पुनर्भव / भाग-2 / कमलेश पुण्यार्क

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हाथ में पकड़े हुक्के की मूठ को होठों से लगाकर एकबार जोरों से गड़गड़ाया था चौधरी ने। फिर धूम्रपान के पश्चात् धूम्ररेचन करते हुए बोला था- ‘जगह-जमीन आपके पास है नहीं जिसे बेंच-बांच कर मेरा कर्ज भरेंगे। रिटायरमेन्ट के बाद जो मिला थोड़ा बहुत सो कहते हैं कि खर्च ही हो गया। अन्य कुछ आय का स्रोत है नहीं। फिर किस जरिये से...क्या देह बेंच कर....?’- सिर हिलाते हुए गुड़गुड़ा फिर होठों से लगा लिया था चौधरी।

कुछ सोचते हुए गम्भीर हो गए थे मधुसूदन तिवारी। अधर को होठ से दबाते हुए सिर हिलाये और चिन्तित मुद्रा में बोले थे-

‘बात तो सही कह रहे हो चौधरी भैया। पर विश्वास रखो, किसी प्रकार तुम्हारा हिसाब चुकता कर ही दूँगा। कर्ज खाकर अपना परलोक थोड़े ही बिगाड़ूँगा। ’

कुटिल मुस्कान सहित श्मश्रु सहलाया कूटनीतिज्ञ चौधरी ने और ‘सटक’ (हुक्का) समेटते हुए, थोड़ा समीप आकर आहिस्ते से बोला-

‘मैं जो कहता हूँ उसे आप समझने की कोशिश करें, आपही के फायदे की बात बतला रहा हूँ। ’

‘कहिये, क्या कहना चाहते हैं?’-चुन्दी सहलाते हुए तिवारी जी बोले और इत्मिनान से बैठ गए चौधरी के साथ ही चौकी पर।

‘सुनिये, वह जो जमीन आपके पास है- जिस पर मकान बना कर रह रहे हैं, वास्तव में स्कूल की जमीन है। अब तक तो सेवा में थे, सरकार की। अतः किसी ने आपत्ति न जतायी। किन्तु अब सेवा-निवृत्त हो चुके हैं। आज न कल इस सार्वजनिक सम्पत्ति को त्यागना ही पड़ेगा। ’- चौधरी ने भूमिका बनायी।

‘सो तो है ही। पर उस गैर-हकी जमीन को...। ’-तिवारी जी कहना ही चाह रहे थे कुछ आगे कि मुस्कुराते हुए चौधरी ने कहा- ‘उसी वास्ते तो मैं रास्ता सुझा रहा हूँ। क्यों न उस जमीन को मेरे पास ‘रेहन’ रख दें। रुपया मिल जायगा। आपका तत्कालिक काम निकल जायगा। कागज-पत्तर की बारीकी मैं समझ लूँगा। आप समय पर कर्ज भरने में असमर्थ रहे तो भी मैं आपको वाध्य न करूँगा रकम वापसी के लिए। सरकार का सतसल्ला इजा़रा कानून लागू ही

हो गया है....। ’-चौधरी कहता जा रहा था, और तिवारी जी पास बैठे, उसकी आँखों में तैरते किसी भावी कुटिल योजना की स्पष्ट छवि निहारते रहे थे। उसी दिन तो मुखिया जी कह रहे थे कि शीघ्र ही इस गांव में सरकारी योजना से गन्ना मिल बनने वाली है। साथ ही बाजार समीति का विशाल प्रांगण भी बनना है। साल दो साल में छोटा सा माधोपुर ‘माधवनगर’ का चोंगा पहन लेगा। यहीं पास में, तिवारीजी के मकान के पीछे ही सिनेमा हॉल भी बनने वाला है। फिर आज दो टके की जमीन कल दो लाख की हो जायगी।

