कुरबक और कांस / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
कुरबक और कांस
कैलेंडर पर तारीख़ देखकर वरखा की बाट जोहने की इधर एक रीत बनी है।
कि जून की तीसरी दहाई समाप्त होने को है, पानी अभी तक नहीं पड़ा।
परम्परा में इसे तिथि के बजाय नक्षत्र से जोहेंगे, कि आर्द्रा लग गया, अभी तक वर्षा नहीं हुई।
किंतु काव्य में वर्षा की संधियां ऐसे नहीं बनाई जातीं।
कांस। काव्य की दृष्टि से वर्षा ऋतु के दो सीमांत माने जाएंगे- कुरवक और कांस
कुरवक वर्षा ऋतु का उत्तरद्वार है, कांस वर्षा का दक्षिणद्वार।
संस्कृत काव्य में कुरवक का फूल वर्णित है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि कालिदास ने रघुवंश में कुरवक-पुष्प का खिलना वसंत ऋतु में वतलाया है।
किंतु वसंत की प्रौढ़ावस्था में यह फूल झर जाता है। वर्षा के आरम्भ के साथ ही कुरवक कहीं भी दिखलाई नहीं देता।
आचार्यप्रवर इस वात को लेकर दुविधा में थे कि कुरवक कोविदार का फूल है या कटसरैया का। किंतु वर्षा ऋतु में वह झड़ जाता है, इस पर उन्हें कोई दुविधा नहीं थी।
जैसे वसन्तान्त में कुरवक झड़ जाता है, वैसे ही प्रौढ़ वर्षाकाल में कांस के फूल उग आते हैं।
परम्परा में यह भी वर्णित है कि कांस के फूल दिखने के वाद अधिक वर्षा नहीं होती।
तुलसीदास ने कहा है न- फूले कांस सकल महि छाई। जनु वर्षा कृत प्रकृति बुढ़ाई।।
वर्षा ऋतु कुरवक व कांस के फूलों के वीच दूर्वा-लिपि में लिखी जाती है, इस तरह केवल कविता सोच सकती है।
और तव लगने लगता है वर्षा व कविता भी तो समानधर्मा हैं, कल्पवृक्ष के आकाश-कुसुम की तरह।