प्रियकांत / भाग - 24 / प्रताप सहगल

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प्रियकांत अब तक स्थिति का सामना करने योग्य हो गया था। बोला-”कभी आपने सोचा, क्यों ?”

“बाहरी दुनिया की चकाचौंध...दूसरे, बनते, चलते धर्मगुरुओं से प्रतियोगिता...उन सबसे आगे निकल जाने की होड़ में तुम पथभ्रष्ट हुए हो प्रियकांत! तुम्हारी वो राह थी ही नहीं, जिस पर तुम चल पड़े...तुम्हें तो विश्व को आर्य बनाना था...तुम पर आर्यसमाज का ऋण था-वो चुकाया, इस तरह से ? लोग सगुण से निर्गुण की यात्रा करते हैं...निर्गुण के आगे मोक्ष है...तुम निर्गुण से सगुण की ओर मुड़े, वह भी भौतिक ऐश्वर्य के लिए...”

“मैं तो सगुण-निर्गुण का समन्वय कर रहा था।” प्रियकांत ने कहा।

“तुम तुलसीदास बनने की कोशिश मत करो प्रियकांत...तब स्थितियाँ और थीं...आज और हैं...आज समाज में पाखंड, ढोंग, अंधविश्वास पहले से ज़्यादा है...धर्मांतरण का ख़तरा पहले से ज़्यादा है...ग़रीबी, भूख, अशिक्षा...सोचना ही था तो स्वामी दयानंद के बारे में सोचते, स्वामी विवेकानंद के बारे में सोचते...उनसे करते प्रतियोगिता तो कुछ बात होती...तुम करने लगे

प्रतियोगिता इन बौने और पाखंडी धर्मगुरुओं से, तब तो यह होना ही था।” कहकर स्वामी विद्यानंद चुप हो गए।

प्रियकांत भी एकदम ख़ामोश था। माधव भी। स्वामी विद्यानंद ही फिर बोलने लगे-”बड़ा आदमी अपने समय में सोचता है प्रियकांत और अपने समय से आगे भी...तुम क्या समझते हो, स्वामी दयानंद या स्वामी विवेकानंद ने जो उन्नीसवीं शताब्दी में सोचा, आज होते तो आज भी वैसा ही सोचते ?” फिर स्वयं ही उत्तर भी दे दिया-”कदापि नहीं। समय-रथ तो आगे ही चलता है और क्रांतिकारी चिंतक उससे आगे...तुम तो केवल पीछे ही देखने लगे...उसे व्याख्यायित भी किया तो अपने स्वार्थ के लिए...स्वार्थ से ही लालच पैदा होता है और लालच किसी भी मर्यादा का अतिक्रमण कर सकता है। यही दुर्घटना तुम्हारे साथ भी हुई है और परिणाम तुम्हारे सामने...अब क्या करोगे ?”

माधव साहस करके बोला-”आज्ञा हो तो मैं कुछ कहूँ स्वामी जी!”

विद्यानंद ने माधव को केवल देखा। उनकी आँखों में माधव ने स्वीकृति का भाव पढ़ लिया। बोला-”प्रियकांत को मैं तब से जानता हूँ, जब उसने गुरुकुल में प्रवेश भी नहीं किया था...बिना परिवार के सहारे इधर-उधर भटकता एक अबोध बच्चा-हम दोनों ने अपने बालपन में बड़े सुनहरे सपने पाले थे।”

“स्वाभाविक है।” स्वामी विद्यानंद ने कहा।

“शायद उन्हीं सपनों को पूरा करने की चाह में मैंने बिज़नेस किया और प्रियकांत...”

बात बीच में ही काटते हुए स्वामी विद्यानंद ने कहा-”प्रियकांत ने भी बिज़नेस ही किया है...धर्म का बिज़नेस...मैंने इसके लिए इसे तैयार नहीं किया था। मैं चाहता था, यह समाज में कुछ परिवर्तन लाए...जो मैं जीवन में नहीं कर सका।”

“स्वामी जी, छोटे मुँह बड़ी बात कह रहा हूँ...क्या ऐसा नहीं कि आपने भी यह सोचकर वही ग़लती की, जो हर बाप या दूसरे गुरु करते हैं...मेरा बच्चा, मेरा शिष्य मेरे अधूरे काम पूरे करे...क्यों करे ? वो मेरी बनाई राह पर चले, क्यों चले ? अपनी राह ख़ुद क्यों न चुने ?”

