हम कैसे सोचते हैं / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित

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हम कैसे सोचते हैं
सुशोभित


सोचना क्या है? हमारे मस्तिष्क में विचारों की शृंखला क्यों बनती है? आख़िर हम क्यों सोचते हैं और हम कैसे सोचते हैं? क्या सोचकर हम किसी वैसे नतीजे पर पहुंच पाते हैं, जो सम्पूर्ण, व्यापक और सर्वमान्य हो? और अगर ऐसा नहीं हो पाता, तो कहीं हमारे सोचने की प्रक्रिया में कोई गम्भीर भूल तो नहीं, जिसे हम निकटता-दोष के कारण पहचान नहीं पाते हों?

रेने देकार्ते की सुप्रसिद्ध उक्ति है : मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं। उसने अपने अस्तित्व की परिभाषा सोचने के माध्यम से दी थी, और केवल अपने ही नहीं, सभी मनुष्यों के। इसी से फिर यह निशानदेही बन गई कि मनुष्य विचारशील प्राणी है यानी एक रैशनल एनिमल। वह जो भी करता है, सोच-विचारकर ही करता है। मनुष्य इतना विचारशील है कि वह विचारों पर भी विचार करता है, और वह सोचने के बारे में भी सोचता है। तब ऐसा भी होता है कि सोचने के बारे में सोचते हुए हम सोच में चली आ रही कुछ भूलों का पता लगाने में सफल रहते हैं। हम परिप्रेक्ष्य के उजाले में साफ़-साफ़ देख पाते हैं कि हमारी सोच की प्रक्रिया दोषपूर्ण है, जिससे कारण हम सम्पूर्ण निष्कर्षों पर नहीं पहुंच पाते। हमारा नज़रिया चंद्रमा के पहलुओं की तरह बहुधा आंशिक और खंडित रहता है।

वर्ष 2011 में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री और मनोवैज्ञानिक डेनियल कानेमैन की एक किताब आई थी- ‘थिंकिंग फ़ास्ट एंड स्लो।’ इसे तब मनुष्य की विचारशीलता के परिप्रेक्ष्य में लिखी गई सर्वश्रेष्ठ पुस्तक कहा गया था और तब से अब तक इसकी करोड़ों प्रतियां बिक चुकी हैं। यह पुस्तक जिस क्षेत्र में श्रेणीकृत की जाती है, उसे बिहेवियरल साइंस कहते हैं। उसमें भी इसे कॉग्निटिव साइंस यानी संज्ञानात्मक विज्ञान और मनोविज्ञान के दायरे में रखा जाता है। ये ज्ञान-परम्पराएं मनुष्य के सोचने-समझने की क्षमताओं की पड़ताल करती हैं। आइए, पुस्तक में वर्णित बिंदुओं पर एक-एक कर बात करते हैं।

एक कछुआ, एक खरगोश

हम सभी ने कछुए और खरगोश की कहानी सुनी होगी। कछुआ धीरे चलता है और खरगोश फुर्ती से छलांगें लगाता है। इसके बावजूद दोनों के बीच हुई स्पर्धा में कछुआ जीत जाता है। हमारे दिमाग़ में भी यह दौड़ चलती रहती है। वास्तव में हमारा चिंतनशील दिमाग़ दो भागों में बंटा होता है- एक धीमा सोचता है और दूसरा तेज़ सोचता है। दिमाग़ का जो हिस्सा तेज़ गति से सोचता है, वह भावनात्मक और वृत्तिमूलक होता है। जो हिस्सा धीमी गति से सोचता है, वह तर्क और सरणियों के आधार पर चिंतन-मनन करता है। डेनियल कानेमैन ने अपनी पुस्तक में यह स्थापना दी है कि मनुष्य की मूल वृत्ति तेज़ गति से किसी निर्णय पर पहुंचने की है और इसीलिए एक कठिन प्रश्न को मनुष्य का दिमाग़ सरल प्रश्न में बदलकर एक सरल उत्तर खोज निकालता है, जिसका वास्तविकता और वस्तुस्थिति से सम्बंध नहीं होता। नतीजा रहता है- विभ्रम और व्यामोह, जिसे इधर सूचना प्रौद्योगिकी ने और गति दे दी है। दूसरे शब्दों में मनुष्य के दिमाग़ में बसा खरगोश दौड़ जीतने की इतनी जल्दी में होता है कि वह परिप्रेक्ष्यों की दीर्घा से बाहर चला जाता है और इसीलिए यहां भी उसे हार का सामना करना पड़ता है।

