प्रचार-काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'

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प्रचार-काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'

यह प्रचार-काल बाबू हरिश्चन्द्र के समय से ही प्रारम्भ होता है, परन्तु वह विस्तृत एवं व्यापक उनके स्वर्गारोहण के बाद हुआ। किसी भाषा के प्रचार-कार्य के साथ समाचार-पत्रों एवं मासिक-पत्रों आदि का घना सम्बन्ध है। इसी प्रकार प्रचारकों और पुस्तक प्रणेताओं से भी उसका गहरा सम्पर्क है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आदि प्रतिभाशाली लेखकों ने हिन्दी भाषा की सर्वतोमुखी उन्नति के लिए उद्योगशील होकर, साहित्य की जो धारा उन्नतिकाल में बहा दी थी, प्रचारकाल में द्विगुणित वेग से वह गतिवती हुई।

इस काल में यदि एक ओर स्वामी दयानन्द सरस्वती के कुछ अनुयायी हिन्दी गद्य को अपने धार्मिक ग्रन्थों की रचनाओं द्वारा अग्रसर बनाने में तत्पर थे तो, दूसरी ओर बाबू हरिश्चन्द्र के अनेक सम सामयिक विविधा प्रकार के साहित्य पुस्तकों का प्रणयन कर उसकी सेवा के लिए कटिबध्द थे। कचहरियों में हिन्दी भाषा को स्थान दिलाने का उद्योग भी इसी समय में प्रारम्भ हुआ, अतएव इस सूत्रा से भी अनेक सभा सोसाइटियों का जन्म हुआ। इनका उद्देश्य भी हिन्दी का प्रचार और विस्तार था। सनातन-धार्मियों का एक विशाल दल भी इस समय इस कार्य में लग्न हुआ। आर्य-समाज की प्रतिद्वंद्विता के कारण उन पण्डितों ने भी हिन्दी भाषा में ग्रंथ-रचना के लिए लेखनी पकड़ी, जिन्होंने आजीवन संस्कृत देवी की आराधाना का ही व्रत ग्रहण कर लिया था। फिर क्या था अनेक पत्रा-पत्रिाकाएँ निकलीं, नाना प्रकार के ग्रन्थ बने और तरह-तरह के आन्दोलन उठ खड़े हुए। मैं क्रमश: सबका वर्णन करूँगा।

1. पं. भीमसेन शर्मा स्वामी दयानन्द सरस्वती के शिष्य थे। अपने जीवनकाल में वे स्वामी दयानन्द के आन्दोलन से बहुत दिनों तक सम्बध्द रहे, जिसका परिणाम यह हुआ कि संस्कृत के साथ हिन्दी भाषा का अनुराग भी उनके हृदय में उत्पन्न हो गया। पण्डित जी संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित और अपने समय के अद्वितीय वेदवेत्ताा थे। वेद विद्या पारंगत सामाश्रमी के स्वर्णारोहण के उपरान्त कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज के वेदाचार्य का प्रधान पद आपको ही प्राप्त था। आपमें सत्यप्रियता इतनी थी कि वेद मंत्रों के अर्थ में मत-भिन्नता उत्पन्न होने के कारण ही आपका सम्बन्ध स्वामी दयानन्द से छूटा। उन्होंने जैसे मार्मिक और विचारपूर्ण लेख वैदिक विषयों पर लिखे, शास्त्रीय सिध्दान्तों का विवेचन जिस विद्वता के साथ किया। वह प्रशंसनीय ही नहीं अभूतपूर्व है। ऐसे अपूर्व विद्वान् का हिन्दी क्षेत्रा में अवतीर्ण होना हिन्दी के लिए अत्यन्त गौरव की बात थी। उन्होंने जैसे गम्भीर धार्मिक निबन्धा हिन्दी भाषा में लिखे हैं, जैसे शास्त्रीय ग्रंथ रचे हैं, ब्राह्मण सर्वस्व,निकाल कर हिन्दी भाषा को जो गौरव प्रदान किया है, उसके लिए हिन्दी संसार विशेषकर धार्मिक जगत उनका सदैव कृतज्ञ रहेगा। वे वाग्मी भी बड़े थे, जिन्होंने उनके पांडित्यपूर्ण व्याख्यान सुने हैं, वे जानते हैं कि उनका भाषण कितना उपपत्तिामूलक और प्रौढ़ होता था। ऐसा ही उनका हिन्दी गद्य भी है। जहाँ तक पूर्ण और विवेचनात्मक शास्त्रीय विषय लिखा गया है, वहाँ उनकी भाषा गहन से गहन है। परन्तु साधारण विषयों को उन्होंने बड़ी सुलझी और परिष्कृत भाषा में लिखा है। उनके गद्य में प्रवाह और प्रांजलता दोनों है, भाषा भी उनकी मँजी हुई है। देखिए-

“आत्म गौरव का संस्कार जागे बिना जातीय अभ्युत्थान का होना असम्भव है और जहाँ की भाषा अपने देश के उपकरणों से संगठित नहीं वहाँ आत्म-गौरव के संस्कार का आविर्भाव होना असम्भव है। क्योंकि ऐसी दशा में संसार यही कहेगा कि “कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनबा जोड़ा।” जहाँ आत्मगौरव का अभाव है, उस देश या जाति का जातीय अभ्युत्थान होना भी असंभव ही जानो।

“जो मनुष्य ऐसे वंश में उत्पन्न हुआ है, जिसमें गौरव का चिद्द भी नहीं, न कोई वैसार् कत्ताव्य-पालन है, उसका उत्थान होना संभव नहीं है। क्योंकि जन्मान्तरीय संस्कार स्वच्छ होने पर भी उन संस्कारों के उद्बोधाक निमित्ता कारण उस जाति को प्राप्त नहीं हैं। इसी कारण ऐसे साधानहीन वंशों में उच्च कोटि के विचारवान मनुष्यों का सदा ही अभाव दिखता है। विचार का स्थान है कि मेवाड़ के महाराणा वीरों ने म्लेच्छों के समक्ष शिर नहीं झुकाया तथा अन्य सभी राजाओं ने शासक यवनों की अधीनता स्वीकार की। इसका कारण वंश-परम्परागत आत्मगौरव ही था।”

इन दोनों अवतरणों को देखकर आपको पता चल गया होगा कि पण्डितजी की प्रवृत्ति किस प्रकार की भाषा लिखने की ओर थी, उनकी भाषा परिष्कृत है, परन्तु है संस्कृतगर्भित। आजकल ऐसी ही भाषा का अधिक प्रचार है, इसलिए हम यह कह सकते हैं कि इस शैली को प्रचलित और पुष्ट करने वाले पुरुषों में प्रथम स्थान पण्डितजी ही का है। उनमें इस प्रवृत्तिा का उदय होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रथम तो वे संस्कृत के विद्वान् थे, दूसरे वे उन लोगों में थे जो विजातीय भाषा के शब्दों को ग्रहण करना युक्ति-संगत नहीं मानते थे। उनका विचार था, ऐसा करना रूपान्तर से अपनी भाषा की न्यूनता स्वीकार करना है। अन्यों से इस विषय में वे अधिक कट्टर थे। वे विदेशी और विजातीय भाषा के शब्द न लेने की चर्चा करते हुए, एक स्थान पर यह लिखते हैं-

“शिकायत शब्द अन्य भाषा का है। परन्तु हिन्दी भाषा में विशेष रूप से प्रचलित हो गया है। यदि इस शब्द के स्थान में उपालम्भ का प्रयोग करने की रुचि नहीं है और यह इच्छा है कि इसी अर्थ का बोधाक इसी से मिलता हुआ संस्कृत शब्द हो तो वैसे शब्द भी संस्कृत भाषा की अद्भुत शक्ति होने से हमको प्राप्त हो सकते हैं, जिनका स्वरूप, और अर्थ दोनों मिल सकते हैं,जैसे 'शिक्षा यत्न' या शिक्षा यंत्रिा। जिस मनुष्य की शिकायत की जाती है उसको कुछ शिक्षा वा दण्ड देने वा दिलाने का अभिप्राय होता है। जिससे वह आगे वैसा न करे, इससे 'शिकायत' शब्द के स्थान में शिक्षायत्न शब्द का प्रयोग उचित है।”

इस अवतरण में यह शिक्षा है कि यदि आवश्यकता विदेशी विजातीय शब्दों को ग्रहण करना ही पड़े तो किस प्रकार उनको संस्कृत रूप दे दिया जावे। दूसरे स्थान पर वह यह कहते हैं, कि यदि विदेशी अथवा विजातीय शब्दों को मुख्य रूप में ही लिखना पसन्द हो तो, यह भी कर सकते हो, परन्तु उसको संस्कृत का शब्द ही मान लो, क्योंकि उसमें यह शक्ति है कि अन्य भाषा के शब्दों की व्युत्पत्तिा वह उसी अर्थ में कर लेती है। निम्नलिखित अवतरण को पढ़िए और उसमें उनका पाण्डित्य देखिए-

“यदि हम आस्मान शब्द को अपने व्यवहार में लावें तो उसे असमान शब्द का अपभ्रंश मानें 'आसमन्तास्समानानमेव रूपं यदस्ति सर्वत्रा विद्यते नचघटादिषु विकृतं भवति तदा समानम्।' जो सब घटादि पदार्थों में एक ही रूप रहता, जिसमें किसी प्रकार का विकार नहीं होता, वह आसमान नामक आकाश है, उसी का अपभ्रंश आसमान हो गया। बन्धा धातु से उर प्रत्यय करने पर बन्धाु शब्द बनेगा, जिस समुद्र तट पर जहाज बाँधो जावें, वह स्थान बन्धर हुआ, उसी का अपभ्रंश बन्दर शब्द को मान लेना चाहिए। अथवा स्तुति अर्थ वाले बदि धातु से औणादिक अर प्रत्यय करने पर प्रशस्त कार्यसाधाक स्थान का नाम बन्दर हो सकता है।”

