पुनर्भव / भाग-9 / कमलेश पुण्यार्क

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और हठात् उसके मुख से निकल पड़ता है-

‘धिक्तांच तं च मदनं च, इमांच मां च। ’ पिता द्वारा सुनाये गये श्लोक की आधी- अधूरी कड़ी को कुछ देर बुदबुदाते रहा। अर्थ और शब्द के जाल में उलझा रहा। सोच और समझ ने साथ न दिया पूरे तौर पर। यह सब जो हुआ – क्यों, कैसे ...सब कुछ अस्पष्ट बना रहा।

उधर मीना के आंखों की बरसात जब थमी, दिलो-दिमाग कुछ शान्त हुआ जब, तब स्वयं को यहाँ इस स्थिति में होने पर आश्चर्य करने लगी।

‘गाड़ी यहाँ क्यों खड़ी किये हो विमल? ’

‘कुछ देर ठंढी हवा का आनन्द ले लूँ, फिर चला जाय। ’

‘तो चलो। या अभी और रूकने का इरादा है? ’

‘जैसी तुम्हारी मर्जी। ’-कहता हुआ गाड़ी स्टार्ट कर दिया।

रास्ते भर दोनों मौन रहे। अपने-अपने धुन में मस्त, खोये हुए से।

मीना सोचने लगी- ‘क्या वह स्वप्न देख रही थी, याकि उसे नींद आ गयी थी? तो क्या नींद में ही विमल से जा लिपटी? वह भी कैसा है, लिपटा लिया, लिपटाये रहा! क्या सोचता होगा वह? कितनी गिरी हुयी लड़की समझा होगा...। ’

विमल सोच रहा था- ‘काश! मीना लिपटी रहती...प्यासे प्यार को दो घूंट और मिल जाते। सच में मीना बड़ी सुन्दर है। लगता है, अब इसके प्रेम के जंजीर से निकलना सम्भव नहीं....जरूरत भी क्या है मुक्त होने की? काश इसे अपना बना लेता, बिलकुल अपना। वापू कहते थे- मीना के लिए वर तलाशना है। क्या मैं नहीं हो सकता- मीना के लिए योग्य वर....? ’

इन्हीं विचारों में उलझा घर आ गया- प्रीतमपुर। रास्ते भर किसी ने कुछ नहीं कहा- एक दूसरे से।

फिर सप्ताह भर गुजर गये- प्रीतमपुर में। पूरे दिन भाभी के पास ही बैठे रहते दोनों- उसे ही गपशप का माध्यम बनाकर। विमल परिवार के रेशमी डोर ने काफी तेजी से लपेटा लगाया मीना के प्यार पर। फलतः उसके हृदय में प्यार का पौधा लहलहाने लगा, जिसका वास्तविक बीजारोपण अज्ञात अवस्था में ही हो चुका था।

विमल उसे सुन्दर लगने लगा। एक दिन मौका पाकर कह ही तो दी- ‘विमल तुम सच में ‘विमल’ हो। ’

‘मतलब? ’- संक्षिप्त सा प्रश्न किया विमल ने, और आंखें डाल दी मीना की आंखों में।

‘मतलब यह कि तुम बहुत ही सुन्दर लगते हो। ’- कहती हुयी मीना नजरें झुका ली, मानों यह कह कर बड़ी धृष्टता कर दी हो।

सुन्दर शब्द ही अपने आप में सुन्दर है। यदि इसका तगमा किसी को मिल जाय, फिर कहना क्या? नारी जब हसरत भरी नजरों से देख लेती है, तब अनगढ़ पत्थर के ढोंकों में भी सरसराहट शुरू हो जाती है। कविता की कडि़याँ कुलबुलाने लगती हैं। फिर पुरुष क्या चीज है- यदि उसकी सराहना कोई सुन्दर नारी कर दे! भोले, मूर्ख पुरुष को दर्पण की भी आवश्यकता महसूस नहीं होती, क्यों कि मान ही बैठता है- मैं हूँ हीं ऐसा।

एक दिन मीना ने कहा- ‘बहुत दिन हो गये, हमें यहाँ आए। अब चलना चाहिये। वापू हमारी राह देख रहे होंगे। ’

विमल की इच्छा तो न थी, मीना को अभी जाने देने की। फिर भी उसकी बात मान, तैयार हो जाना पड़ा। दोपहर भोजन के बाद चल पड़े दोनों। रास्ते में मौका पा विमल ने छेड़ा- ‘एक बात पूछूँ मीना! बुरा तो न मानोगी? ’

