निरामय / खंड 6 / भाग-18 / कमलेश पुण्यार्क

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शक्ति की बीमारी डॉक्टरों को भले ही न पकड़ में आवे, किन्तु इसका निदान मेरे पास साफ था;परन्तु इस कोरे निदान से क्या लाभ, जिसकी चिकित्सा ही न कर सकूँ मैं?

पिछली दफा, जब यहाँ आया था- हमेशा समझाता रहा था शक्ति को, उसके मन के बहम को दूर करने का हर सम्भव प्रयत्न करता रहा था। उसकी हर उलाहनों को सुन कर सहन करता रहा। किन्तु मेरे किसी भी प्रयास का कुछ भी असर उस पर होता न दिखा। आखिर क्या उपाय हो सकता है?

‘लाओ इधर दो। ’- मैंना के हाथ से पानी लेकर शक्ति के मुंह पर फिर छींटा मारा। दो-चार छींटे के बाद वह बैठ गयी उठ कर, और बड़बड़ाने लगी।

दूसरे ही दिन कस्बे के सरकारी डॉक्टर के पास गया। उन्होंने बतलाया - ‘ आपकी पत्नी अब हिस्टीरिया के अन्तिम स्टेज में पहुँच चुकी है। कोई न कोई गहरा मानसिक आघात लगा है, उसकी ही प्रतिक्रिया है यह सब। वैसे आप चाहें तो बाहर ले जा सकतें हैं। मैं तो पहले ही कह चुका हूँ । मर्ज पेचीदा है। विशेष लाभ की आशा न रखें। हालांकि प्रायः देखा जाता है कि पति के भरपूर प्यार से, जगह बदलने से, सन्तान हो जाने से- काफी हद तक यह बीमारी ठीक हो जाती है। पर आपके पास अब इतना समय भी शायद नहीं है। सबसे अधिक मुझे आशंका है कि मानसिक तनाव के वजह से ‘ब्रेनहैमरेज’ न हो जाय। तत्काल में मैं एक दवा लिख दे रहा हूँ , इसे थोड़ी सतर्कता पूर्वक नियमित रूप से खिलाइये। आशा है इससे काफी लाभ हो...वैसे मुझे इस बात का भी शक है कि शुरू में जो दवा मैंने दी थी, उसे नियमित रूप से खाया ही नहीं गया, अन्यथा इतनी जल्दी केस इतना सीरियस नहीं हो जाता। ’

डॉक्टर ने एक पुर्जा लिख कर मेरी ओर बढ़ायी। मैं पुर्जा लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, तभी अचानक हवा का जोरदार झोंका- खुली खिड़की से आया, और उड़ा ले गया पुर्जे को। क्षण भर में ही शान्त भी हो गया, मानों सिर्फ इतना ही काम हो उसका।

‘अजीब है, बिन बादल बरसात...। ’-मेरे साथ-साथ, डॉक्टर के मुंह से भी यही वाक्य निकल गया, और वे दूसरा पुर्जा लिखने लगे।

सुबह का निकला, अपराह्न दो बजे घर पहुँचा- दवा लेकर। पर यहाँ तो दूसरा ही माजरा था- बाहर से लेकर भीतर तक भीड़ लगी हुयी थी। ऐसा लगता था कि पूरा गांव मेरी छोटी सी ‘मड़ैया’ में समा जाना चाहता हो। घर में कुहराम मचा हुआ था। उपस्थित, प्रायः प्रत्येक लोगों के माथे पर सिलवटें उभरी हुयी थी।

अन्दर जाकर देखा- आंगन में खून से सना, शक्ति का शरीर पड़ा हुआ था। उसकी आँखें फटी-फटी सी थी। मैंना ने रोते-रोते किसी प्रकार बतलाया- ‘तुम्हारे जाने के बाद भाभी उठ कर कुऐँ की ओर गयी थी। हाथ-मुंह धोकर कमरे में आकर बैठ गयी। हमलोगों ने समझा कि स्थिति सामान्य हो गयी है। अतः खाने को दी। हमेशा की तरह ना-नुकुर भी नहीं की। दो-तीन रोटियाँ खाकर, पानी पी, सो रही- इत्मिनान से। हमलोग बाहर बरामदे में बैठी बातें ही कर रही थी कि लगता है- भाभी के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है, आज बहुत दिनों बाद आराम से खाना खायी है.....

‘.....तभी अचानक जोरों की चीख सुनायी पड़ी। दौड़ कर कमरे में आयी, तो देखती हूँ कि भाभी हथौड़े की तरह अपना सिर पटक रही है, दीवार पर। मैं पकड़ने की कोशिश कर ही रही थी कि धड़ाम से गिर पड़ी कटे पेड़ की तरह फर्श पर। पीछे से चाची भी पहुँची। सिर तरबूजे की तरह फट चुका था, और आँखें भी पथरा....

‘हाय शक्ति! तूने यह क्या कर लिया! तूभी छोड़ चली.....। ’-सिर चकरा गया। औंधे मुंह गिर पड़ा शक्ति के शव पर।

मैंना मेरी बांह पकड़ कर उठाने का असफल प्रयास कर रही थी-‘उठो भैया, धैर्य धरो...तुम्हारे भाग्य में पता नहीं क्या बदा है!’

माँ को तो काठ मार गया था। शव के दूसरी ओर सिर थामें चुप बैठी अपलक, आसमान ताके जा रही थी।

महीने भर बाद, फिर वापस आ गया कलकत्ता- मीना निवास में, घनीभूत वेदना को अन्तःस्थल में दबाये, मायूसी और गम को गले लगाये हुए। जि़गर का एक ज़ख्म अभी भर भी न पाया था कि दूसरा उभर आया। कोढ़ में खाज को लिए खुजाता रहा। रिसता रहा परिपक्व घड़े की रन्ध्रों की तरह। अतीत कुरेदते-कुरेदते दिल का नाखून थोड़ा भोथरा गया था, शक्ति की मौत ने उसे फिर से धारदार बना दिया, ‘चोख’ कर दिया।

आह शक्ति! मेरी आह्लादिनी शक्ति! मेरी सार्वभौम शक्ति! मेरी परा शक्ति!