किन्तु अब तो पंछी उड़ चुका पिंजरे से- गाय की पूँछ पकड़ कर प्रतिज्ञा-वद्ध हो जाना पड़ा। जमीन पूरी तरह सरकारी हो या गैर सरकारी, दो टके की हो या दो करोड़ की- अब तो छोड़ ही देना है दस दिनों बाद। बस किसी तरह शादी-व्याह का मामला सलट जाय, एक मात्र बच्ची खुशी-खुशी विदा हो जाय किसी की गृह-लक्ष्मी बन कर, फिर तो यहाँ शेष रह जायगी ‘उनकी बहन- दरिद्रा’ का साम्राज्य, जिसे त्याग कर कहीं भी निश्चिन्त होकर जाया जा सकता है, डफली उठा- ‘भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् गोविन्दम् भज मूढ़ मते...’ का रट लगाते।

दरवाजे पर दरी विछाकर, शान्त शरीर अशान्त मन बैठे तिवारी जी बीते कल के साथ और भी कई ‘कल’ के स्मरण-चिन्तन में काफी देर से निमग्न थे कि सामने से आते हुए नजर आये श्रीमान पदारथ ओझा।

‘पाँड़े’ ब्राण्ड मच्छरदानीनुमा पीली धोती से उनका जर्जर शरीर झांक रहा था। ऊपरी भाग पर आक्षादित ‘अंगरखे’ में बने थे असंख्य वातायन । माथे पर बँधी थी- एक और वैसी ही, धोती की ही पगड़ी, जिसे विशेष कर दान-सुपात्र ब्राह्मणों के लिए ही धर्म-मर्मज्ञ उद्योगपतियों ने निर्मित किया है। बेचारा पगड़ी सम्राट-भाल पर विराजमान राजमुकुट सा स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा था। नाक के मध्य खण्ड से भाल के उर्ध्व खण्ड तक फैला- विहंसता हुआ गोपी चन्दन- एक सौ ग्यारह बटा नाक का गणितीय विभ्रम पैदा कर रहा था। कंधे पर लटक रहा था- युगल-वाहु झोला, जिसके अग्र भाग में सत्यनारायण, दुर्गा से सांग विवाह-पद्धति तक, कई पोथियाँ- मुड़-चिमुड़ कर खास्ता परौठे का भ्रम पैदा कर रही थी। साथ ही बँधा था, एक लाल टुकड़े में सोणभद्र का एक छोटा सा- अतिक्षुद्र पाषाण-पिण्ड, जो आज शालग्राम का पवित्र श्रेणी पाकर अपने सौभाग्य पर इठला रहा था, मानों सीधे गंडकी से ही उद्भित हुआ हो। क्यों न सराहे! तीन खण्डों में विभक्त भीमकाय शंख- सुतरी से आवद्ध हो कर भी प्रसन्न था जब। ऐसी स्थिति में शंख-शालग्राम का सानिध्य, एक दूसरे की पीठ आधुनिक नेताओं की तरह थपथपा रहे थे- यह सब था ओझाजी का ‘मुख-भाग’और पृष्ठ भाग पर लटक रहा था-झोली का एक सरस खण्ड, जिसमें था- पाँच किलो भर पूडि़याँ, रसदार बून्दिया, आलू-पटल का दमादम ‘दम’ कद्दू का रायता, इमली की खटमिठ चटनी, और पता नहीं और क्या-क्या- आपस में गडमड सी होकर एक दूजे के अस्तित्त्व क्षेत्र में प्रवेश कर स्वयं को ही अस्तित्त्व विहीन कर लिए थे, फलतः कहना कठिन है कि कौन क्या है। वैसे भी आज कल तो ‘वानरा इव कुर्वन्ति, सर्वे बफे डीनरः’ के जमाने में पार्टी-फंक्शन में पता ही कहाँ चल पाता है कि ‘डीनर प्लेट’ में क्या-क्या खाद्य-अखाद्य भरा पड़ा है! बस आये जाओ, खाये जाओ रूमाल में हाथ पोछते जाये जाओ। बाकी चीजों से न मेहमान को मतलब है, और न मेजवान को।

खैर, हमें भी कोई मतलब नहीं है इन सब से। ग्रीष्म-तपन-तप्त श्वान सा वालिस्त वरोबर जिह्ना निकाले, हांफते, छड़ी टेकते चले आ रहे पदारथ ओझा पर दृष्टि पड़ते ही तिवारी जी अपना अतीत चिन्तन विसार कर वर्तमान में आ गिरे- उठ खड़े हुए उनकी आगवानी में।

