पुनर्भव / भाग-1 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मीना-निवास- तब का नहीं। अब का। तब से कोई सत्रह वर्ष बाद का। भूतल पर पड़े मांस के लोथड़े को देख, गगन-विहारी गरुड़ का वंशज- चील, जिस तरह आकाश में मड़रा-मड़रा कर उड़ता जाता है, उड़ता रहता है; कुछ वैसे ही तो विगत सत्रह वर्ष गुजर गए।

धरती के सीने को रौंदती हुयी दौड़ने वाली ट्राम गाडि़यों का अभाव सा हो गया है; किन्तु इस कारण नहीं कि माँ धरित्री पर मोहित होकर, द्रवित होकर कुछ रहम कर दिया- इन विद्युत-चालित यानों ने; बल्कि, किसी दुर्दान्त दस्यु द्वारा सीने पर टिकायी गयी कटार अब ऊपर के वजाय भीतर की ओर सीने की गहराई में जा घुसी है। धरती के सीने को अब चीर डाला गया है। विदीर्ण कर दिया गया है- ‘पलीते’ लगा कर, और उस रिक्त भूखण्ड पर विछा दी गयी है- भूगर्भ रेल लाईनों की जाल। हम उसे गर्व से ‘मेट्रो’ कहते हैं। हमारे विकास का एक नमूना...

विकासशील मानव ऊपर से असन्तुष्ट होकर भीतर जा घुसा- भीतर और भीतर। एक ओर ऊपर और ऊपर उड़ान भरने की हबश, तो दूसरी ओर भीतर से भीतर घुसने की अमानुषिक अदम्य लालसा।

सत्रह साल में मानव न जाने कहाँ से कहाँ चला गया। बेतार के तार का बौनापन दूरदर्शन की छवि में उलझ कर रह गया। बहुत कुछ किया मानव ने, किन्तु सच पूछा जाय तो अपरिमित प्रकृति के समक्ष अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न होकर भी मानव कितना बौना है...।


कलकत्ते के बागड़ी बाजार के नुक्कड़ पर बना हुआ मीना निवास दिनानुदिन ह्रासोन्मुख प्रतीत हो रहा है। कहाँ कुछ हो पाया है उसमें विकास! बस सिर्फ ह्रास ही ह्रास तो हुआ है। उसके निर्माता से लेकर संरक्षक तक- कोई भी अब रहे ही कहाँ! सबके सब विकराल काल के गाल में, समय की दरार में समाते चले गये।

एक समय था- जब ‘मीना-निवास’ नवोढा दुल्हन सी सजी होती थी। विस्तृत लॉन के बीचो-बीच बना हुआ दो मंजिला छोटा सा मकान- एक खुशनुमा घरौंदे की तरह, न जाने कितनी सुमधुर भावनाओं को संजोये हुए है स्वयं में। किसी आधुनिक छायागृह में अलग-अलग कोनों में अलग-अलग स्टैण्डों पर खड़े सहस्र शक्ति विद्युत-बल्बों के चकाचौंध की तरह ही तो लॉन के चारो कोनों पर लगे ‘भेपर लाईट’ रात्रि में भी मध्याह्न का आभास कराते थे।

क्यारियों में करीने से लगे गुल-बूटे- बेली, चमेली, डहेलिया, रजनीगंधा न जाने क्या क्या....। सदर फाटक पर हार के लोलक सा लटकता-किसी महापुरुष के प्रसस्त भाल सा देदीप्यमान ‘न्योनसाईन’ एक गरिमामय नाम- ‘मीनानिवास’ को संजोये...। ओफ! खो सा जाता है मन उस घरौंदे में।

विकास का एक दौर था, एक क्रम था। पर, अब है बारी ह्रास की। फिर कभी आए शायद वह क्षण विकास और सजावट का।

राह चलते परिचित-अपरिचित राहियों की तर्जनी अनायास ही उठ जाती है उस मकान की ओर- ‘यह भूतही हवेली है’ एक नहीं अनेक सौन्दर्य सौष्ठव दफन हुए हैं- निस्सीम प्रेम का प्रतीक...जिसके ईंट-ईंट में...नहीं नहीं अणु-अणु में मीना के स्नेह-सलिल की धार प्रवाहित होता रहा है। परन्तु अब?

आज भी, जब कभी बादल गरजते हैं, बिजली कड़कती है, अभ्र रुदन करते हैं, रात्रि के घोर अन्धकार को चीर कर एक कर्कश चित्कार सुनने को मिलता है- मीना...ऽ...ऽ...ऽ और तब?

