पुनर्भव / भाग-10 / कमलेश पुण्यार्क

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मीना रोष में बकती रही। मन की भड़ास निकालती रही। परन्तु उसके रोष में भी विमल को तोष ही मिल रहा था। कारण कि मीना उसके अहं प्रश्न का सही उत्तर सच्चाई पूर्वक स्पष्ट रूप से दे चुकी थी। उसे जो जानना था, वह सहज ही स्वीकार कर गयी। अतः हँसने लगा मीना के भोलेपन पर।

किन्तु मीना बेचारी को सन्तोष और विश्वास कैसे हो जाय, विमल की बातों पर? वह सोचने लगती है- ‘जो कुछ भी कह रहा है विमल, क्या मैं ऐसा कर सकती हूँ? मानसिक रूप से...मौन रूप से...छिप-छिप कर तो ठीक...पर क्या इतनी बेशर्मी से, इतनी बेहयाई से.....? ’- घबरायी हुयी सी मीना पुनः सोचने को विव्य होती है-

‘....तो क्या अन्तः आलोड़ित प्रेम, चेतन से जब पूरा न हुआ तो अचेतन को माध्यम बनाया, परितृप्ति का? यह कैसे सम्भव है? ...विमल कहता है कि मैं नींद में नहीं, बल्कि पूरे होश में थी उस दिन...ओफ! क्या हो रहा है यह सब? क्या होता जा रहा है मुझे? विमल के कथन में कहाँ तक सच्चाई है...हे भगवान! मुझे शक्ति दो परख सकने की स्वयं को....। ’

मीना पागलों सी बड़बड़ाने लगी। सिर धुनने लगी। विमल भौंचंका, उसका मुंह ताकने लगा। उसे समझ न आ रहा था कि यह सब क्या पहेली है।

‘क्या सच में मीना उस दिन नहीं लिपटी थी? क्या मुझे ही धोखा हुआ? पर नहीं, धोखा कैसे कहूँ? ’- विमल विचारमग्न हो गया।

अचानक ध्यान आया गाड़ी की गति का- ‘यह क्या, घंटे भर में मील भर भी नहीं? खैर कहो कि देहात की सूनी सड़क....। ’


गाड़ी रफ्तार पकड़ी। फिर भी माधोपुर पहुँचते-पहुँचते सूर्य अस्ताचल जाने को उतावले हो गये। और उतावला, थोड़ा विमल भी दीखा।

‘काफी देर हो गयी है। आज रात यहीं ठहर जाओ न। उस बार भी कहती रही थी, किन्तु रूके नहीं। ’- गाड़ी से उतरती हुयी कहा मीना ने।

‘नहीं मीनू! परसों ही कॉलेज खुल रहा है। कल हर हाल में चले ही जाना चाहिए। ’- विमल ने असमर्थता जातायी।

गाड़ी की आहट सुन तिवारी जी बाहर निकल आए- ‘वाह, आ गए तुम लोग? ’

‘आ तो गयी, पर विमल तुरत जा रहा है। ’- मीना ने तिवारी जी की ओर देख कर कहा। मानों उलाहना दे रही हो।

‘क्यों? अभी आए, अभी ही जाने भी लगे? शाम हो गयी है। दिक्कत क्या है? रूको आज रात। ’- तिवारी जी ने आग्रह पूर्वक कहा।

‘नहीं वापू! मैं कह चुकी पहले ही, किन्तु कहता है कि कॉलेज खुल रहा है। जाना जरूरी है। ’

मीना की बात पर ताड़ गये तिवारी जी- ‘वाह! क्या तुम्हारे कॉलेज में गर्मी की छुट्टी सिर्फ पन्द्रह दिनों का ही होता है? ’

