारा समझ सकता हूँ? यह भी तो दी योग्य हो ही

गयी है। मीना से कुछ ही महीने छोटी है सिर्फ। ’- कहते हुए गमछे के छोर से साफ किया था, अपनी आँखों को और फिर सवालिया नजर डाले मेरी ओर- ‘तुम अपनी सुनाओ, कैसे याद किये आज? मैं तो बहुत बक गया। ’

मैं तो जान गया उसका परिचय, पर उसे अभी तक मेरा परिचय मिल न पाया था। लगता है मेरे बारे में इस दौरान कोई चर्चा नहीं चली है यहाँ। चाचाजी की जिज्ञासा का शमन कहाँ से शुरू करूँ, अभी यह सोच ही रहा था कि उसकी धीरज की बाँध टूट गयी, जो अब तक धैर्य पूर्वक सारी बातें वहीं खड़ी सुन रही थी-

‘ये कौन हैं अंकल! मुझे तो आपने बतलाया ही नहीं अब तक?’

‘इतनी बातें हो गयी, तूने अभी तक पहचाना नहीं इसे? कमल है यह, वही कमल जिसकी चर्चा तुम्हारी मौसी हमेशा किया करती थी। तुम्हें जरा भी याद नहीं? अरे! मैं भी कितना भुलक्कड़ हो गया हूँ- तुम भी खड़ी बातें ही सुनती रह गयी। अभी तक बेचारे को कुछ खिलाया-पिलाया भी नहीं। ’

चाचाजी का आदेश सुन मीरा रसोई घर की ओर चली गयी। उसके जाने के बाद बिगत डेढ़ बर्षों की मृदु-कटु घटनाओं को संक्षेप में सुना गया चाचाजी को; किन्तु यह कहने की साहस न जुटा पाया कि मेरी शादी हो चुकी है, और इसी का शिकार होना पड़ा है - आपकी मीना को। आखिर मुझ जैसे बुझदिल इनसान में इतनी हिम्मत आ भी कैसे सकती है!

मेरी बातों को सुन चाचाजी कुछ गम्भीर हो गए थे। मेरे चेहरे पर गौर करते हुए कहा था उन्होंने -‘ तुम चार-पांच महीने से यहीं हो- कलकत्ते में ही, और .....। ’

बूढ़ी निगाहों की उस चुभन को मैं सह न सका था। बरबस ही निकल पड़ा मेरे मुंह से- ‘इसे भी मेरी कृतघ्नता कहिये, जिस प्रकार आपकी तीन-चार चिट्ठियों का जवाब न दे सका, उसी प्रकार की किंचित मूढ़ता वश चार-पांच महीनों के स्थानीय प्रवास के बावजूद इधर आ न सका। दूसरी बात यह कि मैं तो सोचे बैठा था कि आपलोग कलकत्ता छोड़ चुके होंगे। ’

तभी मीरा नास्ता लिए आ गयी, दो प्लेटों में- ‘लीजिये, आपलोग नास्ता कीजिये। ’

‘खाओ कमल। ’- कहा था चाचाजी ने, और स्वयं खांसने लगे थे। काफी देर तक खों-खों कर खांसते रहे थे, और ढेर सारा बलगम निकल आया था- नीचे पड़े पीकदान में। उनके मुंह से निकला बलगम का रंग, मेरे चेहरे को भी रंग गया था- खुद के से पांडुरंग में। दुबकी लगाये दैव की भावी कुटिल योजना झलक आयी थी आँखों के सामने।

जलपान प्रारम्भ करते हुये मैंने कहा- ‘आज भी इधर आ न पाता; किन्तु रास्ते में ही मीरा मिल गयी। उस पर नजर पड़ी तो मीना की याद ताजी हो आयी, और उन यादों की रेशमी बागडोर में बँधा खिंचता

चला आया, पीछे-पीछे यहाँ तक- कुछ भ्रम पाले हुए। ’

‘आ गये हो तो आही जाओ पूर्वरूप से पुराने नीड़ में, जहाँ के तलछट में गुलाब की जगह अब कैक्टस ले चुका है। वास्तविक सहारे की तो अब ‘ही’ जरूरत है। पहले तो सब कुछ था, पर अब रह गयी है- सिर्फ उनकी यादें। तुम्हें पाकर फिर मेरा अधूरा कर्त्तव्य ठोंकर मारने लगा है। वास्तव में वह पूरा हो ही कहाँ पाया है। न तुम अपना सके पूर्ण रूप से मीना को, और न मैं दे ही सका दान स्वरूप तुम्हारे हाथों में; किन्तु भगवान ने फिर एक बार मौका दिया है- परीक्षा में शामिल होने के लिए- तुम्हें और मुझे भी। ’-कहते हुए चाचाजी तिपाई पर रखा गिलास उठा कर पानी पीने लगे थे।

मैं भीतर ही भीतर कांप उठा था, सच्चाई छिपा जाने के कारण; पर उगलने की भी हिम्मत हो न रही थी- वास्तविकता के कठोर कौर को। क्या पुनः दगा दे जाऊँगा बेचारे चाचाजी को? - सोच कर आत्मग्लानि से गड़ता-धसता-घुसता चला जा रहा था, मानों सोफे की फटी दरारों में ही।