आस-पड़ोस के बच्चे ही नहीं, बड़े भी दुबक कर कोने में चले जाते हैं। भयंकर प्रलयंकारी अट्टहास गूंजता है। लगता है कि ज्वालामुखी फूट पड़ेगा।

प्रेम - कैसा हृदय विदारक रूप है तेरा! ज्येष्ठ की तपती दोपहरी में रास्ता जब सुनसान हो जाता है, या फिर जाड़े की घनेरी अन्धेरी रात में, खास कर जब रौशनी गुल हो जाती है- तब कभी कभार देखा जाता है- मैले-कुचैले एक गौरांग पुरुष को- जिसके शरीर पर मैल की मोटी पपड़ी जम चुकी है, सिर के बेतरतीब बढ़े बाल- जो लगभग जटा का रूप धारण कर चुके हैं, लम्बी दाढ़ी, बड़ी-बड़ी भयंकर आँखें, पीत दन्त, म्लान मुख, छरहरी काया....बच्चे उसे देखते ही भाग कर माँ की आँचल के शरणार्थी बनते हैं। स्त्रियाँ भय से आँखें मींच लेती हैं। साहसी पुरुष- जिनके हृदय में कुछ कोमल भावनायें होती हैं- कह उठते हैं- यही है...यही है वह, जिसने देखा है- प्रेम के हृद्विदारक रूप को। कभी कभार उसका स्वगत कथन, सुनने वालों का भ्रम दूर करता- ‘कमल! तुझे जीना है मीना के लिए....। ’

परन्तु यह दृष्टि भ्रम नहीं, श्रवणेन्द्रिय भ्रम नहीं। वास्तविकता है। यह कमल ही है। कमल यानि कमल भट्ट, प्रकाण्ड उद्भट्ट तान्त्रिक विक्रम भट्ट का वंशज कमल भट्ट, जिसकी दसों अंगुलियों पर चक्र के निशान हैं।

इसे विश्वास है- एक ना एक दिन वह आयेगी, अवश्य आयेगी; और इस विरही को अंगीकार करेगी।

परन्तु कब आयेगी? यह कैसे कहा जाए?

मीना! कमल की आह्लादिनी शक्ति मीना, जिसे गुजरे कोई सत्रह वर्ष गुजर गये। जमाने ने कितने ही सूर्योदय और सूर्यास्त देखे, कितने ही दिवस का अवसान हुआ, अमा चुरा ले गयी चन्दा को, और पूनम का चाँद भी कई बार आँख मिचौनी खेल खेला गया-इसकी तो कोई गणना भी न किया होगा आज तक। क्यों करे? क्या जरूरत फिजूल का वक्त जाया करने की!किन्तु बेचारे कमल ने तो इसी गणना में अपना समय व्यतीत किया है। पाण्डवों के वनवास और

अज्ञातवास की काल-गणना करने मे कुटिल शकुनि भला कब चूकेगा?चूक भी कैसे सकेगा?

चूकेगा। अवश्य चूकेगा। मगर अनजाने में नहीं, शायद जानबूझ कर। क्यों? ऐसा क्यों?मीना अकेली तो नहीं थी- उसकी प्रेयसी, दो और भी तो थी-

एक, जिसे पत्नी का गरुत्व मिला- शक्ति! और दूसरी ‘बे’चारी मीरा। उसे तो कोई ‘पद’ कोई दर्जा, कोई स्थान न मिल पाया। मिलेगा भी नहीं। मिल पायेगा भी नहीं। फिर ‘मीरामय’ का औचित्य? ‘मीरा तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला’ .... कथन...नहीं बोध- सुबोध की प्रासंगिकता?

किन्तु आश्चर्य होता है- प्रेम की यह पूरी की पूरी ऊर्जा, ये सारी शक्तियाँ क्यों कर केन्द्रित हो आयी हैं मात्र मीना में? एक अद्भुत घनीभूत प्रेम-पुंज की सृष्टि हो गयी है। कमल के प्रेम की सारी ऊर्जा, प्रेम की पूरी- गहन अनुभूति, विरह-वेदना का प्रत्येक तन्तु, छःफुटी काया की एक-एक कोशिका, अगनित रोम कूप- सबके सब मात्र, एक मात्र मीना के विरह से व्यथित हैं। उसकी व्यथा की पराकाष्ठा तब लक्षित होती है, दर्शित होती है- जब कभी वह भाग्य्याली हथेलियों को देखता है, जिस पर प्रबल भाग्योदय बोधक रेखायें हैं। अंगुलियों के सभी पोरुओं पर- दशों पोरुओं पर चक्र के निशान हैं। स्वयं प्रकाण्ड ज्योतिषराज है। एक उद्भट्ट तान्त्रिक का कुल-दीपक है...