‘पूछो, क्या पूछना चाहते हो? ’-विमल की ओर देखती हुयी मीना ने पूछा।

‘प्रेम करना बुरी बात क्या? ’-सशंकित विमल ने पूछा। क्यों कि उसे आशंका थी कि मीना कुछ उटपटांग जवाब न देदे।

‘बुरा तो नहीं है। ’- नजरें झुकाये मीना ने कहा- ‘किन्तु समय और स्वयं का पहचान रखते हुए प्यार करना उचित होता है। ’

‘पर यदि असमय में हो जाए तो? और फिर स्वयं की पहचान का क्या मतलब? ’- मीना की झुकी निगाहों का कारण ढूढ़ते हुए विमल ने पुनः सवाल किया।

‘यदि हो ही जाय तो सतर्कता पूर्वक पालन होना चाहिए। यह न कि अवांछित प्रेम में लुढ़क जाय, और फिर मधुकरी वृत्ति अपना ले। ’

‘मतलब? ’

‘मतलब यह कि प्रेम-विवश यदि दिल दे ही डाला किसी को तो फिर उसी का सम्यक् पालन होना चाहिए, ‘निर्वाह’ नहीं। साथ ही ध्यान रहे चंचल चंचरीक की तरह इस-उस फूल पर सूढ़ न मारता फिरे। ’

‘यदि वह फूल, जिस पर अनजाने भौंरा बैठ चुका हो.दुस्प्राप्य हो तो? ’- फिर प्रश्न किया विमल ने। कारण इन प्रश्नों के माध्यम से ही मीना का हृदय टटोलना था।

‘तुम जानना क्या चाहते हो? स्पष्ट क्यों नहीं कहते? क्या किसी के प्यार में पड़ गये हो, जो अप्राप्य है तुम्हारे लिए? ’-गाड़ी में लगे आइने में विमल का चेहरा देखती हुयी मीना ने पूछा।

‘ऐसा ही कुछ समझो। ’- विमल ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

‘कैसा? ’- इस बार मीना की नजरें आइने से हट कर विमल के चेहरे पर जा लगी।

‘प्रेम तो लगभग हो ही गया है। किन्तु आशंका है उसकी पूर्ण प्राप्ति की। ’- मुस्कुराते हुए विमल ने कहा, मीना की ओर देखते हुए।

‘क्या मैं जान सकती हूँ कि कौन है वह भाग्यवान जिसने अपने काले कुन्तलों में बेरहमी से बांध लिया तुम्हारे कोमल कच्चे नाजुक दिल को? ’

‘जान सकती हो। ’- विमल ने स्वीकारात्मक सिर हिलाया।

‘तो जना दो। देर किस बात की? ’

‘जना तो सकता हूँ। परन्तु....। ’

‘परन्तु क्या? ’

‘डर लगता है जताने में। ’

‘डर और मुझसे? किस बात का डर? ’

‘और नहीं तो क्या। क्या तुमसे डरना नहीं चाहिए? ’

‘नहीं। बिलकुल नहीं। निःसंकोच कह सकते हो। तुम्हें इसी बात का डर होगा न कि मैं कह दूँगी किसी से। मैं इतने छिछले पेट की नहीं हूँ , जो ढिंढोरा पीटती फिरूँ तुम्हारे प्यार का। ’-मीना ने अपना स्वभाव जाहिर किया।

‘तो कह ही दूँ? सुनना ही चाहती हो? ’

‘यदि तुम सुनाना चाहते हो तो सुना डालो चट पट ताकि मैं भी जरा जान तो लूँ कि कौन है वह ऐश्वर्य-शालिनी, जिससे तुम प्रेम करते हो। ’-मीना ने अपनी बात पर जोर दिया।

‘कह दूँगा। मगर यूँ ही नहीं, बल्कि फीस लेकर। ’

‘फीस, कहने की? अच्छा ले लेना, जब यही विचार है। अभी दे दूँ? ’-मीना

अपना पर्स टटोलने लगी।

‘नहीं... नहीं... नहीं...। मुझे पैसे नहीं चाहिए। फीस तो लेना है, मगर पैसे नहीं। कुछ अन्य मदद। ’- पर्स पकड़े मीना के हाथ को दबाता हुआ विमल बोला।

