सुनो बकुल ! / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
वैसा नहीं है कि बकुल बंगभूम का ही बिरछ है।
कृष्णचूड़ाओं की तरह! यों कृष्णचूड़ाएं भी केवल बंगाल में होती हैं, वैसा नहीं है किंतु बंगाली लोग गुलमोहर को उसी नाम से बुलाते हैं!
वैसे ही बकुल है!
मौलश्री कहकर पुकारो तो इस वृक्ष की व्याप्ति देश-प्रांतर में मालूम होगी। किंतु बकुल कहने से बांग्ला उच्चार का जो माधुर्य उसमें चला आता है, कि लगता है यह छतनार पेड़ बीरभूम ज़िले में ही फूलता होगा।
बंगालियों को वैसे नाम रखने में बहुत सुख होता है- बकुल, मुकुल, पुतुल, पारुल... इसका अंत ही नहीं!
तपन सिन्हा ने साल 1994 में दूरदर्शन के लिए एक टेलीफ़िल्म बनाई थी- "दीदी।" उसमें बांग्ला नायिका वन में यही गुनगुनाते फिरती थी- "आम से जामुन से / बकुल से मुकुल से / कितने तो बातें होते / हम तो नहीं जानते!"
हेनरिक इब्सेन के ड्रामा "डॉल्स हाउस" को जब उन्होंने बांग्ला में अनूदित किया तो नाम दिया- "पुतुल-खेला।" आह, कितना दारुण शीर्षक! पुतुल-खेला : कोमल गोलाइयों से भरा कैसा बांग्ला उच्चार!
आशापूर्णा देवी के एक उपन्यास का शीर्षक ही "बकुल-कथा" है। उन्हीं के एक अन्य उपन्यास "सुवर्णलता" की वह उत्तरकथा।
"बकुल-कथा" में प्रबोधचन्द्र की चार बेटियों के नाम चम्पा, चन्दन, पारुल और बकुल हैं। चम्पा हम जानते हैं, चन्दन हम जानते हैं, पारुल के बारे में बतलाते हैं कि यह भी एक फूल का ही नाम है, जिसे आज तक किसी ने देखा नहीं। और बकुल की कथा तो हम बांच ही रहे।
व्यास, वाल्मीकि, बाण, राजशेखर, कालिदास, विद्यापति, रबींद्रनाथ, इन सभी ने बकुल का बखान किया है। कालिदास ने तो बकुल ही नहीं बकुलमालाओं की बात की है-- "शिरसि बकुलमालां मालतीभि: समेतां!"
मैंने कवि चंद्रकांत देवताले के मुंह से सबसे पहले यह नाम सुना था- बकुल। वे अपने प्रियजनों को ऐसे ही आत्मीय नामों से पुकारना पसंद करते थे- कमा, कनु, अनु, बकु आदि इत्यादि।
कुल मिलाकर एक नाम भर ही तो है, किंतु मुझे बहुत रुच गया है। कि इस नाम में एक अनूठी आत्मीयता है, ऊष्मा है, स्नेह है।
मैं इस नाम का उच्चार करना चाहता हूं, मैं किसी को बकुल कहकर पुकारना चाहता हूं।
ठीक वैसे ही, जैसे मिलान कुन्देरा एग्नेस नाम का उच्चार करना चाहता था, इसलिए एग्नेस को केंद्र में रखकर उसने एक पूरा उपन्यास लिख दिया, ताकि बारम्बार वह यह नाम बुला सके।
वो उपन्यास था "इम्मोर्टलिटी", और मैं भी मरना नहीं चाहता, कोमलता के सभी रूपों को पुकारे बिना! नहीं मरूंगा!
सुनो "बकुल", तुम वहां हो? हां?