एक ओर ये सारी उपलब्धियाँ, ये सारी स्थितियाँ, और दूसरी ओर उसका, स्वयं का विलखता व्यक्तित्व। क्या कोई साम्य है- इन दोनों में? दो विपरीत ध्रुवों में सामन्जस्य भले हो सकता है, साम्य कहाँ?तन्त्र और ज्योतिष उसके लिए मात्र उपहास का विषय बन कर रह गया है। प्रेम, शान्ति, सुख, सौभाग्य- ये सब सिर्फ शब्दकोष में रह गये हैं। स्वप्न का हवामहल साबित हो चुका है; इतना ही नहीं इस उत्तुंग अट्टालिका में डाका पड़ चुका है। सब छिन्न-भिन्न हो चुका है, वह भी बड़ी ही बरबरता पूर्वक। प्रेम के विशाल पोत में आग लग चुकी है। रूई के गट्ठर की तरह ‘लहर’ चुका है, जिसकी कटु धूम अभी भी डठ रहे हैं।

फिर भी न जाने किसी क्षीण आशा किरण का दर्शन हो जाया करता है यदा-कदा उसके भूरे धूसर नेत्रों से और मर्माहत-मृयमाण हृद्तन्त्री में नयी चेतना का संचार हो उठता है। उसे याद आ जाती है- मृत्यु-शैय्यासीन मीना की वाणी - ‘कमल! मैं तेरी हूँ। तेरी ही रहूँगी - जन्म-जन्मान्तर में भी। सावित्री के लिए सत्यवान के सिवा और कौन हो सकता है?’

और फिर याद आ जाती है-

‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः। । ’

और साथ ही याद आ जाती है-

‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि। । ’

और उसे ढाढ़स बंध जाती है। गीता के गोविन्द का अवलम्ब मिल जाता है। निविड़ अन्धकार में भटकते जीवन को आधार सूत्र मिल जाता है। विश्वास हो जाता है- दृढ़ विश्वास- वह आयेगी, आज न कल। कभी न कभी मिलेगी। अवश्य.. अवश्य...अवश्य...। यह क्षीण आशा रश्मि ही उसके जीवन का आसार है।

अन्यथा कब का छलांग लगा चुका होता पतितपावनी जाह्ववी में। न जाने कितनी बार जाता रहा है- हावड़ा पुल पर चहलकदमी करते- रात की काली चादर में मुंह लपेटे सारा महानगर सोता रहता है, वैसे समय में वह जाता है- इस विचार से कि नीचे कूद पड़ा जाय। परन्तु एक अज्ञात शक्ति उसे खींच कर पुनः ला बिठाती है, पुराने घोसले- मीना निवास में।

कभी-कभी याद आ जाया करती, पुरानी बातें-‘....अब इस मीना निवास में रह ही क्या गया है, जो बाँध कर रख सके?’ और साथ ही याद आजाती है- मरणासन्न मीरा का कथन- ‘मानती हूँ कि अब रही नहीं मीना दीदी, ना ही रही मौसी, न रहे मौसा, पर अभी भी बहुत कुछ है- इस घरौंदे में, जो तुम्हें बांधे रह सकता है। ’- ऐसा ही तो कुछ कहा करती थी मीरा।

और वास्तव में उस अल्हड़ हठी किशोरी को भी गुजरे हुए कोई पन्द्रह वर्ष गुजर ही गये। पर अभी भी बँधा ही है, उस घरौदे से- प्रेम के स्मारक- उस मीना निवास से।