सब कुछ तो खो दिया मैंने। अब बचा ही क्या रह गया मेरे जीवन में? अतीत का जर्जर शेषांश ही तो! मैंने गला घोंट दिया अपनी शक्ति का। कहाँ छिपाऊँ अपने तथाकथित भाग्य्याली हाथों को-जिनकी दसों अंगुलियों पर चक्र के निशान हैं? जी चाहता है जला कर भस्म कर दूँ हस्तरेखा विज्ञान की मिथ्या, प्रपंची पोथियों को! कच्चा चबा जाऊँ उन पाखण्डी पंडितों को, उन ज्योतिषियों को- जिन्होंने भरमा रखा है, सारे जग को.....।

तनहाईयों और गम के कसक को दिल के सौ टुकड़े हुए दर्पण में निहारता रहा, पर जैसा कि अकेला था- समग्र दर्पण में, तनहा था; चूर-चूर हुए- टूटे पड़े सैकड़ों टुकड़ों में भी तो वैसा ही नजर आ रहा हूँ।

इन्हीं विचारों के कंटकाकीर्ण झाडि़यों में उलझा पड़ा था, अपने उस पुराने चिरपरिचित कमरे में- जहाँ

कभी मीना के पावजेब झंकृत होते थे, पर आज चमगादड़ चूचुआ रहे हैं, औंधे मुंह पड़ा था। अचानक पीठ पर स्पर्श पाया, किन्ही कोमल करों का।

‘कितना घुलाओगे खुद को, मोमबत्ती की तरह? मीना दीदी को तो गुजरे अरसा गुजर गया;यहाँ तक कि अंकल भी भुला चुके लगभग, पर तुम....। ’- बगल में बैठी मीरा- मीना की स्मारिका मीरा- समझा

रही थी। मैं पलट कर उसके भोले मुख मण्डल को निहारने लगा था, जिसमें मेरे अतीत की धूमिल परछाईयाँ थी।

विगत थोड़े ही दिनों में मीरा ने जो स्नेह दिया था मुझे, उसके परिणाम स्वरूप मीना के गम में मुरझायी मन की बगिया में कुछ नयी कोंपलें आने लगी थी। मीना को भुलवाने का हर सम्भव प्रयास उस मासूम ने किया था; बहुत हद तक सफल भी हो गयी थी वह। मीरा के स्नेह-प्रेम के महौषधि ने मेरे अन्तःस के विदग्ध ब्रण को

काफी हद तक भर दिया था। मीरा के प्रेम-रस की भीनी-भीनी फुहार ने मेरे कसैले मन को फिर से मधुर बना दिया था। मीरा के रूप में मानों फिर मुझे मीना मिल गयी थी- वही स्नेह, वही प्यार, वैसा ही रंग-ढंग, वही अन्दाज, वही लचक, वैसा ही कुछ-कुछ तड़पन भी। सब कुछ तो वही था- पर क्या ‘वही’ थी?

आदमी भी अजीब होता है! या कहें पुरुष!

विकल्प को भी मूल समझने की भूल कर बैठता है। असत्य को सत्य मान बैठता है। खुली आँखों से भी सपने देखा करता है। और फिर उस स्वप्न को ही सत्य मान कर अंगिकार करने को बाहें पसार लेता है। हासिल तो कुछ होता नहीं। आखिर असत्य दे ही क्या सकता है? दुःख-चिन्ता-संताप-दर्द....

मीरा, मीना कैसे हो जायेगी? वह एक सत्य है। यह सत्य की परछाई। और शक्ति? वह क्या है? क्या वह सत्य नहीं है? वह भी सत्य ही है....पर....सत्य तो एक होता है...सिर्फ एक। किन्तु हाँ, एक ही सत्य का अनेक विस्तार है- सारा जगत। तो क्या शक्ति भी विस्तार है- उसी एक सत्य- मीना का?

विचारों का कहीं अन्त नहीं। अनन्त है- ‘अनन्त’ की तरह।

आये दिन मीरा मौका देख मुझे कुरेदने लग जाती। जरा भी मौन और उदास देखती, तो झट पास आ जाती है। तरह-तरह के सवालों की झड़ी लगा देती। ‘भैक्यूम क्लीनर’ की तरह मेरे मानस-कक्ष की भरपूर सफाई करने का अथक प्रयास करती। बार-बार कहती -‘जो बीत गयी सो बात गयी’ ‘बीती ताहि विसार दे, आगे की सुधि लेई’ - बात पुरानी हो गयी। उन्हें याद करने से कोई लाभ नहीं। भुला देने में ही भलाई है। ’

मगर उस भोली को पता ही क्या है! क्या कहूँ उसे? क्या कह सकता हूँ कि सब कुछ भुलाकर, कुछ पाकर भी पुनः कुछ खो दिया है मैंने - अपने दिल का एक और टुकड़ा- शक्ति, जो मेरी पत्नी थी, अब छोड़ कर चली गयी है मुझे सदा के लिए?

घर से आने के बाद मेरा घुटा हुआ सिर देख कर, सबसे पहले मीरा ने ही सवाल किया था- ‘यह क्या, तूने सिर मुड़ा रखा है...?’

उसे आशंका थी कि माँ गुजर गयी है। किन्तु काल्पनिक कुटुम्ब की मृत्यु बताकर शान्त कर दिया था उसे; किन्तु स्वयं को कौन सा झूठ बोल कर समझाऊँ?

मेरी हालत तो उस मोमबत्ती की तरह हो रही है, जिसके दोनों किनारे जल रहे हैं- “ My candle burns at both ends…”

‘तुम कहती हो-मोमबत्ती की तरह गला रहा हूँ खुद को। पर वह तो गलती है, जलती है, और प्रकाश भी देती है। अन्धियारे को दूर करने की सामर्थ्य है उसमें;परन्तु मैं तो उससे भी गया-गुजरा हूँ। जल रहा हूँ। गल भी रहा हूँ। पर प्रकाश कहाँ प्रदान कर पा रहा हूँ? मेरे चारो ओर अन्धकार ही अन्धकार फैला हुआ है। कुएँ से निकलता हूँ तो खाई में गिर पड़ता हूँ। स्वयं तो परेशान हूँ ही, तुम्हें भी परेशान करता हूँ। चाचाजी भी हमारी वजह से परेशान ही रहते हैं। मैं उन्हें सुख तो दे न पाया, दुःख भले दे रहा हूँ। उन्होंने वृद्धावस्था का अवलम्ब बनाया है मुझे, जब कि मैं स्वयं निरावलम्ब हूँ। ’- मैंने कहा था मीरा की आँखों में झांकते हुए, जो पास में ही अधीरता पूर्वक बैठी थी। उस निर्बोध-निस्कलुष बालिका के दिल में तूफान उठ रहे थे।