पंडित जी का विचार आत्मनिर्भरतामूलक है, उसका आधार वह आर्य संस्कृति है, जिसको परावलम्बन प्रिय नहीं और जो सर्वथा शुध्दतावादी है। किन्तु परिस्थिति उनके विचारों के अनुकूल नहीं थी, और आवश्यकताओं की दृष्टि किसी अन्य लक्ष्य की ओर थी, इसलिए उनका कथन नहीं सुना गया, किन्तु हिन्दी भाषा विकास की चर्चा के समय उनका स्मरण सदा होता रहेगा। जनता की बोलचाल की भाषा बड़ी शक्तिशालिनी होती है, भाषा कितनी ही साहित्यिक बने परन्तु वह उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकती। विदेशीय और विजातीय जो शब्द अधिक प्रचलित हो जाने के कारण बोलचाल में गृहीत हो जाते हैं, उनका सर्वथा त्याग असम्भव है। पारसी अरबी, ऍंग्रेजी आदि भाषाओं के जो सह शब्द आज बोलचाल में प्रचलित हैं, उनके स्थान पर गढ़े शब्द रखने से भाषा की जटिलता बढ़ती है और वह बोधागम्य नहीं रह जाती। इसलिए ऐसे शब्दों का ग्रहण अनिवार्य हो जाता है। अनिच्छा अथवा संस्कृति उसके प्रसार में बाधा नहीं पहुँचा सकती, क्योंकि संसार और समाज सुविधाप्रेमी है। फिर भी पण्डितजी की सम्मति उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखी जा सकती। इस प्रकार की सम्मतियाँ कार्य में परिणत न होकर भी भाषा को मर्यादित करने में बड़ी सहायक होती हैं। इनको पढ़कर वे लोग भी सावधानीपूर्वक पाँव उठाने लगते हैं, जिनको ऑंख मूँदकर चलना ही पसंद आता है। पण्डितजी ने हिन्दी क्षेत्रा में साहित्य सम्बन्धी जितने कार्य किये हैं, वे सब बहुमूल्य हैं,और उनके द्वारा हिन्दी संसार अधिक उपकृत हुआ है।

2. पण्डित भीमसेन जी के उपरान्त हिन्दी के धार्मिक क्षेत्रा में अपनी कृतियों द्वारा विशेष स्थान के अधिकारी विद्यावारिधि पं. ज्वाला प्रसाद हैं। आपने भी अनेक ग्रंथें की रचना की है और इस विषय में बड़ा नाम पाया है। आपका हिन्दी का यजुर्वेद भाष्य बड़ा ही परिश्रम साधय और महान् कार्य है। आपकी रामायण की टीका बहुत प्रसिध्द है, उसका प्रचार भी अधिक हुआ है। आपका दयानन्द तिमिर भास्कर नामक ग्रंथ भी उपादेय है। आपने कई पुराणों का अनुवाद भी हिन्दी भाषा में किया है। आपके समस्त ग्रंथ वेंकटेश्वर प्रेस में छपे हैं। आप बहुत बड़े वाग्मी थे। आप जैसा सभा पर अधिकार करते मैंने अन्य को नहीं देखा। आपके रचे ग्रंथों की संख्या भी अधिक है, परन्तु समस्त ग्रंथ धार्मिक विषयों पर ही लिखे गये हैं। केवल बिहारी सतसई की टीका ही ऐसी है जिसे हम धार्मिक ग्रंथ नहीं कह सकते। परन्तु यह टीका उनके पद-मर्यादा से बहुत नीचे है। आजीवन धार्मिक क्षेत्रा ही उनका था और इसी में उनको अतुलनीय कीर्ति प्राप्त हुई। पण्डित बलदेव प्रसाद आपके लघु भ्राता थे। आपने भी अनेक हिन्दी ग्रंथों की रचना की है, आपके ग्रंथ भी उपयोगी और सुन्दर हैं। आप अपने ज्येष्ठ भ्राता की ही प्रतिमूर्ति थे।

मिश्रजी के गद्य का उदाहरण भी देखिए-

“श्री गोस्वामी जी का जीवन चरित्रा लिखने के लिए जिस-जिस सामग्री की आवश्यकता है, वह इस समय सर्वथा प्राप्त नहीं होती। इसलिए इनके चरित्रा लिखने के लिए दूसरे ग्रन्थों और कहावतों का संग्रह करना पड़ा है। सुनते हैं वेणीमाधाव दास कृत एक गोसाईं चरित्रा नामक ग्रन्थ है, जो गोस्वामी जी के समय में ही रचा गया है, परन्तु वह भी इस समय नहीं मिलता। इस कारण भक्तमाल तथा दूसरे ग्रन्थों के आधार पर कुछ लिखते हैं।” “एक समय एक सन्त ने कहा राम का अवतार तो द्वादश कला का है, कृष्ण का सोलह कला है, सो तुम सोलह कलावतार को क्यों नहीं भजते। तुलसीदास जी यह सुनते ही दो घड़ी तक प्रेम में मग्न हो गये और फिर बोले हम तो आजतक रामचन्द्र को कौशल राजकुमार जानते थे, पर तुमने तो बारह कला का ईश्वर का अवतार बताकर हमारी भक्ति और भी दृढ़ कर दी, अब उनको कैसे त्याग दूँ। यह सुन अनन्य उपासी जान साधाु ने उनके चरण पकड़ लिये। यद्यपि गोस्वामी जी कह सकते थे कि सूर्य बारह कला और चन्द्र सोलह में पूर्ण होता है, यह उसी का उपलक्ष्य है, पर उन्होंने वही उत्तार देना उचित जाना।”

3. “साहित्याचार्य पं. अम्बिकादत्ता व्यास का वर्णन मैं पहले कर आया हूँ। वे जैसे धार्माचार्य हैं, वैसे ही साहित्याचार्य। उनकी अनेक उपाधियाँ हैं। वे भारतेन्दु जी के समकालीन थे। पं. प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन, पं. गोविन्दनारायण मिश्र और पं. बालकृष्ण भट्ट के समान उनका स्थान भी उस समय के साहित्य-सेवियों में प्रधान है, अतएव उन्हीं के साथ उनका वर्णन भी होना चाहिए था। परन्तु धार्म-क्षेत्रा के उनके कार्य साहित्य-क्षेत्रा से भी अधिक हैं, बिहार प्रान्त में धार्म के साथ उन्होंने हिन्दी का प्रचार भी बड़ी तत्परता के साथ किया, इसलिए मुझको प्रचार कला में ही उन्हें लाना पड़ा। वे विचित्रा बुध्दि के मनुष्य थे। उन्होंने धार्मिक-क्षेत्रा में रहकर उस समय अवतारकारिका, अवतार मीमांसा आदि जितने ग्रंथों की रचना संस्कृत में की, उनकी उस समय बड़ी प्रशंसा हुई थी। उनका मूर्ति-पूजा नामक हिन्दी ग्रन्थ भी इस विषय में अपूर्व है। बिहार प्रान्त में उन्होंने जिस प्रकार धार्म-दुन्दुभी का निनाद किया, वह बड़ा ही व्यापक और प्रभावशाली था। उन्होंने गद्य के कई बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे, वे पीयूष प्रवाह नामक अपने मासिक पत्रा को चिरकाल तक निकालते रहे। धार्म-क्षेत्रा में उनका कार्य जितना ठोस है,उतना ही साहित्य-क्षेत्रा में। उनका 'गद्य मीमांसा' नामक हिन्दी में लिखा गया ग्रन्थ भी अपूर्व है, उनके पहले किसी ने ग्रंथ लिखकर गद्य शैली-निधर्ाारण की चेष्टा नहीं की थी। उनका गद्य भी विलक्षण और कई प्रकार का होता था, कुछ उदाहरण लीजिए-

“सम्वत् 1934 में एंग्लो की उत्ताम वर्ग की पढ़ाई मैंने समाप्त की। इसी वर्ष अभिनव स्थापित काश्मीराधीश के संस्कृत कॉलेज में मैंने नाम लिखाया। वहाँ परीक्षा दी। कॉलेज की प्रधान अधयक्षता जगत्-प्रसिध्द स्वामी विशुध्दानन्द जी के हाथ में थी, उनने यावत् पंडितों के समक्ष मुझे व्यास पद दिया। यों तो पहले से ही व्यास जी कहा जाता था, परन्तु अब वह पद और पक्का हो गया।”

“थोड़े ही दिनों के ही अनन्तर पोरबन्दर के गोस्वामी बल्लभ कुलावतंस श्री जीवन लाल जी महाराज से मेरा परिचय हुआ। वे मुझसे कुछ पढ़ने लगे, उनके साथ कलकत्तो गया। वहाँ सनातन-धार्म के विभिन्न विषयों पर मेरी 28 वक्तृताएँ हुईं। कई सभाओं में बंगदेशीय पण्डितों से गहन शास्त्राार्थ हुए।”

