पंडुक / सुनो बकुल / सुशोभित

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पंडुक
सुशोभित


मैं अमरकांत की एक कहानी पढ़ रहा था, जिसमें यह पंक्ति आई कि- दोपहर थी और पास वाले नीम के पेड़ पर कोई पंडुक लगातार बोल रहा था।

बीते दिनों का बैसाख मन में एकबारगी लहलहा गया।

आख़िरी बार पंडुक को कब सुना था? याद नहीं आता। पंडुक को कब देखा, यही कहां याद आता है। फिर सोचा कि मैंने सुना नहीं कि पंडुक ही अब बोलता नहीं?

और क्या पंडुक दोपहर को ही बोलता है, राग सारंग के गायक सा?

एक कविता में ये बखान आया था कि पंडुक की आवाज़ दोपहर के काठ को काटती है। और दोपहर भी जेठ-बैसाख वाली, माघ-फाल्गुन वाली नहीं। सूनी, मौन, अवसन्न दोपहर, जिसमें पंडुक का विकल-स्वर।

सौ सदी जीकर भी मनुज ये कभी जान ना सकेगा कि पाखियों के स्वरों में जो विकलता होती है, वो किसके हित की पुकार है? जैसे दूसरी दुनिया का इकतारा!

और पंडुक की आवाज़? ये कोई पक्षी विज्ञानी थोड़े ना बतलाएगा, यह तो कोई गप्पबाज़ ही बखानैगा, जैसे कि फणीश्वरनाथ रेणु। दुनिया-जहान में जितनी भी ध्वनियां हैं, रेणु ने उनको आवाज़ देना है, लिपिबद्ध करना है, तो पंडुक की आवाज़ कैसे बच रहती?

सो "परती परिकथा" के आख़िरी पन्ने पर रेणु का बखान है कि- "पंडुकी नाच-नाचकर पुकार रही है- तुत-तुत्त, तुरा-तुत्त। पिपही-शहनाई बजने लगी है।"

मैं सोचने लगा कि कभी हल्देचिरैया दिख जाती, कभी प्राणों का हारिल थक जाता, कभी नलिनविलोचन कवि की आंखें खंजन से जुड़ जातीं, कभी दोपहर में पंडुक बोल उठता, कभी कोकिल कटाक्ष करता : ये भरी-पूरी दुनिया जो भाषा के जड़ाव में हमारे सामने आती रहती, वो दुनिया अब खो गई है, या वो भाषा ही खो गई?

या फिर उस भाषा में स्वप्न देखने वाले लिक्खाड़ सबके सब कहीं बिला गए?

वो कवि कहां बिसरा गया, जो कहता था- "बाँसों का झुरमुट, संध्या का झुटपुट, हैं चहक रहीं चिड़ियाँ, टी-वी-टी--टुट-टुट!"

छत्तीसगढ़ वाले श्री राहुल सिंह, जो "सिंहावलोकन" ब्लॉग लिखते हैं और इसी शीर्षक से उनकी पुस्तक भी आई है, ने एक बार पंडुक पाखी पर पोस्ट लिखी थी, जिससे मुझे तीन ज़रूरी इत्तेला मिलीं-

अव्वल तो ये कि पंडुक ही फ़ाख़्ता कहलाता है, वही "होश फ़ाख़्ता हो जाने" के मुहावरे वाला पाखी।

दूसरे ये कि पंडुक इतना आसान शिकार है कि कहावत बन गई है- "बाप ना मारे पंडुकी, बेटा तीरंदाज़।"

और तीसरे ये कि ईसाईयों में पवित्र आत्‍मा का प्रतीक और चोंच में जैतून की डंठल लेकर उड़ती चिड़िया पंडुक ही है।

फिर बात-बात में किसी ने जोड़ दिया कि कुमाऊं अंचल में यही पाखी कहलाता है घुगुती। कुछेक जगहों पर कहलाता है चितरोखा। छत्तीसगढ़ में पंडुक या पेंडकी।

कोई अंग्रेज़ीदां आदमी हो तो उसको पंडुक समझ ना आवैगा, उसको "डव" अधिक समझ आएगा। अलबत्ता डव एक व्यापक श्रेणी है, किंतु इतना आप समझ सकते हैं कि पंडुक कपोत-वर्ग का पाखी है। कपोतक भी यह कहलाया है। एक और सूचना यह कि पंडुक और सफ़ेद कबूतर के जोड़ से कुमरी पाखी पैदा होता है।

जैसे कपोत का जोड़, जैसे हंस का जोड़, वैसे ही पंडुक का जोड़ा भी प्रसिद्ध है, किंतु यहां तो एक पंडुक को देखे-सुने ही तरस गए।

मेरी सदी का बैसाख कितना गूंगा है ना!

वैसा नहीं कि मेरी सदी की दोपहरें नीरव नहीं, निविड़ नहीं, जैसी पिछली सदियों की होती थीं, किंतु उस नीरवता में विकलता का वो शोकार्त कंद्रन अब कहां, जो किसी अपरिचित पाखी-स्वर से उमग आता था।

और हम उनींदे आंखें मलते बरामदे में चले आते थे, यह सोचते कि ये कौन खग है, जिसकी आत्मा में मेरे मन की अनुगूंजें?