दोपहर में कॉलेज(खानापुरी भर, पढ़ाई कहाँ), शाम में ऑफिस ड्यूटी और फिर पुराने घोसले में विश्राम- यही दिनचर्या थी। खाली समय को जरा भी खाली न रहने देती मीरा।

अकसरहाँ उसे कहना पड़ता- अब जाओ मीरा! सोने दो मुझे। तुम भी जाकर सो जाओे।

‘सोने दो! या कि सोचने दो?’- मीरा हँसती। उसकी हँसी में हास्य कम, व्यथा अधिक झलकती, ‘मैं तुम्हारे ऐकान्तिक सोच-विचार में भी खलल पैदा कर देती हूँ न? ठीक है, जाती हूँ। कल से नहीं आऊँगी। ’

मगर उसका वह ‘कल’ कभी नहीं आया।

वक्त इसी तरह गुजरता गया था। मीरा के स्नेह-लेप से अपने हृदय के मर्मान्तक ब्रण-रन्ध्रों को भरने का प्रयास करता रहा था।

अपने नियमानुसार, मीरा एक दिन(शाम-रात)आयी। हमेशा की तरह ही, बड़े अधिकार पूर्वक पास में ही बैठ गयी। मेरे चेहरे पर नजरें गड़ाती हुयी पूछी-

‘तूने कभी झांक कर देखा है- अंकल की बूढ़ी आँखों में? क्या कहती हैं वे आँखें?’

‘क्या?’- मैंने पूछा था। और तभी, खाँय-खाँय करते हुए चाचाजी प्रवेश किये कमरे में। उनके आते ही मीरा

लजा कर भाग गयी थी, वहाँ से। पता नहीं कौन सी अनमोल छवि दिखलानी चाह रही थी- वह चाचा की बूढ़ी आँखों में।

सामने आ, कुर्सी पर बैठे चाचाजी की अनमोल रतन की राजदार उन आँखों में मैं वस्तुतः झांक कर देखने का प्रयास करने लगा था, जिन्हें लम्बे अरसे से देखता आ रहा था। चाचाजी कह रहे थे-

‘क्यों घुला रहा है बेटा! अपने आप को? मीना तो अब रही नहीं;फिर क्या जान ही दे दोगे उसकी याद में? वैसे यह बात तुम्हें कहनी चहिए थी- मेरी सान्त्वना के लिए, उल्टे मैं ही......। ’

मैं उनके आते ही उठ कर बैठ गया था। वे कहे जा रहे थे-

‘....उसकी कमी न महसूस हो तुम्हें, इसलिए विजय के डेरे से हटा कर यहाँ बुलाया था, फिर से पुराने नीड़ में तुम्हें। यहाँ आकर रहने लगे; मैंने शान्ति-सन्तोष की सांस ली। तुम्हारा रंग-ढंग भी बदलने लगा था। मीरा को तुम्हारी ओर खिंचने का जानबूझ कर अवसर दिया था, मैंने। जिस प्रकार शनैः-शनैः मीना का स्थान, इस घर में मीरा ग्रहण कर चुकी है; मैंने महसूस किया कि वह तुम्हारे दिल के दर्द को भी दूर करने में कामयाब होती जा रही है....मैं ‘आगत’ के स्वागत की कल्पना में उूबने-उतराने लगा था। अपने ‘अधूरे कर्तव्य’ को पूरा करने का आसार नजर आने लगा था....

‘....मैं संकेतो में ही कई बार ‘ईंगित’ कर चुका हूँ- तुम्हें भी, मीरा को भी। सम्भवतः वह मेरी भावनाओं को समझ भी गयी। उस पर सही दिशा में, सही ढंग से पहल करने में सफल होती हुयी भी प्रतीत हुयी.....। ’

बोलते-बोलते चाचाजी खांसने लगे थे। पीला-पीला गाढ़ा बलगम निकल कर उनकी धोती गीला कर गया था। मैं उठा, उन्हें साफ करने; तब तक- गिलास में पानी और दवा की शीशी लिए मीरा आगयी।

‘लो अंकल, दवा खा लो। ’- कहती हुयी मीरा मेज पर गिलास और शीशी रख कर, नेपकिन से पोंछने लगी थी- उनकी धोती को।

मैंने देखा था- अपनी स्वज्ञा के नेत्रों से- उन बुजुर्ग आँखों में, जिनमें किसी स्वर्णिम अनागत की झांकियाँ चलायमान थी, उस समय। काश ! पूरा हो पाया रहता, उनका यह सपना। दिल रो पड़ा था। क्या कह कर तसल्ली दूँ इन्हें? कितना कुछ किया है इन्होंने मेरे लिए, अब भी करने को ऊतारू हैं; पर मेरे दिल के रीते खजाने में शायद कुछ भी तो नहीं बचा है जो दे सकूँ - इनके स्नेह-प्रेम का प्रतिफल!

दवा खा लेने के बाद चाचाजी फिर कहने लगे थे- ‘...किन्तु, इधर कुछ दिनों से , खास कर इस बार घर से लौटने के बाद से, तुम्हारी स्थिति में काफी बदलाव महसूस कर रहा हूँ। मुझे भय लगता है....भगवान न करें, ऐसा हो भी – कहीं तुम अपना दिमागी संतुलन तो नहीं खोते जा रहे हो?’

अपना हाथ बढ़ाकर मेरी पीठ पर रख दिया था उन्होंने, और कातर स्वर में फिर कहने लगे-

‘कमल! भगवान के लिए ऐसा न करो...ऐसा न करो कमल। मैं स्वार्थी हूँ। स्वार्थान्ध कहो। कहीं तुम्हें कुछ हो गया तो फिर मैं किसके सहारे जीवित रहूँगा? इस अन्तिम घड़ी में तुम पर ही तो भरोसा है सिर्फ। मीरा- मेरी मीना, फिर वापस मिली है मुझे। अपनी प्रतिज्ञा को, अपने ‘अधूरे कर्त्तव्य’ को पूरा करने का फिर से अवसर मिला है मुझे। इस अवसर का लाभ उठाने दो कमल! ताकि सुख-चैन-शान्ति की मौत मर सकूँ। ’

मैंने रूंधे गले से कहा था- ‘यह क्या कहते हैं चाचाजी! अभी क्या आप इतने बूढ़े हो गए, जो मौत की प्रतीक्षा कर रहे हैं? आप पर अभी एक बड़ा सा दायित्व-बोझ है- मातृ-पितृ विहीन बालिका- मीरा का। ’