‘यदि सम्भव हुआ तो मदद भी दे दूँगी। यही न कहना चाहोगे कि मैं तुम्हें अपनी प्रेमिका से मिलने-जुलने, बात करने में सुविधा- संयोग जुटा दिया करूँ। ’- मुस्कुराती हुयी मीना बोली।

‘हाँ, ऐसा ही समझो। लड़की तो तुम बहुत ही समझदार हो। ’

‘समझदार हूँ या नहीं, पर तुम्हारी तरह बेवकूफ नहीं जो इस-उस से इश्क फरमाती फिरूँ। खैर, उससे मुझे क्या लेना-देना। सिर्फ नाम बतला दो अपनी महबूबा का। ’

‘नाम? नाम तो बिलकुल छोटा सा है, बहुत प्यारा सा। मेरी महबूबा का नाम है....। ’

‘हाँ-हाँ बोलो। हकलाओ नहीं। ’-मीना ने कहा मुस्कुराते हुए, किन्तु विमल अभी भी साहस न जुटा पा रहा था।

‘....मीना। ’- धीरे से कहा विमल ने।

‘मीना? कहाँ की रहने वाली है? ’

‘हाँ, सही सुना तुमने। रहने वाली है माधोपुर की। ’

‘क्या मजाक करते हो? माधोपुर में तो मैं अकेली, एक ही मीना हूँ। हाँ, माधोपुर ही कोई दूसरा हुआ तो और बात। ’

‘तो वही सही। क्या उसी माधोपुर की वही मीना नहीं हो सकती मेरी ऐश्वर्या? ’- मीना के चेहरे को गौर से देखते हुए विमल कह रहा था- ‘तुम ही हो वह भाग्यशालिनी, ऐश्वर्यशालिनी, जिसने चुरा लिया है मेरे अल्हड़ दिल को। वैसे मैंने तो इसे बहुत ही हिफ़ाजत से रखा था, पर चोरी हो गयी। अब भला चोरों का भी कोई हिसाब कितना रखे? ’

मीना की बड़ी-बड़ी श्यामल पलकें शर्म के बोझ से झुक आयी थी कपोलों की ओर। आज उसके प्यार का इज़हार हो गया। विमल ने स्वयं ही स्वीकारा है। पर

क्या वह भी उसके प्यार का प्रत्युत्तर दे पाने में सक्षम है? ’

शायद नहीं। मीना सोच रही थी- वह गरीब है। गंवार सी है। देहातन है। वह क्या जानने गयी- प्यार व्यार। उसे तो उसी से प्यार करना है, जिसके हाथ में उसका वापू - गरीब वापू हाथ सौंप दे।

‘यदि यह सही है कि तुम माधोपुर के मीना से प्यार करते हो तो समझो कि तुम्हारा प्यार दुष्प्राप्य है। मुझे खेद है कि मैं इस मामले में तुम्हारी कुछ भी मदद नहीं कर सकती। ’-संकुचित मीना ने स्पष्ट कहा।

‘दुष्प्राप्य ही तो? अप्राप्य तो नहीं? ? ’

‘अप्राप्य भी कह सकते हो। प्यार का कदम बढ़ाने से पहले तुम्हें­ सोच समझ लेना चाहिए था। तुम्हें­ जानना चाहिए कि समस्तरीय प्रेम ही सफल हुआ करता है। पर तुममें और मुझमें कोई साम्य है? तुम कहाँ महत्त सेट्टि परिवार के होनहार, और मैं फूस की झोपड़ी में रहने वाली भिखारिन। फिर कैसे सम्भव है ये जमीन-आकाश का मिलना? ’

‘काश! ‘प्रेम, कोशिश-प्रयास करके ‘किया जाने’ वाला कोई वस्तु होता, तब मैं भी खुद को दोषी मानता। वैसे भी, असम्भव शब्द अभी तक मैं अपनी डिक्शनरी में ढूढ़ नहीं पाया हूँ। अतः तुम इसे सम्भव ही समझो। एक बार, बस एक बार साहस करके पापा से कहने भर की देर है। वे कभी टाल नहीं सकते मेरे प्रस्ताव को। जानती ही हो कि वे मुझे कितना प्यार करते हैं। ’- अपने विश्वास पर जोर देते हुए विमल कहने लगा-‘और जहाँ तक प्रेम के सम्बन्ध में स्तर-समानता की बात तुम करती हो, मेरे ख्याल से यह बकवास है। ‘स्तर’ एक सामाजिक व्यवस्था भर है, कुछ बहुत गहरी बात नहीं। गहरे अर्थ में इसका कोई महत्त्व नहीं। वस्तुतः प्रेम आत्मिक धरातल पर उपजा हुआ पौधा है, जितना ही दिव्य होगा ऊपर की ओर उठता जाएगा। प्रेम अति पवित्र है। सभी सीमाओं से मुक्त है। और ये सीमायें तो जमीन पर बनती हैं। ’-मीना के हाथ को विमल अपने हाथ में लेकर कहने लगा-‘मीना! मुझे तुमसे प्यार है। आवश्यक है- सिर्फ तुम्हारी स्वीकृति। बोलो- तुम्हें स्वीकार है? मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार है तुम्हें? ’

