पेड़ कुछ कहते हैं / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित

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पेड़ कुछ कहते हैं
सुशोभित


पेड़ सचमुच हमसे बहुत कुछ कहना चाहते हैं। और यह कपोल-कल्पना भर नहीं है, किसी कविता का विषय नहीं है। वास्तव में पेड़ों के पास सचमुच का एक संचार-तंत्र होता है, जिसके ज़रिए वे अपने संदेश प्रसारित कर सकते हैं। वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में इधर के सालों में हुई सबसे अनूठी खोजों में ये स्थापनाएं अब शामिल हो चुकी हैं और इनके पीछे एक ही नाम है- पीतर वोल्लेबेन। दो साल में दो अनूठी किताबें लिखकर पीतर वोल्लेबेन सहसा दुनिया के पर्यावरणविदों और जीवविज्ञानियों की चर्चा के दायरे में आ गए हैं। और पीतर भले ही यह पसंद करें या न करें, लेकिन उनकी किताबें भी अब धड़ाधड़ बिक रही हैं। वे यह इसलिए पसंद नहीं करेंगे, क्योंकि किताबें काग़ज़ पर छपती हैं और काग़ज़ दरख़्तों से हासिल किया जाता है। पीतर यह तो चाहते हैं कि उनकी बातें पूरी दुनिया तक पहुंचें, लेकिन वृक्षों की हत्या की क़ीमत पर नहीं।

दो साल पहले पीतर की किताब ‘द हिडन लाइफ़ ऑफ़ ट्रीज़’ जर्मन से अंग्रेज़ी में अनूदित हुई थी। तब उन पर ‘एंथ्रोपोमोर्फ़ाइज़िंग ऑफ़ ट्रीज़’ यानी ‘पेड़ों के मानुषीकरण’ का आरोप लगाया गया था। यह कहकर उनकी बातों को सिरे से रद्द कर दिया गया था कि पेड़ों को मनुष्यों की तरह देखना एक बुनियादी क़िस्म की भावुक मूर्खता है। पीतर की किताब में कही गई बातों को ‘विशफ़ुल थिंकिंग’ यानी ‘ख़ामख़याली’ कहकर उनके विरुद्ध बाक़ायदा एक ऑनलाइन पिटीशन अभियान भी छेड़ा जा चुका है। लेकिन जैसे कि ‘एंथ्रोपोमोर्फ़ाइज़िंग ऑफ़ ट्रीज़’ काफ़ी नहीं था, अब पीतर अपनी नई किताब ‘द इनर लाइफ़ ऑफ़ एनिमल्स’ लेकर आए हैं, और सच कहा जाए तो यह किताब लोगों को और ज़्यादा विचलित करने वाली है, क्योंकि पशुओं के निर्मम दोहन को मनुष्य ने अपनी जीवनचर्या का इतना अभिन्न अंग बना लिया है कि उस क्रूरता से आंखें चुराए बिना अब वह सामान्य जीवन व्यतीत तक नहीं कर सकता।

बहरहाल, ‘द हिडन लाइफ़ ऑफ़ ट्रीज़’ में पीतर ने ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ की तर्ज़ पर ‘वुड वाइड वेब’ शब्द को ईजाद किया था। उन्होंने बताया था कि अगर ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ मनुष्यता के इतिहास की सबसे बड़ी संचार क्रांति का कूटपद है तो ‘वुड वाइड वेब’ इससे पीछे नहीं है। पीटर ने वृक्षों के निजी ‘कम्युनिकेशन सिस्टम्स’ के बारे में इतने हैरतअंगेज़ खुलासे किए थे कि उन पर यूरोप में ख़ासी बहस छिड़ गई थी।

पेड़ यक़ीनन हमसे बहुत कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन उनके पास वही भाषा नहीं है, जो कि हमारे पास है। तो वे दूसरे माध्यमों से स्वयं को व्यक्त करते हैं। ज़रूरत इस बात की है कि हम ख़ुद को उनकी बात समझने के योग्य बनाएं। इसके लिए सबसे पहले तो हमें पेड़ों से गहरी दोस्ती गांठना होगी। फ़िलवक़्त तो यह दूर की कौड़ी ही मालूम होती है, क्योंकि मनुष्य प्रकृति और प्राणिकी का सबसे बड़ा शत्रु बन गया है।