पदारथ ओझाजी चबूतरे पर चढ़, बगल में पड़ी चौकी पर अपना ‘बोझ’ उतार कर रख दिए, और चारो खाने चित पड़ गए।

उनकी यह दयनीय दशा देख तिवारीजी अपनी अन्तर्व्यथा सब भूल बैठे। तुलसी बाबा ने ऐसी ही परिस्थिति में अगाह किया होगा शायद- ‘जे न मित्र सम होहीं दुखारि, तवहुँ विलोकत पातक भारी...। ’

और तिवारी जी हड़बड़ा कर ओझा जी की ओर लपक पड़े- ‘क्या हुआ ओझा जी! तवियत ठीक नहीं है क्या?आज बहुत दिनों बाद दर्शन दिए!’

माथे पर छलक आयी पसीने की बूंदों को गमछे की छोर से पोंछते हुए ओझाजी दिन भर की अपनी डायरी बाँच गए। उनकी पूरी कहानी सुनने के बाद तिवारी जी बोले- ‘क्यों जान दिए जा रहे हो? मर जाओगे इस भीषण लू के चपेट में आकर तो क्या यह यजमनिका ही साथ जायेगी?दिन भर व्यर्थ मारे-मारे फिरे। कुछ खाये-पीये भी नहीं। कौन कहें कि आगे-पीछे दो-चार-दस पड़े हैं

रोने-विलखने वाले। ’

टांग समेट ओझाजी उठ कर बैठ गये- जरा चैतन्य होकर, और हँसते हुए कहने लगे, -‘क्या बात करते हो मधुसूदन भाई! मेरे मरने पर दो-चार-दस जन नहीं, इलाके भर के स्वान-श्रृगाल सब रोयेंगे और उनका आँसू पोंछने वाला भी कोई नहीं होगा। ’

‘क्यों नहीं...क्यों नहीं...इन चौपायों को छोड़ कर और किसी के पास समय ही कहाँ है- तुम्हारे मौत का मातम मनाने को। सच पूछो तो मातम भी वे ही मनायेंगे और जश्न भी वे ही मनायेंगे। ’- कहते हुए तिवारी जी भी हँसने लगे।

कुछ देर इसी भांति दोनों मित्र हँसते रहे। फिर अचानक पदारथ ओझा ने प्रसंग बदला-

‘अरे मधुसूदन भाई! तुम्हारे यहाँ भी आज ही बारात आने वाली है न? और तुम इतने इत्मिनान से चबूतरे पर पलथी मारे आम्रतल में विराज रहे हो?न भीड़-भाड़ न किसी प्रकार की तैयारी?

ओझाजी की बात सुन तिवारी जी के प्रशान्त मुख मण्डल पर थोड़ी झुर्रियाँ झलक आयी। लम्बी-गहरी सांस खींचते हुए बोले-

‘किस बात की मेरे द्वार पर भीड़-भाड़ हो पदारथ भाई? तुम देख ही रहे हो कि आज पूरे गांव में वारातों की प्रदर्शनी लगी है। गाड़ी-मोटरों की दौड़ से लगता है कि माधोपुर ‘माधोमहानगर’ हो गया है। पवित्र-शान्त ग्रामीण वातावरण में तवायफों के घुँघरूओं का गुंजार हो रहा है। आतिशवाजियों की कर्कश ध्वनि और तीक्ष्ण प्रकाश तृतीय विश्वयुद्ध का भ्रम पैदा कर रहा है। रंगीन क्षुद्र विद्युत बल्व वसुधा पर नक्षत्र मण्डल उतार लाए हैं। ध्वनि विस्तारक चोंगा

आधुनिक वेदध्वनि गुंजा रहा है। फिर इस रंगीन मोहक माहौल को त्याग कर कौन झांकने आए इस अकिंचन की झोपड़ी की ओर?शहनाईयाँ बजती हैं। नृत्य-गान होते हैं। अगनित भोज्य भण्डारों का पट खुलता है, और न जाने क्या-क्या होता है; परन्तु इन सबके अन्तरगत मात्र एक ही बात होती है- दो अज्ञात-अपरिचित हृदय का स्थायी मिलन-योजन। फिर चिन्ता किस बात की? बाह्याडम्बर हो, ना हो, क्या अन्तर पड़ता है? वैसे भी उपाध्याय जी ने महती कृपा की है हम पर। न जाने किस जन्म के मेरे पुण्य उदित हुए हैं, जो उन सरीखा ‘समधी’ मिला मुझ दीन पुरुष को....। ’