‘नहीं वापू! वस्तुतः कॉलेज खुलने में अभी देर है, किन्तु स्पेशल क्लासेज परसों से ही शुरू हो रहे हैं। फॉर्म भी भरना है। पार्ट वन की परीक्षा इसी बार तो देनी है। अतः पढ़ाई पर ध्यान देना जरूरी है। ’- कहता हुआ विमल तिवारी जी का आग्रह स्वीकार कर अन्दर आ गया। मीना पहले ही जा चुकी थी।

थोड़ी देर में मीना चाय और कुछ नमकीन लाकर रख गयी। चाय की चुस्की लेते हुए विमल ने कहा- ‘तब वापू, कैसी रही आपकी वरदण्ड यात्रा? कहाँ-कहाँ घूमे? ’

‘रहेगी कैसी। आज के जमाने में बेटी का ब्याह करना चाँद पर चढ़ाई करने से कम थोड़े जो है। ’- चाय की घूंट भरते हुए तिवारी जी कहने लगे- ‘उस दिन तुमलोगों के जाने के बाद, मैं चला गया था-प्यारेपुर, निर्मल ओझा के यहाँ। साथ में पदारथ भाई भी थे। पर क्या कहें, जन्मान्ध का नाम ‘नयनसुख’ रख दिया गया हो, वैसा ही महसूस हुआ। नाम है- निर्मल ओझा, और गुण- ‘मलबोझा’। ’

तिवारीजी की बात पर विमल ठठा कर हँस पड़ा। दीवार की ओट में खड़ी, जिज्ञासु मीना मुंह में दुपट्टा दबा उन्मुक्त हँसी पर कर्फ्यू लगाने का विफल प्रयास करती रही।

तिवारीजी कह रहे थे- ‘हाँ बेटे! ठीक कह रहा हूँ। पहुँचते के साथ ही न तो पारम्परिक मर्यादा पूर्वक लोटे में पानी आया, और न पादुका। फिर जलपान की कौन कहे। स्वागत की अभागी अर्वाचीन पद्धति- चम्मच भर दूध-चीनी और जंगली पत्ती का काढ़ा भी नसीब न हुआ। ’

‘अच्छा, तो कम से कम चाय भी नहीं पिलायी महानुभाव ने? ’

‘बतुहारी परम्परा में चाय भी अब पुरानी पड़ गयी है। शहरों में तो गैस भी समय पर नहीं मिलता। देहात में धुआँ-धुक्कुड़ का जहमत कौन उठाये। अतः स्वागत में पेश हुआ लम्बा सा ‘कोश्चनायर’ यू.पी.एस.सी. कम्पीटीशन की तरह- ‘‘लड़की कितनी पढ़ी-लिखी है? गोरी है या काली ? लम्बी है या नाटी? मोटी है या पतली? ऊँचाई कितनी है ? कमर कितनी है ? आँखें बड़ी हैं या छोटी ? गर्दन लम्बा है या ठैंचा? नाक पंजाबियों जैसी ज्यादा लंबी और ऊँची तो नहीं है? दोनों नाक तो नहीं छेदवा ली है? चेहरे पर कोई तिल-मस्सा तो नहीं है ? होठ पतले हैं या मोटे ? आवाज मोटी है या पतली? गीत गौनयी जानती है या नहीं ? उपन्यास, रेडियो पत्रिका आदि का शौक रखती या नहीं ? सिलाई, कढ़ाई, बुनाई जानती है या नहीं ? यह-वह, न जाने क्या-क्या अल्लम-गल्लम सा सवाल। और सब कहने के बाद विरक्ति जताया श्रीमान जी ने- ‘देखिये तिवारी जी, सच पूछिये तो हमें क्या वास्ता इन सारी बातों से ? किन्तु आप जानते ही हैं कि आजकल के लड़के कितने....हाँ, एक बात और जो विशेष ध्यान देने योग्य है, वह यह कि मैं तिलक-दहेज का सख्त विरोधी हूँ। अभी हाल में ही हमलोगों ने एक सम्मेलन किया था, जिसमें शपथ लिया गया है- दहेज उन्मूलन का। मैं ही उस समिति का महामंत्री हूँ। हमलोगों की योजना है, इस आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी बनाने का....। "- -ओझाजी कहते जा रहे थे, मैं हाँ-हूँ करता जा रहा था। ’- तिवारीजी ने कहानी दुहरायी विमल से।