विज्ञापन का बोर्ड बनाम पुस्तक

इसी विषय को आगे बढ़ाएं तो हम कह सकते हैं कि हमारे दिमाग़ का जो हिस्सा तेज़ सोचता है, वह निर्णय लेते समय स्वचालित और लगभग अचेतन रूप से काम करता है। दूसरी तरफ़ धीमी गति से चलने वाला हिस्सा अधिक परिश्रम करना चाहता है और किसी नतीजे पर पहुंचने की जल्दी में नहीं रहता। इसीलिए यह दूसरा हिस्सा मनुष्यों में अलोकप्रिय है, क्योंकि अधीरता और हड़बड़ी मानव-स्थिति का एक बुनियादी लक्षण है। कुछ उदाहरण देखिए। अगर मनुष्य के सामने कोई बिलबोर्ड आ जाए तो वह उसको बड़े आराम से पढ़ जाएगा। वैसा करते समय उसे चेतना भी नहीं होगा, ना ही उसने वैसा करने के लिए कोई सचेत निर्णय लिया होगा। किंतु उसके सामने कोई पुस्तक रखी जाए तो उतने ही शब्दों को वह पुस्तक में पढ़ने से कतराएगा, क्योंकि पुस्तक पढ़ने को वह विज्ञापन का बिलबोर्ड पढ़ने के बजाय अधिक श्रमसाध्य समझता है, जबकि देखा जाए तो ये दोनों ही समान रूप से पढ़त (रीडिंग) हैं। एक और उदाहरण देखिए। ख़ाली सड़क पर गाड़ी चलाना। भले हमें कहीं जाने की जल्दी न हो और हम ख़ाली सड़क पर भी उतनी ही गति से गाड़ी चलाएं, जितनी गति से ट्रैफ़िक से भरी सड़क पर चलाते हैं, लेकिन हम अवसर मिलते ही ख़ाली सड़क की ओर तत्परता से मुड़ेंगे। मनुष्य का दिमाग़ शॉर्टकट की तलाश करता है। अगर उसे यह बतलाया जाए कि यह छोटा रास्ता वास्तव में उतना ही लम्बा है, जितना कि सामान्य रास्ता, तो वह इस तथ्य को सहज स्वीकार नहीं कर पाएगा। दूसरी तरफ़ अगर किसी व्यक्ति से कहा जाए कि वह जितनी गति से पैदल चलता है, उससे अधिक गति से चलने का यत्न करे, तो वह इस क़वायद के प्रति ज़्यादा देर तक सहज नहीं रह सकेगा। उसकी वृत्ति उसे जल्द ही लौटाकर अपनी सामान्य गति पर ले आएगी, क्योंकि तेज़ गति से चलने को वह दु:साध्य मानेगा और उसकी देह की लय तुरंत ही किसी आरामदायक यथास्थिति में फिर से अवस्थित हो जाने का यत्न करेगी। आप यह भी कह सकते हैं कि मनुष्य इसलिए तेज़ सोचता है, ताकि उसे चीज़ों में ज़्यादा बदलाव ना करना पड़ें।

युद्ध और...

हम तेज़ गति से इसलिए भी सोचते हैं, क्योंकि हमारा दिमाग़ बने-बनाए पैटर्न पर चलने को सुविधाजनक समझता है। एक और छोटा-सा उदाहरण देखें। अगर मैं कहूं- युद्ध और... तो आप तुरंत कहेंगे- शांति। युद्ध के बाद शांति कहने की यह प्रक्रिया लगभग यांत्रिक होगी, क्योंकि यह दोहरावाें और पूर्व-प्रत्ययों से बनी है। इसे हम अचेतन रूप से कह जाएंगे। जबकि हो सकता है मूल वाक्य में युद्ध के साथ बुद्ध शब्द की युति हो, या युद्ध और लड़ाई के अंतर को समझाने की कोशिश की जा रही हो। तयशुदा पैटर्न पर सोचने की हानि यह है कि तब हम ऐसी बहुत सारी चीज़ों को सही मान बैठते हैं, जिनके प्रति हम अभ्यस्त हैं। दूसरी तरफ़ किसी प्रस्तुत वाक्य या परिस्थिति पर तुरंत कुछ नहीं कहकर विचार करना और इस शैली में निर्णय की खोज करना, जिस शैली में किसी संकरी जगह पर इत्मीनान से गाड़ी पार्क की जाती है- यह मनुष्य की सहज वृत्ति नहीं है और इसे बनाए रखने के लिए उसे निरंतर अभ्यास करना होता है। मनुष्य के मस्तिष्क में बैठे खरगोश की लगाम कसना कठिन है।

