कृष्णचूड़ा / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
आशापूर्णा देवी का एक उपन्यास है- ‘कृष्णचूड़ा का वृक्ष।’
उपन्यास का शीर्षक पढ़कर मैं सोच में डूब गया।
‘कृष्णचूड़ा?’ यह कौन-सा वृक्ष होता है?
फिर बुद्धदेव गुहा का नॉवल ‘कोजागर’ पढ़ते समय इन पंक्तियों पर ठहर गया-
‘पहाड़ों की ढाल पर किसी-किसी अशोक, सेमल और पलाश की डालियों पर फूलों ने अपना लज्जारक्त मुख बाहर निकाला ही था। महीनेभर में सबकुछ लाल हो जाएगा। फ़ॉरेस्ट बंगलों के अहाते के सारे कृष्णचूड़ा और राधाचूड़ा पेड़ों की डालियों पर प्रकृति अपने हाथों से लाल-पीला और बैंगनी शामियाना बांधेगी।’
यह पढ़ा तो पुस्तक को घुटनों पर रख दिया और मन ही मन सोचने लगा- तो ‘कृष्णचूड़ा’ के साथ ही ‘राधाचूड़ा’ वृक्ष भी होता है?
यह तो समस्या और उलझ गई।
या कहीं ऐसा तो नहीं कि समस्या सुलझ गई है? ‘कृष्णचूड़ा’ और ‘राधाचूड़ा’ - हो ना हो, इन वृक्षों के फूलों से ‘राधारमण’ के विग्रह की अर्चना की जाती होगी।
बशर्ते ‘कृष्णचूड़ा’ वृक्ष पर सच ही में फूल लगते हों।
अधिक समय नहीं हुआ, इसका उत्तर तुरंत ही महाश्वेता देवी के एक वृत्तांत में मिल गया-
‘होली के रंग अनगिन धाराओं में पलाश, कृष्णचूड़ा और गुलमोहर की डालों पर बिखर गए थे। पत्र-पुष्प का समारोह!’
तो ‘कृष्णचूड़ा’ पर सच ही फूल लगते हैं। क्यूं नहीं लगेंगे? और एक सूचना यह भी मिली कि ‘पलाश’ और ‘गुलमोहर’ की ही भांति, हो ना हो ‘कृष्णचूड़ा’ भी ‘रक्तवर्णी’ है, उत्तर-वसंत के सीझे हुए ताप में खिलने वाला गुह्यपुष्पक।
किंतु क्या ‘कृष्णचूड़ा’ का वृक्ष मध्यभारत और उत्तरभारत में नहीं होता?
क्योंकि जब भी मैं इस वृक्ष के बारे में सुनता, किसी बंगाली या उड़िया के मुख से ही सुनता। या शायद मध्य और उत्तर में इसे किसी और नाम से पुकारा जाता हो।
और तब एक दिन मुझे मिले आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी!
‘शांतिनिकेतन’ के दिनों का उनका एक संस्मरण पढ़ रहा था। और ये लीजिए, ‘कृष्णचूड़ाएं’ यहां भी मुझे मिल गईं। अब तो पक्का, ये बंगभूमि का ही वृक्ष है!
‘दो कृष्णचूड़ाएं हैं। स्वर्गीय कविवर रवींद्रनाथ के हाथ से लगी वृक्षावलि में ये आख़िरी हैं। इन्हें अभी शिशु ही कहना चाहिए। फूल तो इनमें अभी आए नहीं। भरे फागुन में इस प्रकार खड़ी हैं, मानो आषाढ़ ही हो। नील मसृण पत्तियां और सूच्यग्र शिखंत!’
ओह, ये तो बहुत सूचनाएं मिल गईं। एक-एक कर देखते हैं-
1) ‘स्वर्गीय कविवर रवींद्रनाथ के हाथ से लगी वृक्षावलि में ये आख़िरी हैं।’
यानी, कविकुलगुरु के देहांत के कुछ ही दिनों बाद का वह वर्णन है। वृक्षावलि? निश्चोय! ‘शांतिनिकेतन’ में जो ‘वसंतोत्सव’ मनाया जाता था, उसमें वृक्षारोपण की भी तो एक रीति थी। गुरुदेव स्वयम् वसंतोत्सव पर पौधे रोपते थे। वे दो ‘कृष्णचूड़ाएं’ गुरुदेव ने ही मृत्यु से पूर्व रोपी थीं। कौन जाने, आज वे कहां होंगी? क्या वे आज भी वहां हैं?
2) ‘फूल तो इनमें अभी आए नहीं।’
क्योंकि तब वे वृक्ष शिशु ही थे ना।
किंतु यह तो निश्चित हो ही गया कि ‘कृष्णचूड़ा’ में पुष्प फूलते हैं। और वसंत में ही फूलते हैं। क्योंकि भरे फागुन में उनका आषाढ़ सरीखा निर्वसन रहना आचार्यजी को कितना तो खल रहा था।
3) ‘नील मसृण पत्तियां और सूच्यग्र शिखंत!’
यह तो बहुत ही सुंदर वृत्तांत हुआ!
तो ‘कृष्णचूड़ा’ की कोंपलें बहुत स्निग्ध, चमकीली, द्युतिमान होती हैं। धूप में नील सी दीपती हैं। और ‘सूच्यग्र शिखंत’, यानी सुई की नोक जैसे तीखे उनके पत्तों के छोर होते हैं। दूसरे अर्थों में कोमल सुइयों का एक महावन होता है ‘कृष्णचूड़ा’ का एक वृक्ष।
ऐसी ही जाने कितनी काव्य-कौतुक-कल्पनाओं में मन जैसे डूब-सा गया।
आशापूर्णा देवी का उपन्यास ‘कृष्णचूड़ा का वृक्ष’ अब भी मेरे हाथ में था। अब जाकर उस पर ध्यान गया तो मन ही मन सोचा- ‘धत्तेरे की! मन ना हुआ कौतूहल का मृग हो गया! जिज्ञासा का सर्प हो गया! उपन्यास तो पढ़ नहीं पाया, पूरा समय इस ‘भ्रमणगिरि’ सरीखी चंचलता में ही बिसार दिया कि ‘कृष्णचूड़ा’ का वृक्ष क्या होता है।
और तब सोचने लगा, कौन जाने कभी इस जीवन में ‘कृष्णचूड़ा’ की छांह में ‘पथिक-वृत्ति’ से ऊंघने का अवसर मिलेगा या नहीं? और क्या, स्वप्न की विलम्बित लय में मेरी भौंहों पर कभी गिरेंगी कृष्णचूड़ा की कोंपलें?