वृक्षों के मानुषीकरण के आरोप के पीछे पैगनिज़्म के प्रति पश्चिमी परम्परा की अरुचि ज़ाहिर हुई है। मनुष्य की आत्ममुग्धता की यह अति है कि उसने ईश्वर को भी अपनी ही शक़्ल में रचा है। एकेश्वरवाद की स्थापना ने ईश्वर के विभिन्न रूपों की सम्भावनाओं का अंत कर दिया। बहुदेववाद और प्रकृति-पूजन को कुफ्र माना जाने लगा। यह देखना सचमुच दिलचस्प है कि पीतर द्वारा वृक्षाें के मानुषीकरण से पश्चिम के लोग ख़फ़ा हो गए, जबकि भारत में वृक्ष को मनुष्य तो क्या देवता तक माना जाता रहा है। देवों की तरह उन्हें पूजा जाता रहा है। गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं को वृक्ष कहा ही है- समस्त वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूं। और बुद्ध ने भी जातक उपदेशों में स्वयं को वृक्षदेवता कहकर इंगित किया है! ख़ैर।

तो क़िस्सा-कोताह यह है कि अनेक मायनों में पीतर कमाल के आदमी हैं। वे अपनी काठ की कुर्सी को ट्री-बोन्स यानी वृक्षों की अस्थि‍यों से निर्मित सामग्री कहते हैं। फ़ायरप्लेस में लकड़ियां जलाए जाने को वे शवदाह की संज्ञा देते हैं। वे कहते हैं कि वृक्ष वर्ष में एक बार शौचादि से निवृत्त होते हैं और अगर आप जाड़ों के दिनों में किसी जंगल से गुज़र रहे हैं तो इसका मतलब है कि आप ट्री-टॉयलेट-पेपर्स के एक ज़ख़ीरे पर चल रहे हैं। और, बक़ौल पीतर, ईवन अ डेड ट्री ट्रन्क इज़ लाइक अ मदरशिप ऑफ़ बायोडायवर्सिटी यानी किसी मृत वृक्ष का तना भी जैवविविधता का संवाहक होता है। ग़रज़ ये कि पीतर ने वनस्पति-शास्त्र की समूची भाषा-संरचना बदल दी है।

पीतर वोल्लेबेन की मूल स्थापना यह है कि वृक्षों में सामुदायिकता की भावना मनुष्यों की ही तरह बहुत प्रबल होती है। वृक्षों के भी अपने परिवार और समुदाय होते हैं। दिल्ली की वनसम्पदा पर प्रामाणिक और लोकप्रिय शोध करने वाले पर्यावरणविद् प्रदीप कृष्ण भी यही बात कहते हैं। वे शाल वृक्षों का उदाहरण देते हैं। उनका कहना है कि शाल वृक्षों की लकड़ियों का इस्तेमाल भारत में बहुत बड़े व्यावसायिक पैमाने पर होता है। ये वृक्ष हिमालय की तराई से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बंगाल से लेकर ओडिशा और उत्तर-पूर्वी मध्यप्रदेश तक पाए जाते हैं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब भारत में ब्रिटिश राज द्वारा रेल की पटरियां बिछाई जा रही थीं, तब रेलवे स्लीपर्स बनाने के लिए बड़े पैमाने पर शाल की लकड़ियों की मांग निर्मित हुई थी। तब भारतीय वन विभाग ने भरसक कोशिशें की कि शाल वृक्षों को उनके दायरे के बाहर भी विकसित किया जाए, लेकिन वे क़ामयाब नहीं हो सके। बहुत दिमाग़ खपाने के बाद भी वे इस बात को समझ नहीं पाए कि शाल वृक्ष अपनी उस रेंज के बाहर क्यों नहीं विकसित हो सकते हैं? वे इस बात को समझ नहीं पाए कि शाल बहुत ही सामुदायिक क़िस्म के वृक्ष होते हैं। आपने कभी किसी बाग़ में किसी शाल वृक्ष को अकेला नहीं देखा होगा, जैसे कि दूसरे वृक्ष देखे जा सकते हैं। यह जानकारी भी भारतीय जनमानस को बहुत समय से है कि किसी एक शाल वृक्ष को अकेले विकसित करना असम्भव है। वे हमेशा एक छोटे-मोटे वन के रूप में ही विकसित होते हैं- शालवन। वे अपने सघन समुदाय के बाहर पनप नहीं सकते। और अगर किसी विकसित शाल वृक्ष को ले जाकर अन्यत्र रोप दिया जाए तो वह एकाकीपन का शिकार होकर ही मर जाता है। 1980 के दशक में जब देहरादून के निकट भारतीय वन्यजीवन संस्थान की स्थापना की गई थी तो उसके इर्द-गिर्द शालवन फैला हुआ था। संस्थान के लोगों ने पाया कि जो भी शाल वृक्ष अपने समुदाय से अलग हो जाता, वह धीरे-धीरे मर जाता। वह इसलिए मर जाता, क्योंकि अब वह अपने समुदाय से संवाद नहीं कर पा रहा था। अकारण नहीं कि जब पीतर वोल्लेबेन ने अपनी किताब में वृक्षों की निजी संवाद प्रक्रिया के ब्योरों के बारे में बताया तो प्रदीप कृष्ण ने इसका स्वागत किया था आैर इसे एक महत्वपूर्ण अनुसंधान बतलाया था।

