कर्णिकार / सुनो बकुल / सुशोभित

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कर्णिकार
सुशोभित

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘कर्णिकार’ के वृक्ष को कालिदास का ‘लाड़ला’ कहा है।

आचार्यप्रवर निश्चय ही उपहास कर रहे होंगे!

कालिदास का लाड़ला? वह तो केवल एक ही वृक्ष है- ‘अशोक।’

उसके बाद ‘आम्र’, फिर ‘कदम्ब।’ फिर ‘तिलक’ और ‘कुरबक।’ किंतु ‘कर्णिकार’ तो निश्चय ही नहीं।

वास्तव में ‘कर्णिकार’ को तो कालिदास ने ‘कुमारसम्भवम्’ में निर्गंध बता दिया है! (‘वर्णप्रकषे सति कर्णिकारं दुनोति निर्गंधतया स्म चेता:’)

हां, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ में अवश्य बहुत ही सुंदर उपमा ‘कर्णिकार’ को लेकर कालिदास ने दी है- ‘कर्णिकार के फूलों से लदे वृक्षों वाला पर्वत बिना पंखों के भी गतिशील मालूम हो रहा था!’ किंतु निश्चय ही वह कालिदास का लाड़ला नहीं है।

बशर्ते वे ‘कर्णिकार’ को उस तरह से कालिदास का ‘लाड़ला’ नहीं मान रहे हों, जैसे ‘कांचनार’ उनका स्वयम् का लाड़ला था-

‘मुझे कांचनार फूल की ललाई बहुत भाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन फूलों की पकौड़ियां भी बन सकती हैं!’ (‘अशोक के फूल’, पृष्ठ 12)

भई, यह तो बैजनाथ दुबे से अधिक व्योमकेश पंडित की वर्णन शैली है!

‘कर्णिकार’ के फूल पीले होते हैं, इसीलिए तो वह बंगालियों का ‘सोनालु गाछ’ है! पीतपुष्यक!

और, निघण्टुकार का ‘आरग्वध।’

और ‘भावप्रकाश’ का ‘पद्मोत्पल।’

पद्म और उत्पल, दोनों एक साथ! यह ‘पुनरुक्तिप्रकाश’ तो कर्णिकार को कालिदास से अधिक भाव मिश्र का लाड़ला बतलाता है, किंतु वाल्मीकि से अधिक नहीं!

और नहीं, कर्णिकार ‘कनेर’ नहीं है, ‘कनेर’ शब्द कर्णिकार का अपभ्रंश नहीं है, ठीक वैसे ही पीले फूलों के बावजूद!

कर्णिकार तो ‘अमलतास’ है!

वसंत से अधिक निदाघ में फूलने वाला, गुलमोहर का सहोदर!