मृत्यु और मयूर / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
मेघ घिर आएं तो मोर नाचता है।
मन-मयूर का अनुप्रास-समास ऐसे ही बना था!
लेकिन मैंने तो बर्फ़बारी में भी मोर को नाचते देखा है।
वास्तव में नहीं, एक फ़िल्म में।
वह एक इतालवी फ़िल्म थी, जिसमें हिमपात और उसका अवसाद था, और इस सबके बीच, अचानक, क़स्बे के चौक पर एक मोर अपने पंख फैलाकर नाचने लगा था।
समुद्रतट पर बसे उस इतालवी क़स्बे सान गिलियामो के लोग इस प्रतीक का अर्थ नहीं समझ पाए कि वह मयूरनाच एक मृत्यु का पुरोवाक् है।
इस दृश्य के तुरंत बाद फ़िल्म के नौजवान नायक की मां की मृत्यु हो जाती है।
इससे पहले तक मुझे नहीं मालूम था कि मृत्यु का मोर से भी कोई सम्बंध हो सकता है।
लेकिन तब मेरा सामना एक बोहेमियन कवि यान स्काशेल की कविता से हुआ।
यह वही कवि था, जिसने कहा था कि मैं अपनी मायूसियों का एक महल बनाकर उसमें पूरे तीन सौ सालों तक रहना चाहता हूं।
यान स्काशेल की एक कविता में एक पंक्ति आती है : "मृत्यु और मयूर एक घोड़े की पीठ पर सैर कर रहे थे।"
घोड़े की पीठ पर मृत्यु और मयूर!
तो घुड़सवार कौन होगा?
सनद रहे, पश्चिमी परम्परा में मृत्यु को एक घटना नहीं एक व्यक्ति की तरह देखा जाता है।
इंगमर बेर्गमान की फ़िल्म "द सेवेन्थ सील" में मृत्यु बाक़ायदा एक क़िरदार है।
यक़ीनन, यान स्काशेल की इस कविता में मृत्यु ही घुड़सवार है। तो फिर मोर कौन है?
क्या मोर मनुष्य की चेतना है, जिसे मृत्यु अपने साथ लिए, घोड़े पर सवार होकर सरपट चली जा रही है?
प्राण को पखेरू कहते हैं ना।
यह पखेरू कभी कपोत तो कभी हंस की तरह भारतीय परम्परा में आता रहता है- "उड़ जाएगा हंस अकेला।"
लेकिन मोर के बारे में मैंने पहले ऐसे नहीं सोचा था।
कोई तो साम्य होगा, बोहेमिया के कवि और इटली के फ़िल्मकार की कल्पनाओं में, कोई तो सामूहिक अवचेतन का साझा ज्वार होगा।
यह सोचना सचमुच रोमांचित करता है ना कि कौन जाने एक दिन मृत्यु मोरपंख पहनकर हमारे सामने प्रस्तुत हो?