वेणुवन / सुनो बकुल / सुशोभित

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वेणुवन
सुशोभित


कुछ के जीवन में कोई न कोई नदी हमेशा उनके साथ होती है. कुछ के जीवन में कोई न कोई पर्वत.

किंतु "शाक्यमुनि" बुद्ध के जीवन को देखें तो उसमें वृक्षों की एक अनवरत पंक्ति आपको दिखेगी : वृक्षों की वंदनवार!

वे जहां भी गए, वृक्ष हमेशा उनके बंधु थे!

बुद्ध के जीवन में पांच वनों का बड़ा महत्व रहा : "लुम्बिनी वन", जहां वे जन्मे और कुशीनारा का "शालवन", जहां उन्होंने त्यागी देह! इसके अलावा तीन अरण्यों में उन्होंने जीवनपर्यन्त विहार किया : श्रावस्ती का "जेतवन", वैशाली का "महावन" और राजगृह का "वेणुवन".

किशोरवय में ही एक "जंबुवृक्ष" के नीचे बुद्ध ध्यानस्थ हुए थे, इसकी कथा अल्पज्ञात है. संबोधि से पूर्व एक "न्‍यग्रोधवृक्ष" के नीचे उन्होंने पायस पान किया था और एक "अश्वत्थ" वृक्ष के नीचे उन्‍होंने संबोधि पाई. वह वृक्ष बुद्धगया में आज भी स्थित है!

"अश्वत्थ" का वृक्ष कृष्ण को भी अत्यंत प्रिय था और उन्होंने कहा था : सभी वृक्षों में मैं "अश्वत्थ" हूँ. "अश्वत्थ" यानी पीपल का पेड़.

अश्वघोष के "बुद्धचरित" में वर्णन है कि संबोधि के बाद "शास्ता" ने "न्यग्रोध", "मुचलिंद", "राजायतन" वृक्षों के नीचे एक-एक सप्ता‍ह का वास किया. फिर "जेतवन" और "वेणुवन" में विहार. और सबसे अंत में कुशीनारा में "शालद्वय" के नीचे महापरिनिर्वाण!

कुशीनारा के "यमक-शाल" बुद्ध का "अंतिम अरण्य" थे!

तो क्या बुद्ध के जन्म‍ से पूर्व उनकी मां "मायादेवी" ने स्वप्न में सात योजन छाया वाले जिस महान "शालवृक्ष" को देखा था, वह उनका "आदिवन" था!

तब यह जानकर अचरज क्‍यों हो कि स्‍वयं बुद्ध ने भी "जातक" उपदेशों में स्‍वयं को "वृक्षदेवता" कहकर इंगित किया है!

और तो और, "सांची" और "भरहुत" के अनेक शिल्‍पों में भी बुद्ध को एक व्‍यक्ति नहीं वृक्ष की भांति ही उत्‍कीर्ण किया गया है. सांची में संबोधि की छवि को "अश्‍वत्‍थ" वृक्ष (बोधि वृक्ष) के नीचे स्थित एक वज्रासन से दर्शाया गया है. बोधिसत्‍वों को भी वृक्षों की छवि के माध्‍यम से प्रदर्शित किया गया है. सांची में बोधिसत्‍व विश्‍वभु "शालवृक्ष" हैं, बोधिसत्‍व कृकुच्‍छंद "शिरीष" वृक्ष हैं, बोधिसत्‍व कनकमुनि "औदुंबर" हैं तो बोधिसत्‍व कश्‍यप "न्‍यग्रोध" वृक्ष.

कवि श्रीनरेश मेहता ने कहा था : "आज का दिन / एक वृक्ष की भांति जिया / और प्रथम बार / वानस्पतिक समर्पणता जागी!"

कहने को जी करता है कि तथागत ने मात्र एक दिन नहीं, पूरा जीवन ही वृक्ष की भांति जिया. वे वानस्पतिक संपूर्णता के "वृक्ष-विग्रह" थे.

किंतु अभी बात केवल "वेणुवन" की!

जाने कितनी बौद्ध गाथाओं का आरंभ इस वाक्य से होता है : "तथागत वेणुवन में विचरते थे!" या "भगवान जेतवन में विहार कर रहे थे!"

