गंगा / सुनो बकुल / सुशोभित

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गंगा
सुशोभित


गंगा कोई भौतिक जलधारा नहीं, वह मिथकों, दंतकथाओं और किंवदंतियों की नदी है।

लेकिन गंगा का जो एक मिथक मुझे लगातार मथता है, वह यह है कि वह चिरंतन "मध्य" की धारा है।

ऐसे तो हर नदी अपने उद्गम और विसर्जन पर अनेक शाखाओं का संकलन होती है, किंतु गंगा के संदर्भ में यह रूपक बहुत दूर तक खिंच गया है।

वस्तुत: जिसे हम गंगा नदी कहते हैं, वह एक "मध्यवर्ती" नदी है, उसके दोनों छोर "गंगा-रूप" में नहीं हैं।

अपने उद्गम में गंगा नदी "गंगा" नहीं कहलाती, विसर्जन में भी "गंगा" नहीं कहलाती। वह अनेक धाराओं से मिलकर बनती है और अनेक धाराओं में टूट जाती है।

इस उद्गम और विसर्जन के "मध्य" में वह हमें सींचती और पोसती है। वह प्राणदात्री है, जबकि एक अर्थ में वह स्वयं "निर्वंश" है।

जैसा कि आचार्य नागार्जुन ने "मूलमाध्यमिककारिका" में कहा था : "न उच्‍छेद है न शाश्‍वत है, न आगम है न निर्गम है, ना निरोध है न उत्पाद है।" वही गंगा के बारे में सोचते हुए भी मुझे अनुभव होता है।

वह "महायान" की "माध्यमिक" नदी है : उच्छेद और शाश्वत के परे!

गोमुख से "भागीरथी" निकलती है, गंगा नहीं।

समुद्र में "हुगली" और "मेघना" मिलती हैं, गंगा नहीं।

"देवप्रयाग" में "भागीरथी" से "अलकनंदा" मिलती है। अढ़ाई सौ कोस वह चल चुकी होती है, तब जाकर पहले-पहल "गंगा" कहलाती है।

लेकिन स्वयं अलकनंदा को गंगा की मूल धारा मानने वाले बहुतेरे हैं। आख़ि‍‍र "पंचप्रयाग" अलकनंदा के ही तो तट पर हैं। "देवप्रयाग" में भी अलकनंदा की धारा अधि‍क भास्वर है, लेकिन गंगा का पर्याय भागीरथी ही कहलाई है।

सोन, गंडक, घाघरा, कोसी की अथाह जलराशि को अपने में गंगा समाहित करती है। "प्रयागराज" में यमुना को। यमुना की जलराशि गंगा से अधि‍क बताई है, लेकिन अलकनंदा की तरह वह भी गंगा के परिचय में अपना परिचय मिला देती है।

आगे गंगा फिर दो धारा में टूटती है : एक धारा फिर "भागीरथी" (हुगली) कहलाती है। दूसरी धारा "पद्मा" कहलाती है। गंगा कहीं खो जाती है।

भागीरथी का सागर-संगम कलकत्ते के बाद है। बंगदेश में पद्मा हहराती है। यहां उसमें फिर एक "जमुना" आकर मिलती है। ब्रह्मपुत्र जैसा महानद पद्मा में मिलता है फिर भी पद्मा पद्मा ही कहलाती है। फिर यह पद्मा मेघना में मिलकर "मेघना" हो जाती है।

इसी रीति से दीर्घ लघु में अपना अस्त‍ि‍त्व खोता रहता है।

गंगा का विसर्जन भी वैसा ही स्वरबहुल है, जैसा कि उसका उद्गम। वैसा ही "पोलिफ़ोनिक"। गंगा अपने उद्गम और विसर्जन के बीच में है : सम पर बहती, मध्य की लय में। वह दो असंभावनाओं का "मध्य" है।

पुराणों में कहा गया है कि शिव ने अपनी जटा से गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया था, जिनमें तीन नलिनी, ह्लदिनी एवं पावनी पूर्व की ओर, तीन सीता, चक्षुस एवं सिन्धु पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भागीरथी हुई।

वहीं "वराह पुराण" का कथन है कि गंगा सर्वप्रथम सीता, अलकनंदा, सुचक्ष एवं भद्रा नामक चार विभिन्न धाराओं में बहती है। अलकनंदा दक्षिण की ओर बहती है, भारतवर्ष की ओर आती है और सप्तमुखों में होकर समुद्र में गिरती है।

इतनी गंगा हैं!

ऐसा लगता है भारतभूमि के हर हिंदू मन की अपनी एक गंगा है!

"सुमेरु" पर्वत का मिथ यह है कि उसे कहीं खोजा नहीं जा सका।

"द्वारिका" नगरी का मिथ यह है कि वह समुद्र में प्लावित हो रही।

"सरस्वती" और "दृषद्वती" नदियों का मिथ यह है कि वे लुप्त हो गईं।

लेकिन "गंगा" अपने प्रस्तुत में अप्रस्तुत को जीती है। अपने प्रकट में अपने लोप को। अपने अद्वैत में अपने अनेक को। गंगा का मिथक यह है कि वह है किंतु उसे कैसे चीन्हें, किस नाम से पुकारें, किस संज्ञा से अभिहित करें, गंगा का कौन-सा एक विग्रह अपने मन के भीतर बनाएं।

अनगिन धाराओं से बनी और अगणि‍त शाखाओं में टूटी यह पुण्यधारा भारत का प्राण है।