लिंडा की समस्या

डेनियल कानेमैन ने अपनी पुस्तक में ‘द लिंडा प्रॉब्लम’ के ज़रिए इसे और स्पष्ट करने की कोशिश की है। मान लीजिए कि आपसे कहा जाता है लिंडा एक मेधावी लड़की है, अपने विचारों को सामने रखने से हिचकिचाती नहीं, और जब वह स्टूडेंट हुआ करती थी तो भेदभाव और अन्याय के विरुद्ध होने वाले आंदोलनों का हिस्सा बनने से हिचकती नहीं थी। अगर आपसे आज पूछा जाए कि लिंडा क्या कर रही होगी- वो एक बैंक कर्मचारी होगी या फ़ेमिनिस्ट होगी, तो इस पर आप क्या जवाब देंगे? बहुतेरों ने इसका जवाब दिया कि लिंडा फ़ेमिनिस्ट होगी, जबकि वास्तव में वह बैंक कर्मचारी होकर भी फ़ेमिनिस्ट हो सकती थी। यह एक उदाहरण है, जो हमें बतलाता है कि हमारा दिमाग़ तर्कसंगत रूप से सोचने के बजाय धारणाओं, कल्पनाओं, अंदेशों और सरलीकरणों की ओर झुकने को अधिक तत्पर रहता है। दूसरे शब्दों में तेज़ सोचने वाला दिमाग़ हमेशा धीमे सोचने वाले दिमाग़ पर हावी होने की कोशिश करता है।

डब्ल्यू यू एस आई ए टी आई

अगर हमने कभी कोई गोलाकार आकृति नहीं देखी हो तो एक वृत्त दिखाए जाने पर हम उसे षटकोण या अष्टभुजा की धारणा से समझने की कोशिश करते हैं, बनिस्बत इसके कि हम इसे एक नई आकृति मानें और स्वयं को एक नई सूचना के लिए तैयार करें। डेनियल कानेमैन इसे डब्ल्यू यू एस आई ए टी आई कहते हैं, यानी वॉट यू सी इज़ ऑल देयर इज़ (हमने जो देखा है, वही इकलौता संसार है)। अति आत्मविश्वास की उत्पत्ति इसी से होती है। हम जब कोई फ़ैसला लेते हैं तो जानी गई बातों के आधार पर वैसा करते हैं। लेकिन हम जानी गई अनजानी बातों के बारे में नहीं सोचते, यानी जो दूसरों के द्वारा जान ली गई हैं, लेकिन हमने अभी तक नहीं जानी हैं। फिर पूर्णतया अनजानी बातों की बात ही क्या, जो अभी तक किसी ने नहीं जानी हैं, लेकिन जो पहले ही वहां पर मौजूद है। जैसे कि एक्सरे, जो हमेशा से मौजूद थीं, लेकिन हमने उनके बारे में उनकी खोज होने के बाद में जाना। मनुष्य का दिमाग़ अनजाने तथ्यों को सामने रखकर निर्णय लेने के लिए अभ्यस्त नहीं है, और वह जानी गई बातों को ही पूर्ण और इकलौता सत्य मानकर अपना जीवन चलाता रहता है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के लिए यह कल्पना से भी परे है कि वह जो देख पाता है, वह सम्पूर्ण चित्र नहीं है और तीन आयामों के परे भी अनेक आयाम सम्भव हैं। इसका परिणाम यह रहता है कि वह भविष्य की पूर्व-कल्पना कर बैठता है और यह मान लेता है कि अतीत में जैसा होता रहा है, वही आगे भी होगा।

90 : 10 का अनुपात

गिलास ख़ाली है या भरा है? या वह आधा ख़ाली और आधा भरा है? मनुष्य के सोचने के तरीक़े पर इन बातों का बड़ा असर रहता है। एक अध्ययन में इस दिशा में प्रयोग किया गया। एक महत्वपूर्ण सर्जरी से पहले मरीज़ों को दो भागों में बांटा गया। एक दल से कहा गया कि सर्जरी के सफल होने की 90 प्रतिशत सम्भावनाएं हैं। दूसरे दल से कहा गया कि सर्जरी के बाद मृत्यु का 10 प्रतिशत अंदेशा है। पहले दल के मरीज़ सर्जरी के लिए सहर्ष तैयार हो गए, जबकि दूसरे दल के मरीज़ों ने इससे इनकार कर दिया। जबकि वास्तव में दोनों ही दलों के सामने 90 : 10 का अनुपात प्रस्तुत किया गया था। कहां पर चूक हुई? चूक यहां पर हुई कि मनुष्य के द्वारा लिए जाने वाले निर्णय इस हद तक पूर्वधारणाओं और पूवर्ग्रहों पर निर्भर होते हैं कि वस्तुनिष्ठ दृष्टि से किसी सम्यक और समग्र निश्चय पर पहुंचना उसके लिए लगभग असम्भव हो जाता है। तिस पर मुसीबत यह कि मनुष्य को यह मालूम नहीं होता कि वह विभ्रम का शिकार हो रहा है। वह स्वयं को सही ही समझता है। इसी से संघर्षों और तनावों की उत्पत्ति होती है।