‘वाह! क्या खूब फरमाया ओझाजी ने। ’-विमल ने टिप्पणी की।

मायूसी पूर्वक तिवारी जी ने आगे कहा- ‘अभी कुछ और सुनो, ओझा जी की सुक्तियाँ- ‘‘देखिये तिवारीजी, आज हमारे समाज में दहेज कोढ़-सा रूप लेलिया है। अतः किसी संक्रामक बीमारी की तरह, इस जानलेवा प्रथा का भी समूल नाश जरूरी है। आवश्कता है मात्र, कुछ राष्ट्रभक्त समाज सेवी कर्मठ ईमानदार साहसी समाज सेवियों की। मैंने तो कशम खा ली है- दहेज एक पैसा भी न लेने की। ’- हाथ में जनेऊ लेकर शपथ ग्रहण की मुद्रा में कहा था ओझा जी ने। उनकी बात से कुछ ढाढ़स बंधी। मन ही मन श्रद्धा सी उमड़ आयी। ओझा जी ने आगे कहा-‘‘दरअसल पैसा तो हाथ का मैल है। इसे लेना न लेना बराबर। क्या होगा चंचला लक्ष्मी को लेकर? लेकिन रह गयी बात, सामाजिक मान मर्यादा की। आप जान ही रहे हैं कि समाज में कितनी प्रतिष्ठा है मेरी। वारात में गांव के चौधरी से लेकर जिलाधिकारी तक शामिल होंगे। दारोगा और बी.डी.ओ. की तो गिनती ही नहीं। अब जरा सोचिये न....इन प्रतिष्ठित पदाधिकारियों की प्रतिष्ठा का ध्यान तो रखना ही होगा न? इनसे रोज-रोज का सरोकार है। उन्हें आराम से लेजाने, ठहरने, खाने- पीने, सोने और साथ-साथ...समझ ही गये होंगे- कुछ मनोरंजन का साधन भी मुहैया करना ही होगा। रोज-रोज आपके दरवाजे पर थोड़े ही जायेंगे। "- इत्मीनान से बैठते हुए आगे कहा था उन्होंने - ‘‘एक बात और रह जाती है, ध्यान देने की- मैं न विरक्त हूँ, किन्तु लड़का...वह तो कुछ चाहेगा ही, खैर वह तो आपका परिवार ही हो जायेगा। उसकी खुशी-खयाली का ध्यान रखना तो आपका काम होगा। मैं क्यों सर खपाऊँ। फिर भी जानकारी दिये दे रहा हूँ- वैसे हमारा लड़का बिलकुल भोला-भाला है। आज की दुनियाँ में फिजूलखर्ची से कोसों दूर। फिर भी आखिर लड़का ही ठहरा। साथी-दोस्तों को देख कर कुछ तो शौक हो ही जाता है। कह रहा था कि सूट-बूट, घड़ी, अंगूठी, रेडियो-रेकॉडर, यह सब तो आम बात है। इतना तो लोग अपने मन से दे ही देते हैं। मांगने की क्या जरूरत। बस एक अच्छा सा टेलीवीजन दे देते, अभी तो इस पूरे इलाके में रेडियो भी बहुत घरों में नहीं है। दूसरी बात यह कि पेट्रोल बहुत मंहगा हो गया है। गाड़ी है जिनके यहाँ, वे भी बहुत कम ही चढ़ते हैं। अतः उसकी जगह सस्ता सुविधा वाला कोई अच्छा सा मोटर सायकिल ही दे देते...बस, लड़के की तरफ से हमें और कुछ नहीं कहना है। जेवर वगैरह तो आप अपने ढंग से बनवा ही लीजियेगा, लड़की के पसन्द का। ’

