विस्तार-काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
विस्तार-काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'

उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य को सबल बनाने के लिए खूब उद्योग किया गया। इसके पूर्वार्ध्द में उसे विभिन्न मार्गों से विस्तार प्राप्त हुआ और उत्तारार्ध्द में वह समुन्नति की ओर अग्रसर हुआ। इसी से हमने पूर्वार्ध्द को विस्तारकाल माना है और उत्तारार्ध्द को उन्नतिकाल।

मैं यह कह चुका हूँ कि सत्राहवीं और अठारहवीं शताब्दी में टीकाकारों ने हिन्दी गद्य के मैदान को उत्सन्न हो जाने से बहुत कुछ बचाया। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में भी उनकी एक श्रेणी कार्य करती दृष्टिगोचर होती है। इन टीकाकारों में जानकीप्रसाद और सरदार कवि मुख्य थे। जानकीप्रसाद की भाषा का एक नमूना देखिए-

1. बालक जैसे पग से दावि प( कहे कीच को पेलि के पाताल को पठावत है तैसे ये (गनेश जी) कलुष जे पाप हैंतिनका पठावत हैं। इहाँ गजराज को त्याग करि बालक सम यासों कह्यो, पिर्नी पत्रादि तोरन में बालक का उत्साह रहत है तैसे गणेश जू को विपत्यादि विदारण में बड़ो उत्साह रहत है कौतुक ही विदारत हैं।

स्वभावत: हिन्दी के इन टीकाकारों ने संस्कृत के टीकाकारों का पदानुसरण किया, क्योंकि उनके सामने संस्कृत ही की टीकाओं का आदर्श उपस्थित था। हिन्दी की इन टीकाओं की भाषा जो विशेष जटिल हो गयी है उसका कारण बहुत कुछ इस संस्कृत शैली का अनुसरण है। मैं यह कह आया हूँ कि ब्रजभाषा गद्य सबल आन्दोलनों और महापुरुषों के विचार प्रकट करने का साधान होने के अभाव में परिष्कार से वंचित रहा। यहाँ यह भी कह देना चाहता हूँ कि क्रमश: समय का प्रवाह भी उसे ऐसे अवसर देने के प्रतिकूल हो गया था। इसका कारण है क्रमश: खड़ी बोली की क्रियाओं और संज्ञा-शब्दों का उर्दू के सहयोग से बहुत अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर लेना। सरकार की कृपा से उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में उर्दू का प्रवेश कचहरियों में हो गया था, सर्वसाधारण का सम्बन्ध कचहरी से होता ही है, ऐसी अवस्था में उर्दू से उनका प्रभावित होना स्वाभाविक था। मुसलमान लेखक अपना रंग अलग जमा रहे थे। प्रोफेसर मुहम्मद हुसेन आजाद के निम्नलिखित अवतरण को देखिए। उसमें पूर्वकालिक हिन्दी गद्य का कायापलट मूर्तिमन्त होकर विराजमान है।

फूलों के गुच्छे पड़े झूम रहे हैं, मेबेदाने जमीन को चूम रहे हैं। नीम के पत्तों की सब्जी और फूलों की सफेदी बहारपर है। आम के मौर में फूलों की महक आती है। भीनी-भीनी बू जी को भाती है। जब दरख्तों की टहनियाँ हिलती हैं, मौलसिरी के फूलों का मेंह बरसता है, फल फलारी की बौछाड़ हो जाती है। धीमी-धीमी हवा उनकी बू बास में लसी हुई रविशों पर चलती है। टहनियाँ ऐसी हिलती हैं, जैसे कोई जोबन की मतवाली अठखेलियाँ करती चली जाती है। किसी टहनी में भौरें की आवाज किसी में मक्खियों की भनभनाहट, अलग ही समाँ बाँधा रही है। परिन्द दरख्तों पर बोल रहे हैं और कलोल कर रहे हैं।”मुसलमान लेखकों ने फारसी और अरबी के शब्दों का सम्मिश्रण करके खड़ी बोली को खूब माँजा, राजाश्रय भी उसको प्राप्त हो ही गया था, ऐसी दशा में ब्रजभाषा गद्य को उससे सफलतापूर्वक भिड़ सकने का अवसर ही नहीं रह गया। खड़ी बोली के विशेष बलशाली हो जाने का एक कारण यह भी था कि उसका प्रचार किसी प्रान्त विशेष तक परिमित नहीं था। मुसलमानों का शासन,शासन नहीं तो प्रभाव अनेक शताब्दियों तक भारतवर्ष के प्राय: समस्त भागों पर पड़ा। इसलिए मुसलमानों द्वारा प्रभावित खड़ी बोली को, जिसका नाम कालान्तर में उर्दू पड़ गया, प्राय: समस्त प्रान्तों में वह अनुकूलता प्राप्त हुई जो ब्रजभाषा-गद्य को अपने सर्वोच्च गौरव के दिनों में भी नहीं मिल सकी। धीरे-धीरे अनेक हिन्दू लेखकों ने भी मुसलमान लेखकों द्वारा प्रस्तुत भाषा में रचना आरंभ की। मुंशी सदासुख लाल 'नियाज', जो अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम दशम में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नौकरी में थे और चुनार में काम करते थे, उन हिन्दू लेखकों में से एक थे, जिन्होंने उर्दू और फारसी में रचनाएँ कीं। मुन्शी जी भगवद्भक्त थे, जहाँ उन्होंने अधिकांश परिश्रम उर्दू और फारसी ही में किया, वहाँ भगवद्भजन के उद्देश्य से श्री मद्भागवत का अनुवाद हिन्दी में भी किया। उनका यह अनुवाद 'सुख सागर' के नाम से प्रसिध्द है। सुखसागर की भाषा का एक नमूना देखिए-

“यद्यपि ऐसे विचार से हमें लोग नास्तिक कहेंगे, हमें इस बात का डर नहीं। जो बात सत्य होय उसे कहा चाहिए कोई बुरा माने कि भला माने विद्या इसी हेतु पढ़ते हैं कि तात्पर्य इसका (जो) सतोवृत्तिा है वह प्राप्त हो और उससे निज स्वरूप में लय हूजिए। इस हेतु नहीं पढ़ते हैं कि चतुराई की बातें कह के लोगों को बहकाइये और फुसलाइये और सत्य छिपाइये व्यभिचार कीजिये और सुरापान कीजिये, और धान द्रव्य इकठौर कीजिये और मन को जो तमोवृत्ति से भर रहा है, निर्मल न कीजिये। तोता है सो नारायण का नाम लेता है, परन्तु उसे ज्ञान तो नहीं है।”

उर्दू लिखने में मँजी हुई लेखनी से लिखा हुआ होने पर भी फारसी का एक शब्द इस अवतरण में नहीं दिखायी पड़ता। इसका कारण धार्मिक संस्कार था जो फारसी शब्दों का समावेश करने के अनुकूल नहीं था। मुन्शी सदासुख लाल ने एक ओर तो कथा-वार्ता की पूर्व शैली के अनुसार कुछ प्रचलित शब्दों और वाक्यों को ग्रहण किया, दूसरी ओर खड़ी बोली की क्रियाओं,सर्वनामों और संज्ञा शब्दों को। इस संयोग ने सोने में सुहागे का काम किया।

सैयद इन्शा अल्ला खाँ के पूर्वज समरकंद से भारत में आये थे। वे पहले तो मुगल दरबार के आश्रित होकर रहे किंतु जब मुग़ल साम्राज्य का अन्त हो गया तब इन्शा के पिता दिल्ली से मुर्शिदाबाद चले गये। इन्शा की शिक्षा बहुत अच्छी हुई। अल्प वय में वे फारसी और उर्दू में अच्छी कविता करने लगे थे। इनकी विलक्षण प्रतिभा ने हिन्दी गद्य में भी अपनी विलक्षणता दिखलायी। ब्रजभाषा के गद्य में कथा-वार्ता का एकदेशीय विकास हुआ था। अब यदि खड़ी बोली में मुन्शी सदासुख लाल ने धार्मिक कथा का वर्णन किया तो इन्शा अल्ला खाँ ने बहुत ही रोचक और सरल तथा मुहावरेदार ठेठ भाषा में प्रेम-कहानी लिखी, जिसकी लोकप्रियता का क्षेत्रा स्वभावत: बहुत चौड़ा होता है, और जो अधिकाधिक प्रचलित होकर गद्य के स्वरूप को निखारने में बहुत बड़ा काम करती है। इन्शा की भाषा के दो नमूने देखिए-

1. 'एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने धयान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो...एक कोई बडे पढ़े-लिखे पुराने धुराने, डाँग, बूढ़े घाग यह खटराग लाये...और लगे कहने, यह बात होती दिखायी नहीं देती। हिन्दीपन भी न निकले और भाषापन भी न हो। बस जैसे भले लोग-अच्छों से अच्छे-आपस में बोलते-चालते हैं ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँव किसी की न पड़े, यह नहीं होने का।'

2. “जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप में रोने लगी।”

3. “इस सिर झुकाने के साथ ही दिन-रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को।”

4. “सिर झुका कर नाक रगड़ता हूँ, उस अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सबको बनाया है और बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया।”

इन्शा अल्ला की भाषा में जहाँ सरलता है, जनता की दैनिक बोलचाल की भाषा से शब्दावली चुनने की प्रवृत्तिा है, वहाँ उनकी शैली पर फारसी का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। तीसरे अवतरण में आप देखेंगे कि वाक्य की वर्तमानकालिक सकर्मक क्रिया जपता हूँ पहले लिखी गई है और उस क्रिया का कर्म 'उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को' बाद को। भारतीय शैली में कर्म पहले लिखा जाता है और उसकी क्रिया बाद को। चौथे अवतरण में 'नाक रगड़ता हूँ' पहले लिखकर 'उस अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सबको बनाया' लिखना भी प्राय: उक्त शैली का ही अनुसरण है।

इंशा की भाषा में जीवन है, चंचलता है-वह जीवन और चंचलता जो प्रेम-कथा को अत्यन्त सरस और आकर्षक बना देती है। कपितय आलोचकों ने इंशा की भाषा में गूढ़ विषयों के प्रतिपादन की क्षमता का अभाव बतलाया है। यह बात सच है। उनकी भाषा अपने ही आनन्द के उन्माद से नृत्य करती-सी चलती है। शब्द-विन्यास अनुप्रास से अलंकृत हैं, जिससे वाक्यों के शरीर में एक अपूर्व सौष्ठव दृष्टिगोचर होता है। पुराने-धुराने, डाँग, घाग, खटराग, 'पुट न मिले', 'कली के रूप में खिले', 'हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट' आदि प्रथम अवतरण के रेखांकित शब्दों को देखकर आपको मेरे इस कथन की सत्यता ज्ञात हो जायगी। इन सब बातों के अतिरिक्त इंशा ने जिस बहुत बड़ी विशेषता का हिन्दी गद्य में समावेश किया, वह है मुहावरों और कहावतों का प्रयोग, निम्नलिखित वाक्यों के चिद्दित शब्दों और पदों को देखिए-

1. 'जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती हैं।'

2. 'चूल्हे और भाड़ में जाय यह चाहत...'

