फूल और पाखी का नाम / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
कितने ही फूल हैं, जिनको उनके नाम से नहीं जानता.
यों भी, मैं कोई वनस्पति शास्त्री थोड़े ना हूं. मुझको कुछ भी तो मालूम नहीं.
रस्ते चलते रुक जाता हूँ, टकटकी बांधकर देखने लगता हूँ. फूल से अधिक फूल का रंग मुझे लुभाता है.
पाखी से अधिक पाखी का कंठ मुझे बुलाता है.
मैं हजारी प्रसाद द्विवेदी होता तो क्षितिमोहन मोशाय से पूछता, कि ये कर्णिकार ही है क्या? रोबी बाबू ने जो कृष्णचूड़ाएं रोपी थीं, वो क्या यही हैं?
मैं सालिम अली होता तो बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसायटी के सेक्रेटरी साहब वॉल्टर सैम्युएल मिलार्ड से जाकर ना पूछ बैठता, ये सोनकंठी कौन चिड़िया है?
मैं फणीश्वरनाथ रेणु होता तो अपने नॉविल का आरम्भ हलदेचिरैया के कौतूहल से करता, कि अपने मुलुक में तो वह पाखी दिखता नहीं, जो वेदना से विकल हो टेर लगाता है- "का कस्य परिवेदना!"
मैं कल्याणमित्र कृष्णनाथ होता तो नील-लोहित की लीला पर ख़ूब विचार ना करता, कि किन्नौर में पुष्पधन्वा का यह रूप किसने रचा?
किंतु मैं तो निरा सुशोभित हूँ. उससे अधिक नहीं.
कौतूहल कर सके, इसके लिए भी बुद्धि को बल लगता है! कुछ जानकर बतला सके, वैसी मेधा तब कहां से लाऊं?
तिस पर यह वसन्त का आश्चर्यलोक है और नए वर्णों और छंदों का समारोह सब तरफ़ से घेरे हुए है!
रस्ते चलते रुक जाता हूँ, टकटकी बांधकर देखने लगता हूँ. किसी भाई को रोककर पूछता हूं कि इस पेड़ का क्या नाम है, उस पाखी को क्या बुलावैंगे.
माघ के मेघ सा रिक्त चेहरा लिए वो कहता है, "मुझको क्या मालूम?"
तब मैं पेड़ से ही पूछता हूं कि भाई तेरा कुछ तो परिचय होगा.
पेड़ कहता है मेरी भाषा में नाम नहीं होते, बहार होती है, पतझड़ होता है!
पेड़ को जिस नाम से हम बुलाते हैं, वो नाम पेड़ के लिए अजूबा है. पाखी को जिस भी नाम से पुकारें, उससे उसकी उड़ान की अपठित स्वरलिपि की क्या पहचान?
तब भी पेड़ का नाम तो होता है, वो नाम हमारे भीतर के पेड़ का होता है.
तब मैं सोचता हूँ कि हमारे भीतर पेड़ का होना बहुत ज़रूरी है, और उसके नाम-पते की मालूमात भलेमानुषों के लिए आवश्यक है.
फूल देखकर पेड़ का नाम बतला सकूं और गान सुनकर पाखी की परख कर पाऊं, वैसी मेरी अभिलाषा है. इस जनम में कभी!
जब तक कि मैं स्वयं मलयगिरि का वो अनाम पेड़ नहीं बन जाता, जिस पर नींदों का नीड़ बनाते हैं बेनाम परिंदे!