इसके साथ ही निर्मल ओझा का अनन्तसूत्री मांगपत्र पूरा हुआ, तब कहीं जाकर, पदारथ ओझा को बोलने का मौका मिला। सिर हिलाते हुये कहा उन्होंने- ‘हाँ-हाँ, युग के अनुसार तो चलना ही चाहिये, नहीं तो जगहशायी का भी तो खतरा है। रॉकेट युग में भी पदयात्रा का क्या तुक? तिस पर भी कोई खास मांग तो है नहीं आपका। खैर, कुण्डली दे देते तो हमलोग गणना विचार कर फिर आपकी सेवा में उपस्थित होते। ’

‘सो तो दे ही दूँगा। कुण्डली विचार तो अति आवश्यक है। अभी हम लोग इतने आधुनिक नहीं हुये हैं कि इस परम्परा को तोड़ दें। जिस प्रथा में सामाज का नुकशान है, उसे तो जड़-मूल से उखाड़ने का बीड़ा हमसब उठा ही लिए हैं। अब लीजिये न प्रसंग वश याद आ गयी- वैदिक काल में भी कन्या को ‘दुहिता’ कहा जाता था। यानी कन्यायें अपने पिता का दोहन करने वाली होती हैं। मैं इस कलंकपूर्ण संज्ञा को सदा के लिए समाप्त कर देने को कृतसंकल्प हूँ। अतः दहेज का प्रबल विरोध करता हूँ। ’- जरा ठहर कर ओझा जी ने आवाज लगायी थी, अपने छोटे बच्चे को, कुण्डली वाली कॉपी ले आने को।

‘थोड़ी देर बाद, कुण्डली लेकर पिंड छुड़ाया था हमलोगों ने उस कलयुगी दूत से। ’- कहा तिवारी जी ने- ‘ हालाकि शाम हो गयी थी, फिर भी चल देना ही उचित लगा। कौन जाने, जिस महापुरुष ने पानी तक भी नहीं पूछा, रात्रि भोजन का क्या भरोसा ? अतः चल ही दिया। देर रात पहुँचा उधमपुर। रात वितायी- पदारथ भाई के यहाँ। ’-तिवारीजी लम्बा-चौड़ा किस्सा सुना गये। विमल एकाग्रचित्त होकर

उनकी बातें सुनता रहा था, हाथ में चाय का खाली प्याला लिए, मानों अक्षत-पुष्प के वजाय प्याला ही हो निर्मल-पुराण का साक्षी-स्वरूप।

‘प्याला पकड़े ही हुए हो अभी तक? ’- मुस्कुराते हुए जब कहा तिवारी जी ने तब झट प्याला रख दिया उसने खाट के नीचे, और उठ खड़ा हुआ हाथ जोड़कर- ‘अच्छा तो अब आदेश दीजिये जाने का। ’

‘आदेश? ’- चौंक कर कहा तिवारीजी ने। कारण कि ‘पुराण कथन-श्रवण में समय इतना गुजर गया था कि वापस जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। कथा समाप्त जान कर मीना भी बाहर आगयी थी।

‘अब क्या ढकोशला कर रहे हो घर जाने का? यह भी कोई वक्त है, वापस जाने का? जाना ही था तो उसी समय क्यों नहीं चले गये थे, बिना चाय-वाय पीये ? तुम्हारे यहाँ इतने दिन रहती हूँ और एक रात में ही तुम्हारी......? ’- मुस्कुराती हुयी मीना ने मीठे उलाहने दिये।

‘...नानी मरती है। ’- धीरे से भुनभुनाया विमल ने और पलट कर तिवारी जी की ओर देखने लगा। उन्होंने भी मीना की बातों का समर्थन किया सिर हिला कर, और लोटा उठा बाहर निकल गये- सायं शौच हेतु। इधर निराला पाकर विमल को भी चुटकी लेने का अवसर मिल गया।