‘बूढ़ा तो सच में नहीं हुआ हूँ , पर दयनीय परिस्थितियों ने थप्पड़ मार-मार कर असमय ही जबरन, वृद्ध कर दिया है मुझ प्रौढ़ को; और रहा मेरा दायित्व- वही तो मेरा अधूरा कर्त्तव्य है। इसे कैसे झुठला सकता हूँ ! इसे पूरा किये वगैर मर भी कैसे सकूँगा? इसे ही पूरा करने में मुझे तुम्हारे सहयोग की जरूरत है। ’

कहते हुए वंकिम चाचा ने मीरा का हाथ पकड़ कर अपने समीप बैठा लिया था- तख्त पर ही, जो हाथ में गिलास लिए एक टक इन्हें निहारे जा रही थी अब तक। फिर मेरी पीठ से अपना दूसरा हाथ हटा कर, पकड़ लिये मेरे हाथ को भी, और मीरा के हाथ को मेरे हाथ में देते हुए कहने लगे थे-

‘अब इतनी शक्ति नहीं रह गयी है, इन कांपते हाथों में, जो वैदिक मन्त्रों की डोर से बाँध सकूँ- तुमदोनों की जोड़ी को। लो पकड़ो, मीरा का हाथ। आज से मीरा तुम्हारी, और तुम.....। ’

मैं मानों आसमान से गिरा। अभी कुछ कहना ही चाहा था कि बिजली के करंट सा झटका लगा मीरा को; और हाथ झटक, दूर छिटक जा खड़ी हो गयी।

‘अंकल! यह आप क्या कर रहे हैं? यह अन्याय! घोर अनर्थ!’

‘पागल लड़की! क्या बकवास कर रही है? अन्याय कैसे है यह? अनर्थ कैसे है यह? इतने दिनों से सींचा है तुमने प्रेम के जिस पौधे को- अपने ही हाथों उसका सर्वनाश क्यों करना चाहती है?’-चकित-विह्नल चाचाजी के होंठ फड़कने लगे थे क्रोध से।

‘मुझे माफ करे अंकल! मेरी ढिठाई कहें या मेरी मूर्खता, मैं आपके इस प्रस्ताव को कतई मंजूर नहीं कर सकती। ’- मीरा की आवाज कंपन और दर्द भरी थी।

‘कैसी माफी? कैसी ढिठाई? कैसी मूर्खता? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ तुम्हारी बात को। तू कहना क्या चाहती है?’

चाचाजी हाँफ रहे थे। उनकी आवाज कांप रही थी। क्रोध का स्थान कराह और दर्द ने ले लिया था। चेहरे से

दीनता और असहायता झलकने लगी थी।

वे कह रहे थे- ‘मेरी आकांक्षा थी- कमल को अपने जामाता के रूप में अपनाने की। बहुत पहले ही मैंने मानसिक रूप से इसे मीना को सौंप चुका था। व्यवहारिक-औपचारिक समर्पण के लिए अवसर की प्रतीक्षा थी। विधाता ने वह अवसर मुझसे छीन लिया। तुम जरा सोचो मीरा! आज उसी कमल के हाथों तुझे सौंप कर मैं अनर्थ कर रहा हूँ? अन्याय कर रहा हूँ?’

‘अन्याय मेरे साथ नहीं हो रहा है अंकल। मेरे साथ होता भी तो कोई बात नहीं। आपने मुझे शरण दी है। अपने स्नेह और वात्सल्य की छांव में ला बिठाया है, इस अभागन को। एक अनाथ को ‘सनाथ’ बनाने

का स्तुत्य प्रयास किया है। मेरा रोम-रोम आपकी कृपा का ऋणी है। फिर मैं कैसे साहस कर सकती हूँ, इस ‘सप्तपर्णी वृक्ष को काटने का? आप चाहें तो किसी कोढ़ी-पागल-अपाहिज के हाथों में मेरा हाथ दे दें। मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूँगी- आपके अनमोल भेंट को। किन्तु...किन्तु इस....। ’

मीरा के होठ फड़फड़ा रहे थे। किन्तु उन होठों पर भय या क्रोध की छाया कहीं लेश मात्र भी नहीं झलक रही थी। उन पर था- नारी-उर का अन्तर्द्वन्द्व और आलोड़न।

‘किन्तु क्या? साफ क्यों नहीं कहती हो?’-चाचाजी ने आवेश में पूछा था, और उनके आँखों के किनारे गीले होने लगे थे।

‘यह सरासर अन्याय होगा कमल जी के साथ। ’

‘कमल के साथ अन्याय?’- चाचाजी के साथ-साथ मैं भी थोड़ा चौंक गया, मीरा की बात पर।

‘हाँ अंकल! मैं किसी भी हाल में इनके काबिल नहीं हूँ। मीना दीदी को खोकर ये बेचारे खुद ही तड़प रहे हैं। उस तड़पन में मैं और कसक पैदा करने का गुनाह नहीं कर सकती। ’- मीरा ने साफ शब्दों में कहा।

परन्तु उसके नकारात्मक उत्तर से चाचाजी की आशंका का समाधान नहीं हो पाया। मुझे भी समझ नहीं आया कि मीरा कहना क्या चाहती है। क्यों इतनी घोर आपत्ति है उसे। क्या वह किसी और को चाहती है? या मुझमें ही कुछ कमी नजर आ रही है इसे!

‘मैं कुछ समझा नहीं तुम कौन सा पहेली बुझा रही हो?’- चाचा ने फिर सवाल किया।

‘इसके सिवा और कुछ नहीं कहना चाहती कि कमलजी के लिए मेरे रोम-रोम का प्रेम और श्रद्धा समर्पित है। मेरे मन मन्दिर में अहर्निश उन्हीं की मूर्ति विराजती है। मैंने हार्दिक स्नेह और अटूट श्रद्धा सुमन समर्पित किया है, इस देवता के चरणों में। किन्तु इतने सब के बावजूद परिणय-सूत्र में बँध कर इनका जीवन अन्धकूप में ढकेलना नहीं चाहती। कमल! मेरा प्रिय...प्रियतम है, आपके शब्दों में मेरा ‘पति’ भी; पर मैं उनकी अंकशायिनी नहीं बन सकती, क्यों कि मैं इस योग्य नहीं हूँ। इससे अधिक मैं और क्या कहूँ?’- मीरा भावावेग में बके जा रही थी। उसकी बातें हमलोगों को और भी उलझन में डाल रही थी। आँखें तरेरे चाचाजी फिर खाँसने लगे थे। दोनों हाथों से अपनी छाती को दबा कर उकड़ू बैठ गए थे।