स्वामी विद्यानंद को माधव से ऐसी तल्ख़ टिप्पणी की अपेक्षा नहीं थी। उन्हें लगा कि बात तो माधव ठीक ही कह रहा है। बोले-”शायद तुम सही हो...पुत्र-मोह और शिष्य-मोह छूटता नहीं...प्रियकांत! तुम्हें इस संबंध में कुछ नहीं कहना ?”

“माधव ठीक कह रहा है गुरुजी! आज जब मैं पलटकर गुरुकुल का जीवन देखता हूँ, तो वहाँ क्या था-यज्ञ, संध्या, भजन, खेल-कूद, चिंतन-मनन सब...आपने मुझे हर तरह का ज्ञान दिया...वेद, वेदांग, दर्शन सब पढ़ाया...पर यह सब कोरा ज्ञान था...न गुरुकुल के जीवन ने, न आपने मुझे अनुभव लोक से गुज़रने दिया...अनुभव लोक में जाने से पहले ही आपकी तर्जनी ‘न’ का आदेश दे देती थी। बिना अनुभव के ज्ञान व्यर्थ है और बिना ज्ञान के अनुभव सतही और सारहीन...अनुभव-संपन्न व्यक्ति ज्ञान की ओर आता है तो बड़ा होता है। कोरे ज्ञान को लेकर व्यक्ति जब अनुभव लोक में उतरता है तो खंडित होता है...टूटते हैं उसके आदर्श मूल्य-और वह एक अपराध-बोध से ग्रस्त हो जाता है...वही मेरे साथ भी हुआ है।” कहकर प्रियकांत ख़ामोश हो गया। दोनों ने देखा, प्रियकांत की आँखें नम हो गई थीं।

स्वामी विद्यानंद को प्रियकांत में फिर से एक आशा की किरण दिखने लगी-”मुझे पता चला है कि तुम्हारा एक चेला था शेखर...एक ‘गुलशन सत्संग सभा’-वहाँ कई लोग थे, जो तुम्हें पसंद करते थे, शायद आज भी करते हों।”

“बात इतनी उछल चुकी है कि अब जब तक जाँच एजेंसियाँ मुझे क्लीन चिट न दे दें, लोगों का विश्वास फिर से जमाना संभव नहीं लगता। हो सकता है, फिर भी न जमे।” प्रियकांत कह रहा था।

स्वामी विद्यानंद बोले-”देखो प्रियकांत! गलती सुधारने की शुरुआत ग़लती स्वीकार करने से होती है...जो किया...स्वीकार करो...दंड मिलता है, भोगो...पश्चात्ताप करो...आग में तपोगे तो कुंदन बनके निकलोगे।”

स्वामी विद्यानंद की बातें सुनकर प्रियकांत में साहस आ गया और उसने जाँच एजेंसियों के सामने सच क़बूल किया। वे लोग चौंके तो सही, लेकिन उसका प्रभाव सकारात्मक ही पड़ा।

जाँच एजेंसियों में भी प्रियकांत के दो शिष्य थे। उन्होंने प्रियकांत की स्वीकारोक्तियों के मद्देनज़र सख़्त सज़ा की अपील नहीं की।

अभियोग पक्ष ने ही यह सिद्ध कर दिया कि नेहा का संबंध नेहा की सहमति से ही हुआ। नेहा की ओर से किसी भी तरह का बचाव-पक्ष सामने न आने की स्थिति में अदालत ने उसका संज्ञान नहीं लिया। चिप थी या नहीं, थी भी तो किसी को मिली या नहीं, कुछ पता नहीं। न तो कोई चिप अदालत में प्रमाण के तौर पर पेश की गई और न ही किसी न्यूज़ चैनल पर उसे दिखाया गया था। हाँ, क़िसी स्त्रोत से यह ख़बर ज़रूर थी कि ऐसी एक चिप है ज़रूर।

जहाँ तक पैसे का प्रश्न था, आयकर विभाग ने प्रियकांत पर जुर्माना लगाकर उसे दंडित किया। इस दंड से अधिक महत्वपूर्ण था प्रियकांत के अंदर का पश्चात्ताप, जो उसे फिर से कुछ बेहतर करने के लिए तैयार कर रहा था।