‘एक क्या, हजारों रात रह सकता हूँ-तुम्हारे यहाँ। पर यूँ हीं छूंछाछूंछा? ’-कहता हुआ विमल जोरों से हँस पड़ा, जो दूर जाते तिवारीजी के कानों को भी

गुदगुदा गया, और किसी कल्पना लोक में ढकेल गया। विमल की हँसी में प्रणय की चुस्की का पुट था, जिसका आशय समझ कर मीना ने शर्म से पलकें झुका ली।

‘अच्छा, गुजारते रहना हजारों रात। एक का ठिकाना नहीं, और हजारों की सोचने लगे। ’- कहती हुयी मीना रसोई की ओर जाने लगी, जहाँ चूल्हे पर सब्जी चढ़ा आयी थी।

‘प्यारेपुर वाला लड़का क्या करता है, तुम्हें कुछ पता है मीना? ’- मौका पा विमल ने फिर छेड़ा।

‘मुझे क्या पता, वह क्या करता है। ’-झुंझला कर मीना ने कहा।

‘क्यों फिजूल का परेशान कर रही हो वापू को मीनू? कहो तो मैं आज ही आवेदन प्रस्तुत कर दूँ। आज ही प्रस्ताव रख दूँ। इजहार कर दूँ। ’

‘तुम्हें जो करना है, करो। हमसे क्या इज़ाज़त लेना? ’- सब्जी चलाती हुयी मीना बोली- ‘तुम पर तो प्यार का भूत सवार हो गया है। ’

‘और तुम्हें नींद में, मदहोशी में लिपटने का.......? ’-विमल आगे कुछ कह न पाया, क्यों कि तिवारी जी के खाँसने की आवाज निकट जान पड़ी, फलतः दोनों चैतन्य हो गये। मीना रसोई के अन्य काम में लग गयी।

तिवारीजी और विमल बाहर सहवान में बैठ गये। विभिन्न विषयों पर चर्चा चल पड़ी, और तब तक चलती रही जब तक मीना ने रात्रि भोजन के लिए उन्हें आहूत न किया।

भोजन पर बैठते हुए तिवारीजी ने विमल से पूछा- ‘फिर इधर कब तक आओगे? ’

‘देखें कब तक आ पाता हूँ। अभी कुछ दिन और क्लास चलेगा। फिर, प्रीपरेशन लीभ में भी वहीं रह कर पढ़ाई करने का विचार है, क्यों कि घर पर पढ़ाई-लिखाई ठीक से हो नहीं पाती। आगे जब तक परीक्षा समाप्त नहीं हो जाती, घर आना सम्भव नहीं लगता। ’- विमल ने कहा।

‘खैर, आते रहना चहिए। मिलते-जुलते रहने से सम्पर्क-सूत्र की तानी-भरनी बनी रहती है। ’- भोजन प्रारम्भ करते हुए कहा तिवारीजी ने।

भोजनोपरान्त भी काफी देर तक इधर-उधर की बातें होती रही, कुछ विमल के वर्तमान और भविष्य के विषय में कुछ मीना के सम्बन्ध में। इसी क्रम में तिवारी जी ने अपनी चिन्ता व्यक्त की।

‘देखें, मीना का भाग्य-पट कब खुल पाता है। निर्मल ओझा जैसे धन-लोलुपों से तो दुनियाँ भरी पड़ी है। हर कोई दोहरे व्यक्तित्त्व वाला है। हाथी के दांत की तरह, मानव व्यक्तित्त्व का मुखौटा पर मुखौटा चढ़ाये हुए है। बाहर कुछ, भीतर कुछ। आज हर इनसान त्रस्त है। कहीं सुख-शान्ति नहीं चाहे वह राह का भिखारी हो या करोड़पति....खैर, ऐसी ही दुनियाँ में किसी तरह रहना ही है.....। ’

