कबीर का निर्गुण / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
तारसप्तक को चींथती कुमार गंधर्व की आवाज़ तानपूरे के निरपेक्ष पर्यवेक्षण में निर्गुण का अनुगूंज भरा परिवेश रचती थी।
कुमार अकसर कहते थे- जो तेरी भाषा है, वो मेरी भाषा नहीं है रे। तेरा "म" और मेरा "म" अलग है। तेरा "म" तो मम् है, मैं है, और मेरा "म" मा है, मध्यम है, शुद्ध कल्याण के अवरोह में जिसका प्रयोग वर्जित!
कुमार गंधर्व कबीर का निर्गुण गाते थे।
कुमार की ही तरह कबीर की भाषा भी अलग थी। वो वही नहीं थी, जो हमारी भाषा है। जो हमारे स्वर-संयोग हैं, वे कबीर के स्वर-संयोग नहीं थे।
कुमार कबीर का सबद गाते थे- "उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला!"
ये हंस वही हंस नहीं है, जिसे हम जानते हैं। मानसरोवर वाला राजहंस। कबीर का हंस अलग है। वो हमारी चेतना का अंश है। जो परम चैतन्य होने पर "परमहंस" कहलाती है।
"गगन घटा गहरानी" : यह सावन के बादल नहीं हैं, ये अनहद की गूंजों से भरे धूमहीन मेघ हैं।
"गगनमंडल" : यह आकाश नहीं है, यह सहस्रार है। सहस्रदलउत्पल है!
"अाठ कंवलदल" : ये ताल में खिले कमल के फूल नहीं हैं, ये सूक्ष्म काया के अाठ चक्र हैं! कुछ योगी सात ही चक्र गिनते हैं!
"इंगला-पिंगला ताना भरनी" : यह कोई चरखे का ताना-बाना नहीं है, यह इड़ा पिंगला नाड़ियों का ऊर्जा-संचार है।
"सुखमन तार से बीनी चदरिया" : यह सुखमन तार जो है, वो सुषुम्ना में दौड़ने वाली कुंडलिनी का दुर्ग्रहीत सर्प है।
"औघट" : यह बनारस का मणिकर्णिका नहीं है, यह औघट का घाट है।
कबीर की भाषा लौकिक नहीं, उनके प्रतीक और रूपक लौकिक नहीं, कबीर को लौकिक मानदंडों से आप नहीं तौल सकते। हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जैसे मूर्धन्य को कबीर को तौलने के लिए हठयोगियों की पारिभाषिक शब्दावलियों में गहरे पैठ बनाना पड़ी थी।
किंतु वितंडा से भरा यह संसार हमें निरंतर चकित करने की अद्भुत क्षमता रखता है।
अभी दो दिन पहले तक मेरे जैसे प्रच्छन्न कबीरपंथी को ही यह मालूम नहीं था कि कबीर हिंदुओं के लिए त्याज्य हैं, कि कबीर को चादर चढ़ाकर दलितों-पिछड़ों के वोट जीते जा सकते हैं, कि कबीर स्त्रीविरोधी हैं, कि कबीर "ओवररेटेड" हैं।
कबीर ने जिसे "संतो देखो जग बौराना" कहा है, ये ठीक वही बात है। जग बौरा गया है।
पहली बात ये है कि आप कबीर को एक एनजीओ एक्टिविस्ट की तरह देखना बंद करें, एक सोशल रिफ़ॉर्मर की तरह, एक पोलिटिकल पार्टी के नेता की तरह, जिसके द्वारा दिए गए बयानों पर आपको फ़ेसबुक पर पोस्ट लिखना है। आप अपनी लौकिक बुद्धि से उस आदमी को नहीं उलीच सकते।
दूसरे, कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। वो ज़माना भी आजकल के जैसे पढ़े-लिखों का नहीं था। अस्मिता की चिंता से भरा डिक्शन और जार्गन्स उस वक़्त की ज़रूरत नहीं माने जाते थे। "मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही नहीं हाथ"।