मीरा की भूरी आँखों में झांकते हुए मैंने कहा- ‘मीरा! आखिर हमलोगों को उलझा रखने में तुमको क्या मिल रहा है। तुम्हारी इन बातों से, बात साफ होने के बजाय और उलझ गयी है। मेरे कहने का तुम यह अर्थ न लगाओ कि मैं अधीर हो रहा हूँ , बेताब हो रहा हूँ तुमसे शादी करने को। मुझे ‘शादी’ की लिप्सा जरा भी नहीं है, कोई रस, कुछ भी रूझान नहीं। मैं तो एक जिन्दा लाश हो गया हूँ। सार-हीन, तत्त्व-हीन। मेरे भीतर का सोता- जहाँ से प्रेम की निर्झर्णी प्रवाहित होती थी, सूख चुका है। यह और भी पहले ही समाप्त हो चुका रहता, किन्तु बीच में तुम आकर इसमें चेतना का संचार कर गयी। फिर भी मैं शनैः - शनैः शून्य की ओर अग्रसर होता जा रहा हूँ- उत्पत्ति और विलय के मूल की ओर।

‘मेरा प्रेम-पादप उसी दिन मुरझा गया था, जिस दिन मीना को अपनी बाहों से हटा कर चिता की अग्नि में समर्पित किया था। इधर कुछ दिनों से तुम्हारे साहचर्य ने उस मुरझाये पादप को पुनः प्रेम-नीर-परिसिंचित कर नव जीवन दे दिया।

‘परन्तु आज यह देख कर भी कि चाचाजी कितने चिन्ताजनक स्थिति में हैं, इनके अरमानों को ध्वस्त कर रही हो। आखिर कौन सी ऐसी मजबूरी है, जो इनकी बातों को अस्वीकार कर रही हो?’

कुछ देर तक मीरा मौन खड़ी, कभी मेरे, कभी चाचा के चेहरे पर पल-पल बनते बिगड़ते भावों की तसवीरों को पढ़ने का प्रयास करती रही, फिर बोली- ‘कमल जी! फिर क्षमाप्रार्थी हूँ आप महानुभावों के सामने। कृपया मेरे मुंह से यह कहलाने की कोशिश न करें कि कारण क्या है- मेरी अस्वीकृति का, अंकल की अवज्ञा का। ’

मीरा सिसकने लगी थी, दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप कर। चाचा क्रोध में उबलने लगे थे।

‘नहीं, ऐसा हरगिज नहीं हो सकता। तुम मेरा गला घोंट दे सकती हो, यह मुझे सहर्ष स्वीकार्य है; परन्तु बतलाना ही होगा- अस्वीकृति का कारण, या फिर कबूल करना होगा मेरा तोहफ़ा। ’

क्रोध में उनकी आंखें बड़े-बड़े ढेले सा नजर आ रही थी, जो रक्त से सिंचित जान पड़ती थी। चाचा की बातें सुन मीरा एक बार सिर उठा कर पुनः उनकी क्रूर हो आयी आँखों में झांकी, जो शंकर के नेत्र सा जाज्वल्यमान थी। पल भर के लिए कुछ सोची, फिर पलट कर अपने कमरे की ओर चली गयी.जो किसी दिन मीना का शयन-कक्ष हुआ करता था।

कुछ देर बाद वापस आयी, हाथ में दो-तीन पुर्जे लिए हुए, जिन्हें मेरे सामने विस्तर पर फेंकते हुए बोली-

‘स्वयं देख लें- सत्य को नंगा नचा कर। ’

चाचाजी ने बाल सुलभ चपलता दिखलायी- ‘क्या है कमल, इस पुर्जे में जरा पढ़ो तो। ’

मैं पढ़ने लगा था। सत्य के नग्न नृत्य को बिना दिव्य नेत्र के ही देखने लगा था।

पढ़ता रहा था, और पांव तले की धरती खिसकती सी रही।

‘क्या लिखा है? किसका पुर्जा है? बोलते क्यों नहीं?’

मेरा मौन शंकर का तीसरा नेत्र भी खोल दिया था। चाचाजी चिल्ला उठे- ‘लगता है तुमदोनों ने मिल कर साजिस की है- मुझे मार डालने की। यह क्या बदतमीजी है? इससे पूछता हूँ तो कारण बताने के बजाय, पुर्जा पसार दी। तुमसे पूछता हूँ तो सांप सूघ गया है। जबान कट गयी लगती है। फिर क्यों नहीं घोंट देते मेरा गला

तुम दोनों मिल कर? इस तरह....। ’

कहते हुए चाचाजी फिर खाँसने लगे थे। क्रोध ने इस बार के दौरे को काफी बढ़ा दिया था। मैं लपक कर उनकी पीठ सहलाने लगा, मीरा दौड़ कर पानी लेने चली गयी।

पीठ सहलाते हुए मैंने कहा- ‘ यह पुर्जा वाराणसी के....

तभी मीरा आ गयी। गिलास उनके मुंह से लगायी, किन्तु खाँसी का जोर इतना ज्यादा था कि समूचा शरीर हिल रहा था। पानी पिलाना भी सम्भव न था। मीरा चम्मच से पानी देने का प्रयास करने लगी, ताकि कंठ में तरावट आकर खाँसी का बेग संयमित हो।

एक दो चम्मच पानी किसी तरह गले से नीचे उतरा, पर पुनः जोरदार बेग के कारण छलक कर बाहर आ गया; और साथ ही आया पीले-पीले चिपचिपे बलगम के साथ सन कर खून का फुटका छोटा-छोटा कण, फिर एक-दो-तीन इसी प्रकार पल भर में ही कई छोटे और फिर बड़े-बड़े थक्के छिटक कर फर्श पर विखर गए- उनकी अरमानों की तरह। और अगले ही क्षण उनका शरीर लुढ़क पड़ा मेरी गोद में...

‘ओह चाचाजी! चाचाजी ! ....क्या हो गया मेरे अंकल को...मैं और मीरा दोनों ही लिपट पड़े उनके शिथिल शरीर से। पर हुआ क्या था...कुछ नया नहीं....संसार के पुराने नियम की पूर्ति मात्र...आने वाला जाता ही है, जाना ही है उसे, जो आया है-

‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु.....’