परोक्ष में तो काफी कठोर बना लिया था स्वयं को, पर आज जब चाचाजी सामने थे, तो फिर उनके आदेश को टालने की हिम्मत भी न हो रही थी। आखिर कौन सा बहाना बनाऊँ- यहाँ न आने की, यहाँ आकर न रहने की? किस झूठ को ढाल बनाऊँ? एक झूठ की ढाल तो इतनी भारी पड़ रही है, फिर और झूठ! किन्तु सच भी तो ‘नचिकेता’ का सच होता जा रहा है! यहाँ आकर भी फँस जाऊँगा, न आने पर भी फँस ही रहा हूँ....

चाचाजी मेरे चेहरे को बड़े गौर से देखे जा रहे थे। उन्हें अपने आदेश पर मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा थी। कुछ देर ठहर कर पुनः पूछा उन्होंने- ‘तो अब क्या सोच रहे हो?’

‘क्या सोचूँगा! कुछ नहीं। ’

‘सोचने जैसी बात भी नहीं है, बात है करने जैसी। मुझे एक सुदृढ़ सहारे की सख्त जरूरत है;और इसके लिए तुम सर्वोत्तम हो, पर्याप्त हो, परिपूर्ण हो...बस जाओ, और अपने बोरिया-विस्तर के साथ आज ही चले आओ... आज ही। मेरी गाड़ी तो एक्सीडेन्ट के बाद कबाड़खाने चली गयी। मीना वाली गाड़ी गैरेज में तब से ही पड़ी है, पता नहीं- किस हाल में है! नहीं तो कहता मीरा को लेकर, साथ जाओ;सामान पैक करने में सहयोग देगी, जल्दी आ पाओगे....। ’- चाचाजी को बच्चों जैसी बेसब्री हो रही थी, मेरे आगमन की। दिन क्या, घंटा दो घंटा भी वे रूकना नहीं चाहते थे।

‘ठीक है, चलता हूँ। आपका आदेश सिर-आँखों पर। ’- कहता हुआ चरण स्पर्श कर चल दिया।

डेरा पहुँचा। विजय इन्तजार में था। कॉलेज से लौटने से लेकर अब तक की घटना वयां कर गया। सिगरेट फूंकता, मौन सुनता रहा। अन्त में बोला- ‘तो तुमने पक्का कर लिया वहीं शिफ्ट करने का। चलो कोई बात नहीं।

इन्सान अकेला आता है, अकेला जाता है.....उसे अकेले ही रहने की भी आदत डाल लेनी चाहिए। ‘वह’ नहीं डाल पाता, यही दुःख का मूल कारण है। ’- दूसरा सिगरेट जलाते हुए बोला- ‘ऑफिस में तो हमदोनों ‘दो ध्रुव हैं, हम आते हैं डेरा, तब तुम जाते हो ऑफिस, अतः डेरा आकर ही कभी-कभी मिल लिया करना...जब मन करे...दो मुसाफिरों की तरह.....। ’

मीना निवास में पुनरागमन हुए महीना बीत चुका था करीब। और इस प्रकार घर से आए कोई ढाई महीने। इस बीच कई चिट्ठियाँ भेजी थी- घर पर; किन्तु शक्ति की ओर से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया था।

हाँ, मैंना की एक चिट्ठी आयी थी, जिसमें लिखा था उसने- ‘चाची ठीक हैं भैया, किन्तु भाभी का स्वास्थ्य काफी खराब रह रहा है। बराबर बीमार ही बीमार रहती है। सूख कर कांटा हो गयीं हैं। पूछने पर कुछ बतलाती भी नहीं। चाची को देखने एक दिन वैद्यजी आये थे, तो भाभी को भी देखे। उन्होंने कहा कि शरीर में खून की कमी हो गयी है। पाचन क्रिया भी गड़बड़ है। ठीक से उपचार होना जरूरी है। कुछ दवा भी दे गए हैं, पर उसे भी खाती नहीं हैं। ’

‘खाती नहीं है, तो मरे! क्या करूँ मैं ! अपने जिद्द पर अड़ी है, किसी का सुनना है नहीं। व्यर्थ का शक और भ्रम पाल बैठी है। आखिर मैं क्या करूँ? कर भी क्या सकता हूँ- मन ही मन सोचा, और पत्र एक ओर मेज पर रख दिया। पुनः पत्रोत्तर की जरूरत भी न महसूस किया था।

अपने पत्रोत्तर की प्रतीक्षा कर मैंना ने पुनः लिखा था-

‘भाभी की स्थिति काफी चिन्ता जनक हो गयी है। खाना तो पहले भी जैसे-तैसे खाती थी। इधर और भी लापरवाह हो गयी हैं। कहने पर कहती है- जीकर क्या करना है, घुट-घुट कर तो मर रही हूँ; पापी प्राण निकलता भी नहीं। पता नहीं क्या होता जा रहा है? बीमारी पकड़ में आ नहीं रही है। सरकारी अस्पताल के डाक्टर भी आकर देखे हैं। बोले- जितना जल्दी हो बाहर ले जाना चाहिये। मर्ज लाइलाज होता जा रहा है.....। ’

पत्र पढ़ कर मैं उदास हो बैठ गया था, विजय के सामने ही। आजकल वह ऑफिस में अधिक समय देना शुरू कर दिया है। प्रायः मेरे आने के बाद ही जाता है। हमेशा की तरह आज भी लिफाफा खुला हुआ ही था। पत्र तो वह पढ़ ही चुका होगा। फिर भी पूछा-

‘क्या हुआ, इतने उदास क्यों हो गये पत्र पढ़ कर?’