3. 'अब मैं निगोड़ी लाज से कुट करती हूँ।'

4. 'मैं कुछ ऐसा बड़बोला नहीं जो राई को पर्वत कर दिखाऊँ और झूठ-सच बोल कर उँगलियाँ नचाऊँ और बेसिर बेठिकाने की उलझी-सुलझी बातें पचाऊँ।'

5. 'दहना हाथ मुँह पर फेर कर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो वह ताव भाव और कूद-फाँद और लपक-झपक दिखाऊँ जो देखते ही आपके धयान का घोड़ा, जो बिजली से भी बहुत चंचल चपलाहट में है, अपनी चौकड़ी भूल जाय।'

6. अब कान लगा के, ऑंखें मिला के, सन्मुख हो के टुक इधार देखिए, किस ढब से बढ़ चलता हूँ और अपने फूल की पंखड़ी जैसे होठों से किस रूप के फूल उगलता हूँA

संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग सर्वथा त्याग कर, अरबी फारसी के शब्दों से मुँह मोड़ कर, केवल तद्भव शब्द विशिष्ट ठेठ भाषा में कहावतों आदि का आश्रय लेकर इंशा ने जिस चमत्कार की सृष्टि की, वह उस समय के हिन्दी गद्य के लिए एक अपूर्व बात थी। उनकी भाषा ने आगे के लेखकों के लिए सरल और मुहावरेदारभाषा का एक सुंदर आदर्श उपस्थित किया। किन्तु उसका अनुसरण नहीं हो सका, कारण इसका यह है कि वह गढ़ी भाषा है और उसमें चलतापन अथवा प्रवाह भी नहीं पाया जाता। वह बोलचाल की भाषा भी नहीं है, और न उसमें जैसी चाहिए वैसी लचक है। परन्तु पहले पहल खड़ी बोली का एक उल्लेख-योग्य आदर्श उपस्थित कर के इंशा अल्लाह खाँ ने अपनी उद्भाविनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है।

हिन्दी गद्य के विस्तार का तीसरा द्वार एक अन्य दिशा से खुला। जिस प्रेरणा से अमीर खुसरो जैसे लेखक हिन्दी-साहित्य-विकास के प्रारम्भिक काल में हिन्दी की ओर प्रवृत्ता हुए थे, ठीक उसी प्रकार की प्रेरणा से हिन्दी-पद्य के विकास का यह नया अवसर प्राप्त हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने कर्मचारियों को देशी भाषाओं का ज्ञान कराना भी आवश्यक समझ पड़ा। इस उद्देश्य से उसने कलकत्तो में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की, जिसमें लल्लूलाल और सदल मिश्र हिन्दी के अधयापक नियत हुए। इस कालेज के प्रधानाधयापक जान गिलक्रिस्ट ने सन् 1803 में इन दोनों सज्जनों को हिन्दी-पाठय-पुस्तकें तैयार करने का काम सौंपा। इस समय भी शासकों का धयान खड़ी बोली ही की ओर गया। शिक्षित कर्मचारियों तथा समाज के सरकारी प्रतिष्ठा-प्राप्त व्यक्तियों के सम्पर्क के कारण वे कम से कम खड़ी बोली के ढाँचे से परिचित थे। परन्तु अरबी और पारसी के तत्सम शब्दों से लदी हुई भाषा की आवश्यकता उन्हें नहीं थी। उनको उर्दू का ज्ञान भी था परंतु वे देश की प्रधान जनता के भावों का परिचय कराने वाली भाषा की टोह में थे। वे ऐसी भाषा के लिए उत्सुक थे जो खड़ी बोली का ढाँचा स्वीकार करती हुई, उस शब्दावली को ग्रहण करे जिसके प्रति अधिकांश हिन्दू समाज के हृदय में एक विशेष संस्कार चिरकाल से चला आता था। संयोग से खड़ी बोली के गद्य ने बीज से अंकुर रूप धारण कर लिया था, और मुंशी सदासुख लाल तथा सैयद इंशा अल्ला अपना-अपना हिन्दी गद्य का आदर्श उपस्थित कर चुके थे, कि लल्लू लाल जी और सदल मिश्र इस क्षेत्रा में उतरे। लल्लू लाल जी ने प्रेमसागर की रचना की। इस ग्रंथ की भाषा देखिए-

1. “राजा परीक्षित बोले कि महाराज राजसूय यज्ञ होने से सब कोई प्रसन्न हुए। एक दुर्योधान अप्रसन्न हुआ। इसका कारण क्या है तुम मुझे समुझाय के कहो जो मेरे मन का भ्रम जाय। श्री शुकदेव जी बोले, राजा तुम्हारे पितामह ज्ञानी थे। उन्होंने यज्ञ में जिसे जैसा देखा तैसा काम किया।”

2. “इतना कह महादेव जी गिरिजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय, न्हिलाय, अति लाड़ प्यार से लगे पार्वती जी को वस्त्रा-'आभूषण पहिराने।”

3. “तिस समय धान जो गरजता था सोई तो धौंस बजता था और वर्ण वर्ण की घटा जो घिर आती थी, सोई शूरवीर रावत थे, तिनके बीच बिजली की दमक शस्त्रा की सी चमकती थी, बगपाँत ठौर ठौर धवजासी फहराय रही थी, दादुर मोर कड़खैतों की भाँति यश बखानते थे और बड़ी-बड़ी बूँदों की झड़ी बाणों की-सी झड़ी लगी थी।”

4. “बालों की श्यामता के आगे अमावस्या की ऍंधोरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी सटकाई लखनागिन अपनी केंचुली छोड़सटक गयी। भौंह की बँकाई निरख धानुष धाकधाकाने लगा। ऑंखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसायरहे।”

लल्लू लाल को कहानी कहनी थी। ऐसी अवस्था में भाषा की रोचकता और सरसता विषय के सर्वथा उपयुक्त है। फिर भी सैयद इंशा अल्ला खाँ की भाषा से उनकी भाषा की तुलना करने पर दोनों का वास्तविक अंतर प्रकट हुए बिना नहीं रहेगा। लल्लू लाल जी की भाषा में विशेष धयान देने योग्य बात यह है कि उन्होंने प्रेम सागर में परसी शब्दों का प्रयोग बिलकुल ही नहीं किया है, यद्यपि उनके 'सिंहासन बत्तीसी' नामक ग्रंथ में यह प्रवृत्ति नहीं पायी जाती। लल्लू लाल जी आगरे के रहने वाले थे, इसलिए उनकी रचना में ब्रजभाषा के शब्दों की भरमार होना स्वाभाविक था। उस समय भाषा का कोई सर्वमान्य आदर्श उनके सामने नहीं था, जिस प्रकार सदा सुख लाल और इंशा अल्लाह खाँ ने अपने-अपने अनुमित विचार के अनुसार अपने-अपने ग्रंथों की हिन्दी भाषा रखी, उसी प्रकार लल्लूलाल जी ने भी प्रेम सागर को अपनी अनुमानी हिन्दी में बनाई। उन दोनों के सामने उर्दू का आदर्श था, इसलिए उनकी भाषा विशेष परिमार्जित और खड़ी बोली के रंग में ढली हुई है, परन्तु ये उर्दू के आदर्श को त्याग कर चले, इसलिए वास्तविक खड़ी बोली न लिख सके। उर्दू शब्दों को भी बचाया, इसलिए आवश्यकता से अधिक ब्रजभाषा के शब्द उनकी रचना में घुस गये। अवतरणों के उन शब्दों को देखिए जो चिन्हित हैं। आज का सा समय होता तो सम्भव था कि इन तीनों को एक-दूसरे की पुस्तक देखने के लिये मिल गई होती और इस प्रकार एक-दूसरे की प्रणाली से वे कुछ सहायता प्राप्त कर सकते। परन्तु उस समय तो यह भी सम्भव नहीं था, अपने जीवन में वे एक दूसरे का नाम भी न सुन सके होंगे। जिस समय प्रेम सागर लिखा गया, उस समय वहीं बाग-बहार नामक उर्दू ग्रन्थ भी लिखा गया, उसमें भी अनुप्रासों की अधिकता है। उर्दू में यह प्रणाली पारसी से आई है, परसी में अरबी से। मैं समझता हूँ प्रेम सागर पर अनुप्रास के विषय में 'बाग़ो-बहार' का प्रभाव पड़ा है, वह भी गद्य-ग्रन्थ ही है। या यह कहें कि उक्त ग्रन्थ की स्पध्र्दा से ही प्रेम-सागर की भाषा सानुप्रास है। विशुध्द संस्कृत और ब्रजभाषा शब्दों के आधार पर प्रेम-सागर का निर्माण खड़ी बोली में करके लल्लू लाल ने उस प्रवाह में परिवर्तन उपस्थित करने का प्रयत्न किया जो अब तक पारसी शब्दों के व्यवहार के प्रतिकूल नहीं था। मुंशी सदा सुखलाल की भाषा कुछ पंडिताऊ तथा कुछ अस्त-व्यस्त। इंशा अल्लाह खाँ की भाषा का ढाँचा उर्दू है। लल्लूलाल का ढंग इन दोनों से भिन्न है, उनकी भाषा चलती और हिन्दी के ढंग में ढली हुई है, और यही उनकी प्रणाली की विशेषताएँ हैं।

सदल मिश्र कलकत्तो के फोर्ट-विलियम कॉलेज में लल्लू लाल के साथ अधयापक थे। जान गिलक्रिस्ट महाशय के आज्ञानुसार उन्होंने 'नासिकेतोपाख्यान' नामक पुस्तक तैयार की। उनकी भाषा देखिए-

1. तब नृप ने पंडितों को बोला दिन विचार बड़ी प्रसन्नता से सब राजा वो ऋषियों को नेवत बुलाया। लगन के समय सबों को साथ ले मंडप में जहाँ सोनन्ह के थम्भ पर मानिक दीप बलते थे, जा पहुँचे।