बुत्त बनी मीना सामने देखती रही। विमल की बातों का कुछ भी जवाब न दे पायी। उसके माथे को फिर एक झटका सा लगा। विमल कहता रहा था। पर सही रूप से वह उसकी बातें सुन भी न पा रही थी। विमल का चेहरा धीरे-धीरे धुंधला होता नजर आ रहा था मीना को। इधर कुछ दिन से अजीब सा झटका सा लग रहा था उसे। उस दिन भी कुछ ऐसे ही दौर में वह लिपट पड़ी थी विमल से। आज भी कुछ वैसा ही लग रहा है। अतः सम्हलने, समझने का प्रयास कर रही थी। थोड़ा बांयीं ओर झुक कर गाड़ी की खिड़की पर सिर टेक, ताजी तेज हवा का लाभ लेने का प्रयास करने लगी। क्यों कि भीतर से अजीब सा लग रहा था। दम घुटता हुआ सा महसूस हुआ। आँखों को पोंछ कर बार-बार यह जानने का प्रयास करने लगी कि विमल का चेहरा धुंधला क्यों होता जा रहा है।

पर सफलता न मिली उसे। चेहरा धुंधला होते-होते अचानक लुप्त हो गया। विमल के स्थान पर एक अन्य अपरिचित-परिचित चेहरा दीख पड़ा- अपना सा, विलकुल अपना सा। अपनत्व ने इतना खींचा कि जी में आया कि लपक कर उसकी गोद में चली जाय। समा ले उसे अपनी भुजाओं में। बांध ले सर्पिणी सी कस कर- उस बलिष्ठ देह को।

तभी विमल ने झकझोर दिया- ‘मीना! क्या सोच रही हो? बोलो न मीना। जबाब दो मेरी बातों का। ’

मीना ने आँखें खोली। उसने देखा- धीमी गति से रेंगती कार के स्टीयरिंग-

व्हील पर माथा टेके, कातर कंठों से विमल कह रहा है, उसके कंधे को झकझोरते हुए। उसे ध्यान आया- वह जा रही है- अपने घर, वापू के पास। विमल उसे पहुँचाने जा रहा है। वह पूछ रहा है। कुछ जानना चाह रहा है। पर आवाज निकल नहीं रही है गले से। फेफड़े धौंकनी की भूमिका में हैं। सीने पर हाथ रख, जोरों से दबाती है। फिर कातर दृष्टि से विमल की ओर देखती हुयी पूछती है- ‘क्या है विमल? क्या पूछ रहे हो? ’

‘अरे! भूल गयी मेरी बात को? कहाँ खो जाती हो? ’-उसकी ठुड्डी पर हाथ रख, थोड़ा ऊपर उठाते हुए विमल ने कहा।

‘कहीं तो नहीं। ’-संक्षिप्त सा उत्तर दी मीना।

‘फिर बतलाओ न। ’

‘क्या? ’- चौंक कर पूछा मीना ने।

‘तुम मुझसे प्रेम करती हो? शादी करोगी मुझसे? ’- आशान्वित विमल फिर उसे गौर से देखने लगा, मानों चेहरे पर बन रहे हर भावों के बिम्ब को पढ़ लेने का प्रयास कर रहा हो।

‘यह अति विचारणीय प्रश्न है विमल। प्रेम जैसे महान, शादी जैसे पुनीत प्रश्न का उत्तर इतना जल्दी नहीं दिया जा सकता। कहूँगी। समय पर कहूँगी। अवसर दो मुझे इस गम्भीर विषय पर थोड़ा सोचने का। तब तक तुम स्वयं को भी तौल लो। परख लो। कहीं धोखा न हो जाए। ’-कहती हुयी मीना ने अपनी आँखें बन्द कर ली। सामने कारनेट पर सिर टिका दी।