चाचाजी भी चले गये हम सबको छोड़ कर। बेसहारा करके। मीरा चीख मार कर रोने लगी थी। मैं निर्विकार सा खड़ा रहा। देखता रहा- ‘वही’ जिसे पहले भी कई बार देखना पड़ा है- पिताजी को...मीना को...शक्ति को....आज चाचाजी को भी....कल किसी और को देखूँगा, इसी तरह जाते हुए- महाशून्य की ओर....

‘अधूरे कर्त्तव्य’ को लिए हुए चाचाजी चले गये- महायात्रा पर, और मैं कृतघ्न बचा रह गया- अपने अधूरे दायित्व को देखते हुए।

काल ने करवट बदला, साथ-साथ मीरा के प्यार ने भी। अब मीरा, मुझे समझाने या सान्त्वना देने नहीं आती कभी मेरे कमरे में; मुझे ही जाना पड़ता है- उसके कमरे में- कभी कभार द्वार के पर्दे को भेद कर मेरे कानों तक आती सिसकियों को सुन कर।

‘मीना निवास’ में हमदोनों को निरंकु्श एक साथ रहना एक दूसरे के लिए घातक सा लग रहा था। हालांकि वंकिम चाचा ने अपना अभिप्राय आस-पड़ोस को जाहिर कर दिया था, फिर भी सूनी मांग का क्या सम्बन्ध हो सकता है- पराये पुरुष के साथ! एक युवक- एक युवती- एक सूना मकान....समाज के आँखों में रेत सा चुभन पैदा कर रहा था, करता जा रहा था।

आखिर एक दिन कहना ही पड़ा-

‘मीरा! यह अच्छा नहीं किया तूने, चाचाजी की अवज्ञा करके। यह न सोचना कि एक कमातुर-विह्नल-स्वार्थी पुरुष तुमसे परिणय की भीख मांगने आया है, प्रत्युत सामाजिक और नैतिक हित को ध्यान में रखते हुए, साथ ही दिवंगत चाचाजी की आत्मशान्ति के लिए यह सब कहना पड़ रहा है। निज स्वार्थ लेश मात्र भी नहीं है। त्रिकाल- अतीत-वर्तमान और अनागत को विचारते हुए लगता है, चल दूँ छोड़ कर इस मीना निवास को...

मीरा चौंक कर पलट पड़ी थी, जो अब तक विस्तर पर अधलेटी सिसकियाँ भर रही थी। कातर कंठों से कुछ कहना चाह रही थी। मेरे द्वारा निवास परित्याग पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाह रही थी। पर न जाने क्यों-कहाँ खोती चली गयी। उसके निर्निमेष नयन निहारते रहे थे- छत की कुंडी से लटकते, धीरे-धीरे घूमते पंखे को; और शायद उसके भीतर भी कुछ वैसा ही घूम रहा था।

मैं कहता जा रहा था- आखिर क्या रह गया है मेरा, इस वीरान हवेली में! अतीत के कुछ धँधले-चमकीले बिम्ब ही तो! किन्तु फिर वाध्य करता है- अधूरा, अनधिकृत दायित्व बोध(बोझ), जो पूर्ण है नहीं, किन्तु अपूर्ण भी कैसे कहूँ? मीरा! आज तक तूने छिपाया इस रहस्य को, अच्छा नहीं किया। नीति कहती है- रोग-रिपु को क्षुद्र समझने की भूल नहीं करनी चहिये। इस विकसित चिकित्सकीय युग में घातक से घातक बीमारी का भी सही उपचार सम्भव हो गया है। ऐसी स्थिति में तुम समय पर अपना इलाज न करा कर बहुत बड़ी गलती की हो...। ’

मीरा की आँखें डबडबा गयी थी। कहने लगी- ‘कमल! ठीक कहते हो। सच पूछो तो इस सूने महल में अब कुछ रहा नहीं जो तुम्हें बाँध रख सके, फिर भी अभी बहुत कुछ है। दायित्व तुम्हें अधिकारिक तौर पर मिला या

नहीं मिला- कोई खास अर्थ नहीं रखता। “अर्थ" सिर्फ इस तथ्य का है कि तुम दायित्व ‘बोधी’ हो और ‘बुद्ध’ कभी पलायन नहीं करता- परिस्थितियों से मुंह मोड़ लेना, उससे हो ही नहीं सकता, क्यों कि बुद्ध भगोड़ा नहीं होता। सच्चा बुद्ध सिर घुटा चीवर-चिमटा धारण कर, कन्दरायें नहीं ढूँढ़ता। वह रहता है- इसी अबुद्ध समाज में, संघर्ष करता है, जीवन को सच्चे अर्थ में जीता है; और ‘औरों’ को भी जीने की कला सिखलाता है-The art of living.. तुम्हारी यह आशंका भी निर्मूल नहीं है कि दुनियाँ को दिखाने के लिए मेरी मांग में सिन्दूर नहीं है, पता नहीं कौन क्या अर्थ लगाये, और फिर कितनों को क्या-क्या जवाब देते रहेंगे!....

......वैसे यह जाहिल- भेड़ की जमात जो भी कहता रहे, किन्तु मुझे तो अंकल ने इतना अधिकार दे दिया है, जिसके क्षुद्र बन्धन में भी दृढ़ता का आभास मिल रहा है। मैं कह चुकी हूँ, फिर कह रही हूँ- तुम मेरे ‘पति’ हो- ‘पा‘ रक्षणे - की व्याख्या मैं क्या समझाऊँ? मूल बात सिर्फ इतनी ही रह जाती है कि तुम्हारा हमविस्तर बन, शारीरिक सुख नहीं दे सकती। इसका भी कारण तुम जान ही चुके हो। किन्तु लगता है तूने उस दिन उस पुर्जे को ध्यान से पढ़ा नहीं...इस व्याधि का जहर आज चौथी पीढ़ी तक पहुँच चुका है। माँ गयी, पिताजी भी गये; इसके पहले दादा-दादी भी जा चुके थे। परिवार के कितनों को गिनाऊँ....आज तक किसी ने चिकित्सा के बावत विचार नहीं किया- शर्म और ग्लानि से गलने के सिवा। फिर मैं.....?’

मैंने बीच में ही टोका - ‘यह कोई होशियारी नहीं है मीरा! जब तुम जानती थी सारी बातें, फिर समय पर इलाज जरूर कराना चाहिये था। ’

फीकी मुस्कान विखेर मीरा कहने लगी- ‘चाहिये था, इसीलिए तो उस दिन गयी थी डॉक्टर रमन के पास। सिनियर डॉ.रमन घबड़ा गये- W.R.V.D.R.L strongly positive……Cronic Syphlis…कहते हुए मेरी झुकी पलकों के बावजूद आँखों में झांकने का असफल प्रयास करने लगे थे, जो निराशा के लहरों पर ज्वार-भाटे सा नृत्य कर रही थी...

