रावण हत्था / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
रावण आदमी चाहे जैसा हो, लेकिन बाजा बहुत मगन होकर बजाता था! बाजा बजाकर कभी शिव कभी बुद्ध की उपासना करता।
लेकिन कौन-सा बाजा? बताते हैं कि रावण "रावण हत्था" नामक बाजा बजाता था। उसे रावण हस्त वीणा भी कहा गया है। यह कुछ-कुछ सारंगी जैसा दिखता है। पं. रामनारायण जी के अनुसार तो सारंगी रावण हत्था का ही संवर्धित रूप है। मालवा-निमाड़ जनपद में अब भी अलख निरंजन कहकर नाथपंथी भिक्षुक रावण हत्था लेकर ही भर्तृहरि-पिंगला के गीत सुनाते दिखाई दे जाते हैं।
हिंदुस्तान में चार बाजे गज से रगड़कर बजाए जाते हैं- इसराज, दिलरुबा, सारंगी और रावण-हत्था। एक पांच तार वाला गूजरी भी होता है, रावण हत्थे से छोटा बाजा। परदेश में इसी गज से वायलिन बजाई जाती है।
राजस्थान में अनेक क़िस्म के साज़ हैं। अलग-अलग जाति ने अलग-अलग बाजा पकड़ रखा है। जैसे कंजर लोग मंजीरा बजावैंगे, कालबेलिये पुंगी बजावैंगे, जोगी जन सारंगी बजावैंगे, मांगनियार लोग चिकारा बजावैंगे, और राणा लोग जीभर के पीटेंगे नगाड़ा। ऐसे ही रावण हत्था बजाते हैं भोपा लोग।
एक पाबूजी की फड़ होती है। चित्रों के माध्यम से सुनाई जाने वाली कथा। भोपे लोग रावण हत्था बजाकर पाबूजी की फड़ बांचते हैं। किंतु प्रश्न ये कि लंका से राजस्थान तक ये रावण हत्था पहुंचा कैसे?
तो कथा ये है कि राम-रावण युद्ध के बाद हनुमानजी लंका से रावण हत्था उठा लाए थे। राजस्थान तक वो कैसे पहुंचा, ये अब दूसरी कहानी है। हां, ये ज़रूर है कि राजस्थान में एक बीनकार घराना है। इस घराने के संगीतकार जयपुर के दरबार में वीणा बजाया करते थे। ये वाली वीणा कितनी रावण हस्तवीणा थी, यह पृथक से शोध का विषय।
मेरे एक आत्मीय अग्रज ने बतलाया कि रावण की पत्नी मंदोदरी जोधपुर के पास ही मंडोर या मंदसौर की थी। इन अर्थों में रावण की ससुराल राजस्थान के निकट ठहरती है। तो इसी तरह पहुंच गई होगी वीणा वहां पर मंदोदरी के साथ।
रावण शिव का महाउपासक था। हस्तवीणा बजाकर उनकी आराधना करता। एक बार शिवाराधन में वीणा के तारों के टूट जाने पर रावण ने अपनी जांघों की नसों को वीणा में बांध दिया था और इस प्रकार अर्चना पूरी की थी, वैसा वर्णन मिलता है। शिव के उपासक तो श्रीराम भी थे। सेतु बांधने से पूर्व रामेश्वरम् में शिवलिंग का पूजन उन्होंने किया था। युद्ध में श्रीराम की विजय हुई, अतैव उनकी आराधना अधिक शुद्ध रही होगी।
कृष्ण बांसुरी बजाते थे, अर्जुन शंख बजाता था, रावण हस्तवीणा बजाता था, किंतु श्रीराम कोई वाद्य बजाते हों, वैसा वर्णन मुझे तो नहीं स्मरण। संगीत से उन्हें प्रेम रहा हो, यह भी मालूम नहीं। धनुष की टंकार ही उनके लिए सबसे मधुर संगीत रहा होगा।
ऊपर मैंने लिखा है कि रावण शिव और बुद्ध दोनों की उपासना करता था। शिव तो ठीक है, किंतु बुद्ध कैसे? मुझे तो मालूम नहीं। ना ही इन दोनों के काल की गणना मेरे पास है। किंतु जो कह रहा हूं, वो निरा निराधार भी नहीं है।
"लंकावतार सूत्र" करके बौद्ध महायानों का एक लब्धप्रतिष्ठ ग्रंथ है। इसमें बुद्ध (शाक्यमुनि नहीं बल्कि महामति बोधिसत्व) लंकाधिपति रावण को बौद्ध योगाचार और विज्ञान का उपदेश देते हैं।
"लंकावतार सूत्र" के "प्रथम परिवर्त" में वर्णन है कि मलय पर्वत पर लंकाधिपति ने तथागत की वंदना की। उनकी प्रदक्षिणा कर उसने "वैदूर्य" मणि से सज्जित अपनी वीणा को "इंद्रनीलमय दंड" से "सहर्ष्य", "ऋषभ", "गांधार", "धैवत", "निषाद", "मध्यम", "कैशिक" स्वरों में बजाया।
यह वर्णन बहुत सारे संशय स्पष्ट करता है।
अव्वल तो ये कि रावण कुशल संगीतज्ञ था। दूसरे यह कि रावण वीणा बजाता था, किंतु वो शास्त्रीय वीणा नहीं थी, जो कि षड्जग्राम की वीणा कहलाती है। वो मध्यमग्राम की वीणा बजा रहा था, जो रावण हत्थे जैसी रही होगी।
और सबसे बढ़कर सूचना यह कि रावण वैदूर्य मणि से सज्जित अपनी वीणा को इंद्रनीलमय दंड से बजा रहा था। अब तो पक्का वो रावण हत्था ही बजा रहा था। यही इंद्रनीलमय दंड आज गज कहलाता है, जिससे सारंगी, इसराज, दिलरुबा भी बजते हैं।
तो ये कथा तो पूरी हुई, किंतु नया कौतुक उठ खड़ा हुआ।
ऋषभ, गांधार, धैवत, निषाद और मध्यम - ये पांच सुर तो ठीक हैं। किंतु ये सहर्ष्य और कैशिक क्या बला है?
इस प्रश्न का उत्तर "द जर्नल ऑफ़ म्यूज़िक एकेडमी" (मद्रास, 1945) में प्रकाशित प्रो. वी.एस.अप्पाराव के एक लेख में मिला, जिसमें उन्होंने बतलाया है कि "सहर्ष्य" "षड्ज" का ही एक प्राचीन नाम रहा होगा, वहीं "कैशिक" "पंचम" स्वर है। दोनों ही शुद्ध स्वर, ना कोमल, ना तीव्र। तानपूरे के वादी और सम्वादी!
इतने विमर्श के बाद मन रूखा हो गया हो तो थोड़ा-सा रावण हत्था सुन लीजिए। तंत्रकारी से तरंगायित हो सजल हो उठेगा मन। किंतु अभी इतना ही।