“अब देखिए वहीं वेदान्तियों के सिध्दान्त मूर्ति पूजा द्वारा कैसे सुखपूर्वक सिध्द होते हैं। जगत का सम्पर्क छोड़ परमात्मा में एकदम लीन हो जाना, बात तो इतनी-सी है और इसी के साधाने में अहन्ता-ममतादि का त्याग है तो जगन्मिथ्या,जगन्मिथ्या कहते-कहते, तो आप लोगों को बतलाया ही जा चुका है “पादांगुष्ठ शिरोषाग्नि: कदामौलिमवाप्स्यति” और बाबा किसी अधिकारी को उसी ढंग से शीघ्र जगत् से असम्पर्क हो, और आत्मानुभव हो तो हम उसके लिए कुछ मना भी नहीं करते, वह ब्रह्मानन्द में डूबे, पर देखिए तो भक्तों का एक कैसा अद्भुत रास्ता है।”

“आहा! इस समय भी स्मरण करने से ऐसा जान पड़ता है, कि मानो रात्रिा का अंधाकार क्रम से पीछे हट चला है, चिड़ियों ने धीमे-धीेमे कोमल सुर से कुछ चकचकाहट आरंभ की है और ठंडी-ठंडी हवा चल रही है। इसी समय नींद खुली और ऑंख खोलते ही चट नारायण का नाम ले, कुछ आवश्यक कृत्यों से निपट, जै जै करते मन्दिर की ओर दौड़ पड़े।”

4. फुल्लौर जिला जालंधार निवासी पं. श्रध्दाराम जी पंजाब प्रान्त के प्रसिध्द हिन्दू धार्म प्रचारक और हिन्दी भाषा के कई ग्रन्थों के रचयिता हैं, जिनमें 'सत्यामृत प्रवाह' अधिक ख्याति प्राप्त है। मरने के समय उनके मुख से हठात् यह निकला था कि'हिन्दी भाषा के दो बड़े लेखक थे, एक पंजाब में और एक बनारस में; अब केवल एक ही रह जायेगा।' इससे स्पष्ट है कि उनका स्वर्गवास बाबू हरिश्चन्द्र के पहले ही हुआ, क्योंकि जिस शेष लेखक की ओर उनका संकेत है, वे उक्त बाबू साहब ही हैं। ऐसी अवस्था में प्रचार काल में उनकी चर्चा उचित नहीं। परन्तु मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि यह प्रचार काल उनके जीवन से ही प्रारम्भ होता है, इसलिए और इस कारण कि पं. जी हिन्दी के प्रसिध्द प्रचारक थे, उनकी चर्चा प्रचारकाल में ही की गई। पण्डितजी ने जितने ग्रंथ लिखे हैं, वे बड़े उपादेय हैं। उनका 'आत्मचिकित्सा' नामक ग्रन्थ भी बड़ा उत्ताम है। वे अनीवश्वरवादी थे, परन्तु हिन्दू शास्त्राों पर उनकी बड़ी श्रध्दा थी और सामाजिक समस्त नियमों का पालन वे बड़ी तत्परता से करते थे। हिन्दू धार्म में उनकी बड़ी ममता थी, और उसकी रक्षा के लिए वे सदा कटिबध्द रहते थे। जिस समय काश्मीर के मुसलमानों को हिन्दू बनाने की इच्छा काश्मीर नरेश की हुई, उस समय पं. जी ने इस विषय में उन्हें बहुत उत्साहित किया। किन्तु दुख है कि हिन्दुओं के दुर्भाग्य और विशेष कारणों से मन की बात मन में ही रह गई। पण्डित जी ने भाग्यवती नामक एक उपन्यास भी लिखा है जो बड़ा ही सुन्दर है। उन्होंने अपना जीवनचरित स्वयं 1400 पृष्ठों में लिखा था, परन्तु अब वह प्राप्त नहीं होता। कहा जाता है, छपने के पहले ही गुम हो गया। उनके गद्य का कुछ अंश देखिए-

“वह भी ईश्वर कृत नहीं, किन्तु समुद्र और अन्य नदी नालों का जल सूर्य की किरण द्वारा उदान वायु के वेग से ऊपर खैंचा जाता है और सूर्य की ताप से पिघलता-पिघलता अति सूक्ष्म हो के आकाश में मेघाकार दिखाई देता है। जब उसको ऊपर शीतल वायु मिले तो घृत की नाईं जम के भारी हो जाता है और अपान वायु के वेग से नीचे गिरने लगता है। यदि ऊपर शीतल वायु बहुत लगे तो अत्यंत गरिष्ट हो के ओले बरसने लगते हैं।”

- सत्यामृत प्रवाह

5. श्रीमान् पं. मधाुसूदन गोस्वामी हिन्दू-शास्त्रा के पारंगत विद्वान् और हिन्दी भाषा के प्रौढ़ लेखक थे। उन्होंने ग्रंथ भी बनाये हैं, किन्तु अधिकांश निबन्धा ही उनके लिखे हैं, जो प्राय: पत्रा और पत्रिाकाओं में मुद्रित होते रहते थे। वे प्रचार के लिए बाहर आते-जाते नहीं देखे गये, लेखों के द्वारा ही उन्होंने धार्म की अच्छी सेवा की है। जितने धार्म विषयक लेख उन्होंने लिखे हैं, वे पठनीय और आदरणीय हैं। आलाराम सागर संन्यासी भी उस काल के एक अच्छे प्रचारकों में थे। उन्होंने विशेषत: इस विषय पर लेख लिखे हैं कि सिक्खों के 10 गुरु हिन्दू धार्म के रक्षक थे और सदा उन्होंने हिन्दू धार्म भावों का ही प्रचार किया है। वे हिन्दू और सिक्खों में सद्भाव स्थापन के बड़े उद्योगी थे। इस विषय के टै्रक्ट और छोटे-छोटे ग्रंथ लिखकर उन्होंने उनका प्रचार अधिकता से किया था। इस सब ग्रंथों और टै्रक्टों को उन्होंने अधिकांश हिन्दी भाषा ही में लिखा था। हिन्दी भाषा प्रचार के लिए भी वे बहुत उत्सुक रहतेथे।

6. हिन्दी भाषा के प्रचार के लिए आर्य समाजियों ने भी इस समय बड़ा उद्योग किया था। पंजाब प्रांत में हिन्दी भाषा के प्रचार का श्रेय उन्हीं को प्राप्त है। इस समय आर्य समाज में भी संस्कृत के धाुरंधार विद्वान् थे जो धार्म के साथ-साथ हिन्दी-भाषा का प्रचार भी करते थे। इनमें से स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी श्रध्दानंद, पं. तुलसीराम, पं. गणपति शास्त्री, पं. राजाराम और श्रीयुत आर्य मुनि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। स्वामी दर्शनानन्द ने पत्रा और पत्रिाकाएँ भी निकालीं और धार्मिक विचारों पर उत्तामोत्ताम ग्रंथ भी लिखे। उनके ग्रंथ प्रौढ़ विचारों से पूर्ण हैं। उनमें दार्शनिकता भी पाई जाती है। ये समस्त ग्रंथ अधिकांश हिंदी भाषा में लिखे गये हैं। स्वामी श्रध्दानंद ने चिरकाल तक 'सत्यधार्म प्रचारक' का सम्पादन किया था और कतिपय धार्मिक पुस्तकें भी लिखी थीं। उनके ग्रंथ भी उपादेय हैं और सामयिकता की दृष्टि से उनमें ऐसी बातें लिखी गयी हैं कि जो हिन्दू जाति को जाग्रत करती हैं। आप लोग देश- विदेशों में जाते और वहाँ पर आर्य समाज के साथ हिन्दी भाषा का प्रचार भी करते थे। पं. तुलसीराम और पं. गणपति शास्त्री का शास्त्रा ज्ञान और वैदिक विषयों की अभिज्ञता प्रशंसनीय थी। दोनों सज्जनों की विचार-शैली गहन और युक्तिमूलक होती थी। पं. तुलसीराम एक मासिक पत्रा भी निकालते थे, वे उसमें शास्त्रीय विषयों की मीमांसा करते रहते थे। उनके भी अधिकांश ग्रंथ हिन्दी भाषा में ही लिखे गये हैं और इस कारण हिन्दी भाषा के प्रचार में उनका उद्योग भी प्रशंसनीय था। पं. गणपति शास्त्री की भाषण शक्ति जैसी अपूर्व थी वैसी ही विषय-विवेचन की योग्यता भी उनमें थी। उनके लेख गंभीर होते थे, उनके ग्रंथ भी उनके पांडित्य के प्रमाण हैं। पं. राजाराम ने उपनिषदादि अनेक प्राचीन ग्रंथों की टीका हिन्दी भाषा में लिखी है, और कुछ स्वतंत्रा ग्रंथों की भी रचना की है। श्रीयुत आर्य मुनि की कृतियाँ भी मूल्यवान हैं जो अधिकांश हिन्दी भाषा में हैं, उनसे हिन्दी प्रचार की तात्कालिक प्रवृत्तिा में अच्छी सहायता प्राप्त हुई है।