‘मुझे तौलना नहीं है फिर से। मैं तो तौल चुका हूँ स्वयं को उसी दिन तुम्हारे वक्ष के तराजू पर सिर रख कर। भावी ‘ईलेक्ट्रोनिक बैलेन्स’ से भी सूक्ष्म परख हो गयी है मेरे प्यार की। ’- फिर जरा ठहर कर विमल ने पुनः कहा- ‘सच बतलाओ मीनू! क्या तुम मुझसे प्रेम नहीं करती? और यदि करती हो तो फिर तौलने-तौलाने की बात क्यों करती हो? मैं तो तब से ही तुम्हारे प्रति प्रेम को अपने हृद्पीठिका पर उच्चासीन कर उपासते आया हूँ , जब कि ठीक से ज्ञात भी नहीं था कि प्रेम-प्यार होता क्या है? किया किसे जाता है? किया कैसे जाता है? ’- कहता हुआ विमल अतीत के दरीचे में झांकने लगा था- ‘उस बार बीमारी की अवस्था में तुम मेरे यहाँ महीनों रही थी। उस समय काफी मौका मिला था- तुम्हारे साथ रहने का। तुझे भी शायद याद हो- तुम पानी मांगी थी। गिलास से पानी जब मैं दे रहा था, तुम अपने ही हाथों अपना सिर दबा रही थी। मैंने पूछा था- मीना! दर्द हो रहा है सिर में? तुमने ‘हाँ’ कहा था- मुंह से नहीं, सिर हिला कर सिर्फ। पानी पिला, गिलास नीचे रख, मैं बैठ गया था तुम्हारे समीप ही विस्तर पर, तुम्हारे सिर को अपनी गोद में लेकर। तुम संकोच से आंखें बन्द किए हुए थी....। ’- विमल कहता जा रहा था। मीना अपलक निहारती रही उसके मुखड़े को। गाड़ी अपनी रफ्तार खो चुकी थी, क्यों कि एक्सीलेटर का दबाव शिथिल पड़ चुका था।

‘...शायद तुम्हें अच्छा न लग रहा था, मुझसे सिर दबवाना। परन्तु दर्द से परेशान होने के कारण ना भी न कर पायी थी। मैं आहिस्ते-आहिस्ते दबा रहा था तुम्हारे सिर को। थोड़ी ही देर में तुम्हारा दर्द मानों छू मन्तर हो गया था। आँखें मूंद ही नहीं गयी थी, बल्कि नथुने के स्वर स्पष्ट करने लगे थे कि तुम गहरी नींद में सो चुकी हो। यकीन के लिए मैंने एक दफा पूछा भी- मीना! दर्द कैसा है? ’

‘....किन्तु तुमने कुछ कहा नहीं। मैं पूर्ववत बैठा ही रहा। कारण, तुम्हें आराम

मिलता देख मुझे भी अपूर्व शान्ति मिल रही थी। शान्ति- एक अद्भुत सुखद शान्ति .....। ’

‘....पर कभी-कभी शान्ति ही अशान्ति का कारण बन जाती है। सृष्टि से ही विनाश का भी बीज सृजित हो जाता है। अचानक लगा कि मेरे रगो में रक्त संचार तीब्र हो रहा है। मुझे क्या हो रहा है- उस दिन मुझे कुछ पता न चला था, पर जो भी हो रहा था- बहुत ही अच्छा लग रहा था। इच्छा हो आयी थी- क्यों न तुम्हारे कपोलों की सुर्खी को चुरा लूँ थोड़ा मैं भी। यह सोच कर इधर- उधर देखा। समय दोपहर का था। सभी जहाँ के तहाँ आराम फरमा रहे थे। मैंने आहिस्ते से अपने होठ बिठा दिये तुम्हारे सुचिक्कन गालों पर। किन्तु इतने से ही सन्तोष न हुआ। अशान्ति और बढ़ गयी। फलतः एक पायदान और आगे बढ़ा- ओड़हुल की पंखुडि़यों की तरह रक्ताभ लुभावने अधरोष्ठ, जो विपरीत धन्वां सी आसीन थी तुम्हारे मुख- सरोज पर, रख दिया अपने फड़कते होठ को। तभी पहरेदार सजग हो गया। भयभीत सा हो, मैं सम्हल कर बैठ गया। ’