…….अब जरा तुम खुद ही सोचो! कैसे साहस कर रहे हो- इस स्थिति में मुझसे शादी करने की ? सिफलिस...‘रजित रोगाधिकार’ की संसर्गज व्याधि जो वंशानुगत है। शादी-सम्पर्क तो दूर की बात है, मुझे कभी चूमने की भी भूल न करना....मैं विषकन्या हूँ...चूमोगे तो तड़प-तड़प कर मरना पड़ेगा- तुम्हें भी, जैसा कि मेरे खानदान के लोग मरते आए है....मुझे भी एक दिन ऐसे ही....

मीरा के शब्द मुंह में ही अटके रह गए थे, क्यों कि अपनी हथेली से उसका मुंह मैंने बन्द कर दिया था, ताकि आगे का अशुभ उच्चरित ही न होने पावे; पर अगले ही क्षण एक झटका सा लगा- मेरे मन को- क्या इन्हीं हथेलियों से एक दिन, ऐसे ही हालातों में, मैंने मीना का मुंह नहीं बन्द किया था! और क्या उन्हें बन्द करने भर से भवितव्यता को रोक पाने में सफल हो पाया था? फिर कहने ना कहने से फर्क ही क्या पड़ना है? दिन गुजरते गये थे- उन्हीं हालातों में। यदा-कदा समाज की पैनी अंगुलियाँ उठ पड़ती थी -मीना निवास के युगल निवासियों की ओर, पर समाज के न्यायालय के लिए सिन्दूर का साक्ष्य जुटा न पाया था, जुटने की कोई सम्भावना भी न थी।

मीरा को ले जाकर कहीं दिखाने का प्रयास भी कई बार किया, किसी योग्य चिकित्सक से, पर वह अपने जिद्द पर अड़ी रही। नतीजा यह हुआ कि उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति दिनों-दिन, तेजी से बिगड़ती ही गयी। चकत्ते जो पहले सिर्फ गुप्तांगो के दायरे में थे, अब ऊपर आकर शरीर के कई भागों में अपना बीभत्स रूप प्रकट करने लगे। आन्तरिक रोग प्रतिरोधी क्षमता बहुत तेजी से घटने लगी, जैसा कि इस तरह की व्याधियों में प्रायः हुआ ही करता है। थर्मामीटर का पारा भी शनैः-शनैः चढ़ने लगा...

उसका दर्द-बेचैनी-तड़पन बढ़ने लगा। सहन्शीलता और धैर्य का बाँध टूटने लगा।

एक ओर विशाल समन्दर में ममता के मोती और प्यार के प्रवाल थे, तो दूसरी ओर एक घृणित व्याधि और मानसिक क्षोभ के नक्र और घडि़याल भी मुंह फाड़े खड़े थे।

इधर दो दिनों से उसकी हालत और भी चिन्ताजनक हो गयी थी, ज्वर बेसुध किए रहता। जख्म लगभग पूरे शरीर पर अपना साम्राज्य कायम कर लिया था।

तड़प रही थी मीरा- अपनी व्याधि से, और पास बैठा मैं तड़प रहा था ‘आधि’ से। रात की काली चादर में लिपट कर पूरा कलकत्ता सो रहा था, पर मीना निवास की चार आँखों में नींद न थी। मीरा कराह रही थी। तड़प रही थी। उसके विशाल हृदय में प्रेम का ‘प्रशान्त’ सागर लहरा रहा था, और उसके किनारे पर बैठा मैं प्रेम की ही

प्यास से तड़प रहा था। पर उस खारे जल को पीकर अपनी प्यास बुझाने की सार्मथ्य कहाँ थी?

Water water every were….no any drop to drink….मछुआ जल बिच मरे पियासा- कुछ ऐसी ही स्थिति हो रही थी।

ज्वर उस दिन चरम पर था। ज्वराधिक्य से मीरा बड़बड़ा रही थी, प्रलाप कर रही थी- ‘कमल! मुझको माफ कर देना...मैंने तुम्हारे रीते दिल में फिर से प्यार के दीप जलाये...ममता के दीपाधार पर धर कर- यह जानते हुए कि मैं इस योग्य नहीं हूँ...फिर भी अंकल के इशारे पर...अपने अन्तःसाक्ष्य के समर्थन पर, मैं बढ़ती गयी क्रमशः आगे ही आगे- उस ‘एकल, ’ मार्ग पर, जहाँ से घूम कर(पलट कर) लौटने का मार्ग है ही नहीं- ‘होकर’ , अवरूद्ध होता तो कोई उपाय भी निकाला जाता, पर.....

. ...तुम्हारे फड़कते होंठ मचल कर उठा करते हैं- मेरे अधरों पर बैठने के लिए, पर मैं उन्हें शरण न दे सकी कभी भी...तड़पाती रही अपने अधरों को भी। इस बात का मुझे बहुत अफसोस है कि चाह कर भी पहले कभी तुम्हें बता न सकी। तुम्हारे प्रसुप्त प्रेम को मैंने कुरेद कर, उकसा कर जगाया;जबकि उन्हें देने के लिए मेरी झोली रीती थी...मैंने तड़पाया है तुम्हें इतने दिनों तक...अब तड़पने दो मुझे भी...तड़पने दो कमल...तड़पने दो! यही एक मात्र सजा हो सकती है, मेरी गलती की....अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृते कर्म शुभा्शभम्....यह तो चिरंतन सत्य है- जो किए हैं अच्छा या बुरा- उसे तो भोगना ही होगा- रोपे पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाये! गलती चुकि मेरी है, अतः सजा भी अकेले मुझे ही भुगतनी चाहिए। मुझे छोड़ दो कमल! मेरे भाग्य पर- मेरे भाग्य को अपने कर्मक्षेत्र में प्रवेश न दो...

मीरा बके जा रही थी, मैं सोचे जा रहा था- अब चाहे जो हो, मीरा के विचारों को दरकिनार कर, कल सुबह जबरन इसे उठा ले जाऊँगा, किसी विशेषज्ञ के पास; और सुनता जा रहा था मीरा के ‘कनफेशन’ को भी-

....... नागिन हूँ...विषकन्या तो हूँ ही...बल्कि उससे भी अधिक घातक...नागिन डसती है...विषदशनों का प्रयोग करती है, तब कहीं विष व्याप्त होता है किसी के शरीर में...मेरा विष तो बिन डसे ही फैल रहा है...दूर से ही ...दूर रहना कमल...मुझे छूना भी नहीं....