तिवारी जी अभी अपना दीर्ध प्रवचन शायद जारी ही रखते कि बीच में ही ओझा जी चौंक पड़े- उनकी अन्तिम बात पर। उनका चौंकना भी वाजिब था; कारण कि एक ओर तो पदारथ जी इधर कोई डेढ़-दो महीनों से वैवाहिक लग्नों के रेलमपेल में इस कदर उलझे रहे कि प्यारे मित्र मधुसूदन तिवारी से मुलाकात तक करने का मौका न मिल पाया। दूसरी बात यह कि वे इस बात की कल्पना भी न कर पाये थे कि निर्मल उपाध्याय जी का स्नेह-सूत्र यहाँ तक खींच ला बाँधेगा तिवारी जी को। वैसे भी सर्व विदित था कि उनके लड़के की शादी रामदीन पंडित की पुत्री से तय प्रायः थी। पूरे पचास हजार नगद दहेज देने को तैयार थे पंडित रामदीन। फिर अचानक यह पाशा पलट कैसे गया?

आश्चर्य चकित पदारथ ओझा आँखें तरेर, तिवारीजी की ओर देखते हुए बोले- ‘क्या उपाध्याय जी की बात कर रहे हो? वे तुम्हारे समधी होने जा रहे हैं?’

‘....और क्या, तुम किसके बारे में समझ रहे हो?’-तिवारी जी ने जिज्ञासा प्रकट की।

‘मैं तब से समझ रहा था कि प्यारेपुर वाले निर्मल जी की स्नेह-सरिता उमड़ आयी तुम्हारी ओर। मगर तुम तो प्रीतमपुर वाले निर्मल उपाध्याय की बात कर रहे हो, जो अवकाश-प्राप्त आरक्षी-अधीक्षक हैं?’- पटापट आँखें मटकाते पदारथ ओझा ने कहा-‘वाह! सच में आश्चर्य वाली बात है- कैसे राजी हो गये तुम्हारे यहाँ सम्बन्ध करने को, वह भी रामदीन पंडित की लाखों की दौलत को

ठोंकर मार कर? मोटे नगद-नारायण के साथ-साथ गाड़ी-बाड़ी- सब जोड़ो तो पचासों लाख की सम्पदा। क्या पागल कुत्ता काटे है उस पुलिस अफसर को?’

मुस्कुराते हुए मधुसूदन तिवारी बोले- ‘दौलत लाख-करोड़ का पा ले कोई दहेज के नाम पर, किन्तु दिल तो खाकों बराबर हुआ करता है। भगवान ने बहुत कुछ दिया है निर्मल जी को। नामानुरूप हृदय भी। सबसे छोटा लड़का है। अभी उम्र ही क्या है उसकी, जो शादी की जल्दी थी। अभी, इसी साल तो बी.ए. पास किया है। पर न जाने कौन सा मोहिनी मन्त्र मार गयी हमारी विटिया उस दिन बाबाधाम का चूड़ा और पेड़ा खिलाकर!’

‘वाह! मैं क्या जान ही नहीं रहा हूँ, उस लड़के को! शील-स्वभाव-शिक्षा, अरे ये तो नानी के आगे ननिहाल का वखान करने वाली बात हो गयी। परन्तु उपाध्याय जी तो एक तरह बेटी ही मान लिए थे तुम्हारी.....। ’

‘ओझाजी की बात को बीच में ही काटते हुए तिवारी जी बोलने लगे - ‘हाँ भाई! एक तरह से बेटी क्या, अब तो हर तरह से बेटी बना रहे हैं। बेटी और बहू

में तो जरा सा ही अन्तर है, मात्र भावनात्मक ही तो। काश! इसी तरह हर बेटी ससुराल में भी बेटी ही बनी रहती- पितृ-गृह सा स्नेह पा पाती। ’- कहते हुए तिवारी जी का गला भर आया था, पु़त्री की भावी सुख-कल्पना से ओत-प्रोत होकर।