एक अन्य पर्यावरणविद टिम फ़्लैनेरी का कहना है कि बचपन में हम सभी ने ऐसी कहानियां पढ़ी हैं, जिनमें वृक्षों की आंखें होती हैं, वे बोल सकते हैं, यहां तक कि चल भी सकते हैं। यह निश्चित ही फ़ंतासी थी। लेकिन वृक्ष कभी भी इतने जड़वत नहीं थे, जितने कि हमने उन्हें मान लिया था। और अगर हम वृक्षों की जीवन-प्रणाली को समझ जाएं तो हमारे लिए हर जंगल एक अनूठे आश्चर्यलोक में तब्दील हो जाएगा।

लेकिन पेड़ आपस में कैसे बात करते हैं? ज़ाहिर है, वे मनुष्यों की तरह किसी भाषा का इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन उनके अपने तौर-तरीक़े होते हैं। टिम फ़्लैनेरी एक दिलचस्प उदाहरण के मार्फ़त हमें समझाते हैं। वे कहते हैं, पेड़ों के पास गंध को अनुभव करने की क्षमता होती है। मान लीजिए, कोई जिराफ़ किसी अफ्रीकी अकासिया दरख़्त को चरने लगता है। तब वह पेड़ हवा में एक क़िस्म का रसायन छोड़ता है, जिसका मतलब होता है कि ख़तरा सामने है। दूसरे पेड़ इस रसायन को सूंघ लेते हैं। अब पेड़ ख़तरे को भांपने के बावजूद कहीं भागकर तो जा नहीं सकते। लेकिन ख़बरदार होने के बाद वे एक क़िस्म का विषैला रसायन छोड़ने लगते हैं, जो अंतत: उस जिराफ़ के मन में अरुचि उत्पन्न कर देता है।

वास्तव में हम सोच भी नहीं सकते कि पेड़ कितने सामुदायिक होते हैं। पेड़ काटे जाने के दु:ख को वे सभी मिलकर साझा करते हैं। अगर किसी जंगल में कोई पेड़ काट दिया जाए तो उसके आसपास के दरख़्त मिलकर उसके कटे हुए तने को पोषित करने का हरसम्भव प्रयास करते हैं। पीतर वोल्लेबेन ने जिसे ‘वुड वाइड वेब’ की संज्ञा दी है, वह वास्तव में पेड़ों का एक विशिष्ट संचार तंत्र है, जिसका माध्यम होते हैं मिट्‌टी में पाए जाने वाले पादप-कवक। ऊपर से सभी पेड़ चाहे जितने अलग दिखाई देते हों, धरती के भीतर जड़ों के माध्यम से और पादप-कवक के नेटवर्क के माध्यम से वे सभी एक-दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं। अगर किसी जंगल को खोद दिया जाए तो हम पाएंगे कि उसके भीतर इन जड़ों और कवकों का एक घना संजाल बिछा हुआ है। इसी को ‘वुड वाइड वेब’ कहा गया है।

पीतर का कहना है कि वन जैव-विविधता की प्रयोगशाला होते हैं। एक अकेला वृक्ष अनेक मायनों में गूंगा और बहरा होता है। वह कभी भी उतने लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकता, जितने समय तक जंगल का एक पेड़ जी सकता है। कारण स्पष्ट हैं कि वैसा क्यों होता है।

पीतर वोल्लेबेन की किताब ‘द हिडन लाइफ़ ऑफ़ ट्रीज़’ यानी ‘वृक्षों का गोपनीय जीवन’ का उपशीर्षक है- ‘वृक्ष क्या अनुभव करते हैं, वे आपस में कैसे बतियाते हैं, एक गोपनीय संसार की नई खोजें।’ अब ज़रा इस किताब के अध्यायों के शीर्षकों पर नज़र डालें- ‘मैत्रियां’, ‘वृक्षों की भाषा’, ‘प्यार’, ‘पेड़ों की लॉटरियां’, ‘जंगल की आचार संहिता’, ‘वृक्षों के विद्यालय’, ‘बुज़ुर्ग दरख़्त’, ‘एक वॉटर पम्प की तरह काम करने वाला जंगल’, ‘समय का अहसास’, ‘प्रवासी पेड़’ और ‘जंगल हरे ही क्यों होते हैं?’ आदि इत्यादि। कहने की ज़रूरत नहीं, इन नई खोजों से गुज़रने के बाद आप कभी भी किसी पेड़ या किसी जंगल को उस तरह से नहीं देख पाएंगे, जैसे पहले देखा करते थे।