आंखिर जाय तो जाय तो कहाँ? कौन रह गया है इतनी ‘बड़ी’ कही जाने दुनियाँ में, जो इस बेचारे को अपना कह सके? पिताजी, माँ, मुन्नी, वंकिम चाचा, चाची, मीना, शक्ति, मीरा भी...सबके सब तो चले ही गए हैं इसे पूर्णतया निरामय बनाकर। पर वास्तव में वह निरामय भी कहाँ हो पाया है? बहुत से ‘मय’ अभी विद्यमान ही हैं- गमों के कसक हैं- दिल में...प्यार की तड़पन है बाहों में...अतृप्त फड़कन है होठों पर...एकाकीपन की आह है...सर्द-गर्म उच्छ्वास है....न जाने क्या-क्या हैं जुड़े हुए। फिर कैसे कहा जाए कि कमल निरामय हो गया है। वस्तुतः निरामय होने पर ‘निरामय’ होने के भाव का भी अभाव हो जाता है। हो भी कैसे सकता है कोई निरामय! निरामय तो एक और एक मात्र परब्रह्म परमेश्वर ही है, जो ‘पद्मपत्र मिवांभसा’ है। अनुपमेय है। सर्वोपरि है। अचिन्य है। अविराम है।

मानव तो मानव है। वह निरामय नहीं हो सकता। हाँ, थोड़ी देर के लिए मान लिया जाय तो निरामय-सा हो सकता है। सो तो वह हो ही चुका है। परन्तु अन्तःप्रेरणा-प्रेरित जीजिविषा अभी भी सजग है उसके अन्दर, जिसके कारण अवसान के समीप जा जाकर भी दूर छिटक जाता है। अभी भी मरने की इच्छा नहीं है। एक जीवन्त चेतना- निस्प्राण नहीं, अभी भी है उसके भीतर। आशा है। अदम्य लालसा है। ललक है......बहुत कुछ है।



एक ओर महानगर कलकत्ता के कोलाहल भरे वतावरण के मध्य अवस्थित, किन्तु अब बिलकुल शान्त, नीरव, उदास सा मीनानिवास, और दूसरी ओर सोणभद्र के पावन तट पर, प्रकृति की सुरम्य गोद में सोया हुआ ग्राम माधोपुर आज पूरे तौर पर जगा हुआ है। सिर्फ जगा हुआ ही नहीं है, बल्कि नौशे की तरह सजा हुआ भी है।

क्यों न सजे! सौ-सवासौ घरों की छोटी सी वस्ती में एक दो नहीं, पूरे सात वारात आये हुए हैं- बीगन राम, सोहन चौधरी, पलटू भगत, दीपन सिंह, राम खेलावन पाण्डेय, और पता नहीं क्या नाम है। कौन याद करने जाए यह नामावली? क्या जरूरत पड़ी है इसकी? सबके सब ग्रामवासी- पंडित पुरोहित से लेकर भंगी मेहतर तक, आज किसी को चैन नहीं। पाकशास्त्र का ‘ककहरा’ भी

जिसे ज्ञात नहीं- वैसे को भी कारीगर यानी पाकविशारद की उपाधि देकर खुशामद किया जा रहा है। बोलने-चलने का भी जिसे सऊर नहीं, उसे भी ‘वशिष्टनाथ’ कह कर बुलाना पड़ रहा है। गर्दभरागी को भी किन्नरीबाई कहना पड़ रहा है।

पंडित जी- जो ग्राम-पुरोहित, आचार्य और वृत्तेश्वर सब कुछ हैं- प्रातः पांच बजे ही एक गिलास धारोष्ण गोरस पान कर चल पड़े हैं घर से- शंख-शालिग्राम और सत्यनारायण पोथी लेकर, साथ ही सुगम विवाह-पद्धति भी है, जो दुर्गम जीवन-मार्गों पर चलने में पथ-प्रदर्शक का काम करता है- थोड़ा बहुत।

शाम हो गयी, पर अभी तक एक दाना भी मुंह में डाल न पाये हैं। कैसे डाल पाते?यह नहीं कि उन्हें मिला ही नहीं कुछ खाने-पीने को, बल्कि समय नहीं मिला। क्षुद्र उदर-भरण में जो समय- बहुमूल्य समय नष्ट करते, उतने में कई घृतढारी-वंशरोपण हाँ ‘वंश’रोपन सम्पन्न कराया जा सकता है, और ‘खर्वस्थूल’ गोबर-गणेश पर से द्रव्य-संचय किया जा सकता है। क्षुधा देवी तो दूर, यदि मृत्यु-देवी भी आज उन्हें लेने आ जायें तो कुछ समय का मोहलत मांग लें। क्यों कि ऐसा मूल्यवान समय बार-बार थोड़े जो आता है।