दोनों हाथ जोड़ कर लड़खड़ाती आवाज में कहती है- ‘हो सके तो मुझे माफ कर देना कमल!’

सिर कटी मुर्गी की तरह फड़फड़ा रही थी मीरा। मैं चुप देखता रहा था। देखता ही रह गया था। आँखें बन्द थी उसकी, और उन बड़ी-बड़ी पलकों की मर्यादा का उलन्घन कर अश्रुधार बाहर प्रवाहित होकर कर्ण कोटरों में संचित हो आए थे- सीप में मोती की तरह।

कुछ देर बाद मीरा आँखें खोली। नजरें घुमाकर कमरे का निरीक्षण की। उसके मुंह से शब्द का एक टुकड़ा निकला- ‘पा...ऽ... उसका जीभ चटपटा रहा था। मैंने मेज पर रखा पानी का गिलास उठाया, दूसरा हाथ- उसके गर्दन के नीचे ले जाकर आहिस्ते से उठा कर बैठा दिया, और गिलास उसके होठों से लगा दिया; जहाँ अब तक

मेरे फड़कते-तड़पते-प्यासे होठ पहुँच न पाये थे। पानी पी, गिलास पर से अपने हाथ का सहारा हटाकर, मेरे कंधे पर रख, कस कर बाँध ली अपनी बाहुलतिका में- ‘कमल! मुझे माफ कर दिये न? कर देना कमल! माफ कर देना... माफ कर देना ‘अपनी’ मीरा को...

स्वर बड़े ही कातर थे- मीरा के। मेरी आँखें बरबस ही बरस पड़ी, और होठ जुड़ गए- उसके पके कुन्दरू से रक्ताभ अधर से, जिन्हें उसके फड़कते-तड़पते होठों ने चट कैद कर लिया, और आँखें मुंद गयी महातृप्ति की मुद्रा में। उस अधर के अल्पकालिक स्पर्श में अमीय सार की आनन्दानुभूति हुयी- परिचित परिमल...परिचित माधुर्य... परिचित....परिचित...चिर परिचित।

पर यह क्या? परिचित प्रेम की परितृप्ति के साथ ही यह शैथिल्य क्यों? मैं चौंक उठा-

कुछ पल तक आलिंगन में जकड़न की जो अनुभूति हुयी थी, शीघ्र ही स्वतः शिथिल पड़ने लगा था। अगले ही क्षण बिलकुल शिथिल हो कर एक ओर लुढ़कने लगा। मेरी ओर से बन्धन की प्रगाढ़ता का भंग होना था कि ‘राधा का रंग कान्हा’ ने ले लिया-गौर शरीर नीलाभ हो कर पूर्णतः लुढ़क गया- मेरी गोद में ही। मेरे मुंह से चीख निकल पड़ी- मी...ऽ....ऽ....रा !!!

परन्तु मीरा अब कहाँ? वह तो जा चुकी -जहाँ मीना गयी थी, जहाँ शक्ति गयी थी...

सबेरा होने पर जाना था- उसे लेकर अस्पताल; पर अब जाऊँगा-

‘नीमतल्ला’ घाट; क्यों कि प्रभात के पूर्व ही काल-हस्ति ने मीरा-पंकज को अपना ग्रास बना लिया। मेरी स्थिति उस मूर्ख भ्रमर जैसी ही है, जो संध्या समय पंकज-पराग के लोभ में कैद हो गया था, और आश लगा लिया था कि सबेरा होगा, कमल का यह फूल फिर से खिलेगा, और मैं बाहर निकल जाऊँगा; परन्तु काल-हस्ति ने उस फूल को ही समूल उखाड़ कर, उदरस्त कर लिया। हा हन्त! हा काल!....कभी पढ़ी गयी कहीं की पंक्तियाँ हठात् निकल पड़ी मुंह से- रात्रिर्गमिश्यति भविष्यति सुप्रभातम्

भास्वानुदेश्यति हसिस्यति पंकजश्री।

इत्थं विचिन्तयति कोश गते द्विरेफे

हा हन्त! हन्त! नलिनी गज उज्जहारम्। ।

पर अब पछताने से होना ही क्या है? जाने वाली तो चली गयी। रहने वाला जाने की तैयारी करे- यही उचित है, हमेशा तैयार रहने की जरूरत है। बुलावा कब आ जायेगा, कहा नहीं जा सकता। शून्य से उत्पन्न संसार शून्य की ओर ही अग्रसर है...प्रतिपल...निर्वाध....निर्विकार....निरंतर....यही सत्य है...चिरंतन सत्य...

मीरा का अन्तिम संस्कार करके अभी-अभी घाट से लौटा था।

डाकिये ने चिट्ठी दी, मैना का भेजा हुआ- ‘प्रलय का तांडव मच गया है। परसों अचानक भयंकर बारिस हुयी। चाची और मुन्नी कमरे में सोयी थी। उमड़-घुमड़ कर बादल बरसे। बिजली कड़की; और लागातार कड़क के दौरान एक प्रलयंकारी गोला टपक पड़ा उस कमरे के ही छप्पर पर....और फिर कर गया सर्वनाश....सर्वनाश.....

पत्र पूरा पढ़ भी न सका। सकने जैसी स्थिति थी, न बात ही। पत्र सरक कर गिर पड़ा हाथ से। उठाना भी जरूरी न लगा।

मुंह से विक्षिप्त सा स्वर निकला, अट्टहास के साथ-घोर अट्टहास के साथ- स....र्व...ना...श !!!

गीता में गोविन्द ने यही समझाने का अथक प्रयास किया है- “जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु....."जो जन्म लिया है उसे मरना ही है। सराय को घर समझने की भूल ही, दुःख का मूल हेतु है। और यही सत्य है- स्वीकार्य सत्य !

शून्य हो गया। सब कुछ गंवा कर, बच गया अकेला- शून्य की तरह....विराट शून्य।

सोचा था- मीना गयी, शक्ति भी चली गयी;परन्तु मीरा होगी मेरी, और मैं हो जाऊँगा “मीरामय" पर कहाँ हो पाया ऐसा भी !

मीरा भी चली ही गयी, और मुझे बना गयी “निरामय"

समाप्त।