‘कहते हो तो याद आ रही है। ’-विमल की बातों से मीना भी अतीत में पहुँच गयी- ‘उस दिन तो छोटी सी थी। अब से कोई ढायी-तीन साल पहले की बात है। दर्द में राहत पा आँखें जा लगी थी, तब तुमने ही वैसी हरकत की थी- याद आ गयी, अब मुझे भी। पर तुम्हें शायद अच्छा लगा हो उस दिन के चुम्बन का स्वाद, किन्तु मुझे....। ’

‘स्वाद’ सिर्फ अच्छा ही नहीं लगा था मीनू!’- बीच में ही विमल बोल उठा- ‘बल्कि तब से ही, सच पूछो तो उस स्वाद का, उस परिमल का गुलाम सा हो गया। ’

‘इतने छुटपन से ही तुम्हें प्यार का स्वाद मिल गया था? ’-मीना साश्चर्य पूछी।

‘नहीं मीनू ! उस दिन तो सिर्फ अच्छा लगा था। पर अब धीरे- धीरे उसका अर्थ स्पष्ट होता जा रहा है। और प्रसुप्त प्रेम-भ्रमर उस परिमल के लिए बेचैन हो रहा है। वय ने बतला दिया, पहचनवा दिया कि उस दिन जो चखा था तुमने, वही है- प्रेम-प्रसून का अमीयरस। फलतः भौंरा मचल रहा है, चखने के लिए, उस चिर परिचित पराग को...जवाकुसुम के मधु रस को......। ’

‘मैंने भी चखा है, जवाकुसुम के ही मधुरस को, और साथ ही उसमें छिपे बैठे विष-कीट के घातक दंश को भी। ’- मीना मुस्कुरा कर बोली।

‘मतलब? ’-आश्चर्य-चकित विमल ने पूछा।

‘वापू ने जवाकुसुम लगाया था आंगन में। मैं रोज उसके खिले फूलों को तोड़-तोड़ कर मधुरस-पान किया करती थी। एक दिन उसमें बैठा विष-कीट मेरे होठों का ऐसा चुम्बन लिया कि तीन दिनों तक मेरा चेहरा देखने लायक रहा, और दंश की याद तो आजीवन रहेगी। ’

‘किन्तु यह भौंरा वैसा नहीं है। फूलों का नुकसान भरसक नहीं ही होने देना चाहता। क्या कहूँ मीना, नादान बालक की तरह मचलते दिल को मैंने बहुत बरजा। वह मान भी गया था; किन्तु उस दिन तुमने स्वयं ही तो जगा दिया फिर से, सोये नटखट शिशु को- अमीय बारी बून्दों की मधुर फुहार डाल कर। ’-जरा ठहर कर विमल ने कहा-‘ काश! वह क्षण जरा और ठहर गया होता....। ’

वह कह रहा था कि बीच में ही मीना टोक दी- ‘उस दिन की हरकत के लिए मैं स्वयं ही शर्मिन्दा हूँ विमल। न जाने कब आँखें लग गयी थी; और नींद में तुम्हारी ओर लुढ़क पड़ी थी शायद। ’

मीना की बात पर जोरों से हँस पड़ा विमल- ‘वाह रे तुम्हारी योग-निद्रा...

...वाह! कितनी देर पड़ी रही मेरी बाहों में, कितनी बार चूमी मेरे होठों को। कितनी बार मैंने तुम्हारे प्यार का प्रत्युत्तर दिया....और कहती हो कि नींद में थी। अरे मेरी मीना रानी! प्यार ही किया है तूने जब, तब एतराज क्यों इसे स्वीकारने में? ’

हाथ आगे बढ़ा कर मीना के कपोलों को छू लेना चाहा, पर वह थोड़ा अलग हट गयी; और रोष पूर्वक कहा उसने- ‘क्या बकते हो? यह गलत कह रहे हो। ऐसा मैंने कब किया है? अनावश्यक मुझ पर आरोप लगा रहे हो। यह सच है कि तुम मुझे अच्छे लगते हो। मैं तुम्हें चाहती भी हूँ। किन्तु इसका यह अर्थ तो न हुआ कि व्यभिचारिणी की तरह तुम्हारे आगे अपने दिल की झोली पसार कर प्यार की भीख मांगूँ? अभी उमर ही क्या हुयी है जो इतना बेताब होकर प्यार के लिए तड़तने लगूँ? ’