2. इतने में जहाँ से सखी सहेली और जात भाइयों की स्त्री सब दौड़ी हुई आईं, समाचार सुनि जुड़ाईं, मगन हो हो नाचने गाने बजाने लगीं वो अपने-अपने देह से गहना उतार-उतार सेवकों को देने लगी और अगणित रुपया अन्न वस्त्रा राजा रानी ने ब्राह्मणों को बोला-बोला दान दिया। आनन्द बधावा बाजने लगा।

3. राजा रघु ऐसे कहते हुए वहाँ से तुरन्त हर्षित हो उठे। वो भीतर जा मुनि ने जो आश्चर्य बात कही थी सो पहिले रानी को सब सुनाई। वह भी मोह से व्याकुल हो पुकार रोने लगी वो गिड़गिड़ा कहने कि महाराज, जो यह सत्य है तो अब भी लोग भेज लड़के समेत झट उसको बुला ही लीजिए क्योंकि अब मारेशोक के मेरी छाती फटती है। कब मैं सुन्दर बालक सहित चंद्रावती के मुँह को जो बन के रहने से भोर के चन्द्रमा सा मलीन हुआ होगा देखोंगी।”

उक्त अवतरणों के चिद्दित शब्दों को देखने पर आपको यह स्पष्ट हो जायगा कि सदल मिश्र की भाषा न तो लल्लू लाल की भाषा की तरह ब्रजभाषा शब्दों से भरी है, न शुध्द खड़ी बोली है, वह दोनों के बीच की है। ऐसा होना परिवर्तन काल की भाषा के लिए स्वाभाविक था। सदल मिश्र कहीं 'ब्राह्मण' का बहुवचन 'ब्राह्मणों' लिखते हैं और कहीं 'सोन' का बहुवचन 'सोनन्ह'।'आश्चर्य बात' 'वो' आदि शब्दों का प्रयोग भी वे करते हैं। संस्कृत के तत्सम शब्द भी उनकी रचना में आये हैं, 'नृप', 'स्त्री', 'अगणित', 'शोक', 'चन्द्रमा' आदि शब्द इसके प्रमाण हैं। 'सखी-सहेली', 'जात-भाइयों' आदि दोहरे पदों का प्रयोग भी उन्होंने किया है।

इसी समय हिन्दी गद्य के विस्तार का एक मार्ग और खुला। सन् 1809 ई. में विलियम केटे नाम के एक पादरी ने इंजील का अनुवाद हिन्दी में 'नये धार्म नियम' नाम से प्रकाशित किया। इस अनुवाद तथा ऐसी ही अन्य पुस्तकों के प्रकाशन का उद्देश्य यह था कि हिन्दी भाषा-भाषी जनता ईसाई धार्म के सिध्दान्तों से परिचय प्राप्त करें। सदा सुखलाल और लल्लू लाल ने क्रमश: 'सुख-सागर' और 'प्रेम-सागर' की रचना करके धार्मिक जनता के सामने लोक-प्रिय कथाओं को सरल भाषा में उपस्थित किया था, इसलिए कि जिसमें वे इधार आकर्षित हों। उनका उद्देश्य सफल भी हुआ। लल्लू लाल का प्रेम-सागर जितना ही पाठय पुस्तक के रूप में आदृत था, उतनी ही धार्मिक जनता में भी उसकी प्रतिष्ठा थी। इन दोनों ग्रन्थों की भाषा में फारसी भाषा के शब्दों का समावेश प्राय: नहीं के बराबर है। अतएव ईसाई धार्म-प्रचार के इच्छुकों ने भी उन्हीं की शैली का अनुसरण किया। फिर भी ईसाई पुस्तकों की भाषा में एक विशेषता देखने में आती है जो उसे पूर्व आदर्शों से कुछ पृथक करती है। वह है कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग, जो उसे एक ओर तो सैयद इंशा अल्लाह खाँ की भाषा से अलग करती है और दूसरी ओर मुंशी सदा सुखलाल और लल्लू लाल की भाषा से। ये शब्द ठेठ भाषा से लिये गये ज्ञात होते हैं। नीचे के अवतरणों को देखकर आप लोगों को मेरे कथन की सत्यता विदित होगी-

1. यीशू ने उसको उत्तार दिया कि जो कोई यह जल पीयेगा वह फिर पियासा होगा। स्त्री ने उससे कहा मैं जानती हूँ कि मसीह जो ख्रीष्ट कहलाता है, आने वाला है।

यीशू ने उनसे कहा, मेरा भोजन यह है कि अपने भेजने वाले की इच्छा पर चलूँ और उसका काम पूरा करूँ। क्या तुम नहीं कहते कि वे कटनी के लिए पक चुके हैं और काटने वाला मजदूरी पाता और अनन्त जीवन के लिए फल बटोरता है किबोने वाला और काटने वाला दोनों मिलकर आनन्द करें।

2. बियारी से उठकर अपने कपड़े उतार दिये और ऍंगोछा लेकर अपनी कमर बाँधी।

3. तब उन्होंने उसके पिता से सैन किया कि तू उसका नाम क्या रखना चाहती है।

4. अर्थात् वह किरिया जो उसने हमारे पिता इब्राहीम से खायी थी।

5. यह हमारे परमेश्वर की उसी बड़ी करुणा से होगा जिसके कारण ऊपर से हम पर भोर का प्रकाश उदय होगा।

6. तब महायाजक और प्रजा के पुरनिए काइपा नामक महायाजक के ऑंगन में इकट्ठे हुए।

7. यह देखकर उसके चेले रिसियाये और कहने लगे इसका क्यों सत्यानाश किया गया।

उक्त अवतरणों के रेखांकित शब्द ठेठ हिन्दी भाषा के हैं। 'उत्तार', 'स्त्री', 'इच्छा', 'अनन्त', 'जीवन', 'आनंद', 'पिता', 'परमेश्वर', 'करुणा', 'कारण', 'प्रकाश', 'उदय', 'महायाजक', 'प्रजा' आदि संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग भी इनमें किया गया है। एक जगह पारसी से गढ़ा हुआ 'मजदूरी' शब्द भी आया है-परन्तु यह स्वीकार करना पड़ेगा कि पादरी साहब की भाषा अपने पूर्ववर्ती लोगों से अधिक प्रांजल है, और उसमें खड़ी बोली का अधिकतर विशुध्द रूप पाया जाता है। वह हरिश्चन्द्र कालिक हिन्दी के सन्निकट है। उसको देखकर यह विश्वास नहीं होता, कि उस समय किसी पादरी की लेखनी से ऐसी भाषा लिखी जा सकती है। मुझको इसमें किसी योग्यतम हिन्दू के हाथ की कला दृष्टिगत होती है।

उन्नति-काल

विस्तार-काल के लेखकों ने हिन्दी-गद्य का क्षेत्रा विस्तृत तो किया, किन्तु भाषा के सम्बन्ध में वे कोई निश्चित आदर्श उपस्थित न कर सके। मुंशी सदासुख लाल, लल्लू जी लाल, पं. सदल मिश्र, सैय्यद इंशा अल्ला खाँ आदि लेखकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा लिखी। प्रथम तीनों की भाषा में ब्रजभाषा का यथेष्ट पुट था। अतएव वह खड़ी बोली के प्रारम्भिक काल की सूचक ही होकर रह गयी। रही इंशा अल्ला खाँ की भाषा, वह उनकी व्यक्तिगत रुचि से बहुत अधिक प्रभावित है। उनकी प्रकृति के अनुरूप उसमें विलासविभ्रममयी कामिनी के समान चटक मटक अधिक है, वह अधिकतर ऐसी है कि कहानी किस्सों ही में काम दे सकती है, अन्य विषयों में नहीं। पादरी साहब की भाषा का प्रचार परिमित क्षेत्रा में ही था। अतएव यह स्पष्ट है कि गद्यपरिधि के विस्तार ने भाषा का स्वरूप निश्चित करके उसे सर्वोपयोगी तथा सब प्रकार के विचारों को प्रकट के योग्य बनाने की समस्या उन्नति काल के लेखकों के सामने उपस्थित की।

अनेक श्रेणियों के लेखकों की प्रतिभा के संघर्ष से यह समस्या इसी काल में हल हुई। निबन्धा, नाटक-उपन्यास और समालोचना आदि के क्षेत्राों में प्रचुर व्यवहृत होने से इसी समय गद्य की एक सुन्दर शैली का विकास में आकर समुन्नत होना स्वाभाविक था। उन्नति क्रम क्या था, मैं अब यह दिखलाऊँगा।

राजा शिवप्रसाद उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द्र में हुए। उन्हीं के समय से हमने हिन्दी-गद्य का उन्नति-काल माना है। सन्1884 में सर चार्ल्स उड ने देशी भाषाओं में ग्रामवासियों के शिक्षा देने की जो योजना बनाकर भेजी थी, उसमें हिन्दी को स्थान ही न मिलता, यदि राजा साहब ने अपार परिश्रम करके हिन्दी में कुछ पाठय पुस्तकें तैयार न की होतीं। यदि शिक्षा योजना में हिन्दी को स्थान न मिलता, तो उस समय न तो उसका उन्नति-पथ प्रशस्त होता, और न वह जैसा चाहिए वैसा अपना पाँव आगे बढ़ा सकती, इसलिए उसकी उस काल की उन्नति में राजा साहब का हाथ होना स्पष्ट है। सन् 1845 में उन्होंने 'बनारस अख़बार' नामक जो समाचार पत्रा निकाला था, उसकी भाषा यद्यपि पारसी के तत्सम शब्दों से लदी हुई होती थी, परन्तु उसको वे देवनागरी अक्षरों में ही प्रकाशित करते थे और उसे हिन्दी का समाचार-पत्रा ही कहते थे। इन बातों से उनका हिन्दी-प्रेम प्रकट होता है, परन्तु हिन्दी की भाषा के विषय में उनका कोई निश्चित सिध्दान्त नहीं था, कभी वे उसे पारसी शब्दों से मिश्रित लिखते थे और कभी संस्कृत शब्दों से गर्भित। कभी-कभी उन्होंने बड़ी सरल हिन्दी लिखी है परन्तु बोलचाल पर दृष्टि रखकर उसमें भी पारसी और अरबी के ऐसे शब्दों का त्याग नहीं किया, जिनको सर्वसाधारण बोलते और समझ लेते हैं।

