ब्रज के वृक्ष / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
ब्रज में एक नहीं दो नहीं सोलह वन हैं! और वनखंडियां तो अगणित!
इन सोलह वनों में सबसे कृष्णमय है वृंदावन।
वृंदा यानी तुलसी। वृंदावन यानी तुलसी का वन। यह वही तुलसी हैं, जो शालिग्राम से ब्याही हैं। कौस्तुभ मणि के मुकुट वाले शालिग्राम। यह भी स्मरण रहे कि राधारानी के सोलह नामों में से एक वृंदा भी है। उसी वृंदा का वह वन है, ब्रज का आनंदघन!
ब्रज में ही मधुवन है, जहां श्रीकृष्ण राधिके! ललिते! विशाखे! की टेर लगाते थे। उनकी वह टेर भांडीरवन तक गूंजती थी। निधिवन में जहां ललिता सखी के आराधक हरिदासजी की पर्णकुटी थी, वहां तक भी। सुखमा, कामा, कुमुदा, प्रमदा गोपियां जहां श्रीकृष्ण निकुंज लीलाओं की साक्षी थीं, उस महावन तक भी। भद्रवन से तालवन तक वृक्षों की पंक्तियां श्रीकृष्ण की उस डाक में डूबी रहतीं!
राधिके! ललिते! विशाखे!
ब्रज में सोलह वन और तीन वट हैं : कृष्णवट, वंशीवट, श्रीदामवट।
श्रीहितहरिवंश के चौरासी पदों में इन त्रिवटों का वर्णन है!
और ब्रज में कदम्ब है।
श्रीकृष्णरूप से उज्जवल सभी वृक्ष एक तरफ़ और कदम्ब का पेड़ दूसरी तरफ़। श्रीरूपगोस्वामी के विदग्धमाधव का यदुनंदन दास ठाकुर ने पद्यानुवाद किया तो उसका नाम रखा : राधाकृष्णलीलारसकदम्ब!
यूं ही कदम्ब को सुरद्रुम नहीं कहा है। सुरद्रुम यानी देवतरु। देवताओं का वृक्ष!
ब्रज में ही कुमुदवन भी है, जिसमें कदम्बों के पूरे के पूरे कुंज : कदम्बखंडियां।
कदम्ब भी तीन होते हैं : राजकदम्ब, धूलिकदम्ब और कदम्बिका।
यह वृक्ष श्रीकृष्णलीलास्वरूप का प्रतीक बन गया है। यहां तक कि महानिर्वाणतंत्र में भी ललिता सखी को कदम्बवनसंचारा और कदम्बवनवासिनी कहकर इंगित किया गया है।
भागवत और पद्मपुराण ने कदम्ब को श्रीकृष्णलीला का अविच्छेद्य रूप माना है। किंतु कौन जाने, महाकवि बाणभट्ट ने अपनी नायिका को जब कदम्ब के नाम पर कादम्बरी कहकर पुकारा था तो उनके मन में कौन-सी लीला रही होगी!
श्रीकृष्ण भले ही स्वयं को अश्वत्थ वृक्ष कहें, मथुराजी के जनवृंद भले ही बरगदों को कृष्णवट की संज्ञा दें, भक्तिवत्सल तो श्रीकृष्ण को कदम्ब का पेड़ कहकर ही पुकारेंगे।
जौ खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदम्ब की डारन - इस देवतरु की संज्ञा में ही वह भाव है, जो किसी को भी बना सकता है रसखान!
एक ऐसा भी वृक्ष है, जिसे स्वयं एक वन कहकर पुकारा गया है। वह है छितवन। सप्तपर्ण वृक्ष।
ठीक इसी बिंदु पर एक और वन की याद आती है- तमालवन।
मेघैर्मेदुरमम्बरम् वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमै- र्नक्तं भीरुरंय त्वमेव तदिमम् राधे गृहं प्रापय।
[ हे राधे! आकाश मेघों से मनोज्ञ हो गया है। तमालवृक्षों के द्वारा वनभूमि श्यामल हो गई है। रात्रिवेला है और मेरा स्वभाव भीरु है। तुम ही मुझे घर पहुंचा दो! ]
जयदेव के गीतगोविन्द का आरम्भ ही इन पंक्तियों से होता है। यह प्रथम सर्ग की पहली अष्टपदी है!
तमाल को ताड़ और ताम्बुल वृक्ष समझने की भूल की जाती रही है, किंतु वे इनसे भिन्न हैं।
ब्रजभूमि के अतिरिक्त तमालवृक्ष अब अन्यत्र दुर्लभ हो चले हैं, और ब्रज में भी ये दुष्प्राप्य। उत्कलप्रदेश में अवश्य तमालवन हैं। कवि जयदेव को उपरोक्त उपमा वहीं से तो सूझी।
तमाल तिमिर के पुत्र हैं जैसे श्रीकृष्ण स्वयं अंधकारभावरूप।
तमालवनों को उस सघन तिमिर के कारण ही “निभृत निकुंज” कहकर पुकारा गया है। यह छतनार वृक्ष है, जिसका सघन श्यामल वितान। तमालवन में दिवस में भी अंधकार होता है। तिस पर संध्या हो और आकाश में मेघमाला तो अंधकार निविड़ हो जाता है!
नैश अंधकार, जिसमें हाथ को हाथ ना सूझे! सूचीभेद्य अंधकार, जिसमें अंधकार की एक परत पर एक और परत चढ़ जावै! और उस अंधकार में होती है तमाल-सुरभि, जिसकी उपमा जयदेव ने मृगमदरस या कस्तूरी से दी है :
मृगमदसौरभरभसवशंवद नवतमालवनमाले।
जयदेव के मानसपुत्र आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने गीतगोविन्द के उपरोक्त प्रसंग पर बढ़त लेते हुए कहा है : तमालवृक्ष की छाया में कितना अंधकार सिमटता है। उसमें वृषभानु की दमकती दुलारी राधा श्यामा हो जाती हैं। श्याम घनश्याम हो जाते हैं। श्यामाश्याम की रसकेलि से वनभूमि भीग जाती है!
कभी-कभी तो लगता है कि वृक्षों की वंदना देवताओं की तरह बहुत कर ली, अब देवताओं की उपासना वृक्षों की भांति की जाना चाहिए। और इसीलिए श्रीकृष्णस्वरूप को व्यक्ति नहीं, विग्रह नहीं, एक वृक्ष की तरह देखा जाना चाहिए।