ओझाजी आगे कुछ कहना ही चाह रहे थे कि उधर से दौड़ते हुए, तिवारी जी का

भांजा- छोटकू आ पहुँचा- ‘मामाजी! मामाजी! वे लोग आ पहुँचे। ’

छोटकू की बात सुन कर तिवारी जी के साथ-साथ ओझाजी भी उठ खड़े हुए।

तब तक एक चमचमाती हुयी बिलकुल नयी मोटर गाड़ी उनके दरवाजे के सामने आ खड़ी हुयी; जिसमें से बाहर पदार्पण किया- एक पंच सदस्यीय शिष्ट मण्डल- श्री निर्मल जी, उनका कनिष्ट पुत्र विमलेन्दु, मध्यम- मधेश्वर, अग्रज- अच्युत, और साथ ही भृत्य- बिठुआ। इतने ही मात्र वाराती- जिनका स्वागत करना था तिवारी जी को। स्वागत भी ‘स्व-आगत’ की तरह- नास्ता-भोजन, वैदिक वैवाहिक कार्यक्रम और चटपट विदाई- सारा कार्य कुल जमा चार-पांच घंटों का, बस।

ईश्वर की असीम अनुकम्पा से आज मधुसूदन तिवारी जी की पुत्री- मीना का वैवाहिक समारोह है, जिसमें पधारा है-पंचतत्त्वात्मक शिष्टमण्डल।

मीना- तिवारी जी की इकलौती बेटी, एक मात्र सन्तान, उनकी अरमानों का ताज, दिल की धड़कन, आँखों का नूर, ज़हाँ का जन्नत। यही तो एक मात्र सहारा है उनकी रीते जिन्दगी का। अर्द्धांगिनी तो कब की जा चुकी। मीना के प्रादुर्भाव के कुछ ही वर्ष बाद तो वह चली गयी थी सुरधाम को। बेचारे तिवारी जी तब से अर्द्धांग ही तो रहे- पूरा भी क्या कभी हो पाता है- वस्तुतः छिटका हुआ अंग!

अब मीना षोडशी हो चुकी है, यानी तिवारी जी के एकाकी जीवन का तेरहवाँ पतझड़ गुजर रहा है।

क्षण भर में ही घूम जाती है उनकी आँखों के सामने- विगत वर्षों की

अनेक परछाईयाँ। खो से जाते हैं तिवारी जी भीड़ में-उन्हीं परछाईयों की। और फिर भीड़ तो सिर्फ भीड़ ही होती है- आदमी कहाँ रह जाता है? युवावस्था से लेकर आज प्रवयावस्था तक न जाने कितने ही पड़ाव पड़े उनकी जीवन-यात्रा में।

वह भी एक दिन था-

नयी-नयी नौकरी मिली थी। शादी भी हाल में ही हुयी थी। न जाने कितने सपने संजोये थे मधुसूदन तिवारी वाल्यावस्था से किशोरावस्था तक। अर्द्धांगिनी के रूप में रूपसी योगिता को पाकर उनका मन मयूर नाच उठा था। जीवन की बगिया में वसन्त की बहार आ गयी थी।

वह भी एक समय था- आज की तरह नियोजनालय का लौह द्वार नहीं खटखटाना पड़ता था, शिक्षितों को। शिक्षित ही कितने होते थे- मुट्ठी भर, मगर ठोंके पीटे, सजे-मंजे। यह नहीं कि बी.ए. की डिग्री टांग लिए और अपना नाम भी शुद्ध लिखने में हाथ कांपे। जो भी था- शुद्ध घी, डालडा नहीं। और इतने से ही संतुष्ट थी भोली जनता। हालांकि तिवारी जी को काफी ठोकरें खानी पड़ी थी। बहुत तरह के पापड़ बेलने पड़े थे। दरअसल थे भी निरे ‘बाबाजी’। काफी मस्सकत के बाद स्थानीय प्राथमिक विद्यालय का शिक्षक बनने का सौभाग्य मिला था। पदारथ ओझा -बचपन के साथी, बिलकुल लंगौटिया यार, हर सुख-दुःख के साथी-साझेदार। उन्होंने ही तो आकर सूचना दी थी तिवारी जी को इस ओहदेदार पद की, और खुशी से झूमते हुए मधुसूदन तिवारी ने बोइयाम में से ग्रामीण कलाकन्द- ‘बताशा’ बरबस ही ठूंस दिया था, उनके मुंह में-