सन् 1835 में ऍंग्रेजी और पारसी लिपि में लिखी जाने वाली तथा पारसी और अरबी के शब्दों तथा खड़ी बोली की क्रियाओं के सहयोग से उत्पन्न उर्दू भाषा सरकारी कचहरी की भाषा बन गयी। यह उर्दू का सौभाग्य सूर्योदय था। इस घटना से हिन्दी-गद्य के विस्तार कार्य को बहुत धाक्का लगा। उर्दू का यों भी बोलचाल में प्रचार था। किन्तु इस घटना से उसे इतना अधिक प्रश्रय मिला कि वह सहज ही हिन्दी को पछाड़ देने में सफल हुई। कारण यह कि स्वयं हिन्दू प्रतिभा और साहित्य-सृजनकारिणी शक्ति ऐसी भाषा के विकास में योग देने के विरुध्द हो गयी, जिसका आदर शिक्षित वर्ग में नहीं रह गया था। ऐसी दशा में मुन्शी सदासुख लाल और लल्लू लाल द्वारा प्रचारित गद्य-शैली का कुछ समय के लिए दब जाना स्वाभाविक था।

राजा शिव प्रसाद का हिन्दी-रचना काल इसी समय प्रारम्भ होता है। लल्लू लाल की तरह शुध्द गद्य लिखने के पक्ष में वे इस कारण नहीं हुए कि उनकी समझ में वैसा गद्य उस समय प्रचलित करना उचित नहीं था। उस समय की परिस्थिति पर दृष्टि रखकर एक जगह वे यह लिखते हैं-

“शुध्द हिन्दी चाहने वाले को हम यह यकीन दिला सकते हैं कि जब तक कचहरी में पारसी हरप+ जारी हैं, इस देश में संस्कृत शब्दों को जारी करने की कोशिश बेपायदा होगी।” राजा शिवप्रसाद क्यों पारसी अरबी शब्दों से मिश्रित हिन्दी लिखने के पक्षपाती थे, यह बात आशा है, अब आप लोगों की समझ में आ गयी होगी, उनके गद्य का निम्नलिखित नमूना देखने से यह विषय और स्पष्ट हो जावेगा।

“हम लोगों की जबान का व्याकरण (चाहे आप उसको उर्दू कहें चाहे हिन्दी) किसी कदर कायम हो गया है। जो बाकी है जिस कदर जल्द कायम हो जावे बेहतरA इस जबान का दरवाजा हमेशा खुला रहा है और अब भी खुला रहेगा। उसमें शब्दबेशक आये और बराबर चले आते हैं, क्या भूमियों की बोली, क्या संस्कृत, क्या यूनानी (यहाँ तक कि यूनानी लफ्ज 'दीनार'पुरानी संस्कृत पोथियों में भी पाया जाता है और नानक भी यूनानी से निकला है) क्या रूमी, क्या पारसी, क्या अरबी, क्या तुर्की, क्या ऍंग्रेजी क्या किसी मुल्क के शब्द जो कभी इस दुनिया के पर्दे पर बसे हैं या बसते हैं, सबके वास्ते इसका दरवाजाखुला रहा है और अब भी खुला रहेगा। अब इसे बन्द करने की कोशिश करना सिवाय इसके कि किस कदर मूजिब हमारे हानि और नुकसान का है और कैसा असम्भव है, यह सोचना चाहिए। रोक-टोक बेशक मुनासिब है और यही हो सकती है। वह कौन मनुष्य है कि अपने ताल में जिससे तमाम गाँव सिंचता है पानी आने की नालियाँ बन्द करे। गंगा की धारा का बहना तो आप बन्द नहीं कर सकते। लेकिन यह अवश्य कर सकते हैं कि बाँधा और पुश्ते बनाकर उन्हीं के दर्मियान उसको रखें।”

उक्त अवतरण में 'वदर', 'वायम', 'बावी', 'बेहतर', 'ज़बान', 'दरवाजा', 'बेशक', 'लफ्ज़', 'मुल्क', 'दुनिया', 'कोशिश', 'वदर', 'मुजिब', 'नुव+सान', 'मुनासिब', 'दर्मियान' आदि शब्द पारसी से लिये गये हैं। 'व्याकरण', 'शब्द', 'हानि', 'अवश्य'आदि बहुत थोड़े से ही शब्द इसमें संस्कृत के हैं। राजा शिवप्रसाद की भाषा सम्बन्धी यह नीति सफल होने वाली नहीं थी। हिन्दी-गद्य के पुराने संस्कार वास्तव में सदा के लिए मिट नहीं गये थे, केवल प्रतिकूल परिस्थिति के कारण वे दबे पड़े थे। राजा लक्ष्मण सिंह की सरस लेखीन का अवलम्बन पाकर वे फिर सामने आ गये उन्होंने अपनी भाषा-विषयक नीति निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त कर दी-

“हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी हैं। हिन्दी इस देश के हिन्दू और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और पारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है। हिन्दी में संस्कृत के शब्द बहुत आते हैं और उर्दू में अरबी और पारसी के। किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि अरबी पारसी शब्दों के बिना उर्दू न बोली जाय और न हम उस भाषा को हिन्दी कहते हैं जिसमें अरबी पारसी के शब्द भरे हों।”

अपनी इस मनोवृत्तिा के साथ कार्य-क्षेत्रा में अग्रसर होकर राजा लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी का असीम उपकार किया। वास्तव में यदि राजा शिवप्रसाद ने हिन्दी गद्य के अस्थिपंजरावशिष्ट शरीर में श्वास का आना-जाना सुरक्षित रखा तो राजा लक्ष्मण सिंह ने उसके शरीर में अल्पाधिक मात्रा में स्वास्थ्य का संचार किया और उसे नवजीवन दिया। इनकी भाषा के दो नमूने आप देखें-

1. “रास छोड़ते ही घोड़े सिमटकर कैसे झपटे कि खुरों की धूल भी साथ न लगी। केश खड़े करके और कनौती उठाकर घोड़े दौड़े क्या हैं, उड़ आये हैं। जो वस्तु पहले दूर होने के कारण छोटी दिखाई देती थी सो अब बड़ी जान पड़ती है।”

2. तुम्हारे मधाुर वचनों के विश्वास में आकर मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस राजवंश के भूषण हो और किस देश की प्रजा को विरह में व्याकुल छोड़कर पधारे हो। क्या कारण है कि जिससे तुमने अपने कोमल गात को कठिन तपोवन में आकर पीड़ित किया है।

इन अवतरणों की भाषा से राजा शिवप्रसाद जी की भाषा से तुलना कीजिए। यदि एक में आपको उर्दू का स्पष्ट स्वरूप दिखाई पड़ेगा तो दूसरी में हिन्दी प्रकृतस्वरूप को ग्रहण करने की चेष्टा प्रकट रूप से दिखाई पड़ती है। राजा लक्ष्मण सिंह के उक्त अवतरणों में एक भी पारसी शब्द का व्यवहार नहीं मिलता। संस्कृत के शब्दों की भी ठूँस-ठाँस नहीं दिखाई पड़ती, उतने ही संस्कृत शब्द उसमें आये हैं जितने भाषा को मनोहर बनाकर भाव को सुन्दरता के साथ व्यक्त करने के लिए आवश्यक हैं।

परन्तु यह मानना पडेग़ा कि जहाँ राजा शिवप्रसाद एक ऐसी भाषा को प्रचलित करना चाहते थे जो हिन्दू-समाज के संस्कारों के बिलकुल ही प्रतिकूल थी, वहाँ राजा लक्ष्मण सिंह ने इस तथ्य बात की ओर धयान नहीं दिया कि जीवित भाषा का लक्षण ही यह है कि अन्य भाषाओं के सम्पर्क में आकर वह आदान-प्रदान से विरत न हो। फिर भी यह कहा जा सकता है कि राजा लक्ष्मण सिंह हिन्दी-गद्य-साहित्य में उस प्रतिक्रिया के प्रतिनिधि हैं जो राजा शिवप्रसाद सितारे-हिन्द की पारसी के रंग में रँगी हुई हिन्दी के विरुध्द हिन्दू समाज में इस समय उत्पन्न हो रही थी।

यहाँ हिन्दी और उर्दू के पारस्परिक विभेद सम्बन्ध में दो शब्द कह देना आवश्यक जान पड़ता है। राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की यह बहुत बड़ी शिकायत थी कि उन दिनों शिक्षित समाज में प्रचलित पारसी शब्दावली से प्रभावित हिन्दी को न स्वीकार करके संस्कृत-गर्भित हिन्दी लिखने और इस प्रकार एक नई भाषा के निर्माण करने का प्रयत्न किया जा रहा था। निस्सन्देह हिन्दी और उर्दू की क्रियाओं में अभिन्नता है और दोनों का व्याकरण प्राय: एक ही है। परन्तु इतनी एकता होने पर भी धार्मिक और जातीय संस्कार ने दोनों बोलियों के बीच में एक गहरी खाई उपस्थित कर दी है। जिस इस्लाम की उपासना भारत वर्ष के मुसलमान करते हैं वह किसी देश की सीमाओं से प्रभावित नहीं होता, उसके आदेश के अनुसार भारतवर्ष और पैलेस्टाइन के मुसलमान जितने निकट समझे जा सकते हैं, उतने भारतवर्ष के मुसलमान और हिन्दू नहीं। इस्लाम के इसी स्वरूप से प्रभावित होकर मुसलमान कवि भारतवर्ष में रहकर भी पारसी-काव्य-परम्परा को ही अधिक पसन्द करता है। जैसे मुसलमान अपने संस्कारों को नहीं छोड़ते उसी प्रकार यह भी असम्भव है कि हिन्दू-जाति की धार्मिक संस्कृति संस्कृत शब्दों का मोह त्याग दे। ऐसी दशा में हिन्दी और उर्दू की एकता के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि हिन्दू और मुसलमान जातियों के दैनिक सम्पर्क और सहयोग के लिए किसी जीवित सम्बन्ध की स्थापना की जाय और दोनों के व्यक्तिगत संस्कारों को एक- दूसरे के साथ मिलकर सामंजस्य कर लेने का अवसर दिया जाय। जब यह सम्भव होगा तो इसे व्यक्त करने वाली भाषा केवल मुस्लिम समाज अथवा हिन्दू-समाज की नहीं होगी, बल्कि भारतीय समाज की होगी, तभी हिन्दी और उर्दू का झगड़ा मिट जायेगा। यह परिस्थिति जिस प्रकार सम्भव हो सके उसके लिए उद्योगशील न होकर जो लोग प्रति सौ पारसी अरबी शब्दों के साथ पाँच पारसी अरबी के सार्वजनिक प्रयोग जात किन्तु संस्कार शून्य शब्दों का केवल इसलिए व्यवहार करते हैं, कि इससे उनकी एकताहितैषिणा की घोषणा हो, वे समस्या के मूल पर कुठाराघात न करके केवल डालियों और पत्तों पर प्रहार करके पेड़ को भूमिशायी बनाना चाहते हैं। अतएव, जब तक मुसलमान लेखक अपने साहित्य-परम्परा-विषयक संस्कारों पर भारतीय रंग न चढ़ने देंगे अथवा हिन्दू लेखक अपनी साहित्य-परम्परागत विशेषताओं के साथ मुसलमानों की शैली के साथ समझौता होना सम्भव नह बनाएँगे तब तक हिन्दी और उर्दू का विभेद बना ही रहेगा और वे राजा लक्ष्मण सिंह के शब्दों में दो न्यारी बोली बनी ही रहेंगी।

राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह जिस समय हिन्दी गद्य की शैली को एक स्थिर स्वरूप देने का प्रयत्न कर रहे थे,उस समय गुजरात से सूर्य की तरह उदित होने वाले स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू जाति की रक्षा के लिए एक बड़े प्रबल आन्दोलन को जन्म दिया। ईसाइयों के स्वधार्म प्रचार के प्रयत्न की चर्चा की जा चुकी है। इस प्रयत्न का स्वरूप केवल अनुवादित पुस्तकें जनता में बाँटना ही नहीं था, उसने इससे अधिक गम्भीर रूप पकड़ कर हमारे दैनिक जीवन के प्रभावशाली अंगों शिक्षा और चिकित्सा आदि से भी अपना सम्पर्क बढ़ाने की कोशिश की। इसका परिणाम यह हुआ कि विभिन्न प्रान्तों के बहुसंख्यक हिन्दू ईसाई धार्म को स्वीकार करने लगे। इसके अतिरिक्त हिन्दू-समाज के अनेक दुर्बल अंगों पर आक्रमण करके मुसलमान लोग भी हिन्दुओं को हिन्दू धार्म की गोद में से निकालने की चिन्ता में लगे थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के आविर्भाव के पहले हिन्दू-समाज, विशेषकर संयुक्त प्रान्त और पंजाब का हिन्दू समाज इस अन्धाकार में अपना समुचित पथ ढूँढ़ निकालने में असमर्थ था। स्वामी दयानन्द ने देश और जाति की आवश्यकताओं को समझा और जो कुछ उचित समझा उसे अपने देश-बन्धाुओं को समझाने का प्रबल प्रयत्न किया। इससे स्वभावत: हिन्दी गद्य को सहारा मिला, क्योंकि उनके और उनके अनुयायियों ने अपना आन्दोलन और प्रचार-कार्य हिन्दी ही में प्रारंभ किया। राजा शिव प्रसाद की भाषा सम्बन्धी नीति को स्वामी दयानन्द के आन्दोलन से भी पनपने का अवसर नहीं मिला। क्योंकि तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक प्रश्नों की मीमांसा हिन्दी ही में होने के कारण अधिकांश विचारशील हिन्दुओं को भी संस्कृत के अनेक तत्सम शब्दों की ओर झुकना पड़ा जिसका परिणाम कालान्तर में पंजाब जैसे उर्दू-प्रधान प्रान्त में इस रूप में दिखाई पड़ा कि भाषा तो हुई संस्कृत शब्दों से भरी किन्तु लिपि हुई पारसी-राजा शिवप्रसाद की शैली का ठीक उलटा। स्वामी दयानन्द सरस्वती की भाषा का एक नमूना देखिए-

1. 'तत्पश्चात् मैं कुछ दिन तक स्थान टेहरी में ही रहा और इन्हीं पंडित साहब से मैंने कुछ पुस्तकों और ग्रन्थों का हाल जो मैं देखना चाहता था दरयाफ्त किया और यह भी पूछा कि ये ग्रंथ इस शहर में कहाँ-कहाँ मिल सकते हैं। उनके खोलते ही मेरी निगाह एक ऐसे विषय पर पड़ी कि जिसमें बिलकुल झूठी बातें, झूठे तरजुमे, और झूठे अर्थ थे।'

2. राजा भोज के राज्य में और समीप ऐसे शिल्पी लोग थे कि जिन्होंने घोड़े के आकार का एक मान यन्त्रा कलायुक्तबनाया था कि जो एक कच्ची घड़ी में ग्यारह कोस और एक घण्टे में सत्तााईस कोस जाता था वह भूमि और अन्तरिक्ष में भी चलता था और दूसरा पंखा ऐसा बनाया था कि बिना मनुष्य के चलाये कला-यन्त्रा के बल से नित्य चला करता और पुष्कल वायु देता था जो ये दोनों पदार्थ आज तक बने रहते तो योरोपियन इतने अभिमान में न चढ़ जाते।

इन अवतरणों की भाषा पर धयान दीजिए, द्वितीय अवतरण में पारसी या अरबी का एक भी शब्द नहीं है, संस्कृत के तत्सम शब्दों ही की उसमें प्रधानता देख पड़ती है। पहले अवतरण में 'साहब' 'दरयाफ्त' 'निगाह', 'तरजुमे' आदि शब्द पारसी के हैं। राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा में जो सरलता और मधाुरता है, उसका स्वामी जी की भाषा में सर्वथा अभाव है। कारण इसका यह है कि स्वामी जी को एक नवीन दिशा में हिन्दी का उपयोग करना पड़ा। जिस प्रकार का शास्त्राार्थ उन्होंने प्रचलित किया वैसा तब तक अज्ञात था। मौलवियों, पादरियों और पंडितों के साथ विवाद में पड़ कर हिन्दी भाषा से उन्हें ऐसा काम लेना पड़ा जो कभी लिया न गया था। दूसरी बात वह कि उनके विषय शास्त्रीय थे, यह भी वादग्रस्त, साहित्यिक नहीं थे, अतएव उनकी भाषा में कर्कशता और रूखापन मिलना आश्चर्यजनक नहीं।

राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मणसिंह और स्वामी दयानन्द सरस्वती सम सामयिक थे। इन तीनों लेखकों ने हिन्दी गद्य में तीन प्रकार की शैलियाँ उपस्थित कीं, यह आप लोगों ने देख लिया। अब मैं आपको हिन्दी गद्य-साहित्य के एक ऐसे उज्ज्वल नक्षत्रा की निर्मल प्रभा से परिचित करना चाहता हूँ जिसने शैली-विकास-विषयक प्रयत्न को प्राय: पूर्णता का रूप प्रदान करके स्थिरता संचार करने में सफलता प्राप्त की, यह उज्ज्वल नक्षत्रा भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र हैं। भारतेन्दु बाबू ने जैसे सामयिक हिन्दी पद्य के विकास में पथ-प्रदर्शक का काम किया, वैसे ही गद्य के विकास में भी उनका सहयोग बहुत महत्तवपूर्ण है। बात यह है कि साहित्य-शैलियों के विकास में लेखक की अपेक्षा जनता का सहयोग कम प्रभावशाली नहीं होता। हम जो कुछ लिखते हैं उसका यही उद्देश्य है कि उसे लोग पढ़ें और उचित मात्रा में उसमें प्रभावित हों। जब हम शैली-विशेष की उपयोगिता और ग्राम्यता पर विशेष बल देते हैं, तब हमारा तात्पर्य इससे भिन्न अन्य कुछ नहीं हो सकता कि उससे लेखक और पाठक का मानसिक-सम्बन्ध-स्थापन होने में बहुत अधिक सरलता और सुगमता की सम्भावना है। राजा शिवप्रसाद ने पारसी शब्दों से लदी हुई 'आम प+हम' और 'ख़ास पसंद' भाषा के लिए जब 'ज़ोरदार', 'वकालत' की थी तब इसी व्यापक सिध्दान्त का आश्रय उन्हें लेना पड़ा था। उनका धयान विशेष रूप से उन शिक्षित हिन्दू पाठकों की ओर था जिनके हिन्दी-प्रेम की अधिक से अधिक सीमा यह थी कि वे देवनागरी अक्षरों में उर्दू भाषा को पढ़ और समझ लें। किन्तु जब इसी पाठक-मण्डली के धार्मिक संस्कारों की सहानुभूति की आवश्यकता लेखक को प्रतीत हुई तब संस्कृत के तत्सम शब्दों ही की ओर उसे झुकना पड़ा। मैं इस स्थान पर यह कथन करता हुआ इस बात को भी नहीं भूल रहा हूँ, कि धार्मिक विषयों के स्पष्टीकरण, तथा तत्सम्बन्धाी तर्क-वितर्क में संस्कृत शब्दों की यथेष्ट मात्रा में आवश्यकता होती है। किन्तु साथ ही यह भी मेरा मत है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती के लेखों में संस्कृत के तत्सम शब्दों का जो बहुत अधिकता से प्रयोग हुआ है, उसका एकमात्रा कारण यह अनिवार्य आवश्यकता ही नहीं थी, बल्कि जनता की वह रुचि भी थी, जो संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग में एक विशेष धार्मिक संस्कार का अनुभव करती थी। अतएव लेखक और पाठक मण्डली दोनों के सहयोग से हिन्दी भाषा का बहुत कुछ परिष्कार और परिमार्जन हो चला जिसका स्पष्ट परिचय भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की भाषा में दिखायी पड़ा। जनता की रुचि किस भाषा की ओर थी, यह भारतेन्दु द्वारा संचालित 'कविवचनसुधा' नामक मासिक पत्रा के प्रति उसके विशेष अनुराग से लक्षित हो गया। भारतेन्दु ने भाषा के सम्बन्ध में एक ऐसी नीति ग्रहण की जो किसी विशेष पक्ष की ओर झुकी नहीं थी बल्कि समस्त पक्षों का समुचित समन्वय उपस्थित करती थी। यदि वे राजा शिवप्रसाद की-सी पारसी के भार से दबी हुई हिन्दी नहीं लिखते तो राजा लक्ष्मणसिंह अथवा 'प्रेमसागर' रचयिता लल्लूलाल की तरह उन पारसी शब्दों से भी नहीं बचते थे जो हिन्दी की बोलचाल में आ गये हैं। नीचे भारतेन्दुजी की भाषा के दो नमूने मैं उपस्थित करता हूँ। इन्हें देखकर आप यह समझ सकेंगे कि भारतेन्दु जी की भाषा सम्बन्धी नीति किस प्रकार उस समय के एक महत्तवपूर्ण प्रश्न को हल करती थी-

1. “नाम बिके, लोग झूठा कहें, अपने मारे मारे फिरें, पर बाहरे शुध्द 'बेहयाई'-पूरी निर्ल्लज्जता! लाज को जूतों मार के,पीट-पीट के निकाल दिया है। जिस मुहल्ले में आप रहते हैं, लाज की हवा भी वहाँ नहीं जाती। हाय, एक बार भी मुँह दिखा दिया होता तो मत-वाले मतवाले बनें क्यों लड़-लड़कर सिर फोड़ते? काहे को ऐसे बेशरम मिलेंगे?”