"सावत्थी के सेट्ठी" या "श्रावस्ती के नगरसेठ "अनाथपिंडक", जिनका मूल नाम "सुदत्त" था, द्वारा बुद्ध के लिए "जेतवन" बनवाकर उन्हें भेंट किया गया था, जिसमें विहार, परिवेण, उपस्थान शालाएँ, कापिय कुटी, पुष्करणियाँ, मंडप इत्यादि भी थे. वहीं "वेणुवन" मगध सम्राट अजातशत्रु ने बनवाया था. राजगृह (वर्तमान राजगीर) में आज भी "वेणुवन" है : बांस का बन : जहां अब सैलानी टहलते हैं.

"वेणु" शब्द बांस के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है और "बांसुरी" के लिए भी. "वेणु" को वाद्य के रूप में "वीणा" का पर्याय समझ लेने की भाषाई भूल बहुतों से होती रही. तो "वेणुवन" शब्द का अर्थ हुआ "बांस का वन".

जाने कितनी क्लासिकी कल्पनाओं में यह आता है कि ग्रीष्म में, जब निदाघ तप रहा हो, "वेणुवन" से होकर हवा गुज़रती है तो बांस के सूखे ठूंठ बांसुरी की तरह बजने लगते हैं!

यह आश्चर्य नहीं कि जापान में बौद्ध धर्म का जो स्वरूप भारत से पहुंचा, "ज़ेन बुद्ध‍िज़्म", उसकी बुनियादी "इमेजरी" में "बैम्बू ग्रोव्ज़" या बांस के कुंज शामिल हैं. "बांस के कुंज" और "रेत के बाग़" : ये दो परस्पर विपरीत "ज़ेन मोटिफ़" हैं, जो अब उसका रूपकात्मक पर्याय बन गए हैं.

किंतु श्रीनरेश मेहता ने अपने काव्य में "वेणुवन" की एक दूसरी ही कल्पना की है.

"वेणुवन दावा-सी थी/तुममें जो जन्मजात."

वे "वेणुवन" में एक भीषण दावानल की कल्पना करते हैं और वृक्षों की उस विराट समि‍धा को हमारा आत्मीय अंश मानते हैं. पूरा बंध इस प्रकार है :

"वेणुवन दावा-सी थी / तुममें जो जन्मजात / आत्मज है / स्नेह करो / अंचल से ढंककर रक्षण दो!"

"स्नेह" शब्द के दो अर्थ होते हैं : प्रेम और तैल. आत्मज अग्न‍िरूप से प्रेम करने के उपाय हैं : उसे तैल से पोषण दिया जाए और आंचल से ढंककर उसका रक्षण भी किया जाए, क्योंकि वह हमारा शुद्धभाव है : लौ से लपट तक और दीप से दावानल तक. कि वह "सृष्ट‍िप्रिया" है. "वेदनारूप" है, जिसे हमें दान समझ शीश झुका स्वीकारना है, जैसे कि मन कोई "करपात्री" हो (एक हाथ में जितना समा जाए उतने पर ही बसर करने वाला भिक्षु), विनत होकर "मधुकरि" (भिक्षा) स्वीकारता!

"सृष्टिप्रिया पीड़ा है / दान समझ शीश झुका स्वीकारो / ओ मन करपात्री / मधुकरि स्वीकारो!"

आह! भारतीयता के आत्मीय प्रसंगों में रचा बसा वैसा काव्य अब कहां!

वृक्ष, वन और वेदना का यह सातत्य अपूर्व है, जो मिथकों, रूपकों और काव्य तक में व्याप गया है. मैं कभी निश्चल होकर "वेणुवन" की कल्पना नहीं कर पाता : उसके प्रसंग पर मृग की भांति अडोल मन जाने कितने रूपकों में खो जाता है!

और तथागत बुद्ध की जब भी कल्पना करता हूँ -- मनुज नहीं, अवतार नहीं, ईश्वर तो बिलकुल नहीं -- वेणुवन के "वृक्षदेवता" की तरह ही उनकी "व्यक्ति-व्यंजना" का एक बिम्ब अपने मन में बनाता हूँ!