तजुर्बा बनाम याददाश्त

डेनियल ने अपनी किताब में यह भी कहा है कि हमारा सोचना हमारे अनुभवों से कम और उन अनुभवों की हमारी याद से अधिक संचालित होता है। वास्तव में हमारे भीतर एक एक्सपीरियंसिंग सेल्फ़ होता है और एक रिमेम्बरिंग सेल्फ़। आश्चर्य की बात यह है कि एक बुरे अनुभव की भी हमारे भीतर एक अच्छी याद हो सकती है, और यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि किसी घटना का अंत किस तरह से हुआ था या उससे सम्बंधित व्यक्तियों के प्रति हमारी क्या धारणाएं थीं।

लेकिन हम तेज़ क्यों सोचते हैं?

हम तेज़ इसलिए सोचते हैं, क्योंकि यह हमारा 'डिफ़ॉल्ट मोड' है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में 'कॉग्निटिव ईज़' कहा जाता है, चाहें तो इसे कम्फ़र्ट ज़ोन कहकर पुकार लें। इसे ऐसे समझें कि जब हम औपचारिक वस्त्रों में किसी कार्यालय या सार्वजनिक स्थान पर होते हैं तो हमारे मानसिक-ढांचे में एक सूक्ष्म क़िस्म का खिंचाव या तनाव रहता है। घर पर आकर कपड़े बदलते ही हम सहज हो जाते हैं। यह सहज हो जाना उसी कॉग्निटिव ईज़ का लक्षण है, जिसके चलते हम तेज़ सोचते हैं। यह एक-दो दिन की बात नहीं, लाखों सालों के उद्विकास की प्रक्रिया में मनुष्य की ऐसी मनोगत निर्मिति हुई है। हमारे शरीर की प्राथमिक ज़रूरतों में से एक ऊर्जा का संरक्षण है। जब हम धीमा सोचते हैं, यानी विश्लेषण, चिंतन, मनन करते हैं तो इसमें हमारे मस्तिष्क की बहुत सारी ऊर्जा ज़ाया होती है। मनुष्यों के साथ एक असामान्य बात यह है कि जहां उनके मस्तिष्क का वज़न उनके पूरे शरीर के वज़न का महज़ दो फ़ीसदी होता है, वहीं यह अंग मनुष्य की ऊर्जा की खपत में बीस फ़ीसदी योगदान देता है। एक दिन में एक सामान्य मनुष्य 320 कैलरीज़ केवल सोचने में ही ख़र्च कर देता है, इसलिए तेज़ सोचना यानी इंट्यूटिव ढंग से सोचना और ऑटो-पायलट मोड में आकर काम करना शरीर के लिए ऊर्जा की बचत का एक अनिवार्य तरीक़ा बन जाता है। दूसरे शब्दों में, तेज़ सोचकर हम भले ही सटीक और तर्कसंगत निर्णयों पर नहीं पहुंच पाते हों, लेकिन यह हमारे सर्वाइवल के लिए एक ज़रूरी युक्ति है। यह अकारण नहीं कि विज्ञापन रचने वाली बाज़ार की ताक़तें हमारे भीतर के खरगोश को ही पुकारती हैं। वे कहती हैं- कर गुज़रिए ('जस्ट डु इट'), क्योंकि बहुत सोच-सोचकर हर चीज़ करना मनुष्य के डीएनए में ही नहीं है।

सच्चाई तो यह है कि दिल की धड़कन और सांसों की तरह विचारों की एक शृंखला भी हमारे भीतर निरंतर चलती रहती है और अकसर हमारा उन पर नियंत्रण नहीं होता। इसके बावजूद हम जीवन में जो हैं, जैसे हैं और जिस जगह पर हैं, उसका सरोकार इसी बात से होता है कि हम क्या सोचते हैं, क्यों सोचते हैं और सबसे बढ़कर हम कैसे सोचते हैं। दूसरे शब्दों में कछुए और खरगोश की दौड़ में हम किसके साथ खड़े होते हैं। इतिहास तो यही कहता है कि जिन्होंने कछुए का साथ दिया, उन्होंने जीवन के बारे में एक ऐसी गहरी, पैनी और व्यापक सोच बनाने में सफलता पाई, जो दूसरों के लिए दुष्प्राप्य ही थी।