2. “जब मुझे ऍंग्रेजी रमणी लोग मेदसिंचित केशराशि, कृत्रिाम कुंतल जूट, मिथ्या रत्नाभरण, विविधा वर्ण वसन से भूषित,क्षीण कटि देश कसे, निज निज पतिगण के साथ प्रसन्न बदन इधार से उधार फर फर कल की पुतली की भाँति फिरती हुई दिखलाई पड़ती हैं, तब इस देश की सीधी7सादी स्त्रिायों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुख का कारण होती है।”

अवतरण नम्बर एक को देखिए। उसमें 'बेहयाई', 'बेशरम' जैसे शब्दों का प्रयोग निस्संकोच भाव से किया गया है और यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि इन शब्दों ने उक्त अवतरण की सरसता बढ़ाने में बहुत कुछ योग दिया है। संस्कृत के'निर्ल्लज्ज' और 'निर्लज्जता' शब्दों का प्रयोग यहाँ किया जा सकता था, किन्तु 'बेहयाई' और 'बेशरमी' का बोलचाल में इतना अधिक अधिकार हो गया है कि उनकी 'उपेक्षा' लेखक अपनी भाषा की स्वाभाविकता अैर सहज ही सम्पादित हो सकने वाली सरसता को संकट में डालकर ही कर सकता था। दूसरे अवतरण में भारतेन्दु संस्कृत के तत्सम शब्दों ही के प्रयोग की ओर अधिक प्रवृत्ता पाये जाते हैं। इसका कारण यह है कि यहाँ वे अपने उद्गार को व्यक्त करने के लिए कुछ ऐसे वाक्य लिखना चाहते थे जो साधारण बोलचाल में नहीं आते। ऐसी परिस्थिति में अपनी शब्दावली चुनने के लिए उनके सामने दो मार्ग थे,या तो वे संस्कृत के अपरिचित, किन्तु पाठकों के अनुकूल संस्कारों के कारण सहज ही परिचित होने की क्षमता रखने वाले शब्दों को चुनें अथवा पारसी या अरबी के अप्रचलित और विदेशी शब्दों को। भारतेन्दु जी ने जैसी शब्दावली चुनी, उस परिस्थिति में प्रत्येक विचारशील लेखक वैसी ही शब्दावली ग्रहण करने की ओर प्रवृत्ता होगा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतेन्दु ने हिन्दी गद्य के विकास का एक स्वाभाविक पथ तैयार करके उसे कार्य-क्षेत्रा की ओर अग्रसर किया।

हिन्दी गद्य का कार्य क्षेत्रा भी बदलता जा रहा था और उसकी समस्त शक्तियों को प्रस्फुटित करने वाले अवसर प्रस्तुत हो रहे थे। पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क से जो हिन्दू समाज नितान्त विचलित और सम्मोहित हो गया था, वह बंगाल में राजा राममोहन राय और उत्तारी भारत में स्वमी दयानन्द सरस्वती के प्रभाव से नव-जीवन लाभ कर रहा था। राजा राममोहन राय ने उपनिषदों के महत्तव की ओर शिक्षित समाज का धयान खींचा, स्वामी दयानन्द ने वेदों की ओर। इस उद्योग का परिणाम यह हुआ कि शिक्षित जनता में यह आत्मविश्वास फिर उत्पन्न होने लगा जो उसके पहले लुप्तप्राय था। प्राय: इसी समय समाचार-पत्राों का भी उदय हुआ। आत्माभिमान के जागरित होते ही देशानुराग के भाव का विकास भी हुआ। राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह ने तो इस ओर धयान नहीं दिया किन्तु बाबू हरिश्चन्द्र और उनके सहयोगियों ने देश और समाज के कष्टों को गहराई के साथ अनुभव करके भिन्न-भिन्न रूपों में उन्हें व्यक्त किया। यदि कहीं उन्होंने मर्मभेदी बातें कहीं, कहीं पाठक के हृदय को करुणा और अनुताप के भावों से पूरित किया तो सामाजिक त्राुटियों को लक्ष्य करके कहीं ऐसा व्यंग्यपूर्ण प्रहार और आक्षेप भी किया कि कुछ असहनशील पाठक की आन्तरिक सहानुभूति का उनसे चिरविच्छेद हो गया। उनका पहला नाटक'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' ऐसा ही था। उसमें उन्होंने समाज में प्रचलित बहुत-सी दूषित बातों की ओर पाठकों और दर्शकों का धयान आकर्षित किया है। वास्तव में भारतेन्दु की देशानुराग परायण बुध्दि ने उन सूक्ष्म जीवन-संचारक तत्तवों को अच्छी तरह समझ लिया था जो हिन्दू समाज के पुनरुज्जीवन के लिए आवश्यक थे। उन्होंने 'कर्पूर-मंजरी', 'सत्य हरिश्चन्द्र', 'चन्द्रावली-नाटिका', 'भारत-दुर्दशा', 'अन्धोर-नगरी', 'नीलदेवी' आदि नाटकों की रचना इसी उद्देश्य से की कि हिन्दू समाज के आरोग्य लाभ के लिए उन्हीं तत्तवों को उपस्थित करें। इसमें तो वे सफल हुए ही, साथ ही नाटक-रचना के कार्य में अग्रणी होने के कारण हिन्दी का प्रथम नाटककार होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त हुआ।

भारतेन्दु की भाषा के जो दो नमूने ऊपर दिये गये हैं, उनमें से नम्बर 1 को देखने से आपको यह भी ज्ञात हो जायगा कि भारतेन्दु जी ने मुहावरेदार भाषा लिखने का उद्योग भी किया था। 'नाम बिकना', 'मारे-मारे फिरना' आदि मुहावरे हैं जिनके व्यवहार ने भाषा की सरसता को बढ़ा दिया है। अवतरण नम्बर 2 में इस प्रकार के मुहावरों का अभाव है। इसका कारण भी स्पष्ट है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के बहु-संख्यक प्रयोगों ने मुहावरों के प्रवेश में रुकावट डाल दी है, प्राय: मुहावरों की छटा बोलचाल की भाषा में ही दृष्टिगत होती है।

समय के प्रभाव से उस समय बाबू हरिश्चन्द्र को अनेक सहयोगी भी प्राप्त हुए, उनमें से कुछ प्रमुख का वर्णन नीचे किया जाता है।

कानपुर के पं. प्रतापनारायण मिश्र विलक्षण प्रतिभा के मनुष्य थे, देश-प्रेम उनमें कूट-कूट कर भरा था, वे खरे थे, इसलिए खरी बातें भी कहते थे। स्वतन्त्रा प्रकृति के थे, इसलिए उनकी सभी बातों में स्वतंत्राता दिखायी पड़ती है। उनकी भाषा में भी स्वतंत्राता का रंग अधिक है। वे लिखते हैं, सामयिक हिन्दी, परन्तु उसमें मनमानापन भी मौजूद है। वे पारसी, संस्कृत और उर्दू के अच्छे जानकार थे। फिर भी ग्रामीण बातों और कहावतों से उन्हें प्रेम है। उनकी रचना की प्रधान विशेषता यह है कि वे मुहावरों आदि का व्यवहार अपनी भाषा में सफलता के साथ करते हैं। देश-ममता उनमें इतनी थी, कि अपने यहाँ की छोटी-छोटी बातों को भी महत्तव देते थे, और उनका प्रतिपादन इस ढंग से करते थे, कि उनकी इस प्रकार की लेख माला पढ़कर चित्ता प्रफुल्ल हो उठता है। किन्तु उनका भाग्य कभी नहीं चमका। अपने ब्राह्मण, नामक मासिक पत्रा को भी वे थोड़े ही समय तक चला सके। दैनिक 'हिन्दुस्तान' के सम्पादक होकर कालाकाँकर गये, परन्तु कुछ दिन वहाँ भी ठहर नहीं सके। उनके गद्य के कुछ नमूने देखिए-

1. “घर की मेहरिया कहा नहीं मानती, चले हैं दुनिया भर को उपदेश देने। घर में एक गाय बाँधी नहीं जाती, गोरक्षिणी सभास्थापित करेंगे। तन पर एक सूत देशी कपड़े का नहीं है, बने हैं देशहितैषी। साढ़े तीन हाथ का अपना शरीर है, उसकी उन्नति तो कर नहीं सकते, देशोन्नति पर मरे जाते हैं। कहाँ तक कहिये हमारे नौसिखिया भाइयों को माली खुलिया का आजार हो गया है, करते-धारते कुछ नहीं हैं, बक बक बाँधो हैं।”

सच है 'सब ते भले हैं मूढ़ जिन्हें न व्यापै जगत गति, मजे से पराई जमा गपक बैठना, खुशामदियों से गप मारा करना'जो कोई तिथ त्योहार आ पड़ा, तो गúा में बदन धाो आना, गúापुत्र को चार पैसे देकर सेंत-मेत में, धारम मूरत धारमा औतार का ख़िताब पाना, संसार परमार्थ तो दोनों बन गये, अब काहे को है है, काहे को खै खै। मुँह पर तो कोई कहने ही नहीं आता, कि राजा साहब कैसे हैं, पीठ पीछे तो लोग नवाब को भी गालियाँ देते हैं, इससे क्या होता है। आप रूप तो आप हैं ही, 'दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरे' उनको कभी दुख काहे को होता होगा। कोई घर में मरा-मराया तो रो डाला। बस आहार, निद्रा, भय,मैथुन के सिवा पाँचवीं बात ही क्या है, जिसको झीखैं। आप+त तो बेचारे ज़िन्दादिलों की है, जिन्हें न यों कल न वों कल। जब स्वदेशी भाषा का पूर्ण प्रचार था, तब के विद्वान् कहते थे, 'गीर्वाणवाणीषु' विशाल बुध्दिस्तथान्यभाषा रस लोलुपोहं, अब आज अन्य भाषा वरंच अन्य भाषाओं का करकट (उर्दू) छाती का पीपल हो रही है, तब वह चिन्ता खाये लेती है, कि कैसे इस चुड़ैल से पीछा छूटे। एक बार उद्योग किया गया तो एक साहब के पेट में समा गया, फिर भी चिन्ता पिशाची गला दबाये है। प्रयाग हिन्दू समाज पि+कर के मारे 'कशीदम' नालको बेहोश गश्तम, का अनुभव कर रहा है।”