छोटे-बड़े कई शामियाने और रेवटियों का चक्कर लगाते, कन्धे पर ‘अंख्खा झोला’ में ‘हाथीकान’ पूडि़यों और रसदार बून्दियों का बोझ ढोये- जिससे मधुर रस चू-चू कर ‘अंगरखे’ के पूर्ण पृष्ठ प्रदेश को चिटचिटा बना गया है, श्री पंडित पदारथ ओझा हाथ में ‘बंकुली’ थामे बढ़े चले जा रहे हैं- लपकते हुए अपनी मंजिल की ओर। जब कि मंजिल कोई अधिक दूर नहीं है। बगल में ही गांव से जरा हट कर, ब्राह्मणों की जमात है-छोटी सी; जहाँ एक ही चने के तीन टुकड़े हुए दाल की तरह तीन ब्राह्मण परिवार बसा है। उन्हीं में से एक है- स्थानीय प्राथमिक विद्यालय के अवकाश प्राप्त वयोवृद्ध शिक्षक श्री मधुसूदन तिवारी का घर। हाँ ‘घर’। मकान नहीं, इमारत नहीं, कोठी नहीं, भवन भी नहीं...। भवन कहाँ से हो?

एक समय था, जब इसी स्थान पर किलानुमा खण्डहर था। अब तो वह भी न रहा। जमीदारों की जमीदारी छिन गयी, और अपनी कही जाने वाली सरकार की रंगदारी शुरू हो गयी। धर्मनिरपेक्ष, साम्य वादी, समाज वादी, जन वादी- प्रजातान्त्रिक सरकार बनी। रोटी, कपड़ा और मकान -मूलभूत आवश्यकता को समझा जाने लगा। दलितों का उद्धार होने लगा। कर्तव्य को थोड़ा पीछे ढकेल कर अधिकार को आगे घसीट लाया गया। समानाधिकार की बात कही-समझायी जाने लगी। इसी क्रम में गांव की सारी ‘गैरमजरूआ’ जमीन अमीनी की

दूरबीन से ढूढ़-ढूढ़ कर सरकारी खाते में डाली जाने लगी। फिर उन खातों का जमकर बन्दरबांट भी हुआ। प्रायः सुदृढ़-सुसम्पन्न लोगों को ही जो चौधराने मिजाज वाले थे, लाभान्वित होने का सहज सौभाग्य मिला। वास्तविक भूमिहीनों में तो मात्र यही एक हैं- हमारे मधुसूदन तिवारी जी- गांव के गुरूजी, जिन्हें रहने का ठौर बनाने हेतु मात्र चार ‘डिसमिल’ जमीन मिली है, या कहें दी गयी है- ग्राम ‘सांसदों की महती कृपा-प्रसाद स्वरूप। उस पर भी इधर कुछ दिनों से ग्राम-सेवक चौधरी का ‘वक’ ध्यान लगा हुआ है; जो कल ही आया था सूचना देने-

‘सुनिये तिवारी जी! एक सप्ताह का मोहलत और दे रहा हूँ, बस। फिर न कहियेगा कि पहले अगाह किया नहीं। आप अपना ठौर कहीं और ढूढि़ये। यह तो

सरकारी जमीन है, स्कूल के नाम पर। इस पर ‘गेंड़ुर’मारे अब न बैठे रहिये।

चौधरी की बात सुन घबड़ाकर, गिड़गिड़ाते हुए तिवारीजी ने कहा था- ‘बस भैया, दश-पन्द्रह दिनों की तो बात है, ज्यादा नहीं कहता; इतने का ही आग्रह है। ’

मुंह बनाते, नाक-भौं सिकोड़ते, आँखें तरेर कर चौधरी ने कहा- ‘छोड़ क्या शौक से देंगे?यह क्या आपके बाप की जमीदारी है, जो तीन साल हो गये रिटायर किये, और अभी तक दखल जमाये हुए हैं? कई बार कहा, पर आपके कान पर जूँ भी नहीं रेंगते। या लगता है कान में रूई ठूँसे हुए हैं, कान खोल कर सुन लीजिये- उससे आगे एक दिन का भी मोहलत नहीं मिलने वाला है। एक ओर मेरे दरवाजे पर वारात आयी है, और दूसरी ओर स्कूल इन्सपेक्टर की नोटिस। आखिर कब तक इन्तजार करूँ आपके इन्तजाम का? मैं ही हूँ जो अब तक रूका रहा, मेरी जगह कोई और सेक्रेटरी होता तो कान पकड़ कर चांद दिखा दिया होता कब का ही। ’