‘लो पदारथ! पहले मुंह मीठा करो। ईश्वर कृपा से अब हम दोनों के जीवन का नया अध्याय आरम्भ हो जायगा। हम दोनों साथ-साथ एक ही विद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए अपनी जिन्दगी का बोझ भी एक दूजे के लिए वैशाखी बन कर ढोयेंगे। ’

ऐसा ही कुछ कहा था उस दिन मधुसूदन तिवारी ने। परन्तु क्या पता था वेचारे को कि नौकरी की खुशी में मुंह में घुलते बताशे-सा ही उनका भविष्य भी अन्धकार में घुल जायगा! घोर निराशा और हताशा का सामना करना पड़ जायेगा! यह तो कल्पनासे भी परे था।

कोई महीने भर बाद ही तो बेचारे पदारथ ओझा गंवा बैठे थे अपनी गृह-लक्ष्मी को। युवा पदारथ की पत्नी ही नदारथ हो गयी थी। फिर रह ही क्या गया बेचारे ओझा का- जीवन-बोझा के सिवा! सही में उनका जीवन स्वयं में बोझ बन कर रह गया। फिर शादी भी नहीं की दूरदर्शी विचारक ने। जीवन गुजार डाला ग्रमीण बच्चों की किलकारियों के बीच। परन्तु खुद का घर कभी गूंजित न हो पाया अपने औरस की किलकारी से। अब तो अवकाश पा, निराश हो बैठ गए।

पर कौन कहें कि मधुसूदन तिवारी ही बहुत सुख लूटे अपनी चाहत का? तीन साल हो गए शादी के, पर सन्तान का सौभाग्य न हो पाया। घर-परिवार, पास-पड़ोस कुरेदने लगा-

‘कैसी कुलक्षिणी बहू उठा ले आए हो मधुसूदन, जो अभी तक गोद भी न भर पायी?’

और धीरे-धीरे यही बात हर कोई की जिह्वा पर तैरने लगी। बूढ़ी माँ के कान पकने लगे, समाज के व्यंग्य वाणों से; उस समाज के जिसे अपनों से ज्यादा आस-पड़ोस की ही चिन्ता अधिक सताती है। अधीर होकर कहा एक दिन वृद्धा ने अपने इकलौते बेटे-मधुसूदन से- ‘बेटा! अब तो मुझे जरा भी आश नहीं इस बहू से पोता-पोती देख पाने की। बच्चों की किलकारी के लिए तरसती ही रह जाऊँगी। ’

वृद्धा की बात सुन सिर खुजाने लगे मधुसूदन। उन्हें कोई शब्द न मिला सान्त्वना के लिए, जिसे माँ की सूनी आँचल में डाल सकें सन्तान के विकल्प में।

‘मेरी मानों...’- माँ ने आगे सुझाया- ‘ठीक से कुण्डली विचार कर किसी प्रबल सन्तान-योग्या लड़की से विवाह कर लो। ’

माँ की बातों से मधुसूदन का म्लान मुख कौये की चोंच सा खुला रह गया। घुंघराले काले केशों को कुरेदती अंगुली मानों चिपक कर रह गयी सिर से ही।

उधर किवाड़ की ओट में खड़ी योगिता सिर पकड़ कर बैठ गयी- ‘ओफ! इतना अनर्थ! पांच साल बीत क्या गये, लगता है मैं बांझ ही हो गयी। इतना ही शौक था बच्चे का तो क्यों नहीं किसी ऐसी लड़की से शादी की थी, जो कुआंरी ही जनमा चुकी हो दो-चार...। ’- मन ही मन भुनभुनाकर रह गयी थी अभागन।

माँ के मुखड़े को, जिस पर अपने प्रस्ताव-सुझाव की प्रतिक्रिया की उत्सुकता वश आशा-निराशा के विम्ब बन-बिगड़ रहे थे, मधुसूदन कुछ पल तक गौर से निहारते रहे। फिर थूक घुटक कर गला तर करते हुए बोले-

‘क्या कहती हो माँ! तुम भी पड़ गयी लोगों के कहने में?अभी उमर ही क्या बीती है बेचारी योगिता की, जो तुम शादी कर एक और बहू लाने को कह रही हो? मान लिया उसे भी न हुयी सन्तान, फिर क्या तीसरी को ले आऊँगा? और फिर चौथी को? घर में बहुओं की नुमाइश लगा दूँ?’