तिवारीजी अपने धुन में मस्त थे। दुनियाँदारी पर व्याख्यान झाड़े चले जा रहे थे। किन्तु इधर विमल का अन्तर मन कुरेद रहा था। उसे बारबार इच्छा हो रही थी- कह देने की, हल कर देने की तिवारीजी की समस्या। उसका मन कह रहा था, व्याकुल हो रहा था- प्रकट होने को- कह दो, कि विमल मीना से प्यार करता है। वह शादी के लिए तैयार बैठा है। उसे दौलत नहीं चाहिए। उसे चाहिए सिर्फ तिवारी जी का स्नेह पूर्ण विश्वास और मीना का विश्वास पूर्ण स्नेह।

विमल सोचता रहा। अपने मन से संघर्ष करता रहा। पर कह न सका। बातों ही बातों में तिवारी जी को नींद आ गयी, पर विमल सारी रात करवटें ही बदलते रहा। लड़ता रहा- अपने आप से। यहाँ तक कि सबेरा हो गया, और मुंह-हाथ धोकर, चाय पीकर, चल देना पड़ा अपने घर; बिना कुछ जाहिर किये ही।


विमल चला गया सो चला ही गया। परिस्थियों ने निकट क्या, लम्बे भविष्य में भी आने का अवसर न दिया।

समय चलता रहा। घड़ी की टिक-टिक की नौकरी बजाता रहा, बन्धुये मजदूर की तरह। एक...दो...तीन कर मास ही नहीं वर्ष भी गुजर गये। सूर्योदय होते रहे। सूर्यास्त भी होते ही रहे। जाड़ा-गर्मी और बरसात का क्या कहना, उसे तो होना ही था। पतझड़ ने पत्र-दान दिये, वसन्त ने किसलय का अनुदान भी पाया।

मीना उच्चत्तर माध्यमिक की परीक्षा, प्रथम श्रेणी में भी काफी अच्छे अंक प्राति के साथ उत्तीर्ण की। चुपके से, धीरे-धीरे पांव दबा कर आने वाला यौवन अब उसके सीने पर आकर कलियनाग सा फन फैला, फुफकारने लगा, जो पल भर में ही किसी भोले युवक को डस कर मदहोश करने में पूरी तरह कामयाब है।

तिवारी जी अपनी शैक्षिक सेवा से अवकाश पा निराश हो, घर बैठ गये। इस बीच उनकी कई जोड़ी जूतियाँ ‘वरान्वेषण यज्ज्ञ’ में आहूत हुयी। किन्तु फलावाप्ति न हुयी। अधिकांशतः आड़े आया- दहेज दानव। तिवारी के दिल का नासूर रिसता रहा- पक्के घड़े के रन्ध्रों की तरह। पर उनमें शीतलता कहाँ थी, जो मीना के यौवन को तृप्त कर सके।

मीना की पढ़ाई को स्कूल से आगे कॉलेज तक पहुँचाने हेतु निर्मल उपाध्याय जी ने कई बार सुझाव दिये- ‘क्यों तिवारीजी, मीना बेटी की शादी के लिए जितना चिन्तित और प्रयास रत हैं, उतना आगे की पढ़ाई पर क्यों नहीं विचार करते? ’

किन्तु, समाजिक मर्यादा में जकड़े हुए, तिवारीजी को सयानी लड़की को महाविद्यालय के छात्रावास में रखकर पढ़ाना उचित नहीं जँच रहा था। प्रीतमपुर पहुँचकर विमल के बारे में पूछने पर पता चला था कि उसकी पढ़ाई का सिलसिला, बीच में कुछ बिगड़ गया था। अन्यान्य विषयों में उलझ कर काफी समय बरबाद किया। खैर इस बार तो स्नातक हो चुका- जानकर तिवारीजी को प्रसन्नता हुयी थी-

‘चलिए, थोड़ा बचपना ही सही। सफल तो हुआ। इधर बहुत दिनों से उससे मुलाकात भी नहीं हो पायी है। कहाँ रह रहा है आजकल.....? ’

