पलाश का पेड़ / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
इंदौर में नगर-सीमान्त पर जहाँ एक ग्राम में मेरा बसेरा है, उसके ठीक सामने पलाश का पेड़ है.
खिड़की से वह दिखलाई देता है, देवगुराड़िया की टेकरी के सामने, पेंसिल स्केच-सा, टेसू का दुबलाया बिरछ, जिसके माथे पर रक्त और अग्नि के मुकुलों का मुकुट!
कितना अचरज है कि अभी पखवाड़ा पहले तक वह पेड़ मुझे दिखलाई नहीं देता था.
देखने को यों भी उसमें क्या था : दरमियानी क़द का गांठदार तना, अष्टावक्र की तरह आठ जगहों से बंकिम!
और, ढाक के तीन पात!
किंतु जब से उस पर पलाश के अंगारे खिले हैं, मन शरविद्ध हरिण की भाँति बार बार वहीं चला जाता है.
जैसे फूल रौशनी हों. और फूलों का न होना रात्रितिमिर, जिसमें पेड़ आँख से ओझल हो जाएं. केवल पत्तों का मर्मर शेष हो.
वाल्मीकि के लिए तो यों भी पलाश के फूल दीपमालिकाओं की तरह हैं.
मैं उस पेड़ के पास चला जाता हूँ. उसके खुरदुरे तने को छूकर देखता हूँ. यह मालूम करने की कोशिश करता हूँ कि इस वृक्ष की शिराओं में इतना लहू कहाँ से आता है कि वसंत में वह टेसू के रक्तपुष्पों की माला पहन लेता है.
मेरे पैरों के नीचे असंख्य पल्लव धूलि धूसरित पड़े हैं. फाल्गुन बहुत उदग्र संयम से इन फूलों में रंग भरता है, और वसंत का एक दिवस जीकर वे डाल से झड़कर कुचले जाते हैं. बस यों ही. निष्प्रयोज्य.
वसंत से बड़ा निर्मोही कौन है? वसंत से बड़ा अवधूत कोई नहीं. अनंग के पर्व-सी यह ऋतु जितनी अनुरागी है, उतनी ही वीतरागी भी.
गैरिक वसन वसंत!
मैं एक पल्लव धरती से उठा लेता हूँ.
क्या इसी फूल को कालिदास ने वनखंडी के वक्षस्थल पर वसंत के नखचंद्र की उपमा दी थी? क्या यह फूल वाल्मीकि के काल में भी यों ही खिलता था कि लक्ष्मण का रक्तरंजित शरीर उन्हें किंशुक के फूलों की याद दिलाता था? तब फिर बीच की वे सारी सहस्राब्दियां कहां झर गईं?
जाने क्या सोचकर मैंने बरसों पहले वह कविता लिखी थी : "खिड़कियों के बाहर फूल चुपचाप जलते रहते हैं!"
और फिर सोचता हूं कि घर के सामने पलाश का एक पेड़ होना गुलमोहर के नीचे जाकर मर जाने की आकांक्षा का पुरोवाक् तो नहीं!