7. इस काल में अयोधयानिवासी कुछ महात्माओं और विद्वानों ने भी हिन्दू धार्म, हिन्दू जाति और हिन्दी भाषा की बहुत बड़ी सेवा की थी। इनमें से स्वामी युगलानन्द शरण का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। स्वामी युगलानन्द शरण संस्कृत, अरबी एवं पारसी के बड़े विद्वान् थे, हिन्दी-भाषा के तो एक प्रकार से आचार्य ही थे। वे हिन्दी के सत्कवि थे। उन्होंने रामलीला सम्बन्धी पद्य के सुन्दर ग्रन्थ बनाये हैं, उनमें धार्मिक भाव भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। उनकी जितनी रचनाएँ हैं, सब बड़ी सरस और मधाुर हैं, उनमें हृदयग्राहिता की मात्रा भी अधिक है। उन्होंने कुछ ग्रन्थों की भी रचना की है और कतिपय ग्रन्थ की टीकाएँ भी लिखी हैं। उनकी शिष्य-परम्परा में भी उनके भाव गृहीत होते आये हैं, इसीलिए वे लोग भी हिन्दी सेवा में वैसे ही निरत देखे जाते हैं। बाबा रामचरणदास ने इसी काल में एक ऐसी विस्तृत रामायण की टीका लिखी है, जो अद्वितीय कही जा सकती है। इसमें उन्होंने वेद, शास्त्रा, उपनिषद, पुराण आदि के आधार से गो. तुलसीदास की रामायण की चौपाइयों का ऐसा विशद अर्थ किया है, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने पर भी तृप्ति नहीं होती। इस ग्रंथ से भी तात्कालिक हिन्दू धार्म को अच्छी उत्तोजना मिली है, हिन्दी भाषा के भण्डार को तो जगमगाता रत्न ही मिल गया है। बाबा रघुनाथ दास की रचनाएँ भी बहुमूल्य हैं, उनका अवधी भाषा में लिखा गया 'विश्राम सागर' अधिक प्रसिध्द है। इसी प्रकार के कुछ और हिन्दी-हितैषी महात्माओं और विद्वानों के नाम बताये जा सकते हैं, किन्तु व्यर्थ बाहुल्य होगा।

8. इसी काल में तुलसी साहब ने घटरामायण नामक एक विशाल ग्रन्थ की रचना पद्य में की, जो अपने ढंग का अनूठा है। राधा स्वामी मत की स्थापना भी इसी काल में हुई। उस संप्रदाय वालों की भी कुछ ऐसी रचनाएँ इस काल की हैं, जिनसे हिन्दी भाषा के प्रचार में कुछ न कुछ सहायता अवश्य प्राप्त हुई। पं. ब्रह्मशंकर मिश्र का रचा हुआ ग्रन्थ प्रमाण में उपस्थित किया जा सकता है, यह ग्रन्थ अपने ढंग का उत्ताम है। उसमें जो बातें वर्णन की गयी हैं, वे कई एक सिध्दान्त की बातों पर अच्छा प्रकाश डालती हैं।

9. श्रीयुत राधाचरण गोस्वामी जी प्रसिध्द साहित्य-सेवियों में हैं, आप भी बाबू हरिश्चन्द्र के समकालीन सज्जनों में हैं। आपकी गणना भी उस समय के उन्हीं लोगों में है जो उनके सच्चे सहयोगियों के नाम से प्रसिध्द हैं। पण्डित बालकृष्ण भट्ट,पं. प्रतापनारायण, पं. अम्बिका दत्ता व्यास आदि के समान ही साहित्य-सेवियों में आपकी भी गणना है। आपने भारतेन्दु नामक एक मासिक पत्रिाका उनकी कीर्ति की स्मृति में निकली थी जो बहुत दिनों तक चलती रही। आप बड़े मार्मिक लेखक थे। आपकी लेख-मालाएँ बड़े आदर से पढ़ी जाती थीं। आप स्वतंत्रा विचार के पुरुष थे, इसलिए सामयिकता के विशेष अनुरागी थे। उन्होंने विदेश-यात्रा और विधावा-विवाह मण्डन पर भावमयी पुस्तकें लिखी हैं। आप जैसे गद्य-रचना में निपुण थे वैसे ही पद्य-रचना पटु भी। आपने 'उत्तारार्ध्द', 'भक्तमाल' नामक एक सुन्दर ग्रन्थ पद्य में बनाया है, उसमें नाभाजी के बाद के भक्तों की चर्चा की है। रचना वैसी ही सुन्दर सरस, और ललित है जैसी नाभाजी रचित भक्तमाल की। आपने ब्रजप्रान्त में और युक्तप्रान्त के पश्चिमी जिलों में हिन्दी भाषा के प्रचार का बड़ा उद्योग किया था। जिस समय कचहरियों में हिन्दी भाषा के ग्रहण किये जाने का आन्दोलन पूज्यपाद मालवीय जी के नेतृत्व में चल रहा था, उस समय आप भी उसके एक विशेष सहायक थे। आपने हिन्दी में कई ग्रन्थों की रचनाएँ की हैं जो मनोहर एवं मधाुर हैं। उनमें सामयिकता भी पाई जाती है। उनके गद्य और पद्य का एक उदाहरण देखिए-

“इसका नाम 'भारतेन्दु' रखने का कारण जानने के लिए शायद आप लोग उत्सुक होंगे, क्योंकि इस रूप तथा इस आकार के पत्रा के लिए तनिक यह नाम अयोग्य-सा मालूम होता है। परन्तु यह धाृष्टता केवल इसे पूज्यवाद भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का स्मारक स्वरूप बनाने के लिए की गई है। यों तो उनकी अटल कीर्ति जब तक हिन्दी भाषा की एक भी पुस्तक रहेगी तब तक इस भूमण्डल में वर्तमान रहेगी, तथापि इसी बहाने उनके प्रात: स्मरणीय नाम के उच्चारण का सौभाग्य प्राप्त होगा।”

10. अलीगढ़ निवासी बाबू तोताराम बी.ए. बाबू हरिश्चन्द्र के समकालीन हिन्दी सेवकों में हैं। उन्होंने भी हिन्दी के प्रचार में बड़ा उद्योग किया था। 'भारत-बन्ध' नामक एक साहित्यिक पत्र उन्होंने निकाला था, कुछ ग्रन्थों की भी रचनाएँ की थीं। जिनमें 'केटो कृतान्त' नाटक और 'स्त्री सुबोधिनी' प्रसिध्द हैं। इनकी गद्य-रचना साधारण है, परन्तु उसमें नियमबध्दता पाई जाती है। इनकी गद्य-रचना का एक अंश देखिए-

“कौन नहीं जानता? परन्तु इस नीच संसार के आगे कीर्ति केतु विचारे की क्या चलती है। जो पराधीन होने से ही प्रसन्न रहता है और सिसुमार की शरण जा गिरने का ही जिसे चाव है। हमारा पिता अत्रिापुर में बैठा हुआ वृथा रमावती नगरी की नाम-मात्रा प्रतिष्ठा बनाये है। नौपुर की निबल सेना और एक रीति संचारिणी सभा जो निष्फल युध्दों से शेष रह गई है, वह उसके संग है।”

11. पं. केसोराम भट्ट इस प्रचार-काल के ही एक प्रसिध्द हिन्दी-सेवक हैं। उन्होंने बिहार-बन्धाु नामक एक साप्ताहिक पत्रा बिहार से ही निकाला था, जो कुछ दिनों तक वहाँ सफलतापूर्वक चलता रहा। उन्होंने सज्जाद संबुल और शमशाद सौसन नामक दो नाटक भी बनाये थे और एक व्याकरण ग्रन्थ भी। यह व्याकरण ग्रन्थ उस समय हिन्दी संसार में आदर की दृष्टि से देखा गया था। उनके दोनों नाटक भी अच्छे हैं परन्तु उनकी भाषा खिचड़ी है। हिन्दी के साथ उसमें उर्दू का प्रयोग अधिक है।

12. बाबू बालमुकुन्द गुप्त पहले उर्दू के प्रेमी थे। बाद को पं. प्रतापनारायण मिश्र के सहवास के कारण हिन्दी-प्रेमी बन गये। उन्होंने उन्हीं से हिन्दी लिखने की प्रणाली सीखी। अतएव उन्हीं की-सी फड़कती और चलती भाषा प्राय: लिखी है। उन्होंने बहुत दिनों तक भारतमित्रा पत्रा का सम्पादन किया था। दो-तीन छोटी-मोटी हिन्दी पुस्तकेंं भी लिखी हैं। उर्दू में पूरा अभ्यास होने के कारण उनकी भाषा मँजी हुई होती थी। वे सरस हृदय थे, इसलिए सुन्दर और सरस कविता भी कर लेते थे। उनकी हिन्दी भाषा की कविता थोड़ी है, पर अच्छी है। उनके कुछ गद्य-पद्य देखिए-

“तीसरे पहर का समय था, दिन जल्दी-जल्दी ढल रहा था और सामने से संधया फुर्ती के साथ पाँव बढ़ाये चली आती थी। शर्मा महाराज बूटी की धाुन में लगे हुए थे। सिलबट्टा से भंग रगड़ी जा रही थी। मिर्च-मसाला साफ हो रहा था। बादाम इलायची के छिलके उतारे जाते थे। नागपुरी नारंगियाँ छील-छील कर रस निकाला जाता था। इतने में देखा कि बादल उमड़ रहे हैं, चीलें उतर रही हैं, तबीअत-मुरमुरा उठी। इधार भंग उधार घटा, बहार में बहार। इतने में वायु का वेग बढ़ा, चीलें अदृश्य हुईं,ऍंधोरा छाया, बूँदें गिरने लगीं, साथ ही तड़ तड़ धाड़ धाड़ होने लगी। देखो ओले गिर रहे हैं। ओले थमे, कुछ वर्षा हुई, बूटी तैयार हुई, बमभोला कहकर शर्मा जी ने एक लोटा भर चढ़ाई।” उनके कुछ पद्य देखिए-