मैंने लिफाफा विजय की ओर सरका दिया- कैरम के स्ट्राईकर की तरह, जिसे हाथ में लेते हुए वह बोला-

‘इसी का नाम है चक्की...गृहस्थी की चक्की...दुनियादारी की चक्की। न खाओ चैन से न सोओ, बस पिसते रहो दो पाटों के बीच- चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय। । सोच क्या रहे हो?छुट्टी ले लो एकाध सप्ताह की। आज ही रात की गाड़ी से गांव चले जाओ, और बाहर ले जाकर ठीक से इलाज करवाओ। डर लगता है- कहीं इसे भी खो न बैठो, फिर कहीं के न रह जाओगे। ’

आवेदन लिख, विजय को ही सुपुर्द कर दिया।

आवास पहुँचने पर चाचाजी ने चौंकते हुए पूछा- ‘क्या बात है, बहुत जल्दी आ गये?’

‘घर से चिट्ठी आयी है। माँ की तबियत काफी खराब है। इसी वक्त घर के लिए प्रस्थान करना चाहता हूँ। ’ सच्चाई पर पर्दा डालते हुए अपने कमरे में चला गया था, सफर की तैयारी करने।

दूसरे दिन संध्या समय घर पहुँचा था। शक्ति की स्थिति देख कर काठ मार गया था। पलंग पर शक्ति का व्याधि-जर्जर शरीर पड़ा था। माँ और मैंना वहीं बैठी थी। माँ कहने लगी-

‘तुम्हारे जाने के बाद से ही धीरे-धीरे इसका खाना-पीना कम होने लगा था। सोची की अभी चोट का ही असर है। कमजोर हो गयी है। इसलिए वैद्यजी को बुलवायी। किन्तु उनकी दवा का भी कोई असर न दीखा। बल्कि हालत और बिगड़ती गयी। सरकारी अस्पताल के डाक्टर भी आए, देखे;पर बीमारी का कुछ पता नहीं...। न जाने क्या हो गया मेरी फूल सी बहू को...पता नहीं किसकी नजर लग गयी?’

शक्ति के माथे पर हाथ फेरते हुए मैंने कई बार आवाज दी। किन्तु वह बेसुध पड़ी रही। माँ बता रही थी-

‘...बेहोशी तो तुम्हारे सामने ही हुआ करती थी, पर इधर कुछ दूसरा ही रूप ले बैठा है। काफी देर तक अचेत पड़ी रहती है। मुंह पर पानी का छींटा मारने पर उठ कर बैठ तो जाती है, किन्तु पागलों सी हालत बनाये रहती है। न किसी को पहचानती है, और न अपने शरीर और कपड़े का ही सुध रहता है इसे....।

ताक पर रखे गिलास में से चुल्लु भर पानी लेकर, शक्ति के चेहरे पर छींटा मारती हुयी मैंना ने कहा था- ‘होश में आ जाने पर इत्मीनान से बैठ जाती है भाभी। साज-श्रृंगार भी कर लेती है। कभी बैठ कर हारमोनियम भी बजा लेती है। हमलोग भी सोचते हैं- चलो मन बहल रहा है, किसी प्रकार हँस-बोल-गा-बजा कर, पर एकाएक रोने

भी लग जाती है, कभी सिर पटकने लगती है, बालों को नोचने लगती है। इधर कई दिन हो गये- एक दाना भी मुंह में नहीं गया है, और न पानी ही पीयी है। पता नहीं बिन अन्न-जल के प्राण कैसे बच रहे हैं? डॉक्टर ने कहा था कि कोई दिमागी बीमारी है। बाहर ले जाना जरूरी है।

मैंने पुनः दो-तीन बार पुकारा था शक्ति को। पानी का छींटा मुंह पर पड़ने के कारण उसने आँखें खोल दी थी, किन्तु बिना कुछ बोले चारो ओर गौर से निहारती रही कुछ देर तक। फिर चंचल-खोजी निगाहें एकाएक ठहर गयी मेरे चेहरे पर, और अगले ही पल जोरों की चीख निकल पड़ी- उसके मुंह से, मानों कोई डरावनी सूरत देख ली हो। आँखें पूर्ववत बन्द हो गयी। मुंह में अंगुली डाल कर मैंने देखा- दांत चिपक गए थे, जबड़ा जकड़ गया था।