किंशुक / सुनो बकुल / सुशोभित

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किंशुक
सुशोभित


किंशुक यानी ‘किं शुक?’

(‘क्या वह शुक है?’)

यह एक प्रश्न नहीं, प्रश्न के छलावरण में एक फूल का नाम है।

फूल का नाम ही ‘किंशुक’ है!

भारतीय परम्परा यों निरी अभिधा में किसी का नाम नहीं पुकारती, फिर यह तो वसंत का अग्रदूत है!

‘किंशुक’ का फूल शुक की ‘रक्तचंचु’ (लाल चोंच) जैसा मालूम होता है। अतएव वह कौतूहल- ‘क्या वह शुक है?’ सृष्टि में किसी और फूल का नामकरण इतना सुंदर नहीं किया गया होगा।

यों ‘शुक-विभ्रम’ के और भी उदाहरण भारतीय साहित्य में मिलते हैं, जैसे मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ में- ‘बीज दाड़िम का समझकर भ्रांति से।’

एक अन्य वृक्ष के फूलों का नामकरण ‘शुक’ के नाम पर किया गया है। ‘शुकपुष्पा’। यह शिरीष वृक्ष के फूलों के लिए है। कवि भारवि की कल्पना।

‘किंशुक’ से ही मिलता-जुलता एक और शब्द होता है ‘अंशुक’, जो दुकूल के लिए, उत्तरीय के लिए, झीने अंगवस्त्र के लिए प्रयुक्त होता है। किंतु इसमें ‘शुक’ की कोई अन्विति नहीं है।

किंशुक - यह उत्तर-वसंत और ग्रीष्म का प्रतिनिधि फूल है। यह देखने में एक छोटे-से घाव जैसा भी दिखाई देता है। नखक्षत का चंद्राकार घाव!

एक वृंत पर तीन पत्तों वाला ‘ढाक’ का वृक्ष भी यही है।

और यही ‘टेसू’ कहलाता है, जो कि फाल्गुन के अंत:स्तल का वर्ण है!

एक बहुत सुंदर लोकगीत मुझे याद आ रहा है-

‘टेसू के फूल खिले उघड़े रंग लेगी अब ग्रामीण वधू उसकी चूनर उसके लुगड़े।’

और पलाश तो वह ख़ैर है ही।

प्राचीन काल में कोई भी काव्य ‘मंगलाचरण’ के बिना प्रारम्भ नहीं होता था। कोई भी नाट्य ‘नान्दीपाठ’ के बिना नहीं। कोई भी वक्तव्य ‘उपोद्घात’ के बिना नहीं। वैसे ही मैं कहूंगा कि ‘किंशुक’ के रक्तपुष्पों का आवाहन किए बिना फाल्गुन मास में प्रवेश करना रीतिविमुख है!