प्रयोगशाला / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित
सुशोभित
अव्वल तो धरती पर जीवन का होना ही दूभर था।
बहुत सारे संयोगों को जुड़ना था, तब जाकर जीवन को सम्भव हो पाना था। ये संयोग इतने थे कि एक सीमा के बाद आपको लगने लगता है कि शायद ये संयोग तो नहीं ही हैं। कि भले ही इवोल्यूशन एक अंधी और प्रयोजनहीन प्रक्रिया सही, लेकिन एक इंटेलीजेंट डिज़ाइन की छाया बराबर इन घटनाओं के पीछे दिखती हैं।
धरती को सूरज से इतनी दूरी पर होना था कि यहां अनुकूल आबोहवा होती। ठंडी गरमी का हिसाब होता! धरती पर वायुमण्डल के नीले कवच को होना था, ताकि यहां प्रकाश होता, और प्राणवायु होती। धरती में खिंचाव होना था, जो चीज़ों को बांधकर रखता। धरती पर पानी को होना था। ऊर्जा को होना था, जो मेटाबोलिज़्म को गति दे सके, केमिकल रिएक्शंस की एक शृंखला जुड़ सके। पदार्थ में प्राण की प्रतिष्ठा हो।
कार्बन के बिना कॉम्प्लेक्स लाइफ़ सम्भव नहीं थी। ऑर्गेनिक मोलेक्यूल्स कार्बन से बनते थे। ओज़ोन की कनात यूवी से हमारी रक्षा करती थी। किसी ने यह शामियाना बांधा, तब जाकर जीवन उत्पन्न हुआ और फिर जटिलतर होता गया।
इतने सारे फ़ैक्टर्स को जुड़कर धरती पर जीवन की रचना करनी थी कि उसके पीछे एक परिश्रम और प्रयोजन दिखलाई देता था, किंतु वह क्या था, यह जानना सम्भव नहीं हो पाया था। तमाम कोशिशों के बावजूद सृष्टि में कहीं और जीवन खोजा नहीं जा सका है। हम मानते हैं कि इतनी बड़ी दुनिया में कहीं ना कहीं तो ज़रूर जीवन होगा, यह एक हाइपोथेटिकल ख़याल है। ड्रेक इक्वेशन बड़े ज़ोर-शोर से यह जानने में जुटी है कि इस यूनिवर्स में कहीं हम अकेले तो नहीं? लगभग रोज़ ही हम प्रतीक्षा करते हैं कि परजीवी सभ्यता का एक युद्धपोत धरती पर उतरेगा, शायद हमसे लड़ने या प्रेम करने के लिए, या शायद हमारे साथ मिलकर दुनिया की गुत्थी को सुलझाने के लिए। किंतु अभी तक ऐसा हुआ नहीं है।
अव्वल तो धरती पर जीवन का होना ही दूभर था। उसमें भी बोध, संज्ञान और चेतना की उत्पत्ति तो और असम्भव थी। किंतु हुई। कैसे हुई? पच्चीस लाख साल पहले अफ्रीका में पहला मानव जन्मा। बीस लाख सालों तक इस धरती पर जैसे दूसरे प्राणी थे, वैसा ही मनुष्य था। सर्वत्र एक आदिम साम्य उपस्थित था। कोई किसी से अधिक महत्वपूर्ण नहीं था। सभी एक धरातल पर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। फिर एक दिन सब बदल गया।
इस घटना की एक तारीख़ बतलाई जाती है। वो कहते हैं यह 70 हज़ार साल पहले हुआ था कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता में अचानक निखार आने लगा। इसका कोई कारण नहीं था, ना कोई संगति थी। किंतु एक कॉग्निटिव रिवोल्यूशन हुई। कैसे हुई, कोई नहीं जानता। मनुष्य के साथ ही यह क्यों हुआ? उसमें भी होमो सेपियंस के साथ, क्योंकि तब तो निएंडरथल्स भी जीवित थे। दूसरी मानव-प्रजातियां भी थीं। इसका कोई जवाब नहीं है।
सिवाय इसके कि जेनेटिक म्यूटेशन की किसी घटना ने मनुष्यों के मस्तिष्कों को बहुत कुशाग्र बना दिया था। वो सोचने लगे थे। विश्लेषण करने लगे थे। उन्होंने भाषा और रणनीतियां रचीं। घर बनाए, सम्बंध जोड़े। संस्कृति और इतिहास को जन्म दिया। आधुनिकता को रचा। आरामपरस्ती को ईजाद किया। और लड़ने के नए बहाने खोजे। किंतु ये सब क्यों हुआ, ये किसी को पता नहीं है।
हम सभी जीवित हैं। किंतु हममें से बहुतेरे इस बात को समझ नहीं पाते हैं कि इस यूनिवर्स में जीवन एक लगभग असम्भव-सी परिघटना है। यूनिवर्स में ऊर्जा और पदार्थ का प्राधान्य है। जीवन, उसमें भी कॉम्प्लेक्स ऑर्गेनिज़्म, और उसमें भी इंटेलीजेंट लाइफ़ एक बहुत बड़ा चमत्कार है।
या शायद, एक बहुत बड़ी परियोजना। लेकिन किसकी?
एकबारगी यह मानना कठिन लगता है कि ये सब एक प्रयोजनहीन प्रक्रिया के चलते हो रहा है। इसका कुछ तो कारण होगा। कोई तो कठपुतली को नचा रहा होगा। किसी का कोई तो मक़सद होगा, जिसे हमारे ज़रिये पूरा किया जा रहा है। हम एक बड़ी प्रयोगशाला का हिस्सा हैं। लेकिन किसकी, और कैसे?
कौन जाने, एक कॉस्मिक इंटेलीजेंस ने किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए धरती पर जीवन और चेतना को रचा हो और शायद अपना लक्ष्य पूरा करके वो इस खिलौने को नष्ट कर दे। क्या मनुष्य कभी जान नहीं सकेगा कि वो यहां पर क्यों है और किसलिए आया है? शायद नहीं। ठीक उस चूहे की तरह, जिसे एक सांप के पिंजरे में छोड़ दिया जाता है, यह देखने के लिए कि उस पर सांप-काटे का ज़हर कितनी देर में असर करता है। न्यूरोटॉक्सिक वेनम के आघात से जड़ होकर मरने से पहले चूहा यह कभी नहीं जान पाता है कि वो एक प्रयोग का हिस्सा था। शायद हम भी नहीं जानेंगे।
तब भी, यही चंद सवाल इस दुनिया में पूछने जैसे हैं- हम यहां क्यों हैं, कहां से आए हैं, कहां को जाएंगे, और कब तक रहेंगे? इसके सिवा तमाम सवाल उस समय की बर्बादी हैं, जो हमारे हाथों में शायद अब पहले ही बहुत कम रह गया है।