‘परीक्षा देने के बाद तुरन्त चला गया था दिल्ली। फ्लाइंग क्लब ज्वायन किया है न। बहुत दिनों से उड्डयन कर भूत सवार था। इस बार उसकी मनोकामना पूरी हुयी है। अब जल्दी ही आने वाला है। यहाँ आ जाने पर, आपके यहाँ न जाये- यह तो असम्भव है। ’- उपाध्यायजी ने विमल के कार्यक्रम की जानकारी दी।

तिवारी जी ने कहा-‘खैर, अब आ रहा है, तो भेंट हो ही जायेगी। मीना भी याद कर रही थी। कहती थी कि कहाँ क्या कर रहा है, जरा चिट्ठी-पत्री से भी जानकारी नहीं देता। ’

‘क्या कहें तिवारीजी!’- पान का बीड़ा मुंह में दबाते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘वह अपनी आदत से लाचार है। इतने दिन हो गए हैं, यहाँ भी कोई पत्र नहीं दिया है। खैर कहिये कि कोई न कोई अकसर आते-जाते रहता है, जिससे समाचार मिल जाता है। अन्यथा मुझे भी चिन्ता होती। कहता है कि पत्राचार से एकान्त प्रवास में बाधा उत्पन्न होती है। पत्र आने पर घर भागने का मन करने लगता है। ’

इस बात पर दोनों मित्र हँसने लगे थे। तिवारी जी जब चलने लगे तब उपाध्यायजी ने कहा -‘मुझे भी बड़ी इच्छा हो रही है मीना बेटी को देखने की। विमल आ जाय तो उसे ही भेजूँगा माधोपुर। आपसे भेंट भी कर लेगा और मीना को लिवा लायेगा। ’

तिवारी जी के प्रीतमपुर से प्रस्थान के कुछ देर बाद ही अचानक आ पहुँचे- पदारथ ओझा को साथ लिए पंडित रामदीन।

पहुँचते के साथ ही पंडितजी ने अपने तान्त्रिक प्रतिष्ठा का पिटारा जबरन खोल कर रख दिया। बीच-बीच में पदारथ ओझा घी-शक्कर उढेलते रहे। लम्बी व्याख्यान के बाद आगमन का उद्देश्य प्रकट किये कि विमल बेटे की जन्म कुण्डली हेतु आना हुआ है-‘क्या ही अच्छा होता हम दोनों ‘समधी’ बन जाते। मेरी तो बस एक मात्र पुत्री है। मैं लड़का और लड़की में जरा भी फर्क नहीं समझता। संकल्प कर लिया हूँ- सारी सम्पत्ति उसे ही दे डालने को। ’

साश्चर्य पूछा उपाध्यायजी ने-‘एक लड़का भी है न आपका? ’

‘सो तो है ही। पर ‘पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय, में मेरी आस्था है। वैसे भी लड़की को जितना दूँगा, उससे कहीं ज्यादा फिर इकट्ठा हो जायेगा- चूकि अभी मेरे हाथ-पांव चल रहे हैं, ईश्वर कृपा से। ’

इसी तरह की बातें होती रहीं। निर्मलजी कुछ सोच न पा रहे थे कि क्या कहा जाय इस दौलत के अंधे भूत को।

बड़े सोच विचार के बाद उन्होंने कहा- ‘पंडितजी! सच पूछिये तो अभी दो-तीन साल तक मैं विमल की शादी के पक्ष में हूँ ही नहीं। विमल भी कहता है

कि जब तक कोई अच्छा स्थान न बना ले शादी नहीं करेगा। और आप ठहरे लड़की वाले। एक अदने लड़के के लिए नाहक तीन साल इन्तजार क्यों करना!’ ‘यदि आप वचन दें तो तीन क्या तेरह साल मैं इन्तजार कर लूँ। ’- दांत निपोरते हुए रामदीन पंडित ने कहा।

‘नहीं....नहीं....वचन वद्धता के पक्ष में मैं नहीं हूँ। बस आप इतना विश्वास रखें कि आपको प्राथमिकता अवश्य दी जायेगी मेरी ओर से। ’- किसी तरह बात समाप्त करने का प्रयास किया उपाध्याय जी ने।

