ध्रुवतारा / सुनो बकुल / सुशोभित

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ध्रुवतारा
सुशोभित


"ध्रुव" शब्द अटल और अपरिहार्य का पर्याय है।

जो अटल होता है, वह "ध्रुव" कहलाता है। "ध्रुवपंक्ति" की तरह अटल, "ध्रुवसत्य" की तरह सम्पूर्ण, "ध्रुवतारे" की तरह अडिग!

"धुरी" एक सीधी रेखा होती है, "ध्रुव" उसके दो छोर होते हैं।

धुरी "अक्ष" कहलाती है। "ध्रुव" इतने विपरीत होते हैं कि उन्होंने "ध्रुवीकरण" जैसे शब्दों को जन्म दिया है। "पोल्स अपार्ट!"

मनुष्य ने जब अपने आसपास की दुनिया को देखना-समझना शुरू किया था तो उसने पाया कि अगर कोई चीज़ अपनी जगह पर घूमती है तो यह तभी सम्भव है, जब उसकी कोई "धुरी" हो, और धुरी का अडिग होना अनिवार्य है।

"कील" अडिग होगी, "चक्का" घूमता रहेगा।

घूमता हुआ "चक्का" सहस्र कोस की दूरी तय कर लेगा, किंतु कील अपनी "धुरी" से नहीं डिगेगी।

ये और बात है कि अचल "कील" भी चलते चक्के के साथ सहस्रों कोस की यात्रा कर लेगी!

ये जीवन के कुछ सुंदर रहस्य हैं, जिनसे हम घिरे हुए हैं!

पृथिवी गेंद की तरह गोल है और वह घूमती रहती है!

मनुष्य ने सोचा कि हो ना हो, पृथिवी भी किसी "धुरी" पर ही घूमती होगी।

किंतु पृथिवी की तो वैसी कोई "कील" थी नहीं, या शायद उसे भौतिक आंखों से देखा नहीं जा सकता था।

तो मनुष्य ने एक "धुरी" की कल्पना की, जो पृथिवी का "अक्ष" थी। उसके आधार पर "उत्तरी" और "दक्षिणी", दो "ध्रुव" स्वीकारे गए।

"उत्तरी ध्रुव" से सीधी रेखा में जो तारा आकाश में हमेशा दिखलाई देता था, उसको मनुष्य ने "ध्रुवतारा" कहकर पुकारा।

पुराने वक़्तों में जब यात्रिक लम्बी दूरी की यात्राओं पर निकलते थे तो इसी "ध्रुवतारे" को देखकर अपनी दिशा तय करते थे!

"ध्रुवतारे" को अनेक संस्कृतियों में अनेक नामों से पुकारा गया।

उसे "उत्तरी तारा" कहा गया यानी "नॉर्थ स्टार"। उसे "पोलारिस" कहा गया, यानी "पोल स्टार"। अरबों ने उसे "नजूम-अल-शुमाली" कहा। फ़ारसी में इसे "क़ुतबी सितारा" कहा गया। चीन देश ने उसे "राजनक्षत्र" की संज्ञा दी।

जिस संसार में सबकुछ क्षणभंगुर था, सब कुछ मरणधर्मा था, पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश! उसमें आकाश में टंगा "ध्रुवतारा" मनुष्य को पूर्णता का संतोष देता था।

चाहे जो हो, यह "ध्रुवतारा" हमेशा आकाश में उसी स्थान पर स्थित रहेगा, अपनी अपनी नौकाओं में अपनी अज्ञात नियतियों की ओर चलते यात्री सोचा करते थे, और इसी विश्वास के आसरे चैन की नींद सो जाया करते थे।

ये तो बहुत बाद में पता चला कि आकाश में कोई एक "ध्रुवतारा" नहीं था, कई "ध्रुवतारे" थे।

तब मनुष्य का अंतस् कांप ना गया होगा?

"शेष" का फन डोल गया। धुरी डिग गई!

"ध्रुवतारा" भी एक नहीं था। "ध्रुवतारा" भी अटल नहीं था!

ज्ञान एक क़िस्म का मरण ही है!

कभी "अल्फ़ा" ध्रुवतारा बन जाता, कभी "बीटा"। कभी "पोलारिस" ध्रुवतारा कहलाता, कभी "वेगा"। कभी "क्रतु" ध्रुवतारा तो कभी "पुलह"।

पहले माना जाता था कि ध्रुवतारा "सप्तर्षि मंडल" में है, फिर मालूम हुआ कि वो तो "लघु सप्तर्षि मंडल" में है।

वैदिक काल में जिस "ध्रुवतारे" को मान्यता थी, वह "ध्रुवतारा" तो अब है ही नहीं।

ऐसा इसलिए कि पृथिवी की धुरी अहर्निश दोलती रहती है। वह अचल नहीं है। इससे उत्तरी तारा भी गतिमान रहता है।

धरती की धुरी 26 हज़ार वर्षों में अपना एक अग्रगमन पूर्ण करती है। इस अवधि में "ध्रुवतारा" भी बदल जाता है।

धरती धुरी पर दोलती है, धुरी किस पर दोलती है?

धुरी की धुरी भी तो कहीं होगी?

यह पता लगाए बिना मोक्ष नहीं है।

और, हमारी चेतना के किस बिंदु पर हमारी अस्ति का "ध्रुवतारा" दीपता है, यह जाने बिना भी मुक्ति नहीं मिलने वाली, बंधुवर!