3. “अरे भाई, पहले अपना घर तो बाँधाो लाला मसजिद पिरशाद सिड़ी वासितम को समझाओ कि तुम्हारे बुजुर्गों की बोली उर्दू नहीं है, लाला लखमीदास मारवाड़ी से कहो कि तुम हिन्दू हो, लाला नीचीमल खन्ना से पूछो, तुम लोग संकल्प पढ़ते समय अपने को वर्मा कहते हो कि शेख? पण्डित यूसुप+ नारायण कश्मीरी से दरयाफ्त करो कि तुम्हारे दसो संस्कार (मुंडनादिक) वेद की रिचाओं से हुए थे हापि+ज के दीवान से इसके पीछे जो सर्कार हिन्दी न कर दे तो ब्राह्मण के एडीटर को होली का गुण्डा बनाना।”

अहा! भाषा हो तो ऐसी हो, क्या प्रवाह है! क्या लोच है! कैसी फड़कती और चलती भाषा है! दुख है, यह भाषा पं. जी के साथ ही चली गई, फिर ऐसी भाषा लिखने वाला कोई उत्पन्न नहीं हुआ। मुहावरेदार भाषा लिखने में जैसा भाव-विकास होता है,वैसा अन्य भाषा लिखने में नहीं। यदि होता भी है, तो उतना प्रभावजनक नहीं होता। पं. जी की भाषा में अनेक शब्द शुध्द रूप में नहीं लिखे गये हैं, कारण इसका यह है, कि उनको उस रूप में उन्होंने लिखा है, जैसा वे बोलचाल में हैं। उनको यह प्रणाली गृहीत नहीं हुई। कारण इसका यह है कि एक तो बोलचाल पर इतनी दृष्टि कौन डाले, दूसरी बात यह है कि जब कुछ विशेष कारणों से शब्द को तत्सम रूप में लिखा जाना ही अच्छा समझा जाने लगा, तो व्यर्थ सर कौन मारे। चाहे जो हो, परंतु ऐसी भाषा लिखना टेढ़ी खीर है, सब ऐसी भाषा नहीं लिख सकते। यह गौरव पं. प्रतापनारायण मिश्र को हिन्दी लिखने वालों में और पं. रत्ननाथ को उर्दू लिखने वालों में प्राप्त हुआ, अन्य को नहीं। आश्चर्य नहीं कि कोई दिन ऐसा आवे जिस दिन यह भाषा ही आदर्श मानी जावे।

पण्डित प्रतापनारायण मिश्र के उपरान्त हमारी दृष्टि दो नारायणों पर पड़ती है, एक हैं पण्डित गोविन्द नारायण मिश्र और दूसरे हैं, पण्डित बदरीनारायण चौधारी। परन्तु इनका पथ भिम्न है, यदि वे बोलचाल की हिन्दी लिखने में सिध्दहस्त थे, तो ये दोनों सज्जन साहित्यिक हिन्दी लिखने में प्रसिध्द थेA

पं. गोविन्द नारायण मिश्र ने ऐसे वंश में जन्म लिया था जहाँ संस्कृत का विशेष प्रचार था। वे स्वयं भी संस्कृत के विद्वान थे। अतएव यह स्वाभाविक था कि वे हिन्दी गद्य-रचना करते समय संस्कृतगर्भित वाक्य-विन्यास की ओर झुकें! उनकी भाषा का एक नमूना दिया जाता है-

1. जिस सुजन समाज में संतों का समागम बन जाता है, जहाँ पठित, कोविद, कूर, सुरसिक, अरसिक सब श्रेणी के मनुष्यमात्रा का समावेश है, वहाँ जिस समय सुकवि सुपंडितों के मस्तिष्क सुमेरु के सोते के अदृश्य प्रवाह समान प्रगल्भ प्रतिभा से, समुत्पन्न शब्द कल्पना कलित, अभिनव भाव-माधाुरी भरी, छलकती, अति मधुर रसीली उस हंस वाहिनी हिन्दी सरस्वती की कवि सुवर्ण विन्यास समुत्सुक सरस रसना रूपी सुचमत्कारी उत्स (झरने से) कलरव कल कलित अति सुललित प्रबल प्रवाह सा उमड़ चला आता, मर्मज्ञ रसिकों के श्रवण पुट रन्धा्र की राह, मन तक पहुँच सुधा से सरस अनुपम काव्य रस चखाता है; उस समय उपस्थित श्रोता मात्रा यद्यपि छन्द वन्द से स्वच्छन्द समुच्चारित शब्द लहरी प्रवाह पुंज को समभाव से श्रवण करते हैं; परन्तु उसका चमत्कार, आनन्द, रसास्वादन, सबको समतुल्य नहीं होता।

एक अवतरण और देखिए-

2. “सरद पूनों के समुदित पूरनचन्द की छिटकी जुन्हाई, सकल मनभाई के भी मुँह मसिमल, पूजनीय अलौकिक पद नख चन्द्रिका की चमक के आगे तेजहीन, मलीन, और कलंकित दरसाती, लजाती, सरस सुधा धाौली अलौकिक सुप्रभा फैलाती,अशेष मोह जड़ता प्रगाढं तमतोम सटकाती मुकाती निज भक्त जनमन वांछित वराभय भुक्ति मुक्ति सुचारु चारों मुक्त हाथों से मुक्ति लुटाती, सकल कला आलाप कलकलित सुललित सुरीली मीड़ गमक झनकार सुतार-तार सुरग्राम अभिराम लसित बीन प्रवीन पुस्तकाकलित मखमल से समधिक सुकोमल अति सुन्दर सुविमल लाल प्रवाल से लाल लाल कर पल्लव सुहाती, विविधा विद्या-विज्ञान सुभसौरभ सरसाते विकसे फूले सुमन प्रकाश हास बास बसे, अनायास सुगन्धिातसित बसन लसन सोही सुप्रभा विकसाती, सुविमल मानस बिहारी, मुक्ताहारी नीर-क्षीर विचार सुचतुर कवि कोविद राज राज हियसिंहासन निवासिनी मन्दहासिनी त्रिालोक प्रकासिनी सरस्वती माता के अति दुलारे प्राणों से प्यारे पुत्रों की अनुपम अनोखी अतुल बलशाली परम प्रभावशाली सुजन मन मोहिनी नव रस भरी सरस सुखद विचित्रा वचन रचना का नाम ही साहित्य है।

पंडित गोविन्द नारायण मिश्र ने इस प्रकार का गद्य लिखकर हिन्दी भाषा में कविवर बाण विरचित कादम्बरी की शब्दच्छटा दिखलाने की चेष्टा की है, वैसा ही माधाुर्य भी उत्पन्न करना चाहा है। परन्तु वह बात तो प्राप्त हुई नहीं, भाषा अवश्य दुर्बोधा हो गई। अधिकतर उन्होंने ऐसी ही हिन्दी लिखी है, जब लेखनी उठाते थे, धाराप्रवाह रूप में ऐसी हिन्दी लिखते चले जाते थे। उनको इस प्रकार की हिन्दी लिखने में आनन्द भी बड़ा आता था, क्योंकि दण्डी के ढंग की समस्त पदावली उनको बहुत प्यारी थी। इन अवतरणों को देखकर उनके भाषाधिकार की प्रशंसा करनी पड़ती है। इनमें जो कवि कर्म्म है, वह भी साधारण नहीं, परन्तु उनकी दुरूहता और जटिलता, उसका आनन्द उपभोग करने नहीं देती। जिस गद्य में छोटे-छोटे वाक्य न हों, जो उद्वेलित समुद्र समान अपने प्रचुर समस्त पद प्रयोग उत्तााल तरंगों से आप ही विक्षुब्धा हो, वह औरों को क्या विमुग्धा कर सकेगा। किन्तु इन अवतरणों को देखकर यह न समझना चाहिए कि उनकी समस्त गद्य रचनाएँ ऐसी ही हैं। ये रचनाएँ जो पं. जी की विशेषता दिखलाने के लिए ही यहाँ उध्दृत की गई हैं। उनका साधारण गद्य सुन्दर है और उसमें उसकी विशेषताएँ पाई जाती हैं। एक अवतरण ऐसे गद्य का भी देखिए-

“परंतु स्वच्छ दर्पण पर ही अनुरूप यथार्थ सुस्पष्ट प्रतिबिम्ब प्रतिफलित होता है। उससे सामना होते ही, अपनी ही प्रतिबिम्बित प्रतिकृति, मानो समता की स्पध्र्दा में आ, उसी समय सामना करने आमने-सामने आ खड़ी होती है। भला कहीं ऍंधोरी कोठरी की मिट्टी की, अति मलिन पुरानी भीत में भी किसी का मुँह दिखाई दिया है? अथवा उस पर कभी क्या किसी बिम्ब का प्रतिबिम्ब पड़ सकता है?” 'आत्माराम की टें टें' शीर्षक लेख-माला में उनका गद्य और अधिक सरल एवं स्पष्ट है। उन्होंने विभक्तियों को संज्ञापदों से मिलाकर लिखने की परिपाटी चलाई और 'विभक्ति-विचार, शीर्षक एक लेख लिखकर उसका समर्थन किया। हिन्दी के कुछ लेखकों ने इस परिपाटी का अनुसरण भी किया किन्तु वह सर्वसम्मत नहीं हो सकी। पं. जी अपने समय के प्रभावशाली वक्ता और लेखक थे, उनका हिन्दी भाषा-प्रेमियों पर अधिकार भी बड़ा था, इन्हीं गुणों के कारण अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापतित्व पद भी उन्हें प्राप्त हुआ था।'

पं. बदरीनारायण चौधारी 'प्रेमघन' ने भी अधिकतर साहित्यिक गद्य ही लिखने की चेष्टा की। वरन् यह कहना चाहिए कि उन्हें साहित्यिक गद्य लिखना ही प्रिय था। यहाँ तक कि साधारण समाचार तक साहित्यिक अलंकारों द्वारा अलंकृत होकर ही उनकी 'आनन्द कादम्बिनी' नामक मासिक पत्रिाका में स्थान पाते थे। उनके गद्य में एक अद्भुत सजीवता और सुन्दरता आरंभ से अंत तक दिखलायी पड़ती, जिसे पढ़ते ही पाठकों का हृदय प्रसून समान उत्फुल्ल हो उठता। उनकी भाषा के दो नमूने देखिए-