‘नहीं बेटा!, सन्तानेच्छु, पुत्र-भीता वृद्धा युवा पुत्र के कंधे पर हाथ रखती हुयी बोली- ‘यह बात नहीं है। दुनियाँ की हर औरतें क्या इसी तरह की होगी? देखो तो चार महीने सिर्फ हो रहे हैं, भरोसवा की बहू को आए हुए, और गर्भवती हो गयी। कल ही कह रही थी उसकी माँ कि ‘कनाईं’ को उल्टी आ रही है। ’

‘उल्टी आए या सीधा। मैं कहता हूँ- कुछ दिन सब्र करो। धीरज धरो माँ। अभी तो वह स्वयं ही बच्ची है- सोलह-सत्रह की। बच्चा होने की क्या उमर गुजर गयी?’-माँ को समझाते हुए मधुसूदन ने कहा था।

बेटे की बात सुन वृद्धा कुछ देर तक उसका मुंह ताकते रही, फिर एक ओर चल दी विना कुछ कहे-बोले। तिवारी जी ने भी सोचा कि माँ उसकी बातों पर यकीन कर ली है। अतः लम्बे डग भरते दूसरे कमरे की ओर चले गये, जहाँ सिर पकड़े, नत निगाहें युवती योगिता अपने आँसू से धरित्री सिंचित कर रही थी।

कमरे में पहुँच कर तिवारी बैठ गए खाट पर, किन्तु ध्यान गया जब योगिता के म्लान-मुख पर, जो सान्ध्यकालीन कमलिनी सा कुम्हलाया हुआ था, और रात्रि के आगमन के पूर्व ही ओस की बूंदें टपक रही थी, जिसे देखकर उनसे सहा न गया। लपक कर उसका हाथ पकड़ लिए।

‘क्या बात है योगिता! क्यों रो रही हो?’-सवाल इस लहजे में था मानों रूलाई के कारण का इन्हें कुछ अता-पता ही न हो। जब कि उन्हें अच्छी तरह ज्ञात है कि इस असामयिक रूदन में हृदय की कौन सी व्यथा छिपी है। आए दिन बेचारी को सिर्फ सास ही नहीं आस-पड़ोस की भी भंगिमाओं का शिकार होना पड़ता है। आंगन में आने वाली प्रायः हर औरत का पहला सवाल यही होता कि बहू का क्या हाल है?अभी कुछ....?’

और घिसा-पिटा सा उत्तर होता है बुढि़या सास का- ‘अभी कुछ क्या? कभी कुछ नहीं। मेरे भाग्य में इतना सुख कहाँ लिखा है, जो पोते-पोतियों का मुंह देख सकूँ। ’

टोले-मुहल्ले का यह एक औपचारिक और अनिवार्य सा प्रश्न है। परन्तु प्रश्न का उत्तर कितना कठिन है, यह उन्हें क्या पता। इसी प्रश्न से सदा के लिए छुटकारा पाने हेतु ही तो उपाय सुझाया था वुढ़िया ने अपने एक मात्र कुल-दीपक को, जिस पर यदि अमल कर लिया जाय तो कुलदीपक का प्रेम-दीप ही बुझ जाने की आशंका है।

आज से कुछ दिन पहले तक तो सिर्फ मुहल्ले वाले ही कहा करते थे। आज सास ने भी कह दिया। कल हो सकता है, प्रेम-प्रतीक पति भी कह बैठे। उसके दिमाग में भी ‘पुम् त्रायते इति पुत्रः’ का भूत भर जाये। ‘पुम्’ नामक नरक से उद्धार करना ही तो पुत्र का पुनीत कर्म है। इसी कामना से तो पुत्र की अनिवार्यता दर्शित होती है। उस व्यक्ति का जीवन ही क्या, जिसकी कोई सन्तान न हो! कौन सम्पन्न करेगा उसकी उर्ध्वदैहिक क्रियाओं को?शारदीय पितृपक्ष के पावन अवसर पर किसी धर्मभीरू के भींगे अंगोछे से टपकायी गयी वारी-बूंदें ही तो तृषा-तृप्ति हेतु प्राप्त हो सकेंगी?ओफ! स्मृतिकारों ने भी कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया है, सन्तान की महत्ता को- ऐसा ही कुछ सोचती जा रही थी बेचारी योगिता और आँखें सावन-भादों की घनेरी वदली सी बरसती जा रही थी, कि अचानक कमरे में उपस्थित होकर मधुसूदन ने उसकी कोमल कलायी थाम ली।

मधुसूदन तिवारी बारबार पूछे जा रहे थे- उसके रूलाई का कारण, और उसका हृदय फटा जा रहा था, किसी भावी भय की आशंका से।

वह सोच रही थी- प्रताड़ना का यदि यही क्रम रहा तो फिर आज न कल ‘इनका’ भी विचार बदल जायगा। अभी नयी हूँ। प्रेम-सागर के असीम जल से आप्लावित हो रहा है इनका तन-मन। पर कुछ काल बाद प्रेम की जब परितृप्ति हो जायेगी, तब इसी सागर का जल खारा लगने लगेगा। ढलती जवानी में यौवन के उभार ढलक पड़ेंगे- कमल के पत्ते पर पड़े पानी की बूंदों की तरह, और तब खूँटे से उन्मुक्त वृषभ जिस-तिस की क्यारियों में मुंह मारने लगेगा। तब घर क्या घर ही रह जायेगा? बच्चों की किलकारियों के लिए तड़पती कमरे की दीवारें और छत क्या काट खाने को न दौड़ेंगी? परायी खेती में लहलहाते तृणों पर मुंह मारते-मारते, मन जब कभी थक जायेगा, तो हो सकता है कि वापस भी आये- पुराने वसेरे की ओर, पर अकेले नहीं वरन् किसी नयी गाय का पल्लू पकड़ कर। ओफ! उस दिन क्या मेरा सुहाग रह कर भी, न रहने के बराबर न हो जायेगा? माँजी तो आज ही कह रही है...। ’

योगिता के गम्भीर विचारों के तड़ाग में मधुसूदन ने अपने पुनर्प्रश्न की कंकड़ी फेंककर, और भी उद्वेलित कर दिया-‘क्यों योगिता! बोलती क्यों नहीं? मैं समझ रहा हूँ, माँ की बातों से दुःखी हो तुम। पर मेरी बातें भी तो सुनी ही होओगी? क्या यह सम्भव हो सकता है कि अपनी हृदयेश्वरी को त्याग कर किसी और को ला बिठाऊँगा इस प्रेम-प्रासाद में?’- योगिता के कपोलों पर लुढकते अश्रुबून्दों को उसी की आंचल में छिपाते हुए मधुसूदन ने कहा-

‘सूरज पूरब के वजाय पश्चिम में उगने लगे, चाँद गरम हो जाय- सूरज की तरह, अग्नि शीतल हो जाये-बर्फ की तरह, जल ठोस हो जाय-लोहे की तरह, धरती तरल हो जाय-मदिरा की तरह, प्रकृति का प्रत्येक नियम परिवर्तित हो जाय, पर तुम विश्वास रखो- मैं कदापि बदल नहीं सकता। ’

योगिता पूर्ववत जड़ बनी, भू-दर्शन करती रही। मधुसूदन ने बच्चे की तरह उसे गोद में उठा कर खाट पर ला बिठाया। फिर प्यार से थपथपाते हुए, सहलाते हुए कहने लगे-

‘तुम्हारे वक्षस्थल के इन सुरभित घटों को क्या मैं भुला सकता हूँ, कभी भी? मुझ सरीखे अशान्त मानव के लिए यह परम विश्रान्तिस्थल नहीं है क्या? काश! इन युगल सुमेरुओं पर सिर टिका कर महा निर्वाण तक पहुँच जाता। सच में कुछ-कुछ वैसी ही सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है- इन घाटियों में। ’

मधुसूदन ने अपना सिर टिका दिया था, उसके उन्नत उरोजों पर, मानों पर्यंक पर सजाये हुए गुदगुदे मसनदों के जोड़े हों।