बरबर समाज के कठघरे में गीता-कुरान के बदले हाथों में ‘ब्रह्मसूत्र’ जनेऊ लेकर तिवारी जी गिड़गिड़ाने लगे-

‘बस चौधरी भैया! चार-पाँच दिन तो और मांग रहा हूँ सिर्फ, सप्ताह भर तुम स्वयं ही कह रहे हो। मैं थोड़ा....। ’

‘सो सब अब नहीं होने को है। चार-पांच दिन तो बहुत होते हैं, चार-पांच घंटे भी उसके बाद नहीं रूकूँगा। मेरा आदेश अब ब्रह्मा की लकीर समझो।’- कहते हुए चौधरी ने अपनी छड़ी से सामने की जमीन पर तीन बार लकीरें खींच दी।

किंकर्त्तव्यविमूढ़, तिवारीजी हाथों की सूत्र-बेड़ी को सरकाते हुए सिर झुका कर जमीन पर देखने लगे, जहाँ नवोदित ब्रह्मा की लम्बी भाग्य-लेखनी चल रही थी- भूमि के कोरे कागज पर। उन्हें समझ न आ रहा था कि कैसे सलटाया जाए- इस मामले को। विद्यालय से अवकाश ग्रहण किये तीन वर्ष गुजर चुके थे। इस बीच सच में चौधरी ने कई बार ‘अलतिमेथम’ दिया था- आवास त्यागने हेतु।

आवास ही क्या था? छः-सात फुट ऊँची मिट्टी की दीवार, जिस पर पड़ा ‘फूस’ का छप्पर। बाहर गड़ा हुआ एक क्षुद्र-प्राण खूँटा, और उससे बँधी- अल्प प्राण- एक मरियल सी गाय- सिर्फ कहने भर की गाय-जो अभी हाल में ही बीगन महतो की माँ के श्राद्ध में मिली थी। पता नहीं इस मरियल सी गाय की सडि़यल सी पूँछ पकड़ कर बैतरनी की दुस्सह दुर्गम धार को कैसे पार की होगी उस वृद्धा की प्रेतात्मा! इससे तो कहीं अच्छा होता कि एक दुधारू बकरी ही दान कर दिया होता- ‘अजा’ में जो मजा था, इस गाय में वह कहाँ?

उसी गाय की पूँछ पकड़ कर, चौधरी आगे बढ़ तिवारीजी के हाथ में पकड़ा दिया, मानों इसे पकड़ कर प्रपंची भवसागर से इन्हें भी पार पा ही जाना है; और कड़क कर बोला-

‘वैसे काम नहीं चलेगा तिवारी बाबा! गेंदड़ा सीने वाले डोरे से बने जनेऊ को हाथों में लपेट कर ‘किरिया-कस्ठा’ खाने से काम नहीं चलने को है। इस तरह गाय की पूँछ पकड़ कर वाकायदा कसम खानी होगी कि दस दिनों बाद निश्चित रूप से छोड़ देंगे इस सरकारी जमीन को- कोई अन्य व्यवस्था हो न हो। ’ और फिर वजाप्ता शपथ वाक्य कह गया। हाथ में अपनी ही गाय की पूँछ पकड़े तिवारी जी ने चौधरी के कथन को शब्दशः दुहरा दिया, बिना कुछ ‘मीन-मेष’ के-मानों मन्त्री पद का शपथ- ग्रहण कर रहे हों।

शपथ से आश्वस्त हो चौधरी चल दिया, यह कहते हुए-‘बुरा न मानेंगे तिवारी जी मेरे सामने भी मजबूरी है। विवशता है- कानून की...समाज की।’

जबकि तिवारी जी वखूबी जानते हैं कि कितनी और कैसी मजबूरी है चौधरी महाशय के साथ। वास्तव में यह जमीन सरकारी है यदि- यानी विद्यालय के नाम, फिर उस दिन जब किसी आवश्यक कार्यवश व्याज पर कुछ रुपयों की याचना की थी तिवारी जी ने चौधरी से, तो क्यों कह रहा था-

‘रुपया तो मैं दे दे सकता हूँ- आप जितना कहें। भगवान की कृपा से काफी कुछ है मेरे पास। ब्राह्मण होने के नाते व्याज दर में भी कुछ रियायत कर दूँगा; किन्तु सवाल है उस मूलधन की वसूली का। ’