1. “जैसे किसी देशाधीश के प्राप्त होने से देश का रंग ढंग बदल जाता है, तदू्रप पावस के आगमन से, इस सारे संसार ने भी नया रंग रूप पकड़ा, भूमि हरी भरी होकर नाना प्रकार की घासों से सुशोभित भई, मानो मारे मोद के रोमांच की अवस्था को प्राप्त भई। सुन्दर हरित पत्रावलियों से भरित तरुगनों की सुहावनी लताएँ, लिपट लिपट मानो मुग्धाा मयंक मुखियों को अपने प्रियतम के अनुरागालिंगन की विधि बतलातीं।”

2. “दिव्य देवी श्री महाराणी बड़हर लाख झंझट झेल, और चिरकाल पर्यंत बड़े बड़े उद्योग और मेल से, दुख के दिनसकेल, अचल 'कोर्ट का पहाड़ ढकेल' फिर गद्दी पर बैठ गईं।”

ईश्वर का भी क्या खेल है कि कभी तो मनुष्य पर दुख की रेल पेल है और कभी उस पर सुख की कुलेल

साहित्यिक गद्य मिश्र जी और चौधारी जी दोनों का है, परन्तु अन्तर यह है कि मिश्र जी का गद्य उद्विग्नकर है, और चौधरी जी का मनोहर। मिश्र जी का वाक्य दूर तक चलता है, परन्तु चौधारी जी का वाक्य छोटा-छोटा होता है, इसलिए उसमें हृदयग्राहिता अधिक है। मिश्र जी का जीवन सादा था, और वे पण्डित प्रकृति के थे इसलिए उनकी रचना में न तो चटक मटक है, न लचकीलापन। चौधारी जी अमीराना ठाट के आदमी थे, रसिक तो थे ही, मनचले और बाँके तिरछे भी, इसलिए उनकी भाषा भी कहीं चटकीली है, कहीं अलंकृत है, कहीं रसीली। कहीं ऐंठती चलती है, कहीं मचलती। कहीं अलंकारों के भार से दब जाती है, कहीं बड़े ठाट से तनी फिरती है। इसलिए अन्तर होना स्वाभाविक है। चौधारी जी समालोचक भी थे, वरन् सच पूछिए तो हिन्दी साहित्य में समालोचना प्रणाली का आरंभ उन्हीं से हुआ।

एक ओर तो पं. गोविंद नारायण मिश्र और पं. बदरीनारायण चौधारी संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग की ओर विशेष दत्ताचित्ता होकर हिन्दी गद्य में एक विचित्रा सरसता भर रहे थे, दूसरी ओर बालकृष्ण भट्ट शैली में उक्त दोनों महोदयों से बहुत कुछ भिन्नता रखते हुए वही कार्य करने में संलग्न थे। पं. गोविन्द नारायण मिश्र और पं. बदरी नारायण चौधारी को पारसी अरबी के शब्दों के प्रति कुछ भी आकर्षण नहीं था। परन्तु भट्ट जी पारसी अरबी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग अपनी रचना में स्वतंत्राता से करते थे। उक्त दोनों महाशय राजा लक्ष्मण सिंह की भाँति पारसी, अरबी शब्दों को अपनी रचना में स्थान नहीं देना चाहते थे। यह दूसरी बात है कि किसी अवसर पर वे उन भाषाओं के किसी प्रचलित शब्द को अपनी रचनाओं में स्थान दे देवें, परन्तु प्राय: वे उनसे बचते थे। भट्टजी पं. प्रताप नारायण की तरह इस बात की परवाह नहीं करते थे। यदि उनको उक्त भाषा का कोई प्रचलित शब्द भाषा प्रवाह के अनुकूल ज्ञात होता था, तो वे उसका प्रयोग निस्संकोच भाव से करते थे। वे पं. प्रताप नारायण की भाँति ग्रामीण शब्दों का प्रयोग भी कर जाते थे। भाषा शैली के विषय में भट्टजी का और पं. प्रताप नारायण का प्राय: एक मार्ग है और चौधारी जी का एवं मिश्र जी का एक। ये लोग बाबू हरिश्चन्द्र के ही सहयोगी हैं, और उन्हीं की शैली का प्राय: अनुसरण करते हैं। परन्तु स्वतंत्रा विचार होने के कारण सभी कुछ न कुछ स्वतंत्राता रखते हैं। माला सबों की एक प्रकार की है, किन्तु फूलों में और सजावट में अवश्य कुछ भिन्नता दृष्टिगत होती है। भट्ट जी के कुछ गद्य देखिए-

1. “इस ऑंसू में भी भेद है। कितनों का पनीला कपार होता है, बात कहते रो देते हैं। अक्षर उनके मुँह से पीछे निकलेगा,ऑंसुओं की झड़ी पहले ही शुरू हो जायेगी। स्त्रिायों के जो बहुत ऑंसू निकलता है, मानो रोना उनके यहाँ गिरों रहता है,इसका कारण यही है कि वे नाम ही की अबला और अधीर हैं। दुख के वेग में ऑंसू को रोकने वाला केवल धीरज है। उसका टोटा यहाँ हरदम रहता है, तब इनके ऑंसू का क्या ठिकाना है। सत्तवशाली धीरज वालों को ऑंसू कभी आता ही नहीं। कड़ी से कड़ी मुसीबत में दो-चार कतरे ऑंसू के मानो बड़ी बरकत हैं। बहुत मौकों पर ऑंसू ने ग़जब कर दिया है। सिकंदर का कौल था कि अपनी माँ की ऑंख के एक कतरा ऑंसू की कीमत मैं बादशाहत से भी बढ़ कर मानता हूँ। रेणुका के अश्रुपात ही ने परशुराम से इक्कीस बार क्षत्रिायों का संहार कराया। कितने ऐसे लोग भी हैं जिन्हें ऑंसू नहीं आता। इसलिए जहाँ पर बड़ी जरूरत ऑंसू गिराने की हो तो उनके लिए प्याज का गट्ठा पास रखना बड़ी सहज तरकीब निकाली गयी। प्याज जरा-सा ऑंख में छू जाने से ऑंसू गिरने लगता है।”

“किसी को बैंगन बावले किसी को बैंगन पत्थ” बहुधा ऑंसू का गिरना भलाई और तारीप+ में दाख़िल है। हमारे लिए ऑंसू बड़ी बला है। नजले का जोर है, दिन रात ऑंसू टपकता है, ज्यों ज्यों ऑंसू गिरता है त्यों त्यों बीमारी कम होती जाती है। सैकड़ों तदबीरें हम कर चुके ऑंसू का टपकना बंद न हुआ। क्या जाने बंगाल की खाड़ी वाला समुद्र हमारेकपार में आकर भर रहा है। ऑंख से तो ऑंसू चला ही करता है, आज हमने लेख में भी ऑंसू ही पर कलम चला दी, पढ़ने-वाले इसे निरी नहूसत की अलामत न मान हमें क्षमा करेंगे।

2. “दर्शन (पिलासप) का अनुशीलन करते करते जिनका मस्तिष्क यहाँ तक परिष्कृत और बुध्दि इतनी पैनी हो जाती है कि उनकी बहस और तकदीर के मुकाबले कोई बात कभी उनके अविश्वासी चित्ता में स्थान पा नहीं सकती...।”

3. “यद्यपि 'ब्रेनवर्क' मस्तिष्क का काम और शारीरिक कामों की अपेक्षा अधिक योग्यता प्रकट करता है किन्तु कसौटी के समय परख केवल दिल की की जाती है।”

उक्त अवतरणों के रेखांकित शब्दों पर विचार कीजिए। वे सबके सब पारसी, अरबी के शब्द हैं। वे बोलचाल में गृहीत हो गये हैं। अतएव हिन्दी गद्य लिखने में उनका प्रयोग होना अनुचित नहीं। भट्टजी 'हिन्दी प्रदीप' नामक मासिक पत्रा के संचालक और सम्पादक भी थे। जहाँ इस पत्रा द्वारा वे यह उद्देश्य सिध्द करना चाहते थे कि शिक्षित लोगों का धयान हिन्दी साहित्य की ओर आकर्षित हो, वहाँ उन्हें इस बात का भी धयान बना रहता था कि 'हिन्दी-प्रदीप' में हीन श्रेणी की साहित्य-सामग्री न निकले। अतएव उन्होंने व्यंग्यात्मक रोचक निबंधा और शिक्षाप्रद उपन्यास आदि से ही उसका कलेवर भरा। पं. बालकृष्ण भट्ट के हृदय में देश की दुर्दशा के कारण बहुत अधिक पीड़ा थी। इससे उनके व्यंग्यों में हृदय के मर्म-स्थल पर आघात करने की ऐसी शक्ति देखी जाती है, जिसका प्रभाव उनके समसामयिक समस्त लेखकों पर पाया जाता है। पं. प्रतापनारायण मिश्र जैसे कुछ उदात्ता विचार के लोगों की बात दूसरी है। अतएव भाषा के सम्बन्ध में उन्होंने जो नीति ग्रहण की, उससे उनकी व्यंग्यात्मक शैली के विकास में बहुत अधिक सहायता मिली; क्योंकि तत्कालीन पठित समाज की बोलचाल पर उर्दू का गहरा रंग चढ़ा होने के कारण व्यंग्य को प्रभावशाली बनाने के लिए पारसी अरबी के प्रचलित शब्दों का अंगीकार अनिवार्यत: आवश्यक था। वे'कपार', 'धीरज', 'निरी', 'पैनी' आदि शब्दों का प्रयोग भी करते हैं, मेहरिया, 'तिथ' आदि शब्दों का प्रयोग करते पं. प्रतापनारायण जी को भी देखा जाता है। पं. गोविन्द नारायण मिश्र की रचना का दूसरा अवतरण देखिए, उसमें जिन शब्दों को काला कर दिया गया है, वे सब ब्रजभाषा के शब्द हैं, और उनका प्रयोग भी ब्रजभाषा की भाँति किया गया है, वे लौं का व्यवहार भी करते थे। प्रेमघन जी के गद्य में भी भई] तरुगन, इत्यादि शब्दों का प्रयोग मिलता है। इससे पाया जाता है कि इन लोगों के समय में भी जैसा चाहिए वैसा भाषा का परिष्कार नहीं हुआ था। वाक्य भी उन लोगों के अशुध्द हैं, जिन पर मैंने लम्बी लकीरें खींच दी हैं, उनको देखिए। बाबू हरिश्चन्द्र की रचना में भी ये बातें पाई जाती हैं। पण्डित अम्बिकादत्ता व्यास और गोस्वामी राधाचरण की लेख माला में भी ये दोष देखे जाते हैं। इससे यह सिध्दान्त पर उपनीत होना पड़ता है, कि उस समय पूर्ण उन्नत होने पर भी जैसा चाहिए वैसा गद्य परिष्कृत नहीं हुआ।