आ जा नवल वंसत सकल ऋतुओं में प्यारी।

तेरा शुभागमन सुन फूली केसर क्यारी।

सरसों तुझको देख रही है ऑंख उठाये।

गेंदे ले ले फूल खड़े हैं सजे सजाये।

आस कर रहे हैं टेसू तेरे दर्शन की।

फूल फूल दिखलाते हैं गति अपने मन की।

पेड़ बुलाते हैं तुझको टहनियाँ हिला के।

बड़े प्रेम से टेर रहे हैं हाथ उठा के।

13. लाला श्रीनिवासदास इस काल के अच्छे लेखकों में थे। उन्होंने परीक्षा गुरु नामक एक मौलिक उपन्यास लिखा था।'तप्ता संवरण', 'संयोगिता स्वयंवर' और 'रणधीर प्रेम मोहिनी' नामक तीन नाटकों की भी रचना की थी। ये तीनों नाटक अच्छे हैं, परन्तु रणधीर प्रेम मोहिनी सबसे सुन्दर है, इसका संस्कृत अनुवाद पं. विजयानन्द त्रिापाठी ने किया था। उन्होंने'सदादर्श' नामक मासिक पत्रा भी निकाला था। 'परीक्षा गुरु' की भाषा अच्छी है, उसमें चलतापन भी पाया जाता है, उसका एक अंश देखिए-

“जैसे अन्न प्राणाधार है, परन्तु अति भोजन से रोग उत्पन्न होता है, लाला ब्रजकिशोर कहने लगे-देखिए, परोपकार की इच्छा अत्यन्त उपकारी है, परन्तु हद से आगे बढ़ाने पर वह भी प+जूलख़र्ची समझी जायेगी और अपने कुटुम्ब परिवारादि का सुख नष्ट हो जायेगा। जो आलसी अथवा अधार्मियों की सहायता की, तो उससे संसार में आलस्य और पाप की वृध्दि होगी।”

14. राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह मधय प्रदेश विजय राघव गढ़ के रहने वाले थे, मधय प्रदेश में उन्होंने उस समय हिन्दी प्रचार का अच्छा उद्योग किया था। उन्होंने एक ही ग्रंथ लिखा है। 'श्यामा स्वप्न' परन्तु वह अपने ढंग का अनूठा है। उसमें प्राकृतिक दृश्यों का स्थान-स्थान पर सुन्दर चित्राण है। उन्होंने अपनी भाषा में पं. बदरी नारायण की साहित्यिक भाषा का अनुकरण किया है परन्तु उनके वाक्य अधिक लम्बे हो गये हैं और वाक्य के भीतर वाक्यखंड आकर उसको जटिल बना देते हैं। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्होंने जिस प्रकार प्राकृत दृश्यों का वर्णन किया है, वह संस्कृत कवियों के गंभीर निरीक्षण का स्मरण दिलाता है-

उनके गद्य का एक अंश देखिए-

“मैं कहाँ तक इस सुन्दर देश का वर्णन करूँ? जहाँ की निर्झरिणी, जिनके तीर वानीर से भरे, मदकल कूजित विहंगमों से शोभित हैं, जिनके मूल से स्वच्छ और शीतल जलधारा बहती है और जिनके किनारे के श्याम जम्बू के निकुंज फल भार से नमित जनाते हैं-शब्दायमान होकर झरती है। जहाँ के शल्लकी वृक्षों की छाल में हाथी अपना बदन रगड़-रगड़ खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला क्षीर बन के सीतल समीर को सुरभित करता है। मंजुबंजुल की लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पत्तो ऐसे सघन, जो सूर्य की किरणों को भी नहीं निकलने देते-इस नदी के तट पर शोभित हैं।”

15. पंडित विनायकराव ने भी इस समय मधयप्रदेश में हिन्दी प्रचार का बहुत बड़ा कार्य किया, आप गद्य-पद्य दोनों सुन्दर लिखते थे और अपने विद्याबल से राजा और प्रजा दोनों से आदृत थे। आप की अधिकांश पुस्तकों का प्रचार उस प्रदेश के हाई स्कूलों और पाठशालाओं में था, और इस सूत्रा से उनके सुलिखित ग्रन्थों ने आदर ही नहीं पाया, मधय प्रदेश में हिन्दी का धाक भी बिठला दी। आपकी लिखी रामायण की विनायकी टीका बहुत प्रसिध्द है, जो कई जिल्दों में है, इस ग्रंथ के देखने से उनके अगाधा ज्ञान का पता चलता है और यह प्रकट होता है कि आप हिन्दी भाषा पर कितना अधिकार रखते थे। आपने पंद्रह-बीस ग्रंथ लिखे हैं। अपनी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा के कारण आप सरकार और जनता दोनों से पुरस्कृत हुए हैं। सरकार ने एक बार आपको सहò रुपये पुरस्कार में दिये थे, 'कवि-नायक' एवं साहित्य भूषण की उपाधि भी आपको मिली थी।

16. पंडित विजयानन्द त्रिापाठी हिन्दी भाषा के धाुरन्धार विद्वान् थे। जिस प्रकार संस्कृत के वे प्रकाण्ड थे, वैसे ही हिन्दी भाषा के भी। वाग्मी इतने बड़े थे कि जनता पर जादू करते थे। जब कभी उनका भाषण प्रारंभ होता, उस समय सब लोग आई खाँसी को भी मुँह के बाहर न निकलने देते। जनता उनके व्याख्यानों को सुनकर प्रस्तर की मूर्ति बन जाती थी। उपकार उनके रोम-रोम में भरा था, सर्वसाधारण का काम निष्काम भाव से करते वे ही देखे गये। विद्यारत्न आपकी उपाधि थी। बांकीपुर के बी. एन. कालेजियट स्कूल के हेड-पण्डित बहुत दिनों तक रहे। कविता में अपना नाम श्री कवि लिखते थे। उन्होंने बाबू हरिश्चन्द्र की रत्नावली नाटिका को, जो अधाूरी रह गई थी, पूरा किया। 'रणधीर प्रेममोहिनी' नाटक का संस्कृत में अनुवाद किया, वह भी इस विशेषता के साथ, कि मुख्य ग्रंथ में जिस प्रकार शिष्ट और साधारण जन की भाषा में अन्तर है वैसा ही उन्होंने अपने ग्रंथ में भी संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के आधार से किया। बाबू हरिश्चन्द्र के स्वर्गवास होने पर जो लम्बा लेख उन्होंने लिखा था, वह इतना अपूर्व है, और ऐसी प्रौढ़ भाषा में लिखा गया है कि जिसने उसको एक बार पढ़ा होगा, मेरा विश्वास है, वह उसको आजन्म न भूला होगा। भारत-जीवन पत्रा का जन्म ही उन्हीं के उद्योग का फल था। उनका लिखा हुआ महाअंधोर नगरी नाटक अपने ढंग का बड़ा विचित्रा ग्रंथ है। वास्तव बात यह है कि पं.जी साहित्य-कला के पारंगत थे और हिन्दी भाषा पर पूर्ण अधिकार रखते थे। उनके रचे संस्कृत और हिन्दी भाषा के अनेक ग्रंथ हैं। उनकी एक गद्य-रचना देखिए-

ईमान बेचने वाला-(सभी जात) ईमान ले ईमान; टके सेर ईमान, टके पर हम ईमान बेचते हैं। ईमान ही क्या, जातपाँत कुलकानि धार्म्म कर्म्म वेद पुरान कुरान बाइबिल सत्य ऐकमत्य गुन गौरव इज्जत प्रतिष्ठा मान ज्ञान इत्यादि सर्वस टके सेर!! एक टका दो, हम तुमी को डिग्री देते हैं। टके पर हम अदालत में तुमारी ऐसी कहैं, टका खोलकर हमारी झोली में रक्खो, अभी तुम्हें के. सी. एस. आई. बल्कि ए. वी. सी. डी. इत्यादि छब्बीसों अक्षर और वर्णमाला भर का लम्बा पोंछ बढ़ा देवें।

- महाअंधोर नगरी।

17. इस प्रचार-काल में दो बड़े उत्साही युवक हिन्दी-संसार के सामने आते हैं, एक हैं बाबू राधाकृष्णदास जो स्वर्गीय भारतेन्दु जी के फुफेरे भाई थे और दूसरे हैं बाबू रामकृष्ण वर्मा। बाबू राधाकृष्णदास ने गद्य-पद्य दोनों लिखा है और उसमें अच्छी सफलता पाई है। उन्होंने भारतेन्दु जी के चरणों में बैठकर हिन्दी अनुराग की शिक्षा पाई थी, उनकी गद्य-पद्य शैली का अनुशीलन किया था, इसलिए उनकी रचनाओं एवं उनके हिन्दी प्रेम की झलक उनमें अधिक मात्रा में पाई जाती है। उनमें देश-प्रेम भी था और मातृभूमि का प्यार भी, अतएव उनकी कृतियों में उनके इन भावों का रंग भी देखा जाता है। उन्होंने भारतेन्दु जी की एक छोटी-सी जीवनी लिखी है, जिसमें उनके जीवन से सम्बन्ध रखने वाली अनेक बातों पर प्रकाश डाला है। एक छोटी पुस्तिका में उन्होंने यह प्रमाणित करने की चेष्टा की है कि कविवर बिहारीलाल आचार्य केशवदास के पुत्र थे, इस ग्रन्थ में उनकी विषय प्रतिपादन शैली देखने योग्य है। उनका लिखा हुआ प्रताप नाटक भी अच्छा है, उसकी रचना ओजस्विनी और भावमयी है। वे बनारस की नागरी प्रचारिणी सभा के संस्थापकों में अन्यतम हैं। उनका कुछ गद्यांश देखिए-

“परिहास-प्रियता भी इनकी अपूर्व थी। अंग्रेजी में पहली अप्रैल का दिन मानो होली का दिन है। उस दिन लोगों को धाोखा देकर मूर्ख बनाना बुध्दिमानी का काम समझा जाता है। इन्होंने भी कई बेर काशीवासियों को यों ही छकाया था। एक बार छाप दिया कि योरोपीय विद्वान् आये हैं, जो महाराज विजयानगरम् की कोठी में सूर्य चन्द्रमा आदि को प्रत्यक्ष पृथ्वी पर बुलाकर दिखलावेंगे। लोग धाोखे में गये और लज्जित होकर हँसते हुए लौट आये। एक बार प्रकाशित किया कि बड़े गवैये आये हैं, वह लोगों को हरिश्चन्द्र स्कूल में गाना सुनावेंगे।”