कुछ देर और अन्यमनष्क सा गपशप करने के बाद दोनों मित्र निराश हो अपने-अपने स्थान को लौट गये।

तीसरे ही दिन विमल अपने लम्बे प्रवास के बाद घर पहुँचा। किसी तरह रात बितायी भाभियों के सानिध्य में, और अगली सुबह ही चल दिया- माधोपुर मीना से मिलने।

हालाकि इस लम्बे अन्तराल में भी वह क्षणभर के लिए भी मीना को विसारा नहीं था। कोई अन्य पंकजाक्षी उसके दिल में पैठ भी न पा सकी थी। किन्तु पिछली मुलाकात में मीना के अस्पष्ट निर्णय ने उसके दिल को थोड़ा झटका भी दिया था। उसे थोड़ी मानसिक चोट भी लगी थी। अतः मन ही मन सोच रखा था कि अबकी बार लम्बी इन्तजार कराऊँगा उसे। सो उसने कराया भी। क्यों कि विमल जान गया था कि मीना भी उसे उतना ही चाहती है। सिर्फ वय की न्यूनता और आर्थिक विपन्नता के कारण ही कुछ स्पष्ट कह नहीं पाती।

विमल की ओर से देर और लापरवाही का एक और भी कारण रहा- अध्ययन सम्बन्धी व्यस्तता, साथ ही लज्जा और संकोच का घेरा तो जकड़े हुए था ही।

इन कई कारणों से विमल ने तय कर रखा था कि इन सब से निबट कर इत्मिनान से ही घर जाना है, ताकि किसी प्रकार के ना-नुकर का मौका न मिले। जब कि मन ही मन भयभीत हो रहा था कि कहीं मीना की शादी हो न जाय, और उत्तुंग प्रेम-प्रासाद का स्वर्ण कलश ही निहारता न रह जाना पड़े!

किन्तु लम्बी अवधि के बाद इस बार जब घर आया तो बातचीत के क्रम में बिना पूछताछ के ही ज्ञात हो गया कि मीना की शादी हेतु तिवारी जी बहुत चिन्तित रह रहे हैं।

समाचार जान कर सन्तोष की सांस ली थी विमल ने और किसी तरह रात बिता कर तड़के ही चल पड़ा था माधोपुर- प्रिया मिलन की आश में। चलते वक्त पिता के आदेश ने मन में असंख्य लड्डू फोड़ दिये-

‘लौटती दफा मीना को भी साथ जरूर लेते आना। ’

उसे तो मन की मुराद मिल गयी- आज फिर रास्ते भर इश्क फरमाने का एकान्त अवसर मिलेगा, और लम्बे अरसे से मण्डराती आकांक्षाओं को जी भर कर पूरा करने का मौका भी।

‘आज जरूर वचन ले लूंगा- विवाह का, प्यार के परिणति का। ’- सोचते हुए गाड़ी खड़ी कर दी मीना के द्वार पर आम के छांव में। पर, खुद गाड़ी से नीचे उतरने के वजाय जोरों से हॉर्न बजाया। जी में असीम हुलाश भरा था, हॉर्न सुनते ही दौड़ कर मीना बाहर निकलेगी, मीठे-मीठे उलाहनों से ढक देगी।

किन्तु काफी देर तक गाड़ी में बैठा गाड़ी के साथ-साथ अपने अरमानों का हॉर्न बजाता रहा; पर कोई आया नहीं दरवाजे पर उसके स्वागत में- न तिवारीजी ही और न उसके दिल की स्वामिनी ही। यहाँ तक कि दिल में जलता आशाओं का दीप आशंकाओं के वयार से झिलमिलाने लगा, और तब सम्भावनाओं की हथेली से सम्हाला उस म्रियमाण झिलमिल दीप को; और गाड़ी से उतर कर बढ़ आया द्वार तक।