कबीर आंखन देखी कहते थे, कागद लेखी नहीं। अकसर, वे रूपकों की भाषा में बोलते। अकसर, उनके तर्क दाएं-बाएं हो जाते। अकसर, उनके संदर्भ डगमगा जाते। लेकिन वो कोई सोशल साइंटिस्ट नहीं थे, जिन्हें पोलिटिकल करेक्टनेस पर कोई सटीक थिसीस तैयार करना थी। वे एक हठयोगी थे और अपने अन्य समकालीन हठयोगियों की तुलना में उन्हें समाज में न्यस्त अन्याय और मूढ़ता पर अधिक क्रोध आता था- बिरहमन हो या तुर्क, किसी को भी वे बख़्शते नहीं थे।
कबीर की जिन बातों को "मिसोजिनिस्ट" या स्त्री-विरोधी कहकर प्रचारित किया जाता है, उनमें मुहावरों की वह असावधानी है, जो उस ज़माने के लोकव्यवहार का हिस्सा थी। चार पुरुषार्थों में से दो "अर्थ" और "काम" को रूपायित करने के लिए "कंचन" और "कामिनी" का द्वैत तब बनता था। "जर-जोरू-जमीन" की त्रयी बनती थी। आज उसको "ऑब्जिक्टिफ़िकेशन ऑफ़ वीमन" कहेंगे। कह लीजिए! ये वर्तमान दौर है, आइडेंटिटी की राजनीति के अतिरेक से भरा हुआ। ये वो ज़माना है, जब कान मरोड़े जाने पर बच्चे भी रोते नहीं, माता-पिता को यह धमकी देते हैं कि आपने मेरी अस्मिता का हनन किया है।
लेकिन कबीर "नरक का कुआं" की बात करते समय "मूलाधार चक्र" को इंगित करते थे, नारी को नरक नहीं बतलाते थे! उस युग की भाषा उस तरह से स्त्री-द्वेष से नहीं भरी थी, जैसी कि आप कल्पना करते हैं। कबीर स्त्रियों को प्रताड़ित करने के नित-नए तरीक़े नहीं सोचा करते थे। वे इन सब बातों से बहुत ऊपर थे।
कबीर किस जात के थे, यह किसी को पता नहीं है। मुस्लिम जुलाहों ने उन्हें पाला-पोसा था। लेकिन रामभक्तिधारा के गुरु रामानंदाचार्य के वे शिष्य भी थे। अगर कबीर निर्गुणोपासक थे, तो यह भी उन्हें सनातन परम्परा से विच्छिन्न नहीं करता। सनातन परम्परा में निर्गुण-सगुण को लेकर कोई प्रपंच नहीं है। द्वैतवादियों का ईश्वर सगुण है, अद्वैतवादियों का ईश्वर निराकार है। बौद्धों का अनित्य और जैनों का अनेकांत भी सनातन परम्परा में स्वीकृत है। चार्वाकों का अनीश्वरवाद और भौतिकवाद तक स्वीकार है।
केवल एक चीज़ ऐसी है, जिसकी कोई अनुगूंज सनातन परम्परा में नहीं मिलती, वह है एकेश्वरवाद। यह अब्राहमिक मज़हबों की उपज है। किंतु कबीर का हठयोग और निराकार ब्रह्म पूर्णरूपेण सनातन परम्परा का हिस्सा है। मुसलमान अगर उनकी मज़ार बनाते हैं तो कबीरपंथी उनके मंदिर भी बनाते हैं। वे दोनों के हैं। क्योंकि वे दोनों से परे हैं। कबीर को आप फ़िरकापरस्ती के चश्मे से नहीं देख सकते।
मुझे दो दिन पहले एक महिला का वह स्टेटस देखकर गहरी ठेस पहुंची- "कबीर ओवररेटेड हैं।" जैसे कि हम लोग यहां बैठकर कबीर को रेटिंग देने की पात्रता रखते हैं!
सोशल मीडिया ने जिन अनेकानेक भ्रमों को रचा है, उनमें से एक यह भी है कि आप चाहे जहां बैठकर, चाहे जो बयान दे सकते हैं।
फ़ेसबुक पर बैठकर आप कबीर को "ओवररेटेड" बोल सकते हैं, शांतिनिकेतन में हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के सम्मुख बोलकर बतलाइए। वे आपसे इस कथन की विवेचना मांगेंगे, और आपके पास बात करने के लिए कोई परिप्रेक्ष्य नहीं होगा।
आप तो "इंगला-पिंगला ताना भरनी सुखमन तार से बीनी चदरिया" की ही विवेचना एक पूरे जन्म में नहीं कर पाएंगे, कबीर के बारे में निर्णय करना तो दूर की बात।
सुनो भाई साधो, कबीर को अपनी अपनी संकीर्णताओं से कृपया दूर ही रखो।
साहेब, बंदगी!