18. बाबू रामकृष्ण वर्मा भारत-जीवन प्रेस के संस्थापक और भारत-जीवन नामक साप्ताहिक पत्रा के सम्पादक थे। उन्होंने उस समय इन दोनों के द्वारा हिन्दी भाषा का बहुत अधिक प्रचार किया। अपने प्रेम से बहुत अधिक ग्रन्थ हिन्दी भाषा के उन्होंने निकाले जो अधिकतर साहित्य से सम्बन्ध रखने वाले थे। श्रीयुत पंडित विजयानन्द के सहयोग से उनका भारत-जीवन भी खूब चमका, और उसने हिन्दी देवी की सेवा भी अच्छी की। बाबू साहब सुलेखक और कवि भी थे, साथ ही सरस हृदय और भावुक भी। उनके रचे हुए ग्रंथ अब भी हैं, परन्तु खेद है कि प्रेस की उपस्थिति में भी उनमें से कुछ ग्रंथों का भी द्वितीय संस्करण नहीं हुआ।

19. मैं पहले राजा शिवप्रसाद की हिन्दी शैली का ऊपर वर्णन कर आया हूँ। उनकी यह इच्छा थी, कि हिन्दी लिखने की शैली बिल्कुल बोलचाल की भाषा हो, इसलिए उन्होंने अपनी रचना में अरबी, पारसी के प्रचलित शब्दों का अधिक प्रयोग किया। आवश्यकता होने पर वे अपनी रचना में पारसी-अरबी के अप्रचलित शब्दों का भी प्रयोग करते, और संस्कृत के तत्सम शब्दों का भी। कभी वे बड़ी सीधी सरल हिन्दी लिखते, जिसमें संस्कृत के बोलचाल में गृहीत सुन्दर शब्द लाते। कभी ऐसी हिन्दी लिखने, लगते जिसमें पारसी अरबी के शब्दों की भरमार तो होती ही, संस्कृत के अप्रचलित तत्सम शब्द भी भर जाते। यही कारण है कि अपनी इच्छा के अनुकूल अपनी हिन्दी भाषा की शैली को वे बोलचाल के रंग में नहीं ढाल सके और न ही हिन्दी की कोई निश्चित शैली स्थापन कर सके। उनके रचे 'राजा भोज का सपना' की हिन्दी बड़ी सुन्दर है, उसमें हिन्दी के मुहावरे भी बड़ी उत्तामता से आये हैं, परन्तु इतिहास तिमिर नाशक इत्यादि की भाषा ऐसी नहीं है, उसको खिचड़ी भाषा कह सकते हैं। राजा लक्ष्मण सिंह अैर बाबू हरिश्चन्द्र आदि ने इसका प्रतिकार किया, उनको अपने कार्य में सफलता भी प्राप्त हुई। इस समय कचहरियों में हिन्दी के प्रवेश का आन्दोलन भी उठ खड़ा हुआ था, पूज्य मालवीय जी के नेतृत्व में युक्त प्रान्त के अनेक सम्भ्रान्त हिन्दू इस आन्दोलन के पृष्ठपोषक बनकर कार्य-क्षेत्रा में अवतीर्ण हुए थे। फल यह हुआ कि सरकार की दृष्टि भी इस ओर विशेष रूप से आकर्षित हुई और वह इस विचार में पड़ी कि इस द्वन्द्व की निष्पत्तिा क्या करें। अतएव भाषा के रूप की ओर उसका विशेष धयान गया, क्योंकि पाठशाला और स्कूल की पुस्तकों की भाषा का प्रश्न भी सामने था। इस समय पण्डित लक्ष्मीशंकर एम.ए. कुछ हिन्दू अधिकारियों के साथ सम्मुख आये और एक नई भाषा गढ़ गई, जिसका नाम बाद को हिन्दुस्तानी पड़ा। पण्डित जी के स्कूलों का इन्सपेक्टर नियत हो जाने के कारण इस भाषा में बल आया और साधारणतया इसी भाषा में स्कूलों के कोर्स की अधिकतर पुस्तकों की रचना हुई। यह नई भाषा कोई दूसरी भाषा नहीं थी, राजा शिवप्रसाद की बोलचाल की भाषा ही थी, जिसका कुछ परिमार्जन हुआ था। पण्डित लक्ष्मीशंकर के दल के लोग इसको हिन्दी ही कहते। परन्तु कुछ लोग उसको मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए हिन्दुस्तानी बतलाते। जो अर्थ हिन्दुस्तानी का है वही अर्थ हिन्दी का है। केवल वाद निराकरण के लिए ही नवीन नाम की कल्पना हुई। पंडित लक्ष्मीशंकर की 'काशी पत्रिाका' इसी भाषा में निकलती थी और देवनागरी एवं पारसी दोनों अक्षरों में छपती थी। इस पत्रिाका का ग्रामीण पाठशालाओं तक में प्रवेश था। इसलिए इसके द्वारा हिन्दी के प्रचार में कुछ न कुछ सुविधा अवश्य हुई। काशी पत्रिाका की भाषा बोलचाल की भाषा होती थी और उसमें पारसी अरबी के वही शब्द आते थे जिनको जनता प्राय: बोलती है, परंतु कसर यह थी कि संस्कृत के तत्सम शब्द उसमें नहीं आने पाते थे। जहाँ काम पड़ने पर पारसी अरबी के कठिन से कठिन शब्द ले लिये जाते थे, वहाँ संस्कृत शब्दों को ऐसे अवसर पर भी स्थान नहीं मिलता था, इसलिए अधिकांश हिन्दू लेखकों की दृष्टि में यह भाषा नहीं जँची। परिणाम यह हुआ कि संस्कृत-गर्भित हिन्दी ही का अधिक प्रचार हुआ और इस भाषा का क्षेत्रा संकुचित होकर रह गया। अन्त में पं. जी की दृष्टि भी इधार गई और उनके 'पदार्थ विज्ञान विटप' आदि ग्रन्थ ऐसी भाषा में लिखे गये, जिसमें पारसी-अरबी के स्थान पर संस्कृत तत्सम शब्दों का ही प्रयोग अधिकतर हुआ था। उनके उन्नति प्राप्त प्रेस का नाम 'चन्द्रप्रभा' था, और उनकी पत्रिाका का नाम था 'काशी पत्रिाका'। ये दोनों नाम भी उनके मनोभाव के सूचक हैं। मैंने अपनी ऑंखों देखा है कि दौरे के दिनों में जब लड़के उनके पास हिन्दी कविताएँ लेकर पहुँचते, तो वे उनको प्रेम से सुनते, लड़कों को शाबाशी देते, कभी-कभी उनको पुरस्कृत भी करते। पहले-पहल पर्ािंवत का सुन्दर संस्करण उन्होंने ही हिन्दी में निकाला। उन्होंने 'त्रिाकोणमिति को उपक्रमणिका' नामक एक सुन्दर ग्रन्थ हिन्दी में बनाया था, जिसका उस समय बड़ा आदर हुआ था। पण्डित रमाशंकर मिश्र उनके छोटे भाई थे, वे आज़मगढ़ में ज्वाइण्ट मजिस्टे्रेट थे, बाद को कई जिलों में कलक्टर रहे। उनकी स्कूली पुस्तकें अधिकतर हिन्दुस्तानी भाषा ही में लिखी गयी थीं, विभिन्न अक्षरों में छपकर वे हिन्दू-मुसलमान दोनों के लड़कों के काम आती थीं। परन्तु उनमें भी हिन्दी-प्रेम था। वे संस्कृत के विद्वान् थे, अतएव हिन्दी भाषा की रचनाओं को विशेष स्नेह दृष्टि से देखते थे। हिन्दी का लेखक होने के ही कारण मुझ पर भी उन्होंने कई विशेष अवसरों पर बड़ी कृपा की थी। मेरा विचार है कि प्रचार-काल में इन दोनों भ्राताओं से भी हिन्दी-भाषा की वृध्दि में सहायता पहुँची है और उन्होंने अपनी पत्रिाका और ग्रन्थों द्वारा हिन्दुओं के इस संस्कार को बहुत अधिक दूर किया है कि अरबी पारसी के शब्द हिन्दी में आये नहीं कि वह उर्दू हुई नहीं। हिन्दी अक्षरों में छपे हुए हिन्दुस्तानी भाषा के ग्रन्थों को पढ़कर हिन्दू के लड़के उन्हें हिन्दी ही का ग्रन्थ समझते थे, उर्दू का नहीं। इससे भी बोलचाल की ओर प्रवृत्ता होने में, हिन्दी को बड़ा अवसर मिला, वह संकुचित होने के स्थान पर अधिक विस्तृत हो गयी। बाबू देवकीनन्दन खत्राी के उपन्यास इसी परिणाम के फल हैं। आजकल के अनेक उपन्यास भी इसी मार्ग पर चल कर हिन्दी भाषा के विस्तार में सहायक हो रहे हैं। इसलिए मेरा विचार है कि उस समय के हिन्दी भाषा के प्रचार में पं. लक्ष्मीशंकर एम. ए. का भी विशेष हाथ है-उनके गद्य का एक नमूना देखिए-

“इस जमीन पर और इस जहान में जिसमें कि हम लोग रहते हैं, लाखों अजीब चीजें हमेशा दिखलायी देती हैं और हर रोज नई बातें हुआ करती हैं। जो कुछ कि इस जहान में होता है, उसे गौर से देखने और उसके सबब को सोचने से जरूर बड़ा फायदा होता है। बिजली के सब नियमों के जानने से कैसा फायदा हुआ है कि हजारों कोस की दूरी पर मुल्क-मुल्क में पलभर में तार के सबब से खबर पहुँचा सकते हैं। भाफष् के जशेर से कैसी अच्छी तरह से रेलगाड़ी और धुऑंकश चलते हैं।”

20. काशी-निवासी बाबू देवकीनन्दन खत्राी के 'चन्द्रकान्ता'और 'चन्द्रकान्ता सन्तति' नामक उपन्यासों से भी हिन्दी भाषा के प्रचार में कम सहायता नहीं मिली। इस समय इनके उपन्यासों ने इतना प्रचार पाया कि उससे उपन्यास-क्षेत्रा में युगान्तर उपस्थित हो गया। बहुत से लोगों ने उस समय हिन्दी इसलिए पढ़ी कि वे चन्द्रकान्ता को पढ़ सकें। इन उपन्यासों की भाषा हिन्दुस्तानी है, केवल विशेषता इतनी ही है कि उसमें यथावसर संस्कृत के तत्सम शब्द भी आते हैं। भाषा चलती और मुहावरेदार है, इसलिए भी उसकी अधिक पूछ हुई। इन उपन्यासों में चमत्कृत घटनाओं का ही ऊहापोह और विस्तार है। उपदेश शिक्षा और धार्मिक अथवा सामाजिक आघात-प्रतिघात से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहा, फिर भी उनमें इतना आकर्षण है,कि हाथ में लेकर उन्हें समाप्त किये बिना चैन नहीं आता। उनके गद्य का एक अंश देखिए-

“रोहतास गढ़ किले के अन्दर राजमहल की अटारियों पर चढ़ी हुई बहुत-सी औरतें उस तरफ देख रही हैं, जिधार वीरेन्द्र सिंह का लश्कर पड़ा हुआ है। कुँअर कल्यान सिंह के गिरफ्तार हो जाने से किशोरी को एक तरह की निश्चिन्ती हो गयी थी,क्योंकि ज्यादे डर उसे अपनी शादी उसके साथ हो जाने का था, अपने मरने की उसे जरा भी परवाह न थी। हाँ, कुँवर इन्द्रजीत सिंह की याद वह एक सायत के लिए भी नहीं भुला सकती थी, जिनकी तस्वीर उसके कलेजे में खिंची हुई थी। वीरेन्द्र सिंह की लड़ाई का हाल सुन उसे बड़ी खुशी हुई और वह भी अपनी अटारी पर चढ़कर हसरत-भरी निगाहों से उस तरफ देखने लगी जिधार वीरेन्द्र सिंह की फौज पड़ी हुई थी।”

21. अन्य भाषा से अपनी भाषा में ग्रन्थों का अनुवाद करना भी भाषा के विस्तार का हेतु होता है, इस प्रचार काल में यह कार्य भी अधिकता से हुआ। बंगभाषा के अनेक उपन्यास अनुवादित होकर हिन्दी भाषा में गृहीत हुए। बाबू गदाधार सिंह ने'कादम्बरी', 'बंगविजेता' एवं 'दुर्गेश-नन्दिनी' का अनुवाद इसी समय किया। बाबू राधाकृष्णदास द्वारा 'स्वर्णलता' एवं 'मरता क्या न करता' आदि कई उपन्यास अनुवादित हुए। बाबू रामदीनसिंह की इच्छा से पं. प्रताप नारायण मिश्र ने 'राजसिंह' आदि आठ दस उपन्यासों का अनुवाद किया। पं. राधाचरण गोस्वामी द्वारा 'मृण्मयी', 'बिरजा' और 'जावित्राी' का अनुवाद हुआ। ये अनुवाद बाबू हरिश्चन्द्र की देखादेखी हुए थे। पहले-पहल आपने ही बंगभाषा के एक उपन्यास का अनुवाद करके मार्ग-प्रदर्शन किया था। इसके उपरान्त उससे अनेक उपन्यासों और ग्रन्थों का अनुवाद हुआ। अनुवाद-कत्तर्ााओं में बाबू रामकृष्ण वर्मा,बाबू कार्तिकप्रसाद, बाबू गोपालराम गहमरी, बाबू उदित नारायण लाल गाजीपुरी आदि का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। बाद को इंडियन प्रेस ने तो अनुवाद का ताँता लगा दिया। उसने कवीन्द्र रवीन्द्र के उत्तामोत्ताम उपन्यासों के अनुवाद कराये और कुछ बँगला जीवन-चरित्राों के भी।

22. इस समय हिन्दी भाषा में अनेक पत्रा और पत्रिाकाएँ भी निकलीं, जिससे इसके प्रचार में अधिकतर वृध्दि हुई। इस समय के पहले भी कुछ पत्रा-पत्रिाकाएँ निकली थीं, जिनमें बनारस अखाबर, कविवचन सुधा, और हरिश्चन्द्र चन्द्रिका का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। बाबू हरिश्चन्द्र के सहयोगियों में से लगभग सभी ने एक-एक पत्रा अथवा पत्रिाका अवश्य निकाली। इसकी चर्चा मैं कर चुका हूँ। इस समय इस कार्य की मात्रा बहुत बढ़ गई थी, सब प्रकार के पत्रा अधिकता से इस समय ही निकले। कालाकाँकर का दैनिक 'हिन्दोस्तान', पं. गोपीनाथ संपादित लाहौर का 'मित्रा विलास', पं. सदानन्द मिश्र सम्पादित 'सार सुधानिधि, पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र सम्पादित 'उचित वक्ता', सम्पादकाचार्य पं. रुद्रदत्ता सम्पादित 'आर्यर्ावत्ता', उदयपुर का'सज्जन कीर्ति सुधाकर', पं. देवकी नंदन सम्पादित प्रयाग का 'प्रयाग समाचार' आदि उनमें विशेष उल्लेखनीय हैं। उस समय जो धार्मिक पत्रा-पत्रिाकाएँ निकली थीं; उन्होंने भी हिन्दी प्रचार सम्बन्ध में विशेष कार्य किया था, क्योंकि जनता की रुचि इधार भी विशेष आकर्षित थी। इनमें कलकत्ताा से निकलने वाला 'धार्म दिवाकर' बड़ा सुन्दर पत्रा था, इसका सम्पादन पं. देवी सहाय करते थे। इसमें ऐसे सार गर्भ, संयत एवं मार्मिक लेख निकलते थे, जिनकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। इसी समय 'सरस्वती' भी निकली, जो पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के द्वारा सम्पादित होकर हिन्दी गद्य के विशेष संशोधान का कारण बनी। उस समय के निकले पत्रा-पत्रिाकाओं में अधिकांश अब लुप्त हो चुके हैं, परन्तु उनका प्रचार कार्य और उनका सामयिक प्रभाव किसी प्रकार भुलाया नहीं जा सकता।

अब तक जो लिखा गया और जितने अवतरण दिये गये, उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि उन्नतिकाल से प्रचार काल की भाषा अधिक परिमार्जित है। स्थान के संकोच के कारण मैं प्रधान पत्रा सम्पादकों की लेखमाला में से थोड़े अवतरण भी न उठा सका, विशेष कर पं. सदानन्द और पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र आदि के, यदि उठा पाता तो प्रस्तुत विषय और स्पष्ट हो जाता। उन्नति काल के प्रसिध्द हिन्दी लेखक 'आचार्य' हैं, उन्होंने ही आदर्श हिन्दी भाषा शैली उपस्थित की है। परन्तु वे लोग स्वच्छंदचारी और मनस्वी थे, जो लिखते थे, अपने विचारानुसार लिखते थे, वे परीक्षा की कसौटी पर कसे नहीं थे, इसलिए उनमें उतना परिमार्जन नहीं मिलता। कहीं-कहीं उनकी स्वतंत्रा गति भी देखी जाती है, उनके अवतरणों के वे अंश देखिए, जिन पर लम्बी-लम्बी लकीरें खिचीं हैं। उनमें ब्रजभाषा के शब्द ही नहीं, क्रियाएँ भी मिलती हैं, ग्रामीण शब्द भी पाये जाते हैं, और सदोष प्रयोग भी। परन्तु प्रचार-काल वाले विद्वज्जनों में वह बात नहीं पाई जाती या यह कहें कि यदि पाई जाती है तो नाम मात्रा को। इस समय यह बात स्पष्ट देखी जाती है, कि संस्कृत गर्भित भाषा ही अधिकतर लिखी जाती है, यद्यपि सरलता की ओर भी दृष्टि पर्याप्त थी। चाहे पं. भीमसेन जी की भाषा को देखिए, चाहे पं. अम्बिकादत्ता व्यास की भाषा को, सबमें यह बात पाई जाती है। साहित्य लेखकों श्री निवासदास और बाबू राधाकृष्णदास इत्यादि में यह बात और अधिक मिलती है। यद्यपि इस समय भी कुछ लोग अपनी भाषा में विदेशी शब्दों को नहीं ग्रहण करना चाहते थे। परन्तु साधारणतया यह विचार ढीला पड़ गया था और लोग आवश्यक विदेशी शब्दों का प्रयोग करने में संकोच नहीं करते थे। इस समय में ऐसे लोग भी पाये जाते हैं, जो उपन्यासों के लिए बोलचाल की भाषा लिखना ही पसन्द करते हैं, और यथावसर मुहाविरे की रक्षा के लिए अथवा वाच्यार्थ को स्पष्ट करने एवं कथन को अधिक भावमय बनाने के लिए निस्संकोच भाव से पारसी-अरबी अथवा अन्य विदेशी भाषा के शब्दों का व्यवहार करते हैं। बाबू बालमुकुन्द आदि ऐसे ही लेखक हैं। परिहासमय व्यंग्यपूर्ण लेखों में विदेशीय शब्दों की भरमार सभी करते हैं, कारण यह है कि बोलचाल में ही अधिक व्यंग्यात्मक लेख लिखे जाते हैं और ऐसी अवस्था में उन पारसी-अरबी अथवा अन्य भाषा के शब्दों का त्याग नहीं हो सकता, जो उसके अंग बन गये हैं। वरन् उसके आने ही से बोलचाल की भाषा अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर अधिक प्रभावशालिनी और चटपटी बन जाती है, अन्यथा वह कृत्रिाम और बनावटी ज्ञात होती है। यदि हम व्यंग्य करते हुए कहें कि इनकी हवा बिगड़ गई, फिर भी ये हवा बाँधा रहे हैं, तो हमको हवा शब्द को लेना ही पड़ेगा, चाहे वह पारसी शब्द भले ही हो। क्योंकि हवा के स्थान पर दूसरा शब्द वायु या पवन आदि ग्रहण करने से न तो भाव स्पष्ट होगा, न व्यंग्य सफल होगा और न मुहावरा मुहावरा रह जायेगा। इन बातों पर दृष्टि रखकर हिन्दी भाषा में स्वभावतया वही प्रणाली गृहीत हुई और चल पड़ी, जो उचित थी। आज दिन भी इसी प्रणाली का बोलबाला है। सब भाषाओं में गम्भीर विषयों की भाषा उच्च होती है और साधारण विषयों की चलती। दार्शनिक, वैज्ञानिक और इसी प्रकार के अन्य विषय, गहन और विवेचनात्मक होते हैं, इसलिए उनके लिए प्रौढ़ भाषा ही वांछनीय होती है। जो विषय सहज हैं,जिनमें आपस के व्यवहारों, बर्तावों, अथवा घरेलू बातों की चर्चा होगी, उनको सरल और बोलचाल की भाषा में लिखना ही पड़ेगा,अन्यथा उनकी भाव व्यंजना यथार्थ रीति से न हो सकेगी। हिन्दी भाषा के उन्नति-काल के विद्वानों ने इन बातों पर दृष्टि रखकर ही उसकी शैलियों की स्थापना की, जिसका विशेष परिमार्जन इस काल में हुआ।

प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों के क्रियाओं का त्याग जिनमें ब्रजभाषा भी सम्मिलित है, अधिकतर संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोगों द्वारा ही सम्भव था, इसलिए हिन्दी को वर्तमान शैली में संस्कृत तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। यह प्रणाली ग्रहण करने से भी भाषा ग्रामीण शब्दों से सुरक्षित हुई। अरबी-पारसी शब्दों की भरमार भी इसी से दूर हुई। अतएव इस प्रणाली का ग्रहण युक्तिसंगत था। उसका हिन्दी भाषा और संस्कृत के प्रसिध्द हिन्दी लेखक विद्वानों द्वारा स्वीकृत हो जाना भी उसकी उपयोगिता का सूचक है। यह मैं अवश्य कहूँगा, कि न तो संस्कृत शब्दों की भरमार होना उचित है न पारसी और अरबी के प्रचलित शब्दों का आग्रहपूर्वक त्याग, क्योंकि ऐसा करने से भाषा दुर्बोधा हो जाती है, जो उसकी उन्नति के लिए वांछनीय नहीं। यह उद्योग सरकारी अधिकारियों और जनता के कतिपय अग्रगन्ताओं द्वारा पहले से होता आया है, कि जहाँ तक सम्भव हो, हिन्दी भाषा की शैली ऐसी हो, जो बोलचाल के अधिक निकटवर्ती हो और उसमें संस्कृत के शब्द यदि आवें भी तो थोड़े, परन्तु यह शैली चलाई जाने पर भी व्यापक न हो सकी। कारण हिन्दी का राष्ट्रीयता सम्बन्धी विचार और वह निधर्ाारित सिध्दान्त था जिसका वर्णन मैं ऊपर कर चुका हूँ। संस्कृत के शब्द ही भारतवर्ष के सब प्रान्तों में अधिकता से समझे जा सकते हैं। इसलिए उसका अभाव हिन्दी की राष्ट्रीयता का बाधाक होगा, यह समस्त हिन्दी संसार जानता है। निधर्ाारित शैली का त्याग युक्ति-संगत नहीं, क्योंकि इससे उसकी प्रगति में बाधा पड़ेगी। इससे यह निश्चित है कि संस्कृत गर्भित शैली गृहीत रहेगी, वही इस समय व्यापक भी है। इसको विशेष परिमार्जित करने का श्रेय प्रचार काल को है।

इसी समय में स्वर्गीय बाबू रामदीन सिंह ने मुझको लिखा कि डॉ. जी. ए. ग्रियर्सन साहब की इच्छा है कि हिन्दी भाषा में एक ऐसा ग्रंथ लिखा जावे जो ठेठ हिन्दी का हो, जिसमें न तो संस्कृत के शब्द होें न किसी अन्य भाषा के। मेरा 'ठेठ हिन्दी का ठाट' नामक ग्रन्थ उन्हीं के अनुरोधा का परिणाम है, उसकी भाषा का कुछ अंश यह है-

“सूरज वैसा ही चमकता है, बयार वैसी ही चलती है। धाूप वैसी ही उजली है, रूख वैसे ही अपने ठौरों खड़े हैं, उनकी हरियाली भी वैसी ही है, बयार लगने पर उनके पत्तो वैसे ही धीरे-धीरे हिलते हैं, चिड़ियाँ वैसी ही बोल रही हैं। रात में चाँद वैसा ही निकला, धारती पर चाँदनी वैसी ही छिटकी, तारे वैसे ही निकले, सब कुछ वैसा ही है। जान पड़ता है देवबाला मरी नहीं। धारती सब वैसी ही है, पर देवबाला मर गई। धारती के लिए देवबाला का मरना-जीना दोनों एक-सा है। धारती क्या गाँव में चहल-पहल वैसी ही है। हँसना, बोलना, गाना, बजाना, उठना, बैठना, खाना, पीना, आना, जाना सब वैसा ही है।”

डॉक्टर साहब ने इस ग्रन्थ को बहुत पसंद किया, इसे सिविल सर्विस की परीक्षा का कोर्स बनाया और उक्त बाबू साहब को यह पत्रा लिखा-

प्रिय महाशय!

“ठेठ हिन्दी का ठाट” के सफलता और उत्तामता से प्रकाश होने के लिए मैं आप को बधाई देता हूँ। यह एक प्रशंसनीय पुस्तक है।...मुझे आशा है कि इसकी बिक्री बहुत होगी, जिसके कि यह योग्य है। आप कृपा करके पं. अयोधया सिंह से कहिये कि मुझे इस बात का हर्ष है कि उन्होंने सफलता के साथ यह सिध्द कर दिया है कि बिना अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग किये ललित और ओजस्विनी हिन्दी लिखना सुगम है।”

आपका सच्चा

जार्ज ए. ग्रियर्सन

कुछ दिनों के बाद डॉक्टर साहब की यह इच्छा हुई कि इसी भाषा में एक ग्रन्थ और लिखा जावे, जो कुछ बड़ा हो और जिसमें हिन्दी भाषा के अधिक शब्द आवें। यह ज्ञात होने पर मैंने 'अधाखिला फूल' की रचना की। उसकी भाषा का अंश देखिए-

“भोर के सूरज की सुनहली किरनें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तिायों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरनों का ही जमघटा है, छतों पर, मुड़ेरों पर किरन ही किरन हैं। कामिनी मोहन अपनी फुलवारी में टहल रहा है और छिटिकती हुई किरनों की यह लीला देख रहा है, पर अनमना है। चिड़ियाँ चहकती हैं, फूल महक रहे हैं, ठंडी-ठंडी पवन चल रही है, पर उसका मन इनमें नहीं है, कहीं गया हुआ है। घड़ी भर दिन आया, फुलवारी में बासमती ने पाँव रखा। धीरे-धीरे कामिनी मोहन के पास आकर खड़ी हुई।”

सुप्रसिध्द बाबू काशीप्रसाद जायसवाल को वे एक पत्र में यह लिखते हैं-

रथफार्नहम-किंबरली-सरे

10-1-1904

“मेरी इच्छा है कि और लोग भी 'हरिऔधा' के बताये हुए 'ठेठ हिन्दी का ठाट' के स्टाइल में लिखने का उद्योग करें और लिखें। जब मैं देखूँगा कि पुस्तकें वैसी ही भाषा में लिखी जाती हैं, तो मुझको फिर यह आशा होगी कि आगामी समय उस भाषा का अच्छा होगा, जिसको कि मैं तीस वर्ष से आनन्द के साथ पढ़ रहाहूँ।”

आपका सच्चा

जार्ज ए. ग्रियर्सन

परन्तु हिन्दी संसार इन ग्रन्थों की ओर आकर्षित होकर भी उसकी भाषा की ओर प्रवृत्ता नहीं हुआ, और न किसी ने ऐसी भाषा लिखने की चेष्टा की। कारण इसका यही है, कि समय की आवश्यकताओं को देखकर संस्कृत गर्भित भाषा लिखने की ओर ही उसकी प्रवृत्तिा है, सफलता भी उसको इसी में मिल रही है। अतएव यही शैली अनुमोदनीय है। वर्तमान-काल कटिबध्द होकर उसका अनुमोदन भी कर रहा है।