पुनर्भव / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
"तथागत" के उस चित्र ने मेरे भीतर अनेकानेक अनुभूतियों, संवेगों और प्रतिफलनों को जन्म दे दिया था।
"मथुरा शैली" की बुद्ध प्रतिमा, जैसी कि सारनाथ के "ऋषिपत्तन मृगदाव" में है।
बुद्ध की दस हस्तमुद्राओं में सर्वप्रमुख "धर्मचक्र" मुद्रा है। सारनाथ के उसी "धर्मचर्कप्रवर्तन" की स्मृति में, जब सम्बोधि के बाद बुद्ध ने इस मुद्रा में विराजित होकर आर्य सत्यों का उपदेश दिया था।
खुरदुरे धूसर पत्थर का शिल्प, शायद मेंह में भींजता रहा है, और शिल्प पर काई उग आई है।
काई ही नहीं उगी है, बेलें भी चढ़ने लगी हैं। ग्रीवा तक बेलबूटें चढ़ गए हैं।
"धर्मचक्र" मुद्रा में यह भी भ्रम होता है कि बुद्ध का दाहिना हाथ एक बेल की पत्ती तोड़ने का उपक्रम कर रहा है।
हम बहुधा इस आशय की किंवदंतियां सुनते रहे हैं कि बुद्ध ने इतना सघन तप किया था कि उनके शरीर पर बेलें चढ़ आई थीं और उन्हें इसकी प्रतीति ही नहीं थी।
यह चित्र देखकर तब यह भी अनुभव होता है कि सृष्टि के शिल्पकार ने बुद्ध के उसी तप का विग्रह यहां रच दिया है।
"शास्ता" जब तप करते हैं तो हाड़-मांस के उनके शरीर पर बेलें चढ़ जाती हैं।
"शास्ता" के विग्रह की जब उपासना नहीं की जाती है, तो बरखा में उन पर उग आती है काई।
पत्थर पर काई, जैसे पद्म में मणि। यह तिब्बत में प्रचलित एक सुपरिचित बौद्ध रूपक है। "पद्म में मणि"। "ओम मणि पद्मे हुम्।" कमल के फूल के भीतर एक अमूल्य रत्न। कोमलता और ठोसपन, क्षणभंगुर और शाश्वत का साहचर्य।
यह चित्र देखता हूं तो एक ही शब्द मेरे मन में कौंधता है- "पुनब्भव"।
बौद्ध दर्शन के आधारभूत पारिभाषिक शब्दों में से एक है यह। जैसे कि "अनित्य", "अनात्म", "अनत्ता", "प्रतीत्यसमुत्पाद", "आर्य सत्य", "निर्वाण", "धर्मचक्र", "सम्बोधि", "शून्यवाद", "दु:खवाद", "महायान", "माध्यमिक", "पिटक", "सुत्त", "गाथा", "पद"। वैसे ही "पुनब्भव"।
"पुनब्भव" पालि भाषा का शब्द है। संस्कृत के "पुनर्भव" का तद्भव।
और "पुनर्भव" यानी क्या?
बुद्ध का "धम्म" ब्राह्मण परम्परा की मूलभूत धारणाओं का एक सतर्क प्रत्याख्यान था।
ब्राह्मणों ने कहा, सत्ता है। बुद्ध ने कहा, अनत्ता। ब्राह्मणों ने कहा, नित्य है। बुद्ध ने कहा, अनित्य। ब्राह्मणों ने कहा, ईश्वर है। बुद्ध ने कहा, अनीश्वर। ब्राह्मणों ने कहा, पुनर्जन्म है। बुद्ध ने कहा, पुनब्भव।
बड़ा अनूठा संदर्भ है।
सनातन धर्म आत्मा को मानता है, ईश्वर को मानता है, नित्य सत्य को मानता है।
जैन धर्म आत्मा को मानता है, किंतु ईश्वर को नहीं मानता। तो वहां आत्मा नित्य है।
बौद्ध धर्म न आत्मा को मानता है, न ईश्वर को मानता है, न नित्य में आस्था रखता है।
तब पुनर्जन्म कैसे हो? अगर आत्मा ही नहीं है और शरीर मृत्यु के साथ नष्ट हो गया है, तो पुनर्जन्म किसका हो?
बुद्ध उसको "पुनर्भव" कहते हैं।
हिंदू दर्शन में "आत्मा" का पुनर्जन्म होता है। जैन दर्शन में "जीव" का पुनर्जन्म होता है। बौद्ध दर्शन में "अनात्म" का पुनर्जन्म होता है।
"अनात्म" का पुनर्जन्म कैसे?
तो बुद्ध कहते हैं, आत्मा तो नहीं है, नित्य तत्व नहीं है, किंतु चेतना बिंदुओं की एक शृंखला की भांति है। जिसको कि धर्मकीर्ति ने कहा है- "चित्तबिन्दु"। उनका एक सातत्य है। संस्कारों के वशीभूत होकर वे दूसरा रूप ग्रहण कर लेते हैं। यही "पुनर्भव" है।
समस्त दार्शनिक परम्पराओं में सबसे सघन, सबसे सूक्ष्म, सबसे सुदूरगामी और सबसे स्तुत्य यह "बौद्ध" दर्शन है। और उसके मूल में हैं "शास्ता", जिनकी यह अनिर्वचनीय सौंदर्य से पूर्ण प्रतिमा।
पत्थर की प्रतिमा पर "काई" है।
पत्थर का काई में "पुनर्भव" हो रहा है।
अगर वर्षा ऋतु अनवरत रही तो यह समूची प्रस्तर-प्रतिमा, यह सम्पूर्ण पाषाण शिल्प काई और बेल से ढंक जावेगा।
तृण से, घास से, द्रुम से, दूर्वा से।
बुद्धरूप का पुनर्भव होगा। यों भी उनका एक अवतरण अभी शेष है। "मैत्रेय" को अभी आना है।
काकेशिया के एक उपन्यास में एक शिकारी बूढ़ा कहता है- "मौत के बाद कुछ नहीं होता, केवल क़ब्र पर घास उग आती है।"
उसको कहां मालूम था कि मृतकों के शरीर पर काई भी उग जाती है।
बुद्ध होते तो उन्मीलित नेत्रों से कहते- "अनिच्च, अनात्त, दुक्ख!"
और तब बारिश, जो कि मर रही थी हम सब की तरह, काई के फूलों से अपने इस देवता के प्रति अनुग्रह व्यक्त